दिव्यास्त्र सिद्धि और प्रयोग | Divyastra Siddhi or prayog bidhi

दिव्यास्त्र सिद्धि और प्रयोग | Divyastra Siddhi or prayog bidhi


दिव्यास्त्र सिद्धि और प्रयोग (divystra siddhi or prayog bidhi)




    दिव्यास्त्रों में देवताओं की विराट शक्तियां स्थापित होती हैं। ,.... असुरों एवं दुष्टजनों का वध, भ्क्‍तजनों की सुरक्षा एवं प्रलय के समय सृष्टि का विनाश इन्हीं दिव्यास्त्रों के द्वारा होता है। शिवपुराण में महादेव कहते हैं- सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अआनुग्रह- ये मेरे जगत सम्बन्धी पांच कार्य हैं, जो नित्यसिद्ध हैं। दिव्यास्त्र एवं आयुर्धों में देवताओं की असीमित ऊर्जा प्रतिष्ठित होती है इसलिये देवपूजन में उनके साथ उनके मुख्य अस्त्रों का भी पूजनार्चन किया जाता है। दिव्यास्त्रों का स्वभाव आक्रामक एवं संहारकारी होता है। अतः उग्र अस्त्रों को सिद्ध करने से पूर्व देवता को प्रसन्न कर उनकी अनुमति लेना अनिवार्य हो जाता है। जैसे सर्वप्रथम उनकी गायत्री या मूल मंत्र के विशेष संख्या में जप करना, अस्त्र सिद्धि के समय नित्य शांति पाठ, तर्पण, दुग्धाक्षिषेक एवं सात्विक बलि कर्म को सम्पादित करना आदि। अन्य गुप्त एवं आवश्यक विधान समर्थ गुरु की सेवा कर उनसे प्राप्त करना चाहिये। मनुष्य अपनी सूझबूझ से अस्त्रों का आवाहन एवं प्रकट करने का प्रयास कदापि न करे जिन अस्त्रों में प्रकट का उच्चारण है)। अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि सम्भव है। दुरुपयोग या साधक के समक्ष कोई संकट उत्पन्न न हो इसी भय से सम्पूर्ण विधि प्रस्तुत नहीं की जा रही है। सभी अस्त्रों को अत्यन्त सावधानी पूर्वक देवता की प्रीति के अनुसार ही सिद्ध करना चाहिये। कार्य एवं परिस्थितिनुसार ही अस्त्रमंत्र का चुनाव किया जाता है। यदि संक्षेप में कहा जाये तो एक उच्चकोटि साधक, श्रेष्ठ गुरु के सरंक्षण में अस्त्रों का आवाहन व जप कर उनके दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकता है।





    दिव्यास्त्र की प्रयोग






    सत्ययुग अस्त्रों का युग था। इन्हीं दिव्यास्त्रों के बल पर महायुद्धों का निर्णय होता था। दिव्यास्त्रधारी मनुष्य विश्वविजयी कहलाता था। अर्जुन ने श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन से पशुपतास्त्र एवं स्वर्गलोक से 5 दिव्यास्त्रों को प्रयोग, उपसंहार, आवृत्ति, प्रायश्चित और प्रतिघात- इन पांचों विधियों सहित प्राप्त किया था। जिससे पाण्डवों को विजयश्री प्राप्त हुई थी। अर्जुन के अतिरिक्त अश्वत्थामा, पितामह भीष्म, रावण, मेघनाद, कर्ण, द्रोणाचार्य आदि कई तपस्वी दिव्यास्त्रों के ज्ञाता माने जाते थे।

    यदि अनुवित रीति से अंहकार के साथ इनका अनुष्ठान किया जाये तो ये भय के कारण बन जाते हैं। जैसे- मैं जप करुंगा, मैं यज्ञ करुंगा, मैं सिद्धि प्राप्त कर लूंगा, मेरी यह प्रतिज्ञा है- इस तरह की बातें अभिमानपूर्वक हैं। इस अहं भाव का परित्याग ही श्रैयस्कर है, क्योंकि मनुष्य में परम पुरुषार्थ

    होने पर भी जब तक उस पर दैवीय कृपा नहीं होगी, तब तक वह मनुष्य महाज्ञान सम्पन्न होने पर भी उनका जप-तप नहीं कर पायेगा।




    दिव्यास्त्रों के जप से मुख्य लाभ :-






    जिस स्थान पर अस्त्र का नित्य जप होता है, वह स्थान और मनुष्य सर्व तंत्र बाधाओं से विमुक्त रहता है।

    अस्त्र द्वारा अभिमंत्रित जल पीने से समस्त शारीरिक रोग विनष्ट होते हैं, अज्ञान का नाश होकर ज्ञान का उदय होता है, ग्रहदोष शान्त होते हैं, अकाल मृत्यु, दुर्घटना से रक्षा होती है और मनुष्य दीर्घायु प्राप्त करता है।

    भूमि में जहां पर निधि (खजाना) हो, अस्त्र के प्रभाव से उस स्थान पर निवासित भ्रूत, वेताल एवं अन्य सर्प शक्तियां उस स्थान को छोड़कर पलायन कर जाती हैं। बलि आदि की मांग नहीं करती |

    दुष्ट शत्रुओं का भय होने पर अस्त्र का विधिवत प्रयोग किया जाये तो दिव्यास्त्र शत्रुओं को दण्डित करते हैं जिससे शत्रुबाधा का निवारण होता है। दिव्यास्त्र की सम्पूर्ण सिद्धि होने पर वह अस्त्र मनुष्य की आजीवन रक्षा करता है और मरणोपरान्तु मनुष्य देवलोक को प्राप्त करता है।

    नारायणास्त्र के प्रयोग से दद्धिता एवं दुर्भाग्य से अति शीघ्र मुक्ति मिलती है। यदि शांतिपूर्क एक लाख की संख्या में इस अस्त्र को सिद्ध कर लिया जाये तो तेज, आयु, कीर्ति, धन, यश इन सभी पर मनुष्य अधिकार प्राप्त कर लेता है।

    अस्त्रों की सिद्धि करते समय स्वप्न में या साधना समय में देवता के साथ अस्त्रों के तेजस्वी (क्षणिक) दर्शन होते हैं। कुछ साधकों को जपकाल के समय देवप्रतिमा में उनके अस्त्रशस्त् हिलते हुए दिखायी दिये जाने का अनुभव है।

    बिना योग्यता, परीक्षा, पुरुषार्थ, भाग्य एवं मार्गदर्शन के मनुष्य इस मृत्युलोक की भी कोई वस्तु सिद्ध नहीं कर सकता। देवलोक के अस्त्र-शस्त्रों के दर्शन या सिद्धिकरण की बात तो बहुत दूर की है। इस बात को संदैव स्मरण रखना चाहिये ।



    श्रीब्रह्मासत्र प्रकट मंत्र :-






    ॐ नमो ब्रह्माय नम:। स्मरण-मात्रेण प्रकट्य-प्रकट्य, .. शीघ्र॑ आगच्छ-आगच्छ, मम... सर्व शत्रु नाशय-नाशय, . शत्रु सैन्य॑. नाशय-नाशय, . घातय-घातय, मारय-मारय हुं फट!




    श्रीआग्नेयास्त्र प्रकट मंत्र :-





    “ॐ नमो अग्निदेवाय नमः। शीघ्र '* आगच्छ-आगच्छ मम शत्रु ज्वालय-ज्वालय, नाशय-नाशय हूं फट!




    श्रीअघोरास्त्र-मंत्र :-






    ॐह्रिं स्फुर-स्फुर . प्रस्फुर-प्रस्फुर घोर-घोर-तर तनुरुप चट-चट . प्रचट-प्रचट कह-कह वम-वम बन्ध-बन्ध घातय-घातय हुं फट!”
    श्रीपशुपतास्त्र मंत्र :-

    ॐ श्ली पशुम हुं फट ।।



    श्रीपशुपतास्त्र प्रकट मंत्र :-




    “ऊँ नमो पाशुपतास्त्र! स्मरण मात्रेण प्रकठय-प्रकट्य, . शीघ्र आगच्छ-आगच्छ, मम. सर्व. शत्रुसैन्यं विध्वंसय-विध्वंसय, मारय-मारय हुं फट!”




    श्री यमास्त्र प्रकट मंत्र :-




    ॐ नमो यमदेवताय नमः। स्मरण मात्रेण प्रकटय-प्रकठय। अमुकं शीघ्र मृत्युं हुं फट ।।




    श्री सुदर्शन चक्र मंत्र :-






    “ॐ नमो भगवते सुदर्शनाय भो भो सुदर्शन दुष्ठ॑ दारय-दारय दुरित॑ हन-हन पाएं दह-दह, रोग मर्दय-मर्दय, आरोग्य॑ कुरु-कुरु, ॐ ॐ ह्रां ह्रां ह्रिं ह्रिं दूं दूं फट फट दह-दह हन-हन भीषय-भीषय स्वाहा।।

    श्रीसुदर्शनचक्रास्त्र प्रकट मंत्र :-. “ॐ नमो. सुदर्शनचक्राय, महाचक्राय, शीघ्र आगच्छ-आगच्छ, .. प्रकट्य-प्रकट्य, मम शत्रु काठ्य-काट्य, मारय-मारय, ज्वालय-ज्वालय, विध्वंसय-विध्वंसय, छेदय-छेदय, मम सर्वत्र रक्षय-रक्षय हुं फट!"




    श्री नारायणास्त्र मंत्र :-







    हरि: ॐ नमो भगवते श्रीनारायणाय नमो नारायणाय विश्वमूर्तये नमः श्री पुरुषोत्तमाय पुष्पद्ष्टिं प्रत्यक्ष॑ वा परोक्ष॑ वा. अजीर्ण पंचविषूचिकां हन-हन ऐकाहिकं. द्वयाहिकं त्याहिकं चातुर्थिकं ज्वरं नाशय-नाशय चतुरशीतिवातानष्ठादशकुष्ठान्‌ _ अष्टादशक्षय .. रोगानू _ हन-हन सर्वदोषान्‌ भंजय-भंजय . तत्सर्व॑ नाशय-नाशय. शोषय-शोषय आकर्षय-आकर्षय . शत्रून-शत्रून मारय-मारय . उच्चाठ्योच्चाठ्य विद्वेषय-विद्वेषय स्तम्भय-स्तम्भय निवारय-निवारय विघ्नैहन-विघ्नैहन दह-दह.. मथ-मथ विध्वंसय-विध्वंसय . च्क्रं गृहीत्वा . शीघ्रमागच्छागच्छ. चक्रेण. हत्वा परविद्यां. छेदय-छेदय भ्रेदय-भ्रेदय . चतुःशीतानि . विस्फोट्य-विस्फोट्य . अर्शवातशूलदृष्टि सर्पसिंहव्याघ्र द्विपदचतुष्पद-पद-बाह्मान्दिवि भुव्यन्तरिक्षे अन्येयपि केचितू तान्द्वेषकान्सर्वान्‌ हन-हन विद्युन्मेघनदी-पर्वताटवी-सर्वस्थान रात्रिदिनपथचौरान्‌ वशं कुरु-कुरु हरि. ॐ? नमो भ्रगवते ह्रिं हूं फट स्वाहा ठ: ठं ठं ठ: नमः।।






    श्रीबगलामुखी पंचास्त्र विद्या मंत्र








    वडवामुखी मंत्र :-




    “ॐ हूलिं हूं ग्लैं बगलामुखि हलां हलीं हुलूं सर्वदुष्ठानां हुलैं हुलैं हल: वाचं मुखं पद॑ स्तंभय हल: हूलों हुलैं जिह्वां कीलय हुलूं हलीं हुलां बुद्धि विनाशय ग्लौं हूं ह्रलिंग हूं फट!






    उल्कामुखी मंत्र :-





    “ॐ हलिंग ग्लैं बगलामुखि ॐ: हलिंग ग्लौं सर्वदुष्दनां ॐ: हलिं ग्लैं वाच॑ मुखं पद॑ ऊँ हलिं ग्लौं स्तंभ्य-स्तंभय ऊँ हलिंग ग्लैं जिहवां कीलय ॐ हलिं ग्लौं बुद्धि विनाशय हलिं ॐ ग्लौं हलिं स्वाहा।



    जातवेदमुखी मंत्र :-





    ॐ हलिं हसौं हलिं ॐ बगलामुखि सर्वदुष्ठानां ॐ हलिं हसौं हलिं ॐ वाचं मुखं पदं स्तंभ्य-स्तंभय ॐ हलिं हसौं हलिं ॐ जिहवां कीलय ॐ हलीं हसौं हलिं बुद्धि विनाशय-विनाशय ॐ हलीं हसौं हलिं ॐ स्वाहा।।




    ज्वालामुखी मंत्र :-





    ॐ हलीं रां रिं रूं ह्रैं रौं प्रस्फुर-प्रस्फुर ज्वालामुखि ॐ हलिं रां रिं रुं ह्रैं रौं प्रस्फुर-प्रस्फुर सर्वदुष्ठानां ॐ हलिं रां रिं रुं ह्रैं रौं प्रस्फुर-प्रस्फुर वाच॑ मुखं. पद ' स्तंभय-स्तंभय ॐ हलिं रां रीं रूं ह्रैं रों प्रस्फुर-प्रस्फुर जिहवां कीलय-कीलय ॐ हलिं रां री रू ह्रैं रॉ प्रस्फुर-प्रस्फुर बुद्धि विनाशय-विनाशय ॐ हलिं रां री रूं ह्रैं रॉ प्रस्फुर-प्रस्फुर स्वाहा




    अघोर मंत्र से अस्त्र सिद्धि



     

    ॐ अघोरेभ्योअथघोरेभ्यो घोर घोरतरेभ्य: सर्वेभ्य: सर्वेसबेभ्यों नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्य: ॥ अघोरमन्त्र की. सिद्धि कहीं जाती है--ब्रह्मचर्यपरायण, क्रोधजयी, पश्चाचार प्रवृत्ति वालों से दूर रहने वाला, कौल मार्ग में निरत, वीर श्रेणी का साधक सदाचार युक्त होकर तथा गुरु द्वारा अभिषिक्त होकर अधघोर रूपी. शिव की अर्चना के पश्चात्‌ उक्त मन्त्र का पाँच लाख जप करे । इसमें दिन के समय उपवासी रहे । रात्रि में आहार करने के अनन्तर शुद्ध चित्त एवं शुद्ध अन्तःकरण से जितेन्द्रिय होकर भ्रूमि पर शयन करे । पहले सात अंजली जल से तर्पण करे और रुद्राक्षमाला द्वारा ही उक्त मन्त्र का पाँच लाख जप करे । तदनन्तर ५०००० आहुति भी उक्त मन्त्र द्वारा देनी चाहिए। हवन का कुण्ड शिवशक्ति से उत्पन्न, सटकोन तथा मेखलायुक्त हो, इस उत्तम कुण्ड को एक हाथ गहरे गढ़ढ़े में गाड़ दें ।

    इस कुंड में महा विशाल मुख गहरे वाले सर्प से विभूषित कानों वाले अग्नि चन्द्र सुर्ज रूप तीन नेत्रों वाले कराल दात से युक्त लपल पानी जीभ वाले उर्द्ध मुख अघोर का ध्यान करना चाहिए।मंत्र सिद्धी हेतु मृगी,मुद्रा तथा घृत साथमे समिधा लेकर महारोद्रि भैरव कुण्ड के मुख में होम करके भैरव को संतुष्ट करे ।

    यह अघोर विद्या सभी शास्त्र में गुप्त रखी गई है।यह शिवजी के पश्चिम मुख से अबिरभूत हे तथा पांच प्रणोबो से युक्त है।

    यह विद्या शिव ने मेरू तंत्र में प्रकाशित की है इसके द्वारा पूजन जप तथा होम करने से समस्त सिद्धियां प्राप्त होती हे।

    उक्त मंत्र को सिद्ध करने के बाद साधक जिसके द्वारा ब्रह्मास्त्र प्राप्त कर सकते हे।कोई भी दिव्यास्त्र सिद्ध करने के पूर्व मंत्र प्रक्रिया द्वारा अघोर मंत्र सिद्ध करना चाहिए तब उसे दिव्यास्त्र पाने की साधना करनी चाहिए।

    इसके यज्ञ विधि में पलाश के फूलो में सरसो के बीज को लगाके हवन करने होम सिद्ध होता हे।

    हवन में १००८ आहुति देना पड़ता है।मंत्र

    ॐ अघोररूपे श्रीब्राह्मी अबतर अवतर ब्रह्मास्त्र देहि में देही स्वाहा।।

    ईस मंत्र से उक्त हवन करने से यज्ञ कुण्ड से कलाग्नि तुल्य असुर के लिए भयंकर अति उग्र अस्त्र उत्पन्न होता हे।अस्त्र को धारण मात्र सभी प्रकार की सुख को और सम्मान को प्राप्ति होता हे।

    ॐ अघोर रूपेण श्री महेश्वरी अवतर अवतर पावकास्त्र देही में देही स्वाहा।

    प्रथम अघोर मंत्र सिद्ध करके कलिहारी के फूलों को भेड़ के रक्त में लिपट कर १००८ आहुति देने से महेशी देवी प्रसन्न होकर पबकस्त्र प्रदान करती हे।सिद्ध करने बाला बेक्ति देवताओं जैसी अजय हो जाते है।इस अस्त्र को धारण करके बह साधक शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेता है।
    शक्ति अस्त्र साधना

    ॐ अघोर रुपे श्री कोमारी शक्ति शस्त्र देही मे देही स्वाहा।।

    पहले ५ लाख अघोर मंत्र सिद्ध करके तब भेस के खून में कुमकुम को मिलाकर मंत्र को १००८ आहुति देने से कोमारि देवी प्रसन्न होकर साधक शक्ति नामक अस्त्र देती हे।इस अस्त्र को हात में लेकर समस्त पृथ्वी को तथा राजाओं को भी वशीभूत करके इंद्र के समान अतुल बल शाली प्राप्त करता हे ।



    चन्द्रहास साधना






    श्रीबैश्नबी अवतर अवतर खड्ग देही में देही स्वाहा।।

    पहले ५००००० अघोर मंत्र सिद्ध करने के बाद उल्लू के रक्त से बहेरा के पत्ता को मिलाकर मंत्र से १००८ आहुति देने से बैश्नबी देवी प्रसन्न होकर चंद्रहास नामक अस्त्र प्रदान करती हे।इसे हाथ में धारण करने से समुद्र सहित पृथ्वी का अधिपति बन जाते ।इस अस्त्र को पाकर बरुण के समान बिराजित हो जाते है।

    ॐ अघोर रूपेण श्रीबराही अवतर अवतर बरूनास्त देही में देही स्वाहा।।

    पहले अघोर मंत्र का ५ लाख जप करने के बाद मछली के तेल से बरुण की लकड़ी के द्वारा मंत्र को १००८ आहुति देने से बाराही देवी प्रसन्न होके बरुणस्त्र प्रदान करती हे।इस बरुण अस्त्र सिद्ध होने के बाद भूमि में बारिश के प्लाबन होती हे।





    इंद्र दिव्यास्त्र की साधना







    ॐ अघोररुपे श्रीइंद्राणी अवतर अवतर बज्र देही में देही स्वाहा।।

    पहले ५ लाख अघोरमंत्र का जप करके सिद्ध करने के बाद मनसा बिक्ष के पत्ते को दूध में मिलाकर १००८ बार मंत्र को आहुति देने से इंद्राणी देवी संतुष्ट होकर आपने कुंड में से बज्र प्रदान करती है।इस अस्त्र को सिद्धि करने के बाद शत्रु को जितना भी बलशाली हो ना क्यूं परास्त हो जाते हे।।
    शूलप्राप्ति साधना

    पहले ५ लाख अघोर मंत्र सिद्ध करने के बाद घृत मिलाकर बेल का १००८ बार आहुति देने से महालक्षी प्रसन्न होकर होमकुंड में से त्रिशूल निकल कर साधक को देती हे।इसे धारण करने से सूर असुर दैत्य दानब सबको परास्त कर देता हे।




    बिशेस बाते साधना की 





    जितना भी दिव्यास्त्र की साधना दिया गया हे सब शास्त से लिया हुए हे। यही बिधि को अपना कर पुराण में बहुत मुनि ऋषिया असुर नर अदि दिव्यस्त्र की प्रकट किया। किसीभी साधना करने के लिए उसके मार्ग दर्शक होना जरुरी हे मतलब गुरुकी होना जरुरी हे एक मात्र उचित और योग्य गुरु ही सठिक मार्ग दिखा पायेगा। 

    Post a Comment

    0 Comments
    * Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.