अघोर साधना(aghor sadhana)
औघड़ साघना यह औघड़ साधना मुझे तिब्बत यात्रा के मध्य वहाँ की एक पुजारिन से प्राप्त हुई थी । हीनू तिब्बती साधिंका ने मुझे बतलाया था--कुशोक ! गुरु शब्द सर्वश्रेष्ठ और महत्वपूर्ण शब्द है । जो व्यक्ति हमारे जीवन के अन्धंकार को दूर कर आलोकित कर सके वही गुरु है। इस धरती पर केवल तीन गुरु हैं--माता, पिता और गुरु।
पिता विष्णु स्वरूप हैं, बो तो केवल पालन कर्ता हैं, माता ब्रह्मा स्वरूपा हैं, वह जन्म देने के साथ-साथ अनेक दायित्वों - का एक साथ निर्वाह करती है। शिव क्या नहीं करते ? चिंतन, पालन, संहार इसके साथ ही आत्मा का सृजन भी करते हैं । इसलिये. गुरु शिव स्वरूप है। गुरु पुर्णत्व प्रदान करता है । क्या गुरु के अभाव में संस्कार की कल्पना की जा सकती है ? हीनू आगे बतलाती है--जन्मना जायते शुद्र संस्कारात् द्विज उच्यते--अर्थात माता पिता तो शुद्ध (संस्कार विहीन) को ही जन्म देते हैं, परन्तु गुरु असंस्कारित बालक को लेकर उसका निर्माण करता है। वह शिशु को चैतन्य और निर्मल बना देता है। साधक को गुरु आश्रम में आने के बाद निम्न पाँच वातें अपनानी चाहिएँ--सादा रहन सहन, शाका- हारी भोजन, क्रोध और अहंकार का. त्याग, साधना और सदाचारी जीवन |
साधिका हीनू का कथन कितना सत्य है । आप स्वयं अनु- भव करें, गुरु के वाद दूसरा महत्व मंत्र का है । मंत्र कई प्रकार के होते हैं--अघोर मन्त्र, कपाली मन्त्र, तांत्रिक मन्त्र, शाबर मन्त्र, सामान्य मंत्र, आध्यात्मिक मंत्र । बिना गुरु आदेश के मंत्र जप और नियम व्यर्थ है । साधना में सिद्धि के पाँच तत्व हैं--गुरु से मंत्र प्राप्त करना, गुरु के प्रति समर्पित रहना, श्रद्धावान रहना और गुरु के आदेश का यथा संभव पालन करना । स्मरण रखें--“गुरु से दगा, मित्र से चोरी या हट अन्घा या हो कोढ़ी । साधक के लिए गुरु ही जीवन की पुर्णता है । आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि आप अपने-अपने गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखते हुए साधना मार्ग की ओर अग्रसर होंगे। आप स्वामी विवेकानन्द की इस बात को सदेव ध्यान रखें--
यह ज्ञान तो पक्षियों में भी होता है कि जिस हरे भरे पेड़ की डाल पर वे घौंसला बनाते हैं, प्रतंग खा देने पर पेड़ सूखकर टूठ जाने के बावजूंद भी वे उस पेड़ को छोड़ते नहीं ।
फिर हम तो मनुष्य हैं, जिसे एक वार गुरु कह दिया, विपरीत परिस्थितियों में भी उसे छोड़ना कैसा ? अलग होना कैसा ?
अब मैं आपके समक्ष एक विलक्षण साधना प्रस्तुत कर रहा हूं, वह है--'औघड़ साधना और सिद्धि यह साधना न केवल चमत्कारी, वरन् अत्यन्त गोपनीय भी है। इस साधना को केवल जीवट वाले साधक ही सम्पन्न कर सकते हैं। मेरा ये कथन सदैव स्मरण रखें इस साधना को केवल योग्य मार्ग निर्देशक के मार्ग निर्देशन में ही करें, अगर आप मेरा यह निर्देश नहीं मानते तब हानि और लाभ दोनों के हीं जिम्मेदार आप स्वयं होंगे ।
यह साधना शनिवार की अमावस्या को प्रारम्भ करें । किसी मुर्दे की जली हुई राख लाकर उससे शिवलिंग का निर्माण करें । साधना काल में उसे अपने सामने रखें फिर पश्चिम की ओर मुख करके शिव के तांडव रूप का स्मरण करें । आप ध्यान में देखें भगवान रूद्र का तीसरा नेत्र खुला हैं। वह चारों तरफ अग्नि वर्षा करते हुए भीषण तांडव कर रहे हैं । उनकी आँखें क्रोध में लाल हैं । हर वस्तु चेतन निर्जीव जो भी हो वह अपने तीसरे नेत्र से भस्म करते जा रहे हैं । वह डमरू के द्वारा साव- धान करते हैं और फिर त्रिशूल से संहार करते हैं । यह रूप आपके ध्यान में रहे । काला. आसन बिछा कर, रुद्राक्ष की माला से निम्न मंत्र का लगन पूवंक जाप करें । जाप केवल शमशान में ही करना है । मंत्र इस प्रकार है--ॐ भूतनाथाय औघड़ महेश्चराय रक्ष रक्ष हुं हुं फट्।|
सावधानी
इस साधना को ग्यारह रात्रि करना हे । इस साधंना से छोटी मोटी पैशाचिक सिद्धियाँ स्वत: ही प्राप्त हो जाती हैं ।
उपरोक्त साधना में संयम, हौंसला और गुरु का ही महत्व है । इनमें से एक भी काम होने पर साधना को स्थगित करदें ।।
शमशान जागृत साधना और मंत्र
कपूर, कचरी,इत्र, बाल छर ,छबीला, जाती पुरथ तथा ' लोबान और धूप इन सबको और शराव लेकर अर्ध रात्रि में अकेले शमशान में पहुंचे । वहाँ मुर्दे के समीप पहुँच कर उस पर सबसे पहले शराब की धार डाली जाय फिर धूप देकर, मुर्दे पर फूलों को उसके शरीर पर चढ़ाये इसके बाद उस पर सुगंन्धित द्रव्यों को चढ़ाए। इतनी क्रिया करने के बाद शव से दर हटकर इस मंत्र को ११ बार पाठ करे तथा प्रत्येक पाठ की समाप्ति के वांद शराव की धार चढ़ादा जाय इस विधि से मसान जाग्रत हो जाता है तथा प्रकट होकर मनोकामना पुरी करता है । मसान को देखकर साधक को भयभीत नहीं होना चाहिए उसकी पूजाकर मिठाई चढ़ाकर उसे प्रसन्न करना अधिक आवश्यक है । मंत्र
ॐ नमो आठ काठ की लाकड़ी मन जबानी वान । मुवा मुरदा बोले, नहीं तो माया महावीर की आन शब्द सांचा पिण्ड कांचा फुरो मन्त्र ईश्वरोवाचा ।
बीर बिरहना की साधना
बीर बिरहना साधना द्वारा सिद्ध कर लेने के बाद बह साधक की समस्त इच्छाओं की समीप रहकर उसकी रक्षा करते हुए हर प्रकार की सुख को देते रहते हे।
इस मन्त्र को ग्रहण की रात्रि में १०८ वार मन्त्र का जप किया जाये चमेली के फूल चढ़ाए- जाये तथा नैवेद्य रूप में सवासेर आटे का शुद्ध घी से बना हलुआं चढ़ाया जाय । इस प्रकार चालीस दिन के जप के बाद यह नैवेद्य अर्पित किया जाता है ।
४१ वें दिन में पूजा और सवासेर हलुए का भोग लेकर वीर साधक के सामने प्रकट हो जाता है। उस समय साधक को हाथ जोड़कर प्रणाम करे अपनी इच्छा प्रकट करे तो वीर प्रसन्न होकर मनोकामना पुरी करता है। इसकी साधना में निडर वना रहना चाहिए । श्रद्धा और विश्वास तो हर साधना का आवश्यक अंग है ही ।
“वीर विरहना फूल विरहनाःधुं धू करे सवा सेर का तोसा खाय अस्सी कोस का धावा करे सात के कुतक आगे चले सात से कुतक आगे चले सात सै कुतक पीछे चले जिसमें गढ़ गजना का पीर चले और ध्वजा टेकता चले सोते को जगावता चले बैठे को उड़ावता चले, हाथों में हथकड़ी गेरे पंरों में बेडी गेरे, मांही पाठ करे मुरदार मांही पीठ करे कलाबोन नवी कुं याद ॐ ॐ ॐ नमः ठू: ठ: ठ: स्वाहा”
डाकिनी साधना
दिया गई साधना विधि बड़ी सरल है इसके द्वारा डाकिनी सिद्ध होकर उससे जो कार्य करने कहा जाते है पूरा करते हे।
किसी भी ग्रहण की रात्रि में शुद्ध पवित्र भूमि को गोबर : लेप कर तथा चौका लगाकर घी का दीपक जलाकर एक पेड़ पर खड़े होकर शुद्ध मन से १०८ बार इस मन्त्र का उच्चा' की करने पर डाकिती दर्शन देती है। उसे देखकर भयभीत नेही होना चाहिए उसका पूजन कर उसे नैवेद्य अर्पित करे तथा आरती फिर उसके समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करे।मंत्र इस प्रकार
नमो चढ़ो चढ़ो सुखार धरती चढ़ाया कुन कुन बीर हनुमन्त बीर चढ़ेय्या धरती चढ़ पग पात चढ़ो गोंडा चढ़ी जाँघ चढ़ी कटी चढ़ी कटी कटि पेट चढ़ी पेट सुं धरणी चढ़ी ,धरनी सु पासली चढ़ी पांसली चढ़ी पांसली सु हिया चढ़ी हिया सौ छाती चढ़ी खबा चढ़ी खब सौ कंठ सौ मुख चढ़ी मुख सो जिह्वा चढ़ी जिह्वा सो कान चढ़ी कान सो आंख चढ़ी आंख सो ललाट चढ़ी।
जिन्न साधना और विधि
कोई भी साधना इतनी सरल नहीं होती जितनी कि पढ़ने पर दिखलाई देती है । हर साधक जानता है कि साधना और सिद्धि की कुछ गोपनीय कुंजिया और मर्म होते हैं जिनका समुचित प्रयोग करने पर ही लक्ष्य की प्राप्ति होती: है । ताँत्रिक जीवन-प्रारम्भ करने के शुरू से ही मेरी रुचि परी सिद्धि करने की थी । मैं जानता था कि परी ' सिद्धि के बाद भोग की कमी नही रहेगी, पर भोग ही मेरी मंजिल नहीं थी । २०,अक्टूबर १९८६ से मैंने जिन्न परी, साधना प्रारम्भ की और ८ नवम्बर १९८ ६ शुक्रवार को जिनन परी मेरे सामनें थी । जिनन परी मेरे समक्ष ऐसे प्रकट हुई जैसे किसी शीतल, सुगंघित झोंके को एक अति सुन्दर नारी का आकार दे दिया हो.। उसके पास से आती हिना के इत्र की महक मुझे मदहोश .किए दे रही थी. । उसका गोरा वदन मुझे बेचैन किए दे रहा था । उसने अपनी चीते सी कमर पर हाथ रखते हुए पूछा “कहो कया चाहिए ? मैं चकित सा उसे देख रहा था । वह खिल-खिलाकर हंस पड़ी उसकी धवल दंत पंक्ति हीरे की कनियों की तरह चमक उठी । उसकी उठती गिरती गर्म साँषें मुझे विचलित किए डाल रही थी । मैंने संयम की डोर खेंची और स्थिर हो गया । प्रिय पाठकों यह मेरा अनुभ्नूत प्रयोग है। 'जिनन परी साधना में शुद्धता संयम और नियम का विद्वेष ध्यान रखना होता है । नीचे जिन्त परी साधना सरल रूप में लिख रहा हूं ।
जिन्न परी साधना--
यह साधना किसी भी. शुक्रवार से प्रारम्भ की जा सकती है यह साधना केवल मध्य रात्रि में करनी होती है । इस साधना में शरीर और आत्मा का शुद्ध होना आवश्यक है । साधक निडर हो तो और अच्छा है ।
किसी भी शुक्रवार रात ११ वजे के आसपास ताजे पानी में दस गुलाब के ताजे फूल डाल दें । लगभग दस मिनट के बाद उस पानी से स्नान करे
केवल उच्चकोटि का सुगन्धित तेल और साबुन प्रयोग करें ।
रात के ठीक बारह बजे यह साधना प्रारम्भ करें । प्रारम्भ से ही मालाएँं जपनी हैं । माला मंत्र निम्न प्रकार है--
रब्बे इन्ती मंगलवुने फन्तसीर । यह साधना ७ दिन का हे हर दिन १० माला जप करना हे हकीक के माला से।
यह मेरी गुरु की साधना का खुदका अनुभव परिक्षित साधना है। ,इससे शत प्रतिशत सफलता प्राप्त कर सकते है।
लील परी साधना
सौंन्दय॑ और स्त्री-पुरुषों के लिए यह दोनों कोमल वातें हैं।
किसी भी पुरुष को अंशमात्र सम्मोहित करने के लिए यह दोनों
वस्तुएँ मनुष् के सामान्य जीवन में अभिमान का स्थान रखती हैं,लेकिन यही दोनों साधना. और सिद्धि के समय पतन का कारण बन जाती हैं। उदाहरण के लिए आपने जटिल साधना के परचात् दुर्लभ सिद्धि प्राप्त कर ली, कोई भी कर्ण पिशा- चिनी, यक्षिणी या परी आपके समक्ष उपस्थित हुई उसने अपनी चीते सी कमर पर हाथ रखकर मद भरी सुस्क राहट से पुछा--कहो साधक क्या चाहिए ? आपने तत्काल कहा--आप पत्नी के समान मेरे पास निवास कीजिए । इसके पश्चात् आप का पतन निश्चित है यह सोच लें । किसी ने सच ही कहा है भोग में जो डूबा फिर ना उभरा जिन्दगानी में । जिन्न परी या लाल परी सांधना के मध्य आप “काम को अपने पास न फटकने दें अन्यथा परी का लुभावना रूप मीठी बोली अपने सैलाब में आपकी साधना, सिद्धि सब बहा के ले जाएगी और आपकी वही स्थिति होगी जो कारवां गुजर जाने ; के पश्चात गुबार की होती है। नीचे मैं लीलपरी की साधना का विवरण दे रहा हूँ । यह साधना भी मैंने की थी, लेकिन सिद्धि के समीप आते आते किन्ही अपरिहाय कारणों से त्यागनी पड़ी ।
चतुर्थी मंगलवार को यह साधना शुरू करें । सोमवार को अपनी प्रारम्भिक तैयारी अवश्य ही पूर्ण कर लें । अन्यथा कोई कमी रहने पर व्यवधान आ सकता है। इसमें चारखाने का तहमद (लुंगी) छेदों वाली (जालीदार) मुसलमानी टोपी, छेदों वाली (जालीदार) सफेद बनियान (गंजी) पहिनें । सवा मीटर कपड़ा जिसे आसन के स्थान पर प्रयोग करना है ले लें इस सफेद कपड़े पर नमाज पढ़ने की मुंद्रा में दोनों घटने पीछे की ओर (दोनों हाथ जंघाओं पर) बैठें । सामने तेज सुगन्ध नाला गुलाब का इत्र, (गुलाव जल नहीं) एक मीठा पान, कुछ सफेद फूल पानी का सुराहीदार लोटा, सुगन्धित धूप और लोवान सामने रखें । शुद्ध 'हकीक की माला (केवल ६०) दानों वाली हो ( १०८ मेनकों की माला का प्रयोग पुर्णत: वर्जित है) भी पास रखें । अब सांधक को चाहिए कि वह किसी सुगन्धित
ताजे लाये गये पानी से किसी अच्छे सुगन्धित साबुन का प्रयोग करते हुए स्नान ,करें ।स्नान के पश्चात यह क्रिया आरम्भ करें । समय मध्य रात्रि के आसपास हो । वातावरण दमघोटू न हो। प्रति-दिन जितनी साला. संभव हो जपें । एकाग्रता और संयम का पूरा-पुरा ध्यान रखें । लील परी. के प्रत्यक्ष होने पर पास रखा मीठा पान उसे खिलावें । ऐसा करने से. लीलपरी साधक की दासी बन जायेगी । उसकी सारी आज्ञा सानिगी । मंत्र इस प्रकार है
बीसमिल्ला हर्रहमान निर रहीम लाय जल्ललितल हाले मकता इललाहू ।
लील परी अभिभूत होने पर आपकी हर आज्ञा मानिगी । वह आपको महत्वपूर्ण गुप्त सुचनाएं, द्रव्य के साथ पत्नी मित्र सहयोगी, परिचारिका और बहन के समान - रहेगी । लीलपरी किस रूप में आपके पास रहेगी । इसका चयन तो आपको ही करना होगा ।
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