उर्बासी गुरूजी का अनुभव(urvashi sadhana gudev anubhab)
इसके साथ ही साथ यह स्थान साधना की दृष्टि से भी अद्वितीय और मनोहर है। प्राचीनकाल से ही उच्चकोटि के योगी और साधंक यहां तपस्या करने आते रहे हैं, यहां का कण-कण उन उच्च कोटि के योगियों और तपस्वियों से मुखरित है, जिन्होंने यहां बैठकर तपस्या की है। यहां के चप्पे-चप्पे पर देवताओं और सिद्धों के पदचाप हैं, यहां के कण-कण पर लामाओं और साधकों की साधनाओं के मंत्र सुभासित हैं । वास्तव में ही वे मनुष्य धन्य है, जो अपने पांवों से मानसरोवर तक जाते हैं, इसके मधुर शीतल जल में स्नान करते हैं और यहां की प्रकृति से अपने आपको एकाकार कर पाने में समर्थ होते हैं।
मानसरोवर से उत्तर में पुराणों में वर्णित कैलाश पर्वत है, जो सफेद निर्मल बर्फ का मुकुट पहने हुए गौरवमय दिखाई देता है । दूर से, मानसरोवर के तट से कैलाश पर्वत को देखने पर वह पर्वत दिखाई नहीं देता अपितु ऐसा प्रतीत होता है मानों सा क्षात शंकर ही ध्यानस्थ बैठे हों , उनके सिर की श्वेत लम्बी जटाएं,, चारों ओर से गंगा एक-एक बूंद ढुलक कर नीचे आती हुई अद्भुत और
आश्चर्यजनक . . . अद्वितीय और मनोहारी है यह कैलाश पर्वत और इसके आसपास की भूमि । यहां सैकड़ों गुफाएं और कन्दराएं हैं, जहां तिब्बत के उच्च कोटि के लामा साधना करते रहते हैं, ऐसे शीतल वातावरण में भी महायोगी विचरण करते हुए, साधना करते हुए और ध्यानस्थ बैठे दिखाई दे जाते हैं ।
भगवान शिव के शब्दों में जो मानसरोवर व कैलाशपर्वत के आस-पास साधना करता है उसे जीवन में और उस साधना में अवश्य सफलता प्राप्त होती है, क्योंकि उसे अनायास और अप्रत्यक्ष रूप से भगवान शिव का वरदान प्राप्त होता रहता है।
सिद्ध आश्रम की जानकारी
सिद्धाश्रम के योगियों के लिए तो यह भूमि अत्यन्त प्रिय स्थली रही है, जहां बारी-बारी से उच्च कोटि के योगी आते हैं, और महत्वपूर्ण साधनाएं सम्पन्न कर सिद्धाश्रम लौट जाते हैं। यहां पर कभी भी किसी भी समय सिद्धाश्रम के उच्च कोटि के योगी विचरण करते हुए या साधना करते हुए देखे जा सकते हैं।
पृथ्वी पर दो ही स्वर्ग हैं, पहला सिद्धा श्रम और दूसरा मानसरोवर के निकट “कानन-शिला ' । यह शिला श्वेत स्फटिक पत्थर की है, जो लगभग आधी मील लम्बी और इतनी ही चौड़ी है। यह कुदरत का करिश्मा ही है, कि बाकी सारे पहाड़ और पत्थर भूरे रंग के हैं, वहां यह एक मात्र इतनी लम्बी चौड़ी शिला दुग्ध धवल स्फटिक की है। ऐसा लगता है जैसे इन्द्र ने स्वयं नन्दन कानन से इस शिला को लाकर यहां हौले से रख दिया हो।
संसार की यह एकमात्र बिना जोड़ की शिला है, जो इतनी लम्बी चौड़ी भी है, साथ ही इसके ऊपर का धरातल चिकनी, पारदर्शी और स्वच्छ है। योगियों ने इस शिला को ' कानन-शिला ' कहा है। इस शिला की यह विशेषता है कि यह मरकत स्फटिक शिला है और इस पर बैठने से व्यक्ति को भूख, प्यास, निद्रा, सर्दी , गर्मी आदि का कोई प्रभाव व्याप्त नहीं होता, साधक आनन्द पूर्वक बिना किसी प्राकृतिक बाधा के अपनी साधना सम्पन्न कर सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
पृथ्वी पर दो ही स्वर्ग हैं, पहला सिद्धा श्रम और दूसरा मानसरोवर के निकट “कानन-शिला ' । यह शिला श्वेत स्फटिक पत्थर की है, जो लगभग आधी मील लम्बी और इतनी ही चौड़ी है। यह कुदरत का करिश्मा ही है, कि बाकी सारे पहाड़ और पत्थर भूरे रंग के हैं, वहां यह एक मात्र इतनी लम्बी चौड़ी शिला दुग्ध धवल स्फटिक की है। ऐसा लगता है जैसे इन्द्र ने स्वयं नन्दन कानन से इस शिला को लाकर यहां हौले से रख दिया हो।
संसार की यह एकमात्र बिना जोड़ की शिला है, जो इतनी लम्बी चौड़ी भी है, साथ ही इसके ऊपर का धरातल चिकनी, पारदर्शी और स्वच्छ है। योगियों ने इस शिला को ' कानन-शिला ' कहा है। इस शिला की यह विशेषता है कि यह मरकत स्फटिक शिला है और इस पर बैठने से व्यक्ति को भूख, प्यास, निद्रा, सर्दी , गर्मी आदि का कोई प्रभाव व्याप्त नहीं होता, साधक आनन्द पूर्वक बिना किसी प्राकृतिक बाधा के अपनी साधना सम्पन्न कर सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
गुरुजीका साधना
पिछले वर्ष गुरु पूर्णिमा के अवसर पर योगिराज भूगु महाराज ने अलग-अलग योगियों को अलग-अलग कार्य सौंपे, उनमें से महायोगी विज्ञानानंद को ब्रह्मांड साधना सम्पन्न करने की आज्ञा दी, जिससे कि इस साधना के रहस्य का पता लगाया जा सके, और अन्य साधक उसके प्रकाश में यह साधना सफलतापूर्वक सम्पन्न कर सकें ।
ब्रह्मांड साधना अत्यन्त उच्चकोटि की महत्वपूर्ण साधना है, जिसे भारतवर्ष के बहुत ही कम योगियों ने सिद्ध किया है। इस साधना को सम्पन्न करने पर साधक इंद्र के समान महत्वपूर्ण बन जाता है और उसे ब्रह्मांड की समस्त सुख-सुविधाएं प्राप्त हो जाती हैं ।
उस समारोह में सिद्धाश्रम के समस्त साधक और योगी उपस्थित थे । इतनी महत्वपूर्ण साधना के लिए स्वामी विज्ञानानन्द का चयन स्वाभाविक था। वे वास्तव में ही अत्यन्त उच्चकोटि के योगी हैं और उन्होंने आज के युग में साधना के द्वारा जो कुछ प्राप्त किया है, जिस स्तर पर पुहंचे हैं, वह सम्माननीय और श्रद्धास्पद है।
उच्च कोटि के योगी होते हुएं भी वे स्वामी निखिलेश्वरानंद जी के प्रति असीम श्रद्धा रखते हैं । स्वामी निखिलेश्वरानंद जी ने कहा, तुम्हें जीवन का 'एक सौभाग्य प्राप्त हुआ है, तुम्हें अवश्य ही मानसरोवर के तट पर ' कानन-शिला' पर बैठकर इस साधना को सम्पन्न करना चाहिए, जिससे सफलता में किसी प्रकार की कोई न्यूनता न रहे। उन्होंने हौसला बढ़ाते हुए कहा, मैंने स्वयं उसी शिला पर यह साधना सम्पन्न कौ थी फिर उन्होंने साधना के मार्ग में आने वाली बाधाओं को समझाया, और कहा - “' आपके साथ मैं स्वामी गिरिराज को भेज रहा हूं, यह आपकी सेवा करेंगे, आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें, पूरे प्रयत्न के साथ साधना में बैठें, गुरुदेव की कृपा से आप अवश्य ही सफलता प्राप्त करेंगे।''
मेरे लिए तो यह आकस्मिक वरदान था, मैं तो निखिलेश्वरानंद जी के चरणों में बैठकर अपने जीवन को धन्य और सार्थक कर रहा था। मुझे ज्ञात नहीं था कि ऐसी महत्वपूर्ण साधना में मुझे भी सहयोगी बनने का अवसर मिलेगा । जब निखिलेश्वरानंद जी ने मेरी तरफ संकेत कर कहा कि स्वामी गिरिराज को आपके साथ भेज रहा ्ू तो मेरा रोम-रोम पुलकित हो गया। विज्ञानानंद ने एक क्षण के लिए मेरी तरफ देखा और अपने साथ चलने की अनुमति प्रदान कर दी।
कानन शिला मैंने अपने जीवन में पहली बार देखी थी, इसे देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया, यह प्रकृति का बेजोड़ और अद्वितीय वरदान है। जब मैंने पहली बार इस शिला को हौले से स्पर्श किया, तो मेरे सारे शरीर में एक विद्युत प्रवाह सा दौड़ा था। वास्तव में यह शिला मंत्र सिद्ध है, उच्च कोटि के योगियों और साधकों के द्वारा इस पर साधना करते रहने की वजह से यह दिव्य और अनुपम बन गई है। यह शिला अपने आप में ही सिद्ध पीठ बन गई है और इस पर बैठते ही व्यक्ति को जो सुख और आनन्द अनुभव होता है, उसकी समता इस विश्व में कहीं पर नहीं है।
वास्तव में ही विज्ञानानंद उच्चकोटि के महायोगी हैं । उस कानन शिला पर बैठकर जिस प्रकार से वह अकम्पित साधनारत हुए, वह वास्तव में ही सराहनीय था। यह साधना तीस दिन की थी और मैंने देखा कि पच्चीस दिन बीतने पर भी वे ज्यों के त्यों ध्यानस्थ रहे, न तो उन्होंने एक बार आंखें खोलीं और न इस पूरी. अवधि में एक बार उनके शरीर में कोई कम्पन ही हुआ वे निश्चल भाव से जिस आसन पर बैठे थे, उस पर बराबर बैठे रहे, होठों से ही स्फुट-अस्फुट ध्वनि निःसृत हो जाती थी, इसके अलावा किसी प्रकार का कोई कम्पन उनके पूरे शरीर पर व्याप्त नहीं था। इस प्रकार से ध्यानस्थ होना उच्चकोटि के योगियों के लिए ही सम्भव है।
मैं नित्य प्रात:काल उषाकाल में मानसरोवर के तट पर जाकर स्नान करता और वापस आकर कानन शिला पर बैठ अपनी दैनिक साधना, पूजा-पाठ सम्पन्न करता। इसके अतिरिक्त मेरा और कोई कार्य नहीं था, पूज्य गुरुदेव निखिलेश्वरानंद जी की आज्ञा थी कि साधनाकाल में उनके पास बने रहना है, इसलिए बाकी सारा समय मैं उनके पास बैठा रहता और चकोर की तरह उनके तेजस्वी चेहरे को एकटक ताकता रहता। मुझे वह वातावरण, वह स्थल, वह साधना सब कुछ पवित्र, दिव्य: मनोहारी और अवर्णनीय प्रतीत होता, वास्तव में ही मैं इस अवधि में अपने आपको रोमांचित और धन्य अनुभव कर रहा था।
'लगभग छब्बीस दिन बीत गए थे, अब तो मात्र चार दिन ही बाकी थे, आकाश में बादल छाये हुए थे, कुछ ही समय पहले वर्षा होने की वजह से पूरी प्रकृति धुल गई थी। मैं स्नान करके कानन शिला पर आकर बैठा ही था, कि तभी *छन्न' की आवाज आई और मेरी एकाग्रता टूट गई, सामने देखा तो देखता ही रहा गया, स्वामी विज्ञानानंद के ठीक सामने लगभग पांच सात फीट की दूरी पर एक अनिन्द्य अद्वितीय सुन्दरी खड़ी थी। उस निर्जन बन में यह सुंदरी कहां से और किस तरफ से आयी? किस प्रकार से इस शिला पर अचानक दिखाई दी, मैं कुछ भी अनुमान नहीं लगा सका। यदि निश्छल भाव से कहूं तो मैं उस सुन्दरी के रूप और सौंदर्य के सामने स्तम्भित सा हो गया था। एक बार तो मेरे पूरे शरीर का खून उफन कर शरीर में जोरों से चक्कर लगाने लगा, मैं अपने आप पर नियंत्रण नहीं कर पा रहा था, मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह कौन है, कोई अप्सरा या रति है, या कोई पिशाच या राक्षस योनि ऐसा छल युक्त रूप धारण कर उपस्थित हुई है। : उस क्षण मैं कुछ भी सोचने विचारने लायक नहीं रह गया था, और मेरी आंखें अअलक एकटक उसके चेहरे पर गड़ी हुई थीं, जो कि
मुझ से मात्र सात-आठ फीट की दूरी पर खड़ी थी।
उसकी सुंदर देह यष्टि के सामने पुराणों में वर्णित सारा सौंदर्य वर्णन व्यर्थ सा प्रतीत हो रहा था। पहली बार मेरा मन अनियन्त्रित हुआ, पहली बार मैं अपने आप पर काबू न पा सका, पहली बार मेरे ऊपर कामुकता की हल्की सी परत अनुभव हुई, पहली बार उसे प्राप्त करने, उसके पास बैठने और उससे बातचीत करने की इच्छा जागृत हुई ।
मैंने अपने आपके ऊपर काबू किया और प्रयत्न कर अपने आपको संयत करने की कोशिश की और उसकी तरफ देखा, मुझे चैतन्यावस्था में अनुभव कर और सामान्य संयत देखकर वह रूपसी हौले से मुस्करा दी, उस एक मुस्कराहट के सामने चारों ओर बिखरी हुई प्रकृति श्रीहीन और फीकी सी लग रही थी, उस एक मुस्कराहट पर हिमालय तो कया सारे संसार का वैभव न्यौछावर था।
चैतन्य होकर मैंने गहरी और सार्थक निगाहों से उसे देखा, लगभग बीस-इक्कीस वर्ष की सुंदर, स्वस्थ, यौवन की आभा से दीप्त तरुणी मेरे सामने खड़ी थी। अण्डाकार सुंदर चेहरा, यौवन, प्रेम और सौन्दर्य से गुलाबी हो रहा था, उस पर गहरी झील सी नीली आंखें अद्वितीय दिखाई दे रही थीं , होंठ ऐसे प्रतीत हो रहे थे, माना दो गुलाबी पंखुड़ियों को एक दूसरी पर रख दिया हो और चिबुक के छोटे से गड्ढे में समस्त संसार का यौवन कूद पड़ने के लिए आतुर था, हंसिनी ग्रीवा और उन्नत, उभरे हुए वक्ष ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो दो ऋषि खड़े होकर सूर्य को अर्ध्य दे रहे हों । वक्षस्थल पर कस करें कंचुकी बंधी हुई थी, और नाभि के नीचे नील वर्णीय परिधान पहना हुआ अत्याधिक आकर्षक और स्वप्निल अनुभव हो रहा था, हस्ती सुण्ड की तरह जंघाएं और पायलों में छोटे-छोटे घुंघरु बंधे होने की वजह से पैर अत्यधिक आकर्षक और सुंदर लग रहे थे, सिर के बाल लम्बे और पीछे जंघाओं को छू रहे थे, यौवन भार से झुका हुआ उसका शरीर ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो कामदेव अपनी प्रत्यंचा को टेढ़ी कर पूरे विश्व पर विजय प्राप्त करने के लिए आतुर हो । अनिन्द्य सुंदरी के उस रूप, यौवन और मधुरता की त्रिवेणी में स्नान कर मैं अपने आपके ऊपर नियंत्रित नहीं कर पा रहा था, शायद विधाता ने बहुत हीं फुरसत के क्षणों में उसके एक-एक अंग को गढ़ा होगा। अत्यधिक गौर वर्ण और उस पर लज्जा का गुलाबी आवरण चढ़ा हुआ ऐसा लग रहा था, मानो प्रातः्कालीन उषा ने चारों ओर गुलाल बिखेर दी हो, उसकी एक-एक मुस्कराहट पर सौ-सौ स्वर्ग और कानन वन न्यौछावर थे । निश्चय ही वह अनिन्द्य और अद्वितीय सुन्दरी थी, जिसकी समानता इस पृथ्वी पर न तो सम्भव थी, और न है।
मैं अभी तक अपलक उस सौन्दर्यशालिनी को देख रहा था, समझ नहीं पा रहा था कि मैं इस नवागन्तुका अतिथि की कैसे अभ्यर्थना करूं, क्या कहूं, कैसे कहूं ? तभी गुलाबी पंखुड़ियों में हल्का सा कम्पन हुआ, उसने अपना परिचय देते हुए कहा - “मैं इन्द्र साम्राज्य की नृत्यांगना उर्वशी हूं, मेरे मन में स्वामी विज्ञानानंद छा गए हैं और मैं इनकी साधना पर मुग्ध हूं, मैंने इन्द्र साम्राज्य छोड़ दिया है, क्योंकि मेरे चित्त पर तो विज्ञानानंद की तपस्या और श्रेष्ठता हावी हो गई है, मैं इन्हें वरण करने के लिए कटिबद्ध हूं। ''
योगी और सुंदरी . . . सुंदरी और योगी . . . एक आश्चर्य है, इन दोनों का समन्वय कैसे सम्भव है ? और फिर विज्ञानानंद तो उच्चकोटि के साधक हैं , वह इस रूपसी उर्वशी का वरण करें , यह सर्वथा असम्भव प्रतीत हो रहा है, पर इसमें इसका भी क्या दोष ? यह तो बेचारी अपने दिल के हाथों मजबूर है, इसके चित्त पर तो 'विज्ञानानंद का आकषण हावी हो गया है, तभी तो उसने इन्द्र का साम्राज्य छोड़ा है, तभी तो यह समस्त सुख-सुविधाओं, भोग और ऐश्वर्य को छोड़कर इस निर्जन जंगल में अपने प्रणय के सामने आई है, तभी तो यह स्वर्ग को छोड़कर मनुष्य लोक में हमेशा-हमेशा के लिए जुड़ जाने के लिए उपस्थित हुई है, पर विज्ञानानंद जी से कौन कहे, मेरे लिए तो यह सर्वथा असम्भव है, मैं तो ऐसी बात होठों पर ला ही नहीं सकता।
मैं अब तक उस तरफ अपलक देख रहा था, उसके मुंह से निकले हुए शब्द मेरे अंतर को मथ रहे थे, मेरे सारे शरीर को और अंतरमन को उसके शब्दों ने आलोड़ित-विलोड़ित कर दिया था, सचमुच ऐसा प्रतीत हुआ मानो उसके मुंह से अमृत की फुहार बरस गई हो और उससे मेरा सारा शरीर तन, मन, प्राण और अंतर भीग कर अनिवर्चनीय आनन्द से ओतप्रोत हो गया हो।
मैंने कहा, - ' आप उर्वशी हैं, अनिन्द्य और अद्वितीय सुंदरी, चिरयौवनमय, अविवाहिता अप्सरा, आपको प्रणय निवेदन करने का अधिकार है, पर मैं आपके संदेश को स्वामी तक नहीं पहुंचा सकता, वे ध्यानस्थ हैं, चार दिन बाद जब वे चैतन्य होंगे तब आप अपनी बात उनके सामने रख सकती हैं।'
उसने गहरी और सार्थक निगाहों से मुझे देखा और दूसरे क्षण उसके पैरों में कम्पन आरम्भ हुआ, उन घुंघरुओं की झंकार से सारा वन प्रांत मुखरित और सुवासित हो उठा, छूम् छनन् छन छनन्' की ध्वनि से सारा हिमालय हजार-हजार मुंह से बोलने लगा। धीरे-धीरे मैंने देखा कि उसके पैरों में गति आ रही है, वह नृत्य की भाव-भंगिमा
के द्वारा शायद स्वामी विज्ञानानंद की समाधि तोड़ने का निश्चय कर चुकी है। मुझे सारे पुराण एकबारगी याद हो आए उर्वशी ने तो विश्वामित्र और पराशर जैसे ऋषियों की समाधि तोड़ दी थी और आज यदि नृत्य के माध्यम से स्वामी विज्ञानानंद की एकाग्रता और ध्यान को तोड़ दे तो इसमें आश्चर्य क्या ? उर्वशी को अपनी बात कहने का, प्रणय निवेदन करने का अधिकार है, और यदि संभव हुआ तो मैं इसे इसके अधिकार को दिलाने में अवश्य ही सहायक बनूंगा।
मैं पुनः चैतन्य हुआ और देखा कि उस स्फटिक शिला पर सुन्दरी उर्वशी के सुकोमल पैर गतिशील है, घुंघरुओं की लयबद्ध ध्वनि पूरे वातावरण में मुखरित हो रही है, धीरे-धीरे पैरों की गति, उसकी चपलता और चंचलता बढ़ रही है, अवश्य ही प्रकृति स्वयं उर्वशी के साथ है, तभी तो इस नृत्य के साथ-साथ पृष्ठभूमि में वाद्य ध्वनि झंकृत हो रही है, तभी तो सारी प्रकृति सांस रोक कर इस अद्भुत और अद्वितीय नृत्य को देख रही है, तभी तो यह सारी फिजां, यह सारा वातावरण अचानक सुगन्धित और सुवासित हो उठा है।
पैरों की गति बढ़ गई थी, पता नहीं पड़ रहा था कि कब पैर उठ रहे हैं, और कब पैर शिला को छू रहे हैं, एक विशेष लय के साथ उसके दोनों पैर गतिशील थे, और घुंघरुओं की छनछनाहट के साथ लयबद्ध नृत्य मुखरित हो रहा था। एक विशेष मुद्रा, एक विशेष लोच, एक विशेष भंगिमा के साथ सारा शरीर नृत्य में गतिशील होना, मी मुद्रा प्रदर्शन कैरना और चपलता के साथ नृत्य युक्त होना आश्चर्यजनक था, अद्वितीय था, अवर्णनीय था। के
कब दिन ढला कब सांझ हुई पता ही नहीं चला, उसके सुंदर गोरे ललाट पर पसीने की बुंदें चू रही थीं, स्वेद से कंचुकी भीग कर शरीर से चिपक गई थी, नाजुक और गोरे पैर अभी तक लयबद्ध नृत्य हेतु गतिशील थे, परंतु न उर्वशी रुक रही थी, और न स्वामी विज्ञानानंद चैतन्य हो रहे थे, इतने समय तक नृत्य करने से पत्थर भी अपनी आंखें खोल देता, इन्द्र भी विचलित हो जाता पर विज्ञानानंद अभी भी ध्यानस्थ थे, अभी तक भी निश्चल, अकम्पित आसन पर स्थिर थे।
धीरे-धीरे रात्रि हुई, चन्द्रमा ने कुछ समय पहले ही आकाश में आकर उस दृश्य को देखने का सफल-असफल प्रयास किया, परंतु अब उर्वशी पूर्ण रूप से थक कर चूर होकर उसी शिला पर पर विज्ञानानंद के सामने बैठी हुई भी , उसका चेहरा उदास था, जैसे कि किसी सद्यस्नात गुलाब पर ओस की परत जम गई हो, मन ही मन वह झुंझला रही थी, शायद उसे स्वप्न में भी गुमान नहीं था, कि उसका सौन्दर्य इस
प्रकार से पराजित प्रताड़ित हो जाएगा, फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी थी, जिसने भी उसको इस कार्य के लिए भेजा था, उसके प्रति वह विश्वसनीय थी, वह उसी प्रकार सौन्दर्य की साक्षात् स्वर्ण राशि बनी वहीं बैठी रही, और अपलक नेत्रों से स्वामी विज्ञानानंद को निहारती रही।
लगभग चार बजे प्रात: वह न जाने कहां अदृश्य हो गई, मैं भी उठकर मानसरोवर के तट पर पहुंचा और मल मल कर स्नान किया। मेरा सारा शरीर ताप से फुंक रहा था, स्नान करने पर मुझे शीतलता अनुभव हुई । कितने समय तक पानी में घुसा रहा, कुछ पता नहीं चला। सूर्य की पहली किरण के साथ मैं कानन शिला पर पहुंचा, तो विज्ञानानंद निश्चल भाव से ध्यानस्थ बैठे हुए. थे।
लगभग आठ साढ़े आठ बजे वह फिर आई परंतु आज उसकी शोभा सौ-सौ गुनी ज्यादा थी। नाभिदर्शना सुन्दरी उर्वशी ने अपना श्रृंगार आज जी भर कर किया था, कंचुकी आज और ज्यादा कस गई थी, सिर पर से लेकर धानी वस्त्र घुटनों तक पहना हुआ था, सब कुछ नयां-नया खिला महक रहा था । उसके शरीर से विशेष भीनी महक मैं अनुभव कर रहा था, उसने सर्वप्रथम स्वामी 'विज्ञानानंद को प्रणाम किया और कुछ क्षणों तक सामने बैठी रही।
मैं उससे बहुत कुछ पूछना चाहता था, पर मेरे मुंह से बोल निकल नहीं पा रहे थे, यह तो पता चल गया था, कि वह देव अप्सरा उर्वशी थी, पर यहां क्यों आई है, क्यों इतना परिश्रम कर रही है, किसने उसे, किस विशेष उद्देश्य के लिए भेजा है? ये सारे प्रश्न उस समय अधूरे रह गये जब उसने खड़े होकर एड़ी के टोहके से नृत्य का पहला कम्पन प्रारम्भ किया।
आज भी वह उसी प्रकार उसी लय के साथ मूक मुद्रा युक्त नृत्य कर रही थी, परंतु सूर्य ढलने पर मैंने देखा कि विज्ञानानंद आज भी अवचिल अकम्मपित ध्यानस्थ थे। एक क्षण के लिए मुझे विचार आया कि कहीं विज्ञानानंद का शरीर शांत तो नहीं हो गया, परंतु उनके होठों से निकलते हुए स्फुट-अस्फुट शब्द उनकी जीवन्तता का परिचय दे रहे थे। ्
दूसरी रात मैं कुछ क्षणों के लिए लेटा तो अवश्य परंतु रात भर मुझे नींद नहीं आई। मैं लेटा हुआ था, और उर्वशी विज्ञानानंद के सामने अत्यन्त विलासमय रूप में बैठी हुई थी । प्रात:काल उठकर मैंने स्नान किया, परंतु जितना ही ज्यादा अपने शरीर पर पानी डालता था, उतनी ही दाहकता बढ़ती जाती। थका हुआ, शिथिल गति से चल कर मैं कानन शिला पर आया, तब तक उर्वशी पुन: आ चुकी थी, रात्रि
को कुछ समय के लिए वह कहीं चली गई थी, अवश्य ही अपना श्रृंगार करने और अपने आपको ज्यादा से ज्यादा मोहक बनाने के लिए किसी स्थान पर जाती होगी, परंतु आज तो प्रात: सात बजे से ही शिला पर उपस्थित थी, उसके चेहरे की मुख मुद्रा संकल्पित व कठोर थी, सम्भवत: उसने निश्चय कर लिया था, कि आज हर हालत में विजय प्राप्त करनी है। आज का नृत्य उसने जल्दी ही प्रारम्भ कर दिया, शायद वह नृत्य के द्वारा ही अपनी विजय को पूर्ण सार्थक समझ रही थी, ज्यों -ज्यों सूर्य का रथ आकाश की ओर अग्रसर हो रहा था, त्यों -त्यों उसके नृत्य की लय बढ़ती जा रही थी, साधना का आज अन्तिम दिन था, और उस शिला पर उर्वशी का अत्यधिक मोहक, विलासमय सौन्दर्य से परिपूर्ण नृत्य गति की चरम सीमा पर था के धीरे-धीरे दोपहर हुई, सांझ ढली और शुभ्र आकाश में साक्षी भूत पूर्ण चांदनी के साथ चन्द्रमा भी उपस्थित हुआ, पर उर्वशी के पैर बराबर गतिशील बने रहे, पसीने से उसका शरीर भीग गया था, शरीर के वस्त्र चिपक गए थे, चेहरे पर स्वेद कण थिरक॑ रहे थे, परंतु वह अपने सुंदर सुकोमल पैरों से नृत्यशील थी, थकावट से उसका सारा शरीर निढाल हो रहा था, निरंतर नृत्य से थोड़ा- थोड़ा खून बहने लग गया था, जिससे शुभ्र स्फटिक शिला कहां कहीं रक्तिम हो रही थी, मैंने देखा कि थकावट से च्चूर उर्वशी निढाल होकर संज्ञा शून्य सी स्वामी विज्ञानानंद के सामने गिर गई , उसके पैरों में कम्पन था, तलवों से खून की बूंदें छलछला रही थीं, और सारा शरीर संज्ञाशून्य सा महायोगी के. सामने पसरा हुआ था। मैंने देखा महायोगी उसी प्रकार शांत, समाधिस्थ थे, उनकी आंखों में किसी प्रकार का कोई कम्पन नहीं था, एक घण्टे तक संज्ञाशुन्यता के बाद अनिन्दय सुंदरी उर्वशी नेसिर ऊपर उठाया, मैंने देखा कि उसकी आंखों से अश्रुकण निकल रहे थे, कंठ अवरुद्ध हो गया था, गला भर आया था और दोनों हाथ जोड़े हुए उसका सारा शरीर थरथरा रहा था। एक क्षण के लिए मुझे स्वामी विज्ञानानंद पर क्रोध आया, परंतु मैं विवश था, मैं कर भी क्या सकता था, मैंने महसूस किया कि आज योग के सामने सौन्दर्य और विलास पराजित थे, एक योगी के सामने अनिन्द्य सुंदरी विवश, शक्तिहीन, भीतहिरणी की तरह थी, इतनी हिम्मत नहीं थी, कि वह विज्ञानानंद को स्पर्श करे परंतु उसके चेहरे और आंखों से बहते हुए अश्रुकुण अपनी पराजय अनुभव कर रहे थे, उसके मुंह से अस्फुट शब्द निकले- *'मैं इन्द्र सभा की नृत्यांगना उर्वशी आपके सामने पराजित हूं, आज पहली बार मैं स्वयं को विवश अनुभव कर रही हूं, मेरा यौवन, मेरा सौन्दर्य सब कुछ व्यर्थ है, बेमानी है, योग के सामने यह सौन्दर्य पराजित और प्रताड़ित है।
ऐसा कहते-कहते वह उठ खड़ी हुई, आंसुओं से सिक्त आंखों से
उसने मुझे जी भर के देखा और धीरे-धीरे शिला से नीचे उतर कर उत्तर दिशा की ओर बढ़ गई।
दूसरा दिन हुआ, आकाश में सूर्य देव मुस्कराने लगे। मैं पिछले दिन की घटनाओं से स्तम्भित था, चाहे योगी ही हो पर नारी का इस प्रकार से अपमान मेरे लिए. असहा था, मैं गुरु आज्ञा से बंधा हुआ था। पहली बार मैंने योग के महत्व को अनुभव किया, पहली बार साधना के मूल्य और उसकी उच्चता को स्वीकार किया, पहली बार विज्ञानानंद के चरणों में अपने आपको धन्य-धन्य अनुभव किया ।
आज साधना का अन्तिम दिन था, लगभग चार बजे महायोगी ने अपनी आंखें खोलीं, समाधि भंग हुई और सुंदर कमलवत् नेत्रों से पूर्ण शांति के साथ उन्होंने मेरी ओर देखा, जैसे उन्हें पिछले तीन दिनों की घटनाओं का कोई भान न हो। साधना की सफलता उनके चेहरे पर प्रतिबिम्बित हो रही थी, उनका मुख मंडल एक अपूर्व आभा और साधना की रश्मियों से दमक रहा था, वे अपने उद्देश्य में पूर्ण रूप से सफल हुए थे, और ब्रह्मांड साधना के द्वारा उन्होंने उन रहस्यों को पा लिया था, जो अभी तक सर्वथा अज्ञात थे।
तभी मैंने देखा कि योग मार्ग से पूज्य गुरुदेव स्वामी निखिलेश्वरानंद जी सवेग आ रहे हैं, मेरे चेहरे का और हदय का मालिन्य एक बारगी समाप्त हो गया, संशय-असंशय के भाव मिट गए और ज्योंही वे शिला के पास पहुंचे, प्रसन्नता के साथ मैंने उन्हें प्रणाम किया । वे शिला पर विज्ञानानंद के पास जा खड़े हुए और उन्हें उठकर अपने सीने से लगा लिया, बोले -' विज्ञान ! तुमने दुहरी सफलता पाई है, ब्रह्मांड साधना में पूर्णता तो प्राप्त की ही है, योग के द्वारा उर्वशी के गर्व को भी खण्डित किया है।'
आज भी पौराणिक घटनाएं दुहराई जाती हैं, हिमालय में आज भी देवता और अप्सराएं मौजूद हैं, आज भी तपस्या की उच्चता से इन्द्र भयभीत होते हैं, और अप्सराओं के माध्यम से तपस्या में विघ्न डालने के लिए उनका प्रयोग करते हैं, और आज भी ऐसे महायोगी हैं जो इन सबसे परे पूर्णत: नियंत्रित और समर्थ हैं।
ब्रह्मांड साधना अत्यन्त उच्चकोटि की महत्वपूर्ण साधना है, जिसे भारतवर्ष के बहुत ही कम योगियों ने सिद्ध किया है। इस साधना को सम्पन्न करने पर साधक इंद्र के समान महत्वपूर्ण बन जाता है और उसे ब्रह्मांड की समस्त सुख-सुविधाएं प्राप्त हो जाती हैं ।
उस समारोह में सिद्धाश्रम के समस्त साधक और योगी उपस्थित थे । इतनी महत्वपूर्ण साधना के लिए स्वामी विज्ञानानन्द का चयन स्वाभाविक था। वे वास्तव में ही अत्यन्त उच्चकोटि के योगी हैं और उन्होंने आज के युग में साधना के द्वारा जो कुछ प्राप्त किया है, जिस स्तर पर पुहंचे हैं, वह सम्माननीय और श्रद्धास्पद है।
उच्च कोटि के योगी होते हुएं भी वे स्वामी निखिलेश्वरानंद जी के प्रति असीम श्रद्धा रखते हैं । स्वामी निखिलेश्वरानंद जी ने कहा, तुम्हें जीवन का 'एक सौभाग्य प्राप्त हुआ है, तुम्हें अवश्य ही मानसरोवर के तट पर ' कानन-शिला' पर बैठकर इस साधना को सम्पन्न करना चाहिए, जिससे सफलता में किसी प्रकार की कोई न्यूनता न रहे। उन्होंने हौसला बढ़ाते हुए कहा, मैंने स्वयं उसी शिला पर यह साधना सम्पन्न कौ थी फिर उन्होंने साधना के मार्ग में आने वाली बाधाओं को समझाया, और कहा - “' आपके साथ मैं स्वामी गिरिराज को भेज रहा हूं, यह आपकी सेवा करेंगे, आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें, पूरे प्रयत्न के साथ साधना में बैठें, गुरुदेव की कृपा से आप अवश्य ही सफलता प्राप्त करेंगे।''
मेरे लिए तो यह आकस्मिक वरदान था, मैं तो निखिलेश्वरानंद जी के चरणों में बैठकर अपने जीवन को धन्य और सार्थक कर रहा था। मुझे ज्ञात नहीं था कि ऐसी महत्वपूर्ण साधना में मुझे भी सहयोगी बनने का अवसर मिलेगा । जब निखिलेश्वरानंद जी ने मेरी तरफ संकेत कर कहा कि स्वामी गिरिराज को आपके साथ भेज रहा ्ू तो मेरा रोम-रोम पुलकित हो गया। विज्ञानानंद ने एक क्षण के लिए मेरी तरफ देखा और अपने साथ चलने की अनुमति प्रदान कर दी।
कानन शिला मैंने अपने जीवन में पहली बार देखी थी, इसे देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया, यह प्रकृति का बेजोड़ और अद्वितीय वरदान है। जब मैंने पहली बार इस शिला को हौले से स्पर्श किया, तो मेरे सारे शरीर में एक विद्युत प्रवाह सा दौड़ा था। वास्तव में यह शिला मंत्र सिद्ध है, उच्च कोटि के योगियों और साधकों के द्वारा इस पर साधना करते रहने की वजह से यह दिव्य और अनुपम बन गई है। यह शिला अपने आप में ही सिद्ध पीठ बन गई है और इस पर बैठते ही व्यक्ति को जो सुख और आनन्द अनुभव होता है, उसकी समता इस विश्व में कहीं पर नहीं है।
वास्तव में ही विज्ञानानंद उच्चकोटि के महायोगी हैं । उस कानन शिला पर बैठकर जिस प्रकार से वह अकम्पित साधनारत हुए, वह वास्तव में ही सराहनीय था। यह साधना तीस दिन की थी और मैंने देखा कि पच्चीस दिन बीतने पर भी वे ज्यों के त्यों ध्यानस्थ रहे, न तो उन्होंने एक बार आंखें खोलीं और न इस पूरी. अवधि में एक बार उनके शरीर में कोई कम्पन ही हुआ वे निश्चल भाव से जिस आसन पर बैठे थे, उस पर बराबर बैठे रहे, होठों से ही स्फुट-अस्फुट ध्वनि निःसृत हो जाती थी, इसके अलावा किसी प्रकार का कोई कम्पन उनके पूरे शरीर पर व्याप्त नहीं था। इस प्रकार से ध्यानस्थ होना उच्चकोटि के योगियों के लिए ही सम्भव है।
मैं नित्य प्रात:काल उषाकाल में मानसरोवर के तट पर जाकर स्नान करता और वापस आकर कानन शिला पर बैठ अपनी दैनिक साधना, पूजा-पाठ सम्पन्न करता। इसके अतिरिक्त मेरा और कोई कार्य नहीं था, पूज्य गुरुदेव निखिलेश्वरानंद जी की आज्ञा थी कि साधनाकाल में उनके पास बने रहना है, इसलिए बाकी सारा समय मैं उनके पास बैठा रहता और चकोर की तरह उनके तेजस्वी चेहरे को एकटक ताकता रहता। मुझे वह वातावरण, वह स्थल, वह साधना सब कुछ पवित्र, दिव्य: मनोहारी और अवर्णनीय प्रतीत होता, वास्तव में ही मैं इस अवधि में अपने आपको रोमांचित और धन्य अनुभव कर रहा था।
'लगभग छब्बीस दिन बीत गए थे, अब तो मात्र चार दिन ही बाकी थे, आकाश में बादल छाये हुए थे, कुछ ही समय पहले वर्षा होने की वजह से पूरी प्रकृति धुल गई थी। मैं स्नान करके कानन शिला पर आकर बैठा ही था, कि तभी *छन्न' की आवाज आई और मेरी एकाग्रता टूट गई, सामने देखा तो देखता ही रहा गया, स्वामी विज्ञानानंद के ठीक सामने लगभग पांच सात फीट की दूरी पर एक अनिन्द्य अद्वितीय सुन्दरी खड़ी थी। उस निर्जन बन में यह सुंदरी कहां से और किस तरफ से आयी? किस प्रकार से इस शिला पर अचानक दिखाई दी, मैं कुछ भी अनुमान नहीं लगा सका। यदि निश्छल भाव से कहूं तो मैं उस सुन्दरी के रूप और सौंदर्य के सामने स्तम्भित सा हो गया था। एक बार तो मेरे पूरे शरीर का खून उफन कर शरीर में जोरों से चक्कर लगाने लगा, मैं अपने आप पर नियंत्रण नहीं कर पा रहा था, मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह कौन है, कोई अप्सरा या रति है, या कोई पिशाच या राक्षस योनि ऐसा छल युक्त रूप धारण कर उपस्थित हुई है। : उस क्षण मैं कुछ भी सोचने विचारने लायक नहीं रह गया था, और मेरी आंखें अअलक एकटक उसके चेहरे पर गड़ी हुई थीं, जो कि
मुझ से मात्र सात-आठ फीट की दूरी पर खड़ी थी।
उसकी सुंदर देह यष्टि के सामने पुराणों में वर्णित सारा सौंदर्य वर्णन व्यर्थ सा प्रतीत हो रहा था। पहली बार मेरा मन अनियन्त्रित हुआ, पहली बार मैं अपने आप पर काबू न पा सका, पहली बार मेरे ऊपर कामुकता की हल्की सी परत अनुभव हुई, पहली बार उसे प्राप्त करने, उसके पास बैठने और उससे बातचीत करने की इच्छा जागृत हुई ।
मैंने अपने आपके ऊपर काबू किया और प्रयत्न कर अपने आपको संयत करने की कोशिश की और उसकी तरफ देखा, मुझे चैतन्यावस्था में अनुभव कर और सामान्य संयत देखकर वह रूपसी हौले से मुस्करा दी, उस एक मुस्कराहट के सामने चारों ओर बिखरी हुई प्रकृति श्रीहीन और फीकी सी लग रही थी, उस एक मुस्कराहट पर हिमालय तो कया सारे संसार का वैभव न्यौछावर था।
चैतन्य होकर मैंने गहरी और सार्थक निगाहों से उसे देखा, लगभग बीस-इक्कीस वर्ष की सुंदर, स्वस्थ, यौवन की आभा से दीप्त तरुणी मेरे सामने खड़ी थी। अण्डाकार सुंदर चेहरा, यौवन, प्रेम और सौन्दर्य से गुलाबी हो रहा था, उस पर गहरी झील सी नीली आंखें अद्वितीय दिखाई दे रही थीं , होंठ ऐसे प्रतीत हो रहे थे, माना दो गुलाबी पंखुड़ियों को एक दूसरी पर रख दिया हो और चिबुक के छोटे से गड्ढे में समस्त संसार का यौवन कूद पड़ने के लिए आतुर था, हंसिनी ग्रीवा और उन्नत, उभरे हुए वक्ष ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो दो ऋषि खड़े होकर सूर्य को अर्ध्य दे रहे हों । वक्षस्थल पर कस करें कंचुकी बंधी हुई थी, और नाभि के नीचे नील वर्णीय परिधान पहना हुआ अत्याधिक आकर्षक और स्वप्निल अनुभव हो रहा था, हस्ती सुण्ड की तरह जंघाएं और पायलों में छोटे-छोटे घुंघरु बंधे होने की वजह से पैर अत्यधिक आकर्षक और सुंदर लग रहे थे, सिर के बाल लम्बे और पीछे जंघाओं को छू रहे थे, यौवन भार से झुका हुआ उसका शरीर ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो कामदेव अपनी प्रत्यंचा को टेढ़ी कर पूरे विश्व पर विजय प्राप्त करने के लिए आतुर हो । अनिन्द्य सुंदरी के उस रूप, यौवन और मधुरता की त्रिवेणी में स्नान कर मैं अपने आपके ऊपर नियंत्रित नहीं कर पा रहा था, शायद विधाता ने बहुत हीं फुरसत के क्षणों में उसके एक-एक अंग को गढ़ा होगा। अत्यधिक गौर वर्ण और उस पर लज्जा का गुलाबी आवरण चढ़ा हुआ ऐसा लग रहा था, मानो प्रातः्कालीन उषा ने चारों ओर गुलाल बिखेर दी हो, उसकी एक-एक मुस्कराहट पर सौ-सौ स्वर्ग और कानन वन न्यौछावर थे । निश्चय ही वह अनिन्द्य और अद्वितीय सुन्दरी थी, जिसकी समानता इस पृथ्वी पर न तो सम्भव थी, और न है।
मैं अभी तक अपलक उस सौन्दर्यशालिनी को देख रहा था, समझ नहीं पा रहा था कि मैं इस नवागन्तुका अतिथि की कैसे अभ्यर्थना करूं, क्या कहूं, कैसे कहूं ? तभी गुलाबी पंखुड़ियों में हल्का सा कम्पन हुआ, उसने अपना परिचय देते हुए कहा - “मैं इन्द्र साम्राज्य की नृत्यांगना उर्वशी हूं, मेरे मन में स्वामी विज्ञानानंद छा गए हैं और मैं इनकी साधना पर मुग्ध हूं, मैंने इन्द्र साम्राज्य छोड़ दिया है, क्योंकि मेरे चित्त पर तो विज्ञानानंद की तपस्या और श्रेष्ठता हावी हो गई है, मैं इन्हें वरण करने के लिए कटिबद्ध हूं। ''
योगी और सुंदरी . . . सुंदरी और योगी . . . एक आश्चर्य है, इन दोनों का समन्वय कैसे सम्भव है ? और फिर विज्ञानानंद तो उच्चकोटि के साधक हैं , वह इस रूपसी उर्वशी का वरण करें , यह सर्वथा असम्भव प्रतीत हो रहा है, पर इसमें इसका भी क्या दोष ? यह तो बेचारी अपने दिल के हाथों मजबूर है, इसके चित्त पर तो 'विज्ञानानंद का आकषण हावी हो गया है, तभी तो उसने इन्द्र का साम्राज्य छोड़ा है, तभी तो यह समस्त सुख-सुविधाओं, भोग और ऐश्वर्य को छोड़कर इस निर्जन जंगल में अपने प्रणय के सामने आई है, तभी तो यह स्वर्ग को छोड़कर मनुष्य लोक में हमेशा-हमेशा के लिए जुड़ जाने के लिए उपस्थित हुई है, पर विज्ञानानंद जी से कौन कहे, मेरे लिए तो यह सर्वथा असम्भव है, मैं तो ऐसी बात होठों पर ला ही नहीं सकता।
मैं अब तक उस तरफ अपलक देख रहा था, उसके मुंह से निकले हुए शब्द मेरे अंतर को मथ रहे थे, मेरे सारे शरीर को और अंतरमन को उसके शब्दों ने आलोड़ित-विलोड़ित कर दिया था, सचमुच ऐसा प्रतीत हुआ मानो उसके मुंह से अमृत की फुहार बरस गई हो और उससे मेरा सारा शरीर तन, मन, प्राण और अंतर भीग कर अनिवर्चनीय आनन्द से ओतप्रोत हो गया हो।
मैंने कहा, - ' आप उर्वशी हैं, अनिन्द्य और अद्वितीय सुंदरी, चिरयौवनमय, अविवाहिता अप्सरा, आपको प्रणय निवेदन करने का अधिकार है, पर मैं आपके संदेश को स्वामी तक नहीं पहुंचा सकता, वे ध्यानस्थ हैं, चार दिन बाद जब वे चैतन्य होंगे तब आप अपनी बात उनके सामने रख सकती हैं।'
उसने गहरी और सार्थक निगाहों से मुझे देखा और दूसरे क्षण उसके पैरों में कम्पन आरम्भ हुआ, उन घुंघरुओं की झंकार से सारा वन प्रांत मुखरित और सुवासित हो उठा, छूम् छनन् छन छनन्' की ध्वनि से सारा हिमालय हजार-हजार मुंह से बोलने लगा। धीरे-धीरे मैंने देखा कि उसके पैरों में गति आ रही है, वह नृत्य की भाव-भंगिमा
के द्वारा शायद स्वामी विज्ञानानंद की समाधि तोड़ने का निश्चय कर चुकी है। मुझे सारे पुराण एकबारगी याद हो आए उर्वशी ने तो विश्वामित्र और पराशर जैसे ऋषियों की समाधि तोड़ दी थी और आज यदि नृत्य के माध्यम से स्वामी विज्ञानानंद की एकाग्रता और ध्यान को तोड़ दे तो इसमें आश्चर्य क्या ? उर्वशी को अपनी बात कहने का, प्रणय निवेदन करने का अधिकार है, और यदि संभव हुआ तो मैं इसे इसके अधिकार को दिलाने में अवश्य ही सहायक बनूंगा।
मैं पुनः चैतन्य हुआ और देखा कि उस स्फटिक शिला पर सुन्दरी उर्वशी के सुकोमल पैर गतिशील है, घुंघरुओं की लयबद्ध ध्वनि पूरे वातावरण में मुखरित हो रही है, धीरे-धीरे पैरों की गति, उसकी चपलता और चंचलता बढ़ रही है, अवश्य ही प्रकृति स्वयं उर्वशी के साथ है, तभी तो इस नृत्य के साथ-साथ पृष्ठभूमि में वाद्य ध्वनि झंकृत हो रही है, तभी तो सारी प्रकृति सांस रोक कर इस अद्भुत और अद्वितीय नृत्य को देख रही है, तभी तो यह सारी फिजां, यह सारा वातावरण अचानक सुगन्धित और सुवासित हो उठा है।
पैरों की गति बढ़ गई थी, पता नहीं पड़ रहा था कि कब पैर उठ रहे हैं, और कब पैर शिला को छू रहे हैं, एक विशेष लय के साथ उसके दोनों पैर गतिशील थे, और घुंघरुओं की छनछनाहट के साथ लयबद्ध नृत्य मुखरित हो रहा था। एक विशेष मुद्रा, एक विशेष लोच, एक विशेष भंगिमा के साथ सारा शरीर नृत्य में गतिशील होना, मी मुद्रा प्रदर्शन कैरना और चपलता के साथ नृत्य युक्त होना आश्चर्यजनक था, अद्वितीय था, अवर्णनीय था। के
कब दिन ढला कब सांझ हुई पता ही नहीं चला, उसके सुंदर गोरे ललाट पर पसीने की बुंदें चू रही थीं, स्वेद से कंचुकी भीग कर शरीर से चिपक गई थी, नाजुक और गोरे पैर अभी तक लयबद्ध नृत्य हेतु गतिशील थे, परंतु न उर्वशी रुक रही थी, और न स्वामी विज्ञानानंद चैतन्य हो रहे थे, इतने समय तक नृत्य करने से पत्थर भी अपनी आंखें खोल देता, इन्द्र भी विचलित हो जाता पर विज्ञानानंद अभी भी ध्यानस्थ थे, अभी तक भी निश्चल, अकम्पित आसन पर स्थिर थे।
धीरे-धीरे रात्रि हुई, चन्द्रमा ने कुछ समय पहले ही आकाश में आकर उस दृश्य को देखने का सफल-असफल प्रयास किया, परंतु अब उर्वशी पूर्ण रूप से थक कर चूर होकर उसी शिला पर पर विज्ञानानंद के सामने बैठी हुई भी , उसका चेहरा उदास था, जैसे कि किसी सद्यस्नात गुलाब पर ओस की परत जम गई हो, मन ही मन वह झुंझला रही थी, शायद उसे स्वप्न में भी गुमान नहीं था, कि उसका सौन्दर्य इस
प्रकार से पराजित प्रताड़ित हो जाएगा, फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी थी, जिसने भी उसको इस कार्य के लिए भेजा था, उसके प्रति वह विश्वसनीय थी, वह उसी प्रकार सौन्दर्य की साक्षात् स्वर्ण राशि बनी वहीं बैठी रही, और अपलक नेत्रों से स्वामी विज्ञानानंद को निहारती रही।
लगभग चार बजे प्रात: वह न जाने कहां अदृश्य हो गई, मैं भी उठकर मानसरोवर के तट पर पहुंचा और मल मल कर स्नान किया। मेरा सारा शरीर ताप से फुंक रहा था, स्नान करने पर मुझे शीतलता अनुभव हुई । कितने समय तक पानी में घुसा रहा, कुछ पता नहीं चला। सूर्य की पहली किरण के साथ मैं कानन शिला पर पहुंचा, तो विज्ञानानंद निश्चल भाव से ध्यानस्थ बैठे हुए. थे।
लगभग आठ साढ़े आठ बजे वह फिर आई परंतु आज उसकी शोभा सौ-सौ गुनी ज्यादा थी। नाभिदर्शना सुन्दरी उर्वशी ने अपना श्रृंगार आज जी भर कर किया था, कंचुकी आज और ज्यादा कस गई थी, सिर पर से लेकर धानी वस्त्र घुटनों तक पहना हुआ था, सब कुछ नयां-नया खिला महक रहा था । उसके शरीर से विशेष भीनी महक मैं अनुभव कर रहा था, उसने सर्वप्रथम स्वामी 'विज्ञानानंद को प्रणाम किया और कुछ क्षणों तक सामने बैठी रही।
मैं उससे बहुत कुछ पूछना चाहता था, पर मेरे मुंह से बोल निकल नहीं पा रहे थे, यह तो पता चल गया था, कि वह देव अप्सरा उर्वशी थी, पर यहां क्यों आई है, क्यों इतना परिश्रम कर रही है, किसने उसे, किस विशेष उद्देश्य के लिए भेजा है? ये सारे प्रश्न उस समय अधूरे रह गये जब उसने खड़े होकर एड़ी के टोहके से नृत्य का पहला कम्पन प्रारम्भ किया।
आज भी वह उसी प्रकार उसी लय के साथ मूक मुद्रा युक्त नृत्य कर रही थी, परंतु सूर्य ढलने पर मैंने देखा कि विज्ञानानंद आज भी अवचिल अकम्मपित ध्यानस्थ थे। एक क्षण के लिए मुझे विचार आया कि कहीं विज्ञानानंद का शरीर शांत तो नहीं हो गया, परंतु उनके होठों से निकलते हुए स्फुट-अस्फुट शब्द उनकी जीवन्तता का परिचय दे रहे थे। ्
दूसरी रात मैं कुछ क्षणों के लिए लेटा तो अवश्य परंतु रात भर मुझे नींद नहीं आई। मैं लेटा हुआ था, और उर्वशी विज्ञानानंद के सामने अत्यन्त विलासमय रूप में बैठी हुई थी । प्रात:काल उठकर मैंने स्नान किया, परंतु जितना ही ज्यादा अपने शरीर पर पानी डालता था, उतनी ही दाहकता बढ़ती जाती। थका हुआ, शिथिल गति से चल कर मैं कानन शिला पर आया, तब तक उर्वशी पुन: आ चुकी थी, रात्रि
को कुछ समय के लिए वह कहीं चली गई थी, अवश्य ही अपना श्रृंगार करने और अपने आपको ज्यादा से ज्यादा मोहक बनाने के लिए किसी स्थान पर जाती होगी, परंतु आज तो प्रात: सात बजे से ही शिला पर उपस्थित थी, उसके चेहरे की मुख मुद्रा संकल्पित व कठोर थी, सम्भवत: उसने निश्चय कर लिया था, कि आज हर हालत में विजय प्राप्त करनी है। आज का नृत्य उसने जल्दी ही प्रारम्भ कर दिया, शायद वह नृत्य के द्वारा ही अपनी विजय को पूर्ण सार्थक समझ रही थी, ज्यों -ज्यों सूर्य का रथ आकाश की ओर अग्रसर हो रहा था, त्यों -त्यों उसके नृत्य की लय बढ़ती जा रही थी, साधना का आज अन्तिम दिन था, और उस शिला पर उर्वशी का अत्यधिक मोहक, विलासमय सौन्दर्य से परिपूर्ण नृत्य गति की चरम सीमा पर था के धीरे-धीरे दोपहर हुई, सांझ ढली और शुभ्र आकाश में साक्षी भूत पूर्ण चांदनी के साथ चन्द्रमा भी उपस्थित हुआ, पर उर्वशी के पैर बराबर गतिशील बने रहे, पसीने से उसका शरीर भीग गया था, शरीर के वस्त्र चिपक गए थे, चेहरे पर स्वेद कण थिरक॑ रहे थे, परंतु वह अपने सुंदर सुकोमल पैरों से नृत्यशील थी, थकावट से उसका सारा शरीर निढाल हो रहा था, निरंतर नृत्य से थोड़ा- थोड़ा खून बहने लग गया था, जिससे शुभ्र स्फटिक शिला कहां कहीं रक्तिम हो रही थी, मैंने देखा कि थकावट से च्चूर उर्वशी निढाल होकर संज्ञा शून्य सी स्वामी विज्ञानानंद के सामने गिर गई , उसके पैरों में कम्पन था, तलवों से खून की बूंदें छलछला रही थीं, और सारा शरीर संज्ञाशून्य सा महायोगी के. सामने पसरा हुआ था। मैंने देखा महायोगी उसी प्रकार शांत, समाधिस्थ थे, उनकी आंखों में किसी प्रकार का कोई कम्पन नहीं था, एक घण्टे तक संज्ञाशुन्यता के बाद अनिन्दय सुंदरी उर्वशी नेसिर ऊपर उठाया, मैंने देखा कि उसकी आंखों से अश्रुकण निकल रहे थे, कंठ अवरुद्ध हो गया था, गला भर आया था और दोनों हाथ जोड़े हुए उसका सारा शरीर थरथरा रहा था। एक क्षण के लिए मुझे स्वामी विज्ञानानंद पर क्रोध आया, परंतु मैं विवश था, मैं कर भी क्या सकता था, मैंने महसूस किया कि आज योग के सामने सौन्दर्य और विलास पराजित थे, एक योगी के सामने अनिन्द्य सुंदरी विवश, शक्तिहीन, भीतहिरणी की तरह थी, इतनी हिम्मत नहीं थी, कि वह विज्ञानानंद को स्पर्श करे परंतु उसके चेहरे और आंखों से बहते हुए अश्रुकुण अपनी पराजय अनुभव कर रहे थे, उसके मुंह से अस्फुट शब्द निकले- *'मैं इन्द्र सभा की नृत्यांगना उर्वशी आपके सामने पराजित हूं, आज पहली बार मैं स्वयं को विवश अनुभव कर रही हूं, मेरा यौवन, मेरा सौन्दर्य सब कुछ व्यर्थ है, बेमानी है, योग के सामने यह सौन्दर्य पराजित और प्रताड़ित है।
ऐसा कहते-कहते वह उठ खड़ी हुई, आंसुओं से सिक्त आंखों से
उसने मुझे जी भर के देखा और धीरे-धीरे शिला से नीचे उतर कर उत्तर दिशा की ओर बढ़ गई।
दूसरा दिन हुआ, आकाश में सूर्य देव मुस्कराने लगे। मैं पिछले दिन की घटनाओं से स्तम्भित था, चाहे योगी ही हो पर नारी का इस प्रकार से अपमान मेरे लिए. असहा था, मैं गुरु आज्ञा से बंधा हुआ था। पहली बार मैंने योग के महत्व को अनुभव किया, पहली बार साधना के मूल्य और उसकी उच्चता को स्वीकार किया, पहली बार विज्ञानानंद के चरणों में अपने आपको धन्य-धन्य अनुभव किया ।
आज साधना का अन्तिम दिन था, लगभग चार बजे महायोगी ने अपनी आंखें खोलीं, समाधि भंग हुई और सुंदर कमलवत् नेत्रों से पूर्ण शांति के साथ उन्होंने मेरी ओर देखा, जैसे उन्हें पिछले तीन दिनों की घटनाओं का कोई भान न हो। साधना की सफलता उनके चेहरे पर प्रतिबिम्बित हो रही थी, उनका मुख मंडल एक अपूर्व आभा और साधना की रश्मियों से दमक रहा था, वे अपने उद्देश्य में पूर्ण रूप से सफल हुए थे, और ब्रह्मांड साधना के द्वारा उन्होंने उन रहस्यों को पा लिया था, जो अभी तक सर्वथा अज्ञात थे।
तभी मैंने देखा कि योग मार्ग से पूज्य गुरुदेव स्वामी निखिलेश्वरानंद जी सवेग आ रहे हैं, मेरे चेहरे का और हदय का मालिन्य एक बारगी समाप्त हो गया, संशय-असंशय के भाव मिट गए और ज्योंही वे शिला के पास पहुंचे, प्रसन्नता के साथ मैंने उन्हें प्रणाम किया । वे शिला पर विज्ञानानंद के पास जा खड़े हुए और उन्हें उठकर अपने सीने से लगा लिया, बोले -' विज्ञान ! तुमने दुहरी सफलता पाई है, ब्रह्मांड साधना में पूर्णता तो प्राप्त की ही है, योग के द्वारा उर्वशी के गर्व को भी खण्डित किया है।'
आज भी पौराणिक घटनाएं दुहराई जाती हैं, हिमालय में आज भी देवता और अप्सराएं मौजूद हैं, आज भी तपस्या की उच्चता से इन्द्र भयभीत होते हैं, और अप्सराओं के माध्यम से तपस्या में विघ्न डालने के लिए उनका प्रयोग करते हैं, और आज भी ऐसे महायोगी हैं जो इन सबसे परे पूर्णत: नियंत्रित और समर्थ हैं।
उर्बशी साधना के नियम
प्राचीन काल से ही भारतीय साधना पद्धति में सौन्दर्य की साधना करना भी एक आवश्यक गुण माना गया है।सौन्दर्य शब्द को लेकर के समाज में आज जो भी धारणा हो उसके विषय में तो कुछ भी नही कहा जा सकता,किंतु प्राचीन काल में ऋषियों के मन में सौन्दर्य को लेकर के न तो कोई भ्रांति था , न उनके मन में कई ऐसी धारणा थी की सौन्दर्य उपासना अपने आपमें कोई खराब धारणा है।यही कारण हे की प्राचीन ग्रंथो में सौन्दर्य का मूर्त रूप अप्सरा को मान कर प्रकारात्मक से सौन्दर्य की ही उपासना करने का प्रयास किया हे क्योंकि सौन्दर्य नारी के माध्यम से आपने सर्वोत्कृष्ट रूप में स्पष्ट हो सकता है.... और संसार की तीन अद्वितीय सौंदरी मानी गई है,जिनका नाम उर्वशी, रम्भा,और मेनका हे इनमे भी उर्वशी का नाम सर्वोपरि हे।ये सुंदर स्त्रियां देवताओं के राजा इंद्र की सभा में अद्वितीय नित्य और सूर्य के समान सौन्दर्य राशिमयो से सबका अभिभूत करती रहती है।
उर्वशी के बारे में जानकारी
उर्वशी के बारे में ग्रंथो में कहा गया है की बह चिरायोबना है हजारों वर्ष बीतने पर भी बह १८ बर्ष की उम्र की जुबति के समान अल्हड़,मदमस्त और जोबन रस से परिपूर्ण रहती है,जिसको देखकर व्यक्ति तो क्या देवता भी ठगे रह जाते हैं। बिस्बामित्र संहिता के अनुसार गोरा अंडाकार चेहरा,लंबे एरियो को छूते हुई श्यामल केश,जैसे कोई बदला की घटा उमर आई हो, गोरा रंग,ऐसा की जैसे स्वच्छ दूध में केसर मिला दी हो,बड़ी बड़ी खंजन पक्षी की तरह आंखे जो हर क्षण गहन जिज्ञासा लिए हुई इधर उधर देखती हे। छोटी चिबूक ,सुन्दर और गुलाबी होठ , आकर्षक चेहरा अद्वितीय आभा से युक्त शरीर....सब मिलाके एक ऐसा सौन्दर्य जो उंगली लगने पर मैला हो जाय।ऐसी ही सौन्दर्य की रानी हे उर्वशी। अपने सौन्दर्य के माध्यम से पूरे संसार को मोहित किए हुई है।
विश्वमित्र और उर्वशी के संबंध
राजा विश्वमित्र ने जब सुना की उर्वशी इंद्र के दर बार की उज्ज्वल
सौन्दर्यमयी नृत्यांगना है जिसके नृत्य से मनुष्य तो क्या बहता हुए पानी भी रुक जाता है।तो उन्होंने आज्ञा दी की उर्वशी मेरे आश्रम में भी नृत्य करे।
विश्वमित्र ने अपना संदेश इंद्र तक पहुंचा दिया और इंद्र ने साथ साथ माना कर दिया ये किसीभी प्रकार संभव नही हे।
विश्वमित्र तो हठ योगी रहे है मंत्र बल से उर्वशी को अपने आश्रम में बुलाया और कहा तुम्हे बैसे ही नित्य मेरे शिष्य के सामने इस आश्रम में करना हे जैसे तुम इंद्र की सभा में करती हो।
उर्वशी ने माना कर दिया और इंद्र लोक चली गई।
विश्वमित्र तिलमिलाकर रह गई।उन्होंने उसी क्षण प्रतिज्ञा की की में सर्बधा नये तंत्र की रचना करूंगा और तंत्र बल से इसे आश्रम में बुलाऊंगा,एक बार नेहि जब भी चाहे नित्य करबाऊंगा और इसी जिद्द और क्रोध का परिणाम हुया "उर्वशी तंत्र"
किसीभी अप्सरा की साधना चार रूपो में की जा सकती है। मां ,बहन,पत्नी,और प्रेमिका के रूप में साधना सम्पन्न करना श्रेष्ठ माना गेया है।विश्वमित्र ने प्रेमिका रूप से तंत्र की रचना की ओर इसी तंत्र की मध्यम से उर्वशी को आपने आश्रम में आने के लिए बाध्य किया उसे अद्वितीय नृत्य करना पड़ा ।
सौन्दर्यमयी नृत्यांगना है जिसके नृत्य से मनुष्य तो क्या बहता हुए पानी भी रुक जाता है।तो उन्होंने आज्ञा दी की उर्वशी मेरे आश्रम में भी नृत्य करे।
विश्वमित्र ने अपना संदेश इंद्र तक पहुंचा दिया और इंद्र ने साथ साथ माना कर दिया ये किसीभी प्रकार संभव नही हे।
विश्वमित्र तो हठ योगी रहे है मंत्र बल से उर्वशी को अपने आश्रम में बुलाया और कहा तुम्हे बैसे ही नित्य मेरे शिष्य के सामने इस आश्रम में करना हे जैसे तुम इंद्र की सभा में करती हो।
उर्वशी ने माना कर दिया और इंद्र लोक चली गई।
विश्वमित्र तिलमिलाकर रह गई।उन्होंने उसी क्षण प्रतिज्ञा की की में सर्बधा नये तंत्र की रचना करूंगा और तंत्र बल से इसे आश्रम में बुलाऊंगा,एक बार नेहि जब भी चाहे नित्य करबाऊंगा और इसी जिद्द और क्रोध का परिणाम हुया "उर्वशी तंत्र"
किसीभी अप्सरा की साधना चार रूपो में की जा सकती है। मां ,बहन,पत्नी,और प्रेमिका के रूप में साधना सम्पन्न करना श्रेष्ठ माना गेया है।विश्वमित्र ने प्रेमिका रूप से तंत्र की रचना की ओर इसी तंत्र की मध्यम से उर्वशी को आपने आश्रम में आने के लिए बाध्य किया उसे अद्वितीय नृत्य करना पड़ा ।
उर्वशी को सिद्ध कर निन्म लाभ प्राप्त किए जा सकते हे:-
१.जब भी चाहे उर्वशी को सामने बुलाए और नृत्य देखे
२.उर्वशी को जिस रूप में चाहोगे उसी रूप में पायेंगे।
३.उर्वशी द्वारा अतुलनीय बैभब प्राप्त करे।
४.उर्वशी द्वारा निरोग शरीर प्राप्त कर सके
विश्वमित्र के बाद उनके शिष्य भूरिश्रबा,चिन्मय,देवसूत,गंधार और यहां तक कि देवी बिश्रबा और रत्न प्रभा ने भी उर्बसी सिद्ध कर जीवन के संपूर्ण भोगों का भोग किया ।गुरु गोरख नाथ ने भी इस साधना के माध्यम से चीर जोबन प्राप्त किया।
२.उर्वशी को जिस रूप में चाहोगे उसी रूप में पायेंगे।
३.उर्वशी द्वारा अतुलनीय बैभब प्राप्त करे।
४.उर्वशी द्वारा निरोग शरीर प्राप्त कर सके
विश्वमित्र के बाद उनके शिष्य भूरिश्रबा,चिन्मय,देवसूत,गंधार और यहां तक कि देवी बिश्रबा और रत्न प्रभा ने भी उर्बसी सिद्ध कर जीवन के संपूर्ण भोगों का भोग किया ।गुरु गोरख नाथ ने भी इस साधना के माध्यम से चीर जोबन प्राप्त किया।
उर्वशी साधना विधि:-
यह साधना ४९ दिनो की है,किसी भी पूर्णमासी रात्रि से यह साधना शुरू करे,घर की किसी कोन में सफेद आसन बिछाकर उत्तर उत्तर दिशा की तरफ मुंह करके बैठे जाय,सामने घी का अखंड दीपक प्रज्वलित करे और स्वयं पानी में गुलाब का थोड़ा सा इत्र मिलाकर स्नान करे स्वच्छ सफेद वस्त्र धारण कर आसन पर बैठ जाय ,और सामने उर्वशी यंत्र
और चित्र रखकर मोती की माला से मंत्र जप करे
मंत्र: ॐ श्रीं क्लीं आगच्छागच्छ स्वाहा।।
मंत्र जप समाप्ति के बाद उसी स्थान पर सो जाय।इन ४९ दिनो में बह न तो किसी से बात करे और न कमरे से बाहर जाय।केबल शोचादी क्रिया करने के लिए बाहर जा सकते हे।साथबा दिन निश्बय घुंघुरूओ की मधुर आबाजे सुनाई देती है।मगर साधक को चाहिए कि बह अबिचलित भाव से मंत्र जप करता रहे ।इक्किशबा दिन बिलकुल ऐसा लगेगा की जैसे अपूर्व सी सुगंध फेल गई ,इसके बाद नित्य ऐसी सुगंध और ऐसे आभास होगा।
३६ बा दिन बिलकुल ऐसे लगेगा की जैसे अद्वितीय सुंदरी आसन के पास आकर बैठ गई हे ,मगर साधक अबिचलित न हो और मंत्र जप करता रहे ४७ बा दिन साधक की परीक्षा आरम्भ होती हे,और बह सशरिर उपस्थित होकर साधक की गोदी में बैठ जाती है,फिर भी साधक को चाहिए कि बह न तो विचलित हो और न कामोत्तजक हो। ४९ बे दिन बह अपूर्व श्रृंगार कर साधक से सट कर बैठ जाएगी और पूछेगी की मेरे लिए केया अज्ञा हे,तब साधक कहे की मेरे पत्नी बन,प्रेमिका, अपना मां या बहन रूप में जीवन भर पास में रहेगी,तब बह सिद्ध हो जाती है,और जीवन भर सुख ,काम,द्रब्य,सोना और भी बहुत कुछ प्रदान करती रहती है।
यह आजमाया हुई तंत्र हे,और अपने में प्रमाणिक सिद्ध प्रयोग हे।एक बार सिद्ध करने पर जीवन में बार बार प्रयोग करने की जरूरत नही रहती ।
इस साधना में तीन बाते आवश्यक हे।
१.साधना काल में किसी से भी कुछ भी न बोले।
२.साधना के बाद उर्वशी सिद्ध होने पर परस्त्रीगमन ना करे
३.उर्वशी सिद्ध होने पर जो चाहे प्राप्त करे लिकिन उसका दुरुपोयोग ना करे।
और चित्र रखकर मोती की माला से मंत्र जप करे
मंत्र: ॐ श्रीं क्लीं आगच्छागच्छ स्वाहा।।
मंत्र जप समाप्ति के बाद उसी स्थान पर सो जाय।इन ४९ दिनो में बह न तो किसी से बात करे और न कमरे से बाहर जाय।केबल शोचादी क्रिया करने के लिए बाहर जा सकते हे।साथबा दिन निश्बय घुंघुरूओ की मधुर आबाजे सुनाई देती है।मगर साधक को चाहिए कि बह अबिचलित भाव से मंत्र जप करता रहे ।इक्किशबा दिन बिलकुल ऐसा लगेगा की जैसे अपूर्व सी सुगंध फेल गई ,इसके बाद नित्य ऐसी सुगंध और ऐसे आभास होगा।
३६ बा दिन बिलकुल ऐसे लगेगा की जैसे अद्वितीय सुंदरी आसन के पास आकर बैठ गई हे ,मगर साधक अबिचलित न हो और मंत्र जप करता रहे ४७ बा दिन साधक की परीक्षा आरम्भ होती हे,और बह सशरिर उपस्थित होकर साधक की गोदी में बैठ जाती है,फिर भी साधक को चाहिए कि बह न तो विचलित हो और न कामोत्तजक हो। ४९ बे दिन बह अपूर्व श्रृंगार कर साधक से सट कर बैठ जाएगी और पूछेगी की मेरे लिए केया अज्ञा हे,तब साधक कहे की मेरे पत्नी बन,प्रेमिका, अपना मां या बहन रूप में जीवन भर पास में रहेगी,तब बह सिद्ध हो जाती है,और जीवन भर सुख ,काम,द्रब्य,सोना और भी बहुत कुछ प्रदान करती रहती है।
यह आजमाया हुई तंत्र हे,और अपने में प्रमाणिक सिद्ध प्रयोग हे।एक बार सिद्ध करने पर जीवन में बार बार प्रयोग करने की जरूरत नही रहती ।
इस साधना में तीन बाते आवश्यक हे।
१.साधना काल में किसी से भी कुछ भी न बोले।
२.साधना के बाद उर्वशी सिद्ध होने पर परस्त्रीगमन ना करे
३.उर्वशी सिद्ध होने पर जो चाहे प्राप्त करे लिकिन उसका दुरुपोयोग ना करे।
बिशेस बाते उर्वशी साधना के:
यह साधना आज भी जीबित हे,और वर्तमान में भी बहुत तान्त्रिक को ने इसे सिद्ध कर रखा है। बस्तुत यह जीवन की एक अद्भुत और सुखउपभोग देने बाली सुंदर साधना हे।जिसे सिद्ध करने में शास्त्रीय दृष्टि से भी किसी प्रकार का बंधन या दोष नेही हे।यह महर्षि विश्वमित्र के द्वारा प्रणीत सयंग सिद्ध विद्या हे।
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