What is traditional education or rule tantric education? पारंपरिक शिक्षा या नियम तांत्रिक शिक्षा क्या है?

What is traditional education or rule tantric education? पारंपरिक शिक्षा या नियम तांत्रिक शिक्षा क्या है?


पारंपरिक शिक्षा या नियम तांत्रिक शिक्षा क्या है 




    मानव-जीवन की आबस्यकताओं और आकांक्षाओं को पुति के अनेक साधनों में “तंत्र' सरल और सुगम साधन है। 

    यह भ्रम सर्वथा निर्मल है कि तन्त्र केवल भूल-भूलैया अथवा मन बहलाने का नाम है । 

    तंत्र का बिज्ञान  प्राचीन साहित्य इसकी वैज्ञानिक सत्यता का जीता-जागता प्रमाण है । 

    आधुनिक विज्ञान और तंत्र में बहुत समानता होते हुए भी तंत्र शास्त्र में स्थायित्व है, सत्य है और कल्याण है। 

    तंत्र शास्त्र-विधान का शास्त्रीय परिचय और विधियों का सर्वागीण ज्ञान साधना को सफल बनाकर सिद्धि तक पहुँचाता है। 

    लोक-कल्याण और आत्म-कल्याण की कामना से किये गये तान्त्रिक कर्म इस लोक और परलोक दोनों में लाभदायी होते हैं।

    नित्यकसें, संक्षिप्त हवन विधि, शास्त्रीय गणपति और गायत्री तंत्र के अमिनव-प्रयोग आफको कष्टों से बचाने में सहायक होंगे । वनस्पति-तन्त्र में सहदेवी, स्बेतर्क, निर्गुण्डी, 'रक्‍तगुंजा, बरगद के कल्प, बन्दे के प्रयोग, विष-निवारण तथा ग्रह-पीड़ाओं से बचने के 'ओषध प्रयोग तथा स्नान-विधि का शास्त्रीय निर्देशन इसमें पहली बार ही दिये गये हैं। 



    तंत्र की कुछ द्व्य प्रयोग




    एकाक्षि-नारिकेल-कल्प, यन्त्र सहित, रत्न-घारण-तन्त्र, दक्षिणा- व्त॑-शंख-कल्प और हाजरात के प्रयोग भी प्रामाणिक रूप से यहाँ प्रकाशित किये गये हैं।प्रत्येक मनुष्य अपने आपको सब ओर से सुखी और सम्पन्न देखना चाहता है। सुख की प्राप्ति के अनेक साधन हैं, उनमें तन्त्र-साधना भी एक है। इस साधना के द्वारा बड़ी-से बड़ी और छोटी-से-छोटी, जैसी भी समस्या हो उसका समाधान सहज प्राप्त किया जा सकता है । 

    भारतीय जीवन में आस्तिकता पुर्णरूप से घुली-मिली है और इसके फल- स्वरूप प्रत्येक भारतीय अपने धर्म और सम्प्रदाय के अनुरूप तान्त्रिक तत्त्वों से सम्बन्ध जोड़कर उससे लाभान्वित होता रहता है। 

    'तन्त्र-शक्ति' में प्रकृति से प्राप्त वस्तुओं के सहयोग से उनमें सोई हुई देवी- शक्ति को जगाकर अपने अनुकूल बनाने और उनके द्वारा अपने इच्छित कार्यों को सफल बनाने की विधि बताई गई है। “उचित समय, उचित देश एवं उचित पद्धति से किए गए कार्य ही वस्तुतः सफल होते हैं, इस बात को ध्यान में रखकर इस ब्लॉग में शास्त्रीय विधियों को बहुत ही सरल भापा में समझाया गया है। इसके अध्ययन से तन्त्र-सम्बन्धी भ्रम का सहज निवारण हो सकेगा । 

    हमारा लक्ष्य रहा है कि पाठकों को “गागर में सागर' के रूप में अनुभुत साहित्य प्रस्तुत करना । “तन्त्र-शक्ति'आपके हाथों में आ रही है। विश्वास है, जिज्ञासु पाठकों के लिए यह अवश्य ही उपयोगी सिद्ध होगी ।




    आकांक्षा और अब्स्यकता




    भगवान्‌ कृष्ण ने गीता में अर्जुन को वोध देते हुए मानव की ईश्वर | अथवा ईश्वरीय-सत्ता-सम्पन्न वस्तुओं के प्रति अभिरुचि के प्रमुख कारण | दिखलाते हुए कहा है कि-- 

    चर्तुविधा भजन्ते मां जना:सुकृतिनोर्जुन । आर्तों जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतषम।

    ॥ अर्थात्‌ भरतवंशियों में श्रेष्ठ, हें अर्जुन ! १. आते--संकट में पड़ा हुआ, २. जिज्ञासु यथार्थ ज्ञान का इच्छुक, ३. अथार्थी--सांसारिक सुखों का अभिलाषी तथा ४. ज्ञानी-ऐसे चार प्रकार के उत्तम कर्मवाले लोग मेरा स्मरण करते हैं । यह कथन सभी के सम्बन्ध में लागू होता है । इन चार कारणों में अन्तिम को छोड़कर शेष तीन तो ऐसे हैं कि इन से कोई बचा हुआ नहीं है। कुछ केवल पीड़ित हैं, कुछ केवल जिज्ञासु हैं और कुछ केवल अ्थार्थी हैं; जबकि अधिकांश बेक्ति तीनों कारणों से ग्रस्त हैं। ऐसे लोगों को आवश्यकताएँ कितनी अधिक होती हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। ये आवश्यकताएँ मूलतः कष्टों से छुटकारा पाने, ज्ञातव्य को जानकर जिज्ञासा को शान्त करने तथा सांसारिक सुखों को प्राप्त करने के लिए निरन्तर बढ़ती रहती हैं । अतः आचार्यों ने इनकी पूर्ति के लिए भी अनेक मार्ग दिखाए हैं--जिनमें 'तस्त्र-साधना' भी एक है । तन्त्र-शक्ति से प्राचीन आचार्यों ने अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त

    की थी और अन्य साधनाओं की अपेक्षा तन्त्र-साधना को सुलभ तथा सरल रूप में प्रस्तुत कर हमारें लिए वरदान ही सिद्ध किया था । यहीं कारण है कि सुपठित, अल्पपठित और अपठित, शहरी तथा ग्रामीण, पुरुष एवं स्त्री सभी तन्त्र द्वारा अपनी-अपनी आबस्यकता की पूर्ति का प्रयत्न करते हैं और पूर्ण सफलता प्राप्त कर लेते हैं। इसीलिए तन्त्र को सभी आबस्यकताओं का पुरक माना जाता है। जब हम दुःखों से मुक्त होते हैं, तो हमारी आकांक्षाएँ कुलाँचें भरने लगती हैं । इच्छाएँ सीमाएँ लांघकर असीम बनती जाती हैं। साथ ही. हम यह भी चाहते हैं कि इन सबकी पूर्ति में अधिक श्रम न उठाना पड़े। ठीक भी है, कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो घोर परिश्रम से साध्य किया की अपेक्षा सरलता से साध्य क्रिया की ओर प्रवृत्त न हो ? तन्त्र वस्तुतः एक ऐसी ही शक्ति है, जिसमें न अधिक कठिनाई है और न अधिक श्रम । थोड़ी-सी विधि और थोड़े-से प्रयास से यदि सिद्ध प्राप्त हो सकती है तो वह तन्त्र से ही । अतः: आब्स्यकता और आकांक्षा की सिद्धि के लिए तन्त्र-शक्ति का सहारा ही एक सर्वसुलभ साधन है ।



    तंत्र : शब्दार्थ ओर परिभाषा


     

    तंत्र शब्द के अर्थ बहुत विस्तृत हैं, उनमें से सिद्धान्त, शासन- प्रबन्ध, व्यवहार, नियम, वेद की एक शाखा, शिव-शक्ति आदि की पूजा और अभिचार आदि का विधान करने वाला शास्त्र, आगम, कमेकाण्ड-पद्धति और अनेक उद्देशों का पूरक उपाय अथवा युक्ति ! प्रस्तुत विषय के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण हैं । वैसे यह शब्द 'तन्‌' और “त्र "इन दो धातुओं से बना है, अतः “'विस्तारपूवंक तत्त्व को अपने अधीन करना ”--यह अर्थ व्याकरण की दृष्टि से स्पष्ट होता है, जबकि 'तत्‌ पद से प्रकृति और परमात्मा तथा “त्र" से स्वाधीन बनाने के भाव को

    ध्यान में रखकर “तन्त्र' का अर्थ--देवताओं के पूजा आदि उपकरणों से प्रकृति और परमेरवर को अपने अनुकूल बनाना होता है । साथ ही परमेशबर की उपासना के लिए जो उपयोगी साधन हैं, वे भी “तन्त्र' ही कहलाते हैं । इन्हीं सब अर्थों को ध्यान में रखकर शास्त्रों में तन्त्र की परिभाषा दी गई है-- सर्वेर्था येन तन्यन्ते त्रायन्ते च भयाज्जनान्‌ । इति तंत्र्स्य तन्त्रत्वं तन्त्रज्ञाः परिचक्षते ॥

     अर्थात--जिसके द्वारा सभी मस्त्रार्थों-अनुष्ठानों का विस्तार- पूवंक विचार ज्ञात हो तथा जिसके अनुसार कर्म करने पर लोगों की भय से रक्षा हो, वही “तन्त्र' है । तन्त्र-शास्त्र के मर्मज्ञों का यही कथन हे तस्त्र का दूसरा नाम “आगम' है । अत: तन्त्र और भागम एक दूसरे के पर्यायवाची हैं । वैसे आगम के बारे में यह प्रसिद्ध है कि-- आगतं शिववक्त्रेभ्यो, गत च गिरिजामुखे । मतं च वासुदेवस्य, तत आगम उच्यते ॥ 

    तात्पर्य यह है कि जो शिवजी के मुखों से आया और पावंतीजी के मुख में पहुँचा तथा भगवान्‌ विष्णु ने अनुमोदित किया, वही आगम है। इस प्रकार आगमों या तन्त्रों के प्रथम प्रवक्ता भगवान्‌ शिव हैं तथा उसमें सम्मति देने वाले विष्णु हैं, जबकि पावंतीजी उसका श्रवण कर, जीवों पर कृपा करके उपदेश देने वाली हैं। अतः भोग और मोक्ष के उपायों को बताने वाला शास्त्र 'आगम' अथवा “तन्त्र' कहलाता है, यह स्पष्ट हैं। 




    तन्त्र और जनसाधारण का भ्रम



     

    तन्त्रों के बारे में अनेक भ्रम फँले हुए हैं। हम अशिक्षितों को

    छोड़ दें, तब भी शिक्षित समाज तन्त्र की वास्तविक भावना से दूर, केवल परम्परा-मूलक धारणाओं के आधार पर इस भ्रम से नहीं छूट पाया है कि “तन्त्र' का अर्थ है--जादू-टोना । अधिकांश जन सोचते हैं कि जैसे सड़क पर खेल करने वाला बाजीगर कुछ समय के लिए अपने करतब दिखलाकर लोगों को आच्चर्य में डाल देता है, उसी प्रकार 'तन्त्र' भी कुछ करतब दिखाने मात्र का शास्त्र होता होगा और जैसे हर की सिद्धि क्षणिक होती है, वैसे ही तान्त्रिक सिद्धि भी क्षणिक होगी | इसके अतिरिक्त तन्त्रों में उत्तरकाल में कुछ ऐसी बातें भी प्रविष्ट हो गईं कि जिनमें पंचमकार--मद्य, मांस, मीन-मछली, मुद्रा और मैथुन का सेवन तथा शव-साधना, बलिदान आदि के निर्देश प्राप्त होते हैं। किन्तु खेद है कि इन बातों को तो लोगों ने देखा, पर इसके साथ ही तन्त्रों की गोपनीयता” की ओर उनका ध्यान नहीं गया । निश्चित ही गोपनोयता के इस रहस्य की पृष्ठभूमि में ये लाक्षणिक शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इन सब निर्देशों का आध्यात्मिक अर्थ है, जिसे शास्त्रों से तथा गुरुपरम्परा से हो जाना जा सकता है। वाममार्ग या वामाचार का अर्थ भी इसी प्रकार संकेत से सम्बद्ध है; इसमें जो बात सामान्य समाज समझता है, वह कदापि नहीं है। एक यह भी कारण इस शास्त्र के प्रति दुर्भाव रखने का है कि मध्यकाल में जब इस देश में बौद्धों के हीनयान का प्रचार बलशाली था तथा विदेशी आक्रमणों से त्रस्त जनता कुछ करने में अपने-आपको अशक्त पाकर ऐसे मार्गों का अवलम्बन ले रही थी, तब हमारे सन्त- कवियों ने स्वयं तन्त्र-साधना के बल पर ही लोगों को “भक्ति की ओर प्रेरित किया, जो आत्मशान्ति और आत्मकल्याण का एक सुगम उपाय था। ऐसे समय में कुछ प्रासंगिक रूप में तन्त्रों की निन्दा भी हुई, जो बाद में हीन-दुष्टि का कारण बनी । 

    अस्तु, यह नितान्त सत्य है कि “तन्त्रों' की उदात्त भावना एवं विशुद्ध आचार-पद्धति के वास्तविक ज्ञान के अभाव से ही लोगों में इस शास्त्र के प्रति घृणा उपजी है और कतिपय स्वार्थी लोग तुच्छ क्रियाओं एवं आडम्बरों के द्वारा जनसाधारण को तन्त्र के नाम पर जो ठग लेते हैं, वह भी इसमें हेतु है। अतः इस साहित्य का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किए बिना घृणा करना भारी भूल है । 



    वस्तुत: 'तन्त्र क्या है ? 



    जैसा कि हमने ऊपर तन्त्र के शब्दा्थे में दिखलाया है कि “यह एक स्वतन्त्र शास्त्र है, जो पुजा और आचार-पद्धति का परिचय देते हुए इच्छित तत्वों को अपने अधीन बनाने का मार्ग दिखलाता है।' इस प्रकार यह “साधना-शास्त्र' है । इसमें साधना के अनेक प्रकार दिखलाए गए हैं, जिनमें देवताओं के स्वरूप, गुण, कर्म आदि के चिन्तन की प्रक्रिया बतलाते हुए “पटल, पद्धति, कवच, सहस्रनाम तथा स्तोत्र -- इन पाँच अंगों वाली पूजा का विधान किया गया है । इन अंगों का विस्तार से परिचय इस प्रकार है :-- 

    (क) पटल--इसमें मुख्यरूप से जिस देवता का पटल होता है, उसका महत्त्व, इच्छित काये की शीघ्र सिद्धि के लिए जप, होम का . सूचन तथा उसमें उपयोगी सामग्रो आदि का निर्देश होता है । साथ ही यदि मन्त्र शापित है, तो उसका शापोद्धार भी दिखलाया जाता है । 

    (ख) पद्धति--इसमें साधना के लिए शास्त्रीय विधि का क्रमशः निर्देश होता है, जिसमें प्रात: स्नान से लेकर पूजा और जप-समाप्ति तक के मन्त्र तथा उनके विनियोग आदि का सांगोपांग वर्णन होता है । इस तरह नित्य पूजा और नैमित्तिक पूजा दोनों प्रकारों का प्रयोग- विधान तथा काम्य-कर्मों का संक्षिप्त सूचन इसमें सरलता से प्राप्त हो जाता है।

    (ग) कवच--प्रत्येक देवता की उपासना में उनके नामों के द्वारा उनका अपने शरीर में निवास तथा रक्षा की प्रार्थना करते हुए जो न्यास किए जाते हैं, वे ही कवच-रूप में वर्णित होते हैं। जब ये 'कवच' न्यास और पाठ" द्वारा सिद्ध हो जाते हैं, तो साधक किसी भी रोगी पर इनके द्वारा झाड़ने-फूंकने की क्रिया करता है और उससे रोग शान्त हो जाते हैं । कवच का पाठ जप के परचात्‌ होता है । भुजपत्र पर कवच का लेखन, पानी का अभिमन्त्रण, तिलकधारण, वलय, ताबीज तथा अन्य धारण-वस्तुओं को अभिमन्त्रित करने का कार्य भी इन्हीं से होता है । 

    (घ) सहस्रनाम--उपास्य देव के हजार नामों का संकलन इस स्तोत्र में रहता है। ये सहस्रनाम ही विविध प्रकार की पुजाओं में स्वतन्त्र पाठ के रूप में तथा हवन-कर्म में प्रयुक्त होते हैं। ये नाम अति रहस्यपुर्ण, देवताओं के गुण-कर्मों का आख्यान करने वाले, मन्त्रमय तक सिद्ध मन्त्र-रूप होते हैं। अतः इनका भी स्वतन्त्र अनुष्ठान होता है ।

    (ड) स्तोत्र--आराध्य देव की स्तुति का संग्रह ही स्तोत्र कहलाता है। प्रधान रूप से स्तोत्रों में गुण-गान एवं प्राथनाएँ रहती हैं; किन्तु कुछ सिद्धस्तोत्रों में मन्त्र-प्रयोग, स्वर्ण आदि बनाने की विधि, यन्त्र बनाने का विधान, औषधि-प्रयोग आदि भी गुप्त संकेतों द्वारा बताए जाते हैं। तत्त्व, पब्जर, उपनिषद्‌ आदि भी इसी के भेद-प्रभेद हैं । सरस साहित्यिक शैली में रचित स्तोत्रों की संख्या अपार है । 

    इन पाँच अंगों से पुर्ण शास्त्र “तन्त्रशास्त्र' कहलाता है। कलियुग में तन्त्रशास्त्रों के अनुसार की जाने वाली साधना शीघ्र फलवती होती।

    है । इसीलिए कहा गया है कि-- बिना ह्मागससारगेण नास्ति सिद्धि: कलो प्रिये ।

     इसी प्रकार 'योगिनी तन्त्र' में तो यहाँ तक कहा गया है कि--  वैदिक मन्त्र विषरहित सर्पों के समान निर्वीयं हो गए हैं । वे सतयुग, त्रेता और द्वापर में सफल थे, किन्तु अब कलियुग में मुतक के समान हैं । जिस प्रकार दीवार में बनी सर्व इत्द्रियों से युक्त पुतलियाँ अशक्त होती हैं, उसी प्रकार तन्त्र से अतिरिक्त मन्त्र-समुदाय अशक्त है । कलियुग में अन्य शास्त्रों द्वारा कथित मन्त्रों से जो सिद्धि चाहता है, वह अपनी प्यास बुझाने के लिए गंगा के पास रहकर भी दुर्बूद्धिवश कुँआ खोदना चाहता है । कलियुग में तन्त्रों में कहे गए मन्त्र सिद्ध हैं तथा शीघ्र सिद्धि देने वाले तथा जप, यज्ञ और क्रिया आदि में भी प्रशस्त हैं । मत्स्यपुराण में कहा गया है कि-- जैसे देवताओं में विष्णु, सरोवरों में समुद्र, नदियों में गंगा और पवंतों में हिमालय श्रेष्ठ हैं, वैसे ही समस्त शास्त्रों में तन्त्र-शास्त्र सर्वे-श्रेष्ठ है । वह सर्व कामनाओं का देनेवाला; पुण्यमय और वेद-सम्मत है । “महानिर्वाण-तन्त्र' में भी कहा गया है कि -- गृहस्थस्य क्रिया: सर्वा आगमोकता: कलौ शीवे । नान्यमार्गे: क्रियासिद्धि: कदापि गृहसेघिनाम्‌ ॥। 

    हे पावंती ! कलियुग में गृहस्थ केवल आगम-तन्त्र के अनुसार ही कार्ये करेंगे । अन्य मार्गों से गृहस्थियों को कभी सिद्धि नहीं होगी । यही कारण है कि उत्तरकाल में तन्त्रशास्त्र और उनके आधार पर होने वाले प्रयोगों पर श्रद्धापुवंक विस्वास ही नहीं किया गया, अपितु स्वयं प्रयत्न करके सुख-सुविधाएँ भी उपलब्ध की गई । यह असत्य नहीं है कि जहाँ जल अधिक होता है, वहाँ कीचड़ भी जम जाता है; इसी प्रकार युगों से चले आए तांत्रिक कर्मों में कुछ सामयिक तथा अन्यदेशीय क्रियाकलापों के प्रभाव से पब्चमकारो- पासना, मलिन प्रक्रिंयाएँ, हिंसक-वृत्ति आदि भी बहुधा समाविष्ट हो गई । इन्द्रिय-लोलुप लोगों ने अपने क्षणिक स्वार्थ को अपनाकर इन बातों को अबोध व्यक्तियों में पर्याप्त विस्तार दिया । फलतः उनका प्रवेश स्थायी हो गया । फिर भी जो महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं, वे नितान्त शुद्ध उपासना और अध्यात्म-तत्त्व पर ही आधारित हैं, जिनका संक्षिप्त परिंचय प्राप्त कर लेना भी इस सम्बन्ध में उपयोगी होगा । 'कुलाणंव-तन्त्र' में 'पब्चमकार' के प्रयोग का निषेघ करते हुए स्पष्ट कहा गया है कि-- मद्यपानेन सनुजो यदि सिद्धि. लभेतु वे। मद्यपानरता: सर्वे सिद्धि गच्छन्तु मानवा: ॥मांसभक्षणमात्रें यदि... पुण्या.. गतिर्भवेत्‌ । लोके मांसाशिन: सर्वे पुण्यभाजो भवन्ति हि ॥। 

    यदि मद्यपान करने से मनुष्य सिद्धि को प्राप्त करता हो, तो सभी शराबी सिद्ध बन जाएँगे। और यदि मांसभक्षण मात्र से अच्छी गति होती हो, तो सभी मांसभक्षी पुण्यात्मा क्यों नहीं बन जाते ?।



    तंत्रों का इतिहास और प्रमुख ग्रंथो




    'तन्त्र' शब्द का अर्थ जितना विस्तृत है, उसका इतिहास भी उतना ही प्राचीन है । हमारे सर्वमान्य तथा प्राचीन ग्रन्थ वेद हैं, जिन्हें  अपौरुषेय'-ईश्वर की वाणी कहा जाता है । सृष्टि के आरम्भ में  ईश्वर की जो वाणी सुनी गई थी, वही वेद है । वेद की चार संहिताएँ हैं--ऋग, यजुः, साम और अथवँ । इन चारों वेदों के एक-एक उपवेद हैं । 'तन्त्र' अथवंवेद का उपवेद है । अत: 'तन्त्र' भी वेदरूप ही है । वैसे अनेक गवेषकों का कथन है कि तन्त्र, वेद से भी प्राचीन है, क्योंकि बीजरूपात्मक ऑंकार का जो सर्वप्रथम आविर्भाव हुआ, उसी से समस्त जगत का विकास हुआ है। ॐ तन्त्र का तत्व हैं। यदि हमारे जीवन से 'तन्त्र' निकाल दिया जाए, तो शेष क्या रहेगा ? आज जितनी भी पूजा, साधना, हवन, तपंण, मार्ज॑न आदि होते हैं, ये सभी तन्त्र के ही तो अंग हैं। “'महानिर्वाण-तन्त्र' में कलियुग में तन्त्रोक्तः विधान को ही सर्वेश्रेष्ठ बतलाया गया है । 

    इस तरह अतिप्राचीन तथा अतिमहत्वपुर्ण इस साहित्य के ग्रन्थों के बारे में भी कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेना आवश्यक है । भारतीय वेद- वेदांग के अध्ययन से उपेक्षित सामान्य वर्ग के लिए दयालु आचार्यों ने विभिन्‍न सम्प्रदायों के उदय के साथ ही तन्त्रों के भी विभिन्‍न सम्प्रदाय विकसित किए और उनके अनुसार ही ग्रन्थों की रचना की, जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है--

    तन्त्र-ग्रन्थों का प्रणयन सर्वप्रथम कब और कहाँ हुआ ?--यह प्रश्न भी आज तक अनुत्तरित ही है। कुछ विद्वानों का मत है कि सर्वप्रथम बंगाल में और साथ-ही-साथ कश्मीर में इसका आलेखन आरम्भ हुआ होगा। आज भारत की स्वतन्त्रता के परचात्‌ विद्वानों का यह दायित्व है कि इसके यत्र-तत्र बिखरे हुए साहित्य को संगृद्दीत करें तथा इसकी ग्रन्थ-सम्पदा को संकलित कर, विश्व खलित कड़ियों को जोड़ें । उपलब्ध तन्त्रग्रन्थों में चार बातें प्रमुख हैं--(१) ज्ञान, (२) योग, (३) क्रिया तथा (४) चर्या । इनमें प्रथम ज्ञान-विभाग में दर्शन के साथ ही मन्त्रों के रहस्यात्मक प्रभाव का वर्णन किया गया है। यन्त्र और मन्त्र भी इसी में आ जाते हैं । योग-विभाग में समाधि और योग के अन्यान्य अंगों की चर्चा प्रमुख है तथा साथ ही यह भी दिखाया गया हैं कि योग के अभ्यास से अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति सहज ही हो जांती है। क्रिया-विभाग में मूर्ति-पुजा का विधान प्रमुख हैं । मूर्ति और मन्दिर का निर्माण तथा प्रतिष्ठा का विधान भी इसमें सम्मिलित है। चर्या-विभाग में उत्सव, व्रत एवं सामाजिक अनुष्ठानों का विवरण प्रस्तुत है। इस प्रकार तन्त्र-ग्रन्थों की विषय-गत व्यापकता दर्शनीय है। इतना ही नहीं, इन ग्रन्थों का दार्शनिक दृष्टि से अनुशीलन करने पर तीन प्रकार के विमर्श प्रतीत होते हैं--(१) द्वेत-विमर्श, (२) अद्वैत- विमर्श तथा (४) द्बेताद्बेता-विमर्श । देवता-भेद से भी इसके अनेक भेद हैं, जिनमें बहुर्चाचत हैं-- (१) वेष्णवतन्त्र, (२) शैवतन्त्र, (३) शाक्ततन्त्र, (४) गाणपत्यतन्त्र, (५) बौद्ध तंत्र (६) जैनतन्त्र आदि । अवान्तर भेदोपभेदों के कारण “इनमें भी कई शाखा-प्रशाखाएँ बनी हुई हैं । व्यवहार में वंष्णवतन्त्र को 'संहिता' कहते हैं, शैवतन्त्र को 'आगम' कहा जाता है तथा शाक्त-

    न्त्र को “तन्त्र' की संज्ञा दी गई है । इसीलिए लोक में 'तन्त्र' का अर्थ 'शाकत श्रागमों को साधना पद्धति” ऐसा प्रचलित है । (१) 



    वेष्णव-तन्त्र क्या हे ?



    इस तन्त्र में 'पान्चरात्र' की प्रमुखता है । पांचरात्र संहिताओं की सूची के अनुसार इसके ग्रन्थों को संख्या २०० से अधिक है । इनमें कुछ ग्रन्थ प्रकाशित भी हो चुके हैं। इनको रचना का काल पाँचवें शतक से सोलहवें शतक तक माना जाता है । इसमें नारदजी शिव से प्रश्न करते हैं तथा शिवजी उसका उत्तर देते हैं । ' ग्रन्थ के वण्यं विषयों में “धर्म, दर्शन, वर्णाश्रम, अक्षरों की दाशंनिक अभिव्यक्ति, दीक्षावर्णन, मन्त्र, यन्त्र, चक्र, योग तथा युद्ध में विजय प्राप्त करानेवाले विधानों की प्रधानता है। इन सबका वर्णन दीक्षात्मक शैली में किया गया है।ईश्वर संहिता, पौष्करसंहिता, तमसंहिता, सात्त्वतसंहिता, बृहदु्रम- संहिता, ज्ञानामृतसारं आदि संहिताओं की रचना उपर्युक्त काल की प्रमुख देन है। ज्ञानामृतसारसंहिता 'नारदपंचरात्र' के नाम से प्रकाशित है। इसमें कृष्ण और राधा के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा है। सभी प्राणियों पर एकाधिपत्य प्राप्त करने के लिए पाँच दिन का अनुष्ठान करने से इसका नाम पाव्चरात्र पड़ा है। इसमें भी आज अनेक सम्प्रदाय प्रचलित हैं; लोग दीक्षित होते हैं तथा पारम्परिक साधना द्वारा स्वं- पर-कल्याण में व्यस्त रहते हैं ।

     


    शौब-तन्त्र क्या हे ?




    शैवागम-साहित्य अति विस्तृत है, क्योंकि इनमें सिद्धान्त शैव, वीरशैव, जंगमशैव, रौद्र, पाशुपत, कापालिक, वाम, भैरव आदि अनेक अवान्तर भेद हैं । अद्वैतदृष्टि से शौवसम्प्रदाय में विक अथवा प्रत्यभिज्ञा और स्पत्द प्रभूति विभाग हैं । अद्वैतमत में भी शवित की प्रधानता मानने पर स्पन्द, महार्थ क्रम इत्यादि भेद प्राप्त होते हैं। १० शोवागम और

    १८ रुद्रागम प्रसिद्ध हैं । यह भी कहा जाता है कि परमशिव की पाँच 'शक्तियाँ--चित्‌, आनन्द, ज्ञान, इच्छा और क्रिया हैं। इसीलिए उन्हें “पब्चवक्त' कहते हैं । उनके पाँच मुखों के नाम ईशान, तत्पुरुष, सद्यो जात, वामदेव और अघोर हैं । इन्हीं पाँच मुखों से निकली वाणियों के प्रस्तार- विस्तार से १० सात्त्विक आगम, १८ रौद्रागम तथा ६४ भेरवागमों की उत्पत्ति हुई है। इनमें भेदप्रधान अवस्था से १० सात्विक आगम, भेदा- भेद प्रधानरूप से १८ रौद्रागम तथा अभेदप्रधान रूप से ६४ भैरवागमों का आविर्भाव हुआ है । 'सम्मोहन-तन्त्र' में बाईस भिन्न-भिन्न आगमों की चर्चा है। इनमें चीनागम, कापालिक, अघोर, जैन तथा बौद्ध आदि आगमों की भी चर्चा है । इनमें पशुपत, सिद्धान्ती और प्रत्यभिज्ञादर्शन प्रसिद्ध एंवं प्रधान हैं । पाशुपत सम्प्रदाय की प्रसिद्धि किसी समय पश्चिम भारत में अधिक थी । सिद्धान्ती सम्प्रदाय का स्थान दक्षिण में है । प्रत्य- भिज्ञा-दर्शन का केन्द्र कश्मीर  है । किसी समय भारतवर्ष में पाशूपत-संस्कृति का व्यापक विस्तार हुआ था | न्यायवातिककार “उद्योतकर' एवं न्यायभूषणकार “भासवंज्ञ' पाशु- 'पत थे । भासवंज्ञ की “गण-कारिका' आकार में यद्यपि छोटी है तथापि यह पाशुपत-दर्शन के विशिष्ट ग्रस्थों में से एक है । यह “पादयुपत-दर्शन “पब्चाथेवाद-दर्शन' तथा 'पब्चाथे लाकुलाम्नाय' से विख्यात था । . प्राचीन 'पाशुपत सूत्रों! पर राशिकर का भाष्य था । वर्तमान में इस पर कौण्डिन्य-भाष्य का प्रकाशन दक्षिण से हुआ है । इसमें कुछ उपागम भी हैं, जो “मृगेन्द्' और 'पुष्कर' नाम ने प्रासिद्ध हैं । इन आगमों में 'सुष्टि प्रलय, देवपूजा, मंत्रसाधन, पुरश्चरण, षट्कमं-साधन और ध्यानयोग'-- इन सात विषयों की प्रधानता रहती है। आगम-प्रामाण्य, शिव पुराण तथा आगम-पुराण में और भी अनेक तान्त्रिक सम्प्रदाय-भेद वर्णित हैं । वैष्णवागमों की अपेक्षा शोवागमों में पर्याप्त विस्तार पाया है तथा इसी में शाक्त शिद्धान्तों का सम्मिश्रण होने से अनेक धाराएँ फल गईं। डॉ० प्रबोधचन्द्र बागची ने 'स्टडीज इन द तन्त्राज' में तरतमभाव से स्थित

    तन्त्रा के तीन विभाग बतलाए हैं--(१) स्रोतो विभाग, (२) पीठ विभाग तथा (३) अग्नय विभाग । इनमें प्रथम विभाग के तीन भेद हैं, जथा-- (१) वाम, (२) दक्षिण तथा (३) सिद्धान्त । इन तीन प्रकार के शैवों की चर्चा “अजितागम' की भूमिका में 'पूर्वकारणागम' के वचन से तथा 'नेत्नतन्त्र' के वचन से इस प्रकार मिलती है--  (१) वामशैव, (२) दक्षिण शोब तथा (३) सिद्धान्त शौब ये संज्ञाएँ बन गई । इधर “सिद्धान्तशिखामणि' में इनका अधिक स्पष्टी- करण देते हुए एक 'मिशशैव' नामक प्रकार और बतलाया है-

    शक्तिप्रधानं वामाख्यं दक्षिण भेरवात्सकम्‌ । सप्तमातुपरं मिश्रं सिद्धान्त॑ वेदसम्मतम्‌ ॥ 

    वर्तमान समय में तन्त्रों के वाम और दक्षिण ये दो मार्ग मिलते हैं । इनमें वाम मार्ग का तात्पर्य पब्चमकार से न होकर “नित्याघोडशिका- नर्ब' के अनुसार 'वामावर्तेन पूजयेतू'  इस पर की गई 'सेतुबन्ध' टीका तथा “सबव्यापसब्यमार्गंस्था' इस 'ललितासहस्रनाम' के सौभाग्य-भास्कर' व्याख्यान द्वारा प्रतिपादित पूजन का प्रकार विशेष है। इन शैवागमों के वक्ता, अनुवक्‍ता, श्रोता उपागमों की चर्चा पाण्डिचेरी से प्रकाशित “रोरवागम' के प्रथम भाग में देखनी चाहिए । 'अजितागम' में भी इस विषय पर पर्याप्त विचार किया गया है । इस विषय के प्रधान ग्रन्थ--'मूलावतार तन्त्र', 'स्वच्छन्द-तन्त्र' और “'कामिक-तन्त्र' आदि हैं।



    शाक्त तंत्र क्या हे ?




    तन्त्रों के पूर्वोक्त तीन विभागों में प्रथम स्रोतोविभाग शैवों का, द्वितीय पीठ विभाग भैरव तथा कौल-मार्गानुयायियों का और तृतीय आम्नाय विभाग शाकतों का है । शाक्त तन्त्र का विस्तार पूर्वोक्त दोनों तन्त्रों की अपेक्षा और भी विस्तृत है । “तन्त्र-सद्भाव' में तो यहाँ तक कहा गया है कि--  

    इसके अनुसार मातुका और वर्ण से निर्मित समस्त विश्व मय ही शिवशक्त्यात्मक है । शक्ति के विभिन्‍न रूप और उपासना के विविध प्रकारों के कारण इसके साहित्य का परिमाण बताना नितान्त कठिन है । अत: हम केवल “त्रिपुरसुन्दरी' की उपासना और उससे सम्बद्ध कतिपय ग्रन्थों की ही चर्चा करेंगे । 

    '्सौन्दर्यलहरी” के टीकाकार “लक्ष्मीधर' ने त्रिपुरोपासना के तीन मतों की चर्चा की है--(१) कौलमत, (२) मिश्रमत और (३) समयिमत इनमें कौलमत के ६४ आगम “नित्याशोडशिकाणंव' में दिखाए गए हैं । जिनमें (१-५) महामाया, शम्बर, योगिनी, जालशम्बर तथा तत्त्व शम्बर ये पाँच तन्त्र स्वच्छन्द, क्रोध, उन्मत्त, उम्र, कपाली, झंकार, शेखर और विजय ये आठ भैरव के तन्त्र,  बहुरूपाष्टक शक्ति तन्त्राष्टक, ज्ञानाणंव हैं । 

    ब्ह्मा, विष्णु रुद्र, जयद्रथ, स्कन्द, उमा, लक्ष्मी और गणेशयामल ये. आठ यामल, (३१) चन्द्रज्ञान, (३२) मालिनीविद्या, (३३) महासम्मोहन, (३४) महोच्छुष्म तन्त्र  वातुल और 

    वातुलोत्तर, (३७) हृदुभेद तन्त्र, (३८) मातृभेद तन्त्र, (३४) गुह्म तन्त्र, (४०) कामिक, (४१) कलावाद, (४२) कलासार, (४३) कुब्जिका मत, (४४) मतोत्तर, (४५) वीणाख्य, (४६-४७) तोतल और त्रोतलोत्तर, (४८) पंचामूत, (४९) रूपभेद, (५०) भूतोड्डामर, (५१) कुलसार, (५२) कुलोड्डीश, (५३) कुल-चूड़ामणि, (५४) स्वज्ञानोत्तर, (५४५) महापिचुमत, (५६) महालक्ष्मीमत, (५७) सिद्धयोगीशबरीमत, (५८- ५६) कुरूपिकामत और रूपिकामत, (६०) सर्वबिरमत, (६१) विमला- मत, (६२) अरुणेश, (६३) मोदिनीश तथा (६४) विशुद्धेशबर इन तन्त्रों की गणना की गई है । मिश्रमतानुयायियों में चन्द्रकला, ज्योत्सनावती, कलानिधि, कुलाणंव, कुलेदव री, भुवनेश्वरी, बाहस्पत्य और दुर्वासमत इन आठ आगमों की स्वीकृति है। समयिमतानुयायी शुभागमपंचक _ को मानते हैं, जिनमें वसिष्ठ, सनक, शुक, सनन्दन और सनत्कुमार इन पाँच मुनियों के द्वारा प्रोक्त संहिताएं आती हैं। कुछ तनत्र ग्रन्थों को भू-मण्डल के क्रमश: १-रथक्रान्त २-विष्णुक्रान्त और ३-अश्वक्रान्त ऐसे तीन विभागों में विभक्त करके उनके अनुसार ही प्रयोग करने का संकेत किया है । इसके अनुसार ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं-- (३) रथक्रान्त तंत्र के ग्रंथ 

    (१) चिन्मय (८) महानिर्वाण (२) मत्स्यसूक्त (३) भरूतडामर (३)महिषमर्दिनी (१०) देवडामर (४) मांतृकोदय (११) विजयचिन्तामणि (५) हंसमहेरवर (१२) एकजटा (६) मेरु (१३) वासुदेवरहस्य (७) महानीला (१४) वृहद्गौतमीय(२५) वर्णोदुधृति (१६) छायानिल (१७) बृहद योनि (१८) ब्रहमज्ञान (१९) गरुड (२०) वर्णविलास (२१) बालाविलास (२२) पुरुषचरणचन्द्रिका (२३) पुरूसचरणरसोल्लास (२४) पंचदशी (२५) पिच्छला (२६) प्रपंचसार (२७) परमेश्वर (२८) नवा रत्नेशबर (२९) नारदीय (३०) नागार्जुन (३१) योगसार (३२) दक्षिणमूति (३३) योगस्वरोदय (३४) यक्षिणीतन्त्र (३४५) स्व रोदय (३६) ज्ञानभैरव (३७) आंकाशभरव (३८) राजराजेद्वरी (३९) रेवती (४०) सारस (४१) इन्द्रजाल (४२) कृकलासदीपक (४३) कंकालमालिनी (४४) कालोत्तम ४५) यक्षधर्म(४६) सरस्वती (४७) शारदा (४८) शक्तिसंगम (४६४) शक्तिकागमसर्वस्व (५०) सम्मो हिनी (५१) आचारसार (५२) चीनासार (५३) षडाम्नाय (४५४) करालभैेरव (५४) शोध (५६) महालक्ष्मी (५७) कंवल्य (५८) कुलसदूभाव (५६) सिद्धितद्धरी (६०) कीर्तिसार (६१) कालभैरव (६२) उड्डामरेइवर (६३) महाकाल (६४) भूतभेरव



    विष्णुक्रांत तंत्र के ग्रंथ 



    १.सिद्धिश्बर २.काली ३. कुलारनब ४. ज्ञानानर्ब ५. नील ६. फेत्कारि ७. देव्यागम ८. उत्तरा ९.श्रीक्रम(०) सिद्धियामल (११) मत्स्यसूक्त (१२) सिद्धसार (१३) सिद्धिसारस्वत  (१४) वाराही (१५) योगिनी (१६) ग्णेशविम्शिणी (१७) नित्या (१८) शिवागम (१९) चामुण्डा (२०) मुण्डमाला (२१) हंसमहेरवर (२२) निरुत्तर (२३) कुलप्रकाशक (२४) देवीकल्प (२५) गन्धवे (२६) क्रियासार (२७) निबन्ध (२५८) स्वतन्त्र (२९) सम्मोहन (३०) तन्त्रराज (३१) ललिता (३२) राधा (३३) मालिनी (५७) विश्वसार (५८) महाकाल (५९) कुलोड्डीश (६०) कुलामृत (६१) कुब्जिका (६२) यन्त्रचिन्तामणि (६३) कालीविलास (६४) मायातन्त्र(३४) रुद्रयामल (३५) वृहत्‌ श्रीक्रम (३६) गवाक्ष (३७) सुकुमुदिनी (३८) विशुद्धेरवर (३६) मालिनीविजय (४०) समयाचार (४१)भैरव (४४)संतकुमार (४५) योनि ४६) तन्त्रान्तर ४७) नवरत्नेशर (४८) कुलचूड़ामणि(४६) भावचूड़ामणि (४०) देवप्रकाश (५६) कामाख्या (५२) कामधेनु (५३) कुमारी (५४) भूतडामर (५५) यांमल (५६) ब्रह्मयामल, 



    अश्वकांत तंत्र ग्रंथो



    (१) भूतशुद्धि (२) गुप्तदीक्षा  (३) वृहतसार (४) तत्त्वसार (५) वर्णसार (६) क्रियासार ७) गुप्ततन्त्र ८) गुप्तसार (९) वृहत्तोडला (१०) वृहन्निवाण (११) वृहत्कंकालिनी (१२) सिद्धातन्त्र (१३) कालतन्त्र (१४) शिवतन्त्र (१५) सारात्सार (१६) गौरीतन्त्र (१७) योगतन्त्र (१८) धर्मकतन्त्र (१९) तत्त्वचिन्तामणि (२०) बिन्दुतन्त्र (२१) महायोगिनी (२२) वृहद्योगिनी (२३) शिवार्चन (२४) सम्वर (२५) शूलिनी (२६) महामालिनी (२७) मोक्ष (२८) वहन्मालिनी (२९६) महामोक्ष ) वृहन्मोक्ष (३१) गोपीतन्त्र (३२) भूतलिपि३३) कामिनी (४९) भूतेश्वर(३४) मोहिनी (५०) गायत्री ३४५) मोहन (४५१) बिशुद्बेशर ३६) समीरण (५२) योगार्णव  (३७) कामकेशर (५३) भैरण्डा (३८) महावीर (५४) मन्त्रचिन्तामणि (३४) चूड़ामणि (५५) यन्त्रचूड़ामणि ४०) गुवेर्चन थ (५६) विद्युल्लता (१) गोप्य (५७) भुवनेसवरी (४२) तीक्ष्ण (५८) लीलावती (३) मंगला (५९) वृहतूचीन (४४) कामरत्न (६०) कुरंज (४५) गोपलीलामृत (६१) जयराधामाधव . (४६) ब्रह्मानन्द (६२) उज्जासक (७) चीन (६३) धूमावती (४८) महानिरुत्तर (६४) शिवा 

    उपर्युक्त मतों एवं ग्रन्थों. के विशदीकरण, 'प्रतिपादन और मार्ग निर्देशन की दृष्टि से अनेक आचार्यों ने तन्त्र-ग्रत्थों की रचना की है। परशुराम कल्पसूत्र, नित्योत्सव, वामकेश्वरतन्त्र, नित्या षोडशीकर्णन, शाक्तप्रमोद, शाक्तानन्दत रंगिणी, प्रपंचसार, तन्त्रालोक आदि सुप्रसिद्ध एवं संग्राह्म ग्रन्थ हैं । इनके अतिरिक्त कतिपय पुजापद्धतियाँ, स्तोत्र और उनके टीका-भाष्यादि भी पर्याप्त प्रकाश डालते हैं । 



    (४) गाणपत्यतन्त्र गणपति को उपासना को लक्ष्य में रखकर रचे गए तन्त्र गाणपत्य




    तनत्र में आते हैं। गणपति के गिरिगणपति, क्षिप्रगणपति, सिद्धिगण- पत्ति, नवनीत गणपति, शक्ति गणपति, उच्छिष्ट गणपति, एकाक्षरी: गणपति आदि स्वरूपों की उपासना शाक्तसंम्मत है। आम्नाय॑भेद से पूर्वाम्नाय के विरंड्चिंगणपित; दक्षिणाम्नाय के लक्ष्मीगणपति, पश्चिमामनाय के विघ्नगणेश् आदि पूज्य हैं । इनके अतिरिक्त हरिद्रा, आर्क, दूर्वा, नवनीत भादि के गणपति और विविध काम्यकर्मों पर आधा- रित विविध आकृतिमूलक गणपति की उपासनाएँ होती हैं । गणेशपुराण इस विषय में संकेत करता है । वैसे जो तन्त्रशास्त्र के मिश्र ग्रन्थ हैं, उनमें तथा समस्त पूजा-पद्धतियों में गणेश की आराधना का विधान मिलता: है। भारत के विभिन्‍न भागों में 'गणपत्यर्वशी्ष' का प्रयोग अत्यधिक प्रचलित हैं, जो दक्षिण-महा राष्ट्र के आचार्यों से प्रभावित है । प्रपल्च- सार, शारदातिलक, मन्त्रमहोदधि, मन्त्रमहाण॑व आदि ग्रन्थों से इस विषय में विस्तृत ज्ञान उपलब्ध किया जा सकता है। 

     


    बौद्धतन्त्र क्या हे ?




    भगवान्‌ बुद्ध के परिनिर्वाण के २८ वर्ष बाद सिंहल के सलय पव॑त पर पाँच संत्कुलों ने बैठकर तेईस प्राथनाएं' कीं । उस समय: भगवान्‌ बुद्ध ने स्वयं गुहपती बज्र पाणि के रूप में अवतार लेकर सभी _ तन्त्रों का उपदेश दिया । इन तन्त्रों को तृतीय सत्कूल राक्षस-सत्कूल ने सात सन्धियों की शक्ति से आकाशकोश में सुरक्षित कर दिया । तद- नन्तर साहोर के सम्राट जः' को स्वप्न हुआ और उन्होंने साधना की , जिसके फलस्वरूप वाराणसी से क्रियातन्त्र, सिंहल के वनभाग से अनु- योगतन्त्र, ज्वालामुखी के शिखर से चर्यायोगतन्त्र तथा उड्यानदेश से आदियोगतन्त्र के ग्रन्थ प्राप्त हुए । ये ग्रव्थ महा आचायें आनन्दबज्र को प्राप्त हुए । तब उन्होंने इनका आलेखन किया । भारत में आचाये शान्तरक्षित तथा आचाय॑ पद्मसम्भव बौद्धतन्त्रविद्या में परम निष्णात थे । इन्हीं आचार्यों ने तिब्बत में जाकर “बसम्‌-यस-अचिन्ता' महा-

    विहार की स्थापना की तथा उसकी प्रतिष्ठा में क्षुद्र देवताओं द्वारा किए गए उपद्रवों का शमन किया । फलतः: तिब्बत के अनेक तन्त्रग्रन्थों का वहाँ अनुवाद हुआ । बज्र जान और हीनयान नाम से इनकी दो शाखाएं हैं । बज्र जान के पिटकों में विशुद्ध मुक्ति का सहज मार्ग है । इसीलिए यह हीनयान तथा सामान्य महायान से अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। महा आचार्य श्रीसिंह तथा महां आचार्य हुंकार ने विदेश से आए अनेक जिज्ञासुओं को भारत में विशुद्ध तन्त्र का ज्ञान दिया था तथा महाभिषेक किया था । तारा इस मत की उपास्या देवी हैं। अब कुछ ग्रन्थ संस्कृत में प्रकाशित भी हो चूके हैं। आचार्य पद्म- सम्भव ने 'बसम्‌-यस्‌ मछिम्लफ्‌' में महान्‌ अष्ट साधनाओं के मण्डल द्वारा वहाँ के राजा और शिष्यों को अभिषिक्त कर प्रत्येक को एक- 


    एक सिद्धि का भार दिया था । परिणामतः शिष्यों ने अपने-अपने कल के अनुसार सिद्धियाँ प्राप्त कीं थीं। इस प्रकार बौद्ध तन्त्र साहित्य कें ग्रन्थ भी प्रचुरमात्रा में प्राप्त होते हैं, जिनका अनुशीलन भारत में कुछ अंशों में प्रचलित है । 



    जैन तंत्र क्या हे ?



    जैनधर्म के आद्य तीर्थंकर ऋषभदेव ही जैनतन्त्र के प्रवतैक मानें जाते हैं। ऋषभदेव के पुत्र नमिनाथ को नागराज ने आकाशगामिनी विद्या दी थी । इसी प्रकार गन्धव और पत्नगों को भी नागराज ने ४८ हजार विद्याएँ दी थीं । इसका वर्णन वसुदेव-हिण्डी के चौथे लम्भक में प्राप्त होता है। विद्याओं के धारक विद्याधर होते हैं । दिगम्बर ग्रन्थों में ५०० महाविद्याओं तथा ७०० विद्याओं का वर्णन है । दवेता- स्व॒रों के ग्रन्थ संमवायांग में स्पष्ट हैं कि विद्यानुवाद में १५ वस्तुएं ली गई तथा जैनाचार्यों के ४ कुलों में एक विद्याधर कूल था । विद्या चारण मुनि और ऋद्धिवाले मनुष्यों में पूव॑ चारण होते थे । लब्धि- तप द्वारा प्राप्त होती है। स्त्रीदेवताधिष्ठित बिद्दा जपादिसाध्य तथा

    पुरुषदेवताधिष्ठित मन्त्र पाठसाध्य माने गए हैं । वस्तुत: तन्त्र सम्प्रदाय का प्रवर्तन तेईसवें तीर्थक र श्रीपार्श्वताथ से अधिक पुष्ट रूप में हुआ है। निशीथसूत्र एवं कुछ अन्य आगमों में सर्वप्रथम नमस्कार मन्त्र और उसकी साधना पर विशेष बल दिया गया है सुरिमन्त्र एवं अन्य कतिपय विद्याओं का उल्लेख भी इन ग्रन्थों में है । पंचमचरित्र, वसुदेवहिन्डी, त्रिशष्टिशलाकापुरुष चित आदि ग्रन्थों में विद्याओं का वर्णन है । उत्तरकाल के आचायों में श्री सिंहतिलक सूरि ने “मन्त्रराजरहस्य' और 'तन्त्रलीलावती' का प्रणयन किया है । श्रीजिनप्रभसूरि को पद्मावती देवी के वर से मन्त्रतन्त्रादि का ज्ञान मिला, जिनका संग्रह 'रहस्यकत्पद्रूम' नामक ग्रन्थ में हुआ । इस ग्रेन्थ का कुछ अंश बीकानेर में नाहटाजी की लायब्रेरी में सुरक्षित है । श्री हलाचायें का “ज्वालिनीमत' इस परम्परा का उत्तम ग्रन्थ है । इसमें (१) मन्त्री, (२). ग्रह, (३) मुद्रा, (४) मण्डल, (५) कट्तैल; (६) वच्ययन्त्र, (७) सुगर्ध, (८) स्नपनविधि, (९) नीराजन विधि और (१०) साधनाविधि नामक दस अधिकार हैं । श्री सिद्धसेन दिवाकर, अकलंकदेव, जिनदत्तसूरि, मुनि गुणाकर, कुन्दकुन्दाचाये, हेमचन्द्रा चार्य, इंद्रनन्दि आदि अनेक आचार्यों का जेन- तन्त्र साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान है। अनेक मन्त्रगभ-स्तोत्र उवस- ग्गहर, भत्तिब्भर, नमिऊण, लघुशान्ति, भवतामर, कत्याण-मन्दिर आदि इस दिशा में उत्तम सहायक हैं । सिद्धचक्र और ऋषिमण्डल-यन्त्रों का प्रचार भी पर्याप्त हो रहा हैं । भैरवपद्मावती कल्प, सुरिमन्त्र कल्प, अर्जुनपताका, नमस्कार-यन्त्र यन्त्रचिन्तामणि आदि ग्रन्थों के अतिरिक्त एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ 'विद्यानुशासन' है। इस एक ही नाम के ग्रंथ की रचना विभिन्‍न आचार्यों ने की है, यथा इन्द्रनन्दि, मल्लिषेण, सुकूमार सेन तथा मतिसागर आदि । मल्लिषेण रचित “विद्यातुशासन' ११वीं शती का एक उत्तम ग्रंथ है। इसमें २४ अधिकार तथा प्रायः ५ हजार पद्य हैं। इसकी विशेषता यह है कि तन्त्र-शास्त्र में ग्राह्म सभी विषयों

    का यथावत्‌ समाकलन इसमें किया गया है। पंच-नमस्कार एवं पाश्बनाथ की उपासना के अतिरिक्त अनेक देव-देवताओं की आराधना का भी समन्त्रक निर्देश है । जैन धर्म की विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए मस्त्रव्याकरण और सन्तान-प्राप्ति आदि के विभिन्‍न प्रयोग इसके मौलिक विषय हैं । वन्ध्यादिदोषवारण, बालरोग-विज्ञान, गर्भस्थिति-काल के क्रमिक रक्षाप्रयोग, सर्पविज्ञान, विषविज्ञान, निधिगर्भ भू-परीक्षण का विषयों का एकत्र संकलन इस ग्रन्थ की महत्ता में चार चाँद लगाता । 


    जैनाचार्यों ने यन्त्र-मन्त्रादि से युवत एक विशिष्ट साधनमागं को भी 'तन्त्र' कहा है। महान्‌ तन्त्रज्ञ “नागार्जुन” एक राजकुमार थे, किन्तु उनकी माता नागकन्या थी। कहा जाता है कि एक बार एक राजकुमार शिकार करने के लिए आबू पर्वत पर गया और प्रसंगवश शिकार के पीछे भागते-भागते वह ऐसे क्षेत्र में पहुँच गया, जहाँ 'नागमती' नामक नागराज की पुत्री युवती कन्या के रूप में अपनी सखियों के साथ क्रीड़ा कर रही थी। राजकुमार उसे देखकर मुग्द हो गया और राजकुमार पर नागमती। परस्पर आकर्षण से दोनों का प्रणय-सम्बन्ध हो गया और इसकी परिणति “नागार्जुन' नामक पुत्र के रूप में हुई । माता ने पुत्र को अपनी जाति के अनुसार विविध औषधियों के गुण-दोषों से परिचित कराया और बाद में बड़ा होने पर वह एक महान्‌ तान्त्रिक हुआ। इसने अपने द्वारा सिद्ध किए हुए तान्त्रिक प्रयोगों का संग्रह एक ग्रन्थ में किया था और उसे वह सदा अपनी काँख में ही रखता था । इसी के आधार पर उसका नाम “'कक्ष- पुटी' हो गया । 

    इस ग्रन्थ में सामान्य औषध प्रयोग तथा अन्यान्य मन्त्रों के साथ ही पारद (पारे) के प्रयोग, सुवर्णसिद्धि एवं अन्य रसायनसिद्धि के भी प्रयोग लिखे हुए थे ।

    नागार्जुन को बौद्ध, जैन और सनातन सम्प्रदाय में सभी ने अपने अपने मत का अनुयायी माना है । कुछ भी हो; जैन सम्प्रदाय में आज अनेक ग्रन्थ सुरक्षित प्राप्त होते हैं, जिनका तन्त्र की दृष्टि से बहुत महत्त्व है । 

    इसी परम्परा में छोटे-छोटे कल्प भी तन्त्र के ही अंग हैं, जिनमें किसी एक वस्तु-विशेष को लक्ष्य में रखकर अथवा किसी देवता-विशेष को ध्यान में रखकर .प्रयोग-विधियों का संग्रह दिया गया है, जिनमें एकाक्षि नारियल, दक्षिणावर्त-शंख, एक मुखी रुद्राक्ष, सुवर्णसिद्धि, पारद- सिद्धि आदि से सम्बद्ध कल्पों का विशेष प्रचार है ।” 

    इनके अतिरिक्त भी शाबर तन्त्र, डामर-तन्त्र, मुस्लिम-तन्त्र तथा लोकभाषात्मक तन्त्र प्रयोगों के ग्रन्थ यत्र-तत्र प्राप्त होते हैं, जिनका परिचय अन्यान्य ग्रन्थों से प्राप्त करना चाहिए । 

    इन तन्त्र-ग्रन्थों के इतिहास से इतना अवश्य स्पष्ट हो जाता है कि यह साहित्य एक महत्त्वपूर्ण स्थान को प्राप्त है तथा इसका विस्तार बहुत प्राचीनकाल से होता चला आया है । साथ ही यह भी ज्ञात हों जाता है कि इनके आधार पर लाखों नर-नारियों ने दुःखों से मुक्ति पाकर जीवन के कण्टकाकीर्ण मार्गों को सुगम बनाया है और सुख- सुविधाएं उपलब्ध की हैं ।

    आधुनिक विज्ञान और तंत्र

    प्रत्येक बुद्धि-सम्पन्‍न व्यक्ति के मन में सदैव एक यह॒तकं॑ उठता रहता हैं कि--“आज विज्ञान जितना विकसित हो गया है और हमारे जीवन की आवद्यकताओं की पूरतति करता है, उसी तरह तंत्र से भी पूरति सम्भव है क्या ?” अथवां “जब विज्ञान ने सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के उपकरण उपस्थित कर दिए हैं, फिर तन्त्र और उनकी साधनाओं से क्या लाभ है ?” 

    इन दोनों प्रश्न का समाधान हम इस प्रकार कर सकते हैं-- “विज्ञान जिन साधनों से हंमांरी आवश्यकताओं की पूरति करता है, वे साधन क्रमश: एक-दूसरे के अधीन हैं, अर्थात्‌ वे परापेक्षी हैं, उनका उप- योग स्वतन्त्र रूप से नहीं हों सकता, जबकि तन्त्र-साधना द्वारा स्वतन्त्र रूप से सिद्धि प्राप्त की जा सकती है । विज्ञान की सिद्धि कुछ समय तक: ही लाभप्रद होती है, किन्तु तन्त्र द्वारा प्राप्त सिद्धि चिर-स्थायी हो सकती है । विज्ञान बाह्य रूप से सहयोगी बनता है, जबकि तन्त्र हमारे आन्तरिक मस्तिष्क को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हैं। इसलिए परतन्त्रता की अपेक्षा स्वतन्त्रता ही श्रेयस्कर है। 

    वैसे विज्ञान के लक्ष्य भौतिक कार्यों की उपलब्धि तक ही सीमित हैं, जबकि तन्त्र का उद्देश्य इस लोक की सुख-सुविधाओं की पूर्ति के साथ-साथ जीव को दिव्यस्वरूप बनाना भी है। जीव और शिव की व्याख्या 'कुलाणंव-तन्त्र' में इस प्रकार दी गई है--

    अर्थात्‌ घृणा, लज्जा, भय, शंका, जुगुप्सा-निन्दा, कुल, शील और जाति ये आठ पाश कहे गए हैं, इनसे जो बँधा हुआ है, वह जीव है । इन्हीं पाशों से छुड़ाकर (तन्त्र जीव को) सदाशिव बनाते हैं। इस तरह दोनों के उद्देग्यों में भी पर्याप्त अन्तर है और विज्ञान से तन्त्रों के उद्देश्य महान्‌ हैं । 

    तन्त्रों की इस स्वतन्त्र वैज्ञानिकता के कारण ही प्रकृति की चेतन- 'अचेतन सभी वस्तुओं में आकर्षण-बिकर्षण उत्पन्न करे, अपने अधीन बनाने के लिए कुछ दैवी तथ्यों का आकलन किया गया है । जैसे विज्ञान 'एक ऊर्जा शक्ति से विभिन्‍न यन्त्रों के सहारे स्वेच्छानुसार रेल, तार, मोटर, बिजली आदि का प्रयोग करने के द्वार खोलता है, वैसे ही तन्त्र- विज्ञान परमाणु से महतत्व तक की सभी वस्तुओं को आध्यात्मिक एवं 'उपासना-प्रक्रिया द्वारा उन पर अपना आंधिपत्य जमाने की ऊर्जा प्रदान करता हैं । अनुपयोगी तथा अनिष्टकारी तत्त्वों पर नियन्त्रण रखने की शक्ति पैदा करता है तथा इन्हीं के माध्यम से अपने परम तथा चरम 'लक्ष्य की सिद्धि तक पहुँचाता है । 

    मन्त्र, जप एवं तान्त्रिक विधानों के बल पर मानव की चेतना ग्रंथियाँ इतनी जागृत हो जाती हैं कि उनके इशारे पर बड़ी-से-बड़ी शक्ति से सम्पन्न तत्त्व भी वशीभ्रूत हो जाते हैं । तान्त्रिका-साधनानिष्ठ 'होने पर वाणी, शरीर तथा मन इतने सशक्त बन जाते हैं कि उत्तम इच्छाओं की प्राप्ति तथा अनुत्तम भावनाओं का प्रतीकार सहज बन जाता है । भारत तन्त्रविद्या का आगार रहा है । प्राचीनकाल में तन्त्र- 'विज्ञान पूर्ण विकास पर था, जिसके परिणामस्वरूप ही ऋषि-मुनि, सन्त-साधु, यती-संन्यासी, उपासक-आराधक अपना और जगत्‌ का

    कल्याण करने के लिए असाध्य कों साध्य बना लेते थे । 



    मन्त्राधीनास्तु देवता: 



    इस उक्ति के अनुसार देवताओं को अपने अनुकूल बनाकर छायापुरुष, ब्रह्मराक्षस, योगिनी, यक्षिणी: आदि को. सिद्ध कर लेते थे और उनसे भूत-भविष्य का ज्ञान तथा अतकित- अकल्पित कार्यों की सिद्धि करवा लेते थे । 

    पारद, रस, भस्म और धातु-सिद्धि के बल पर दान-पुण्य, जीवन की आवश्यकताओं की पुति, बड़े-बड़े यज्ञ-योगादि के लिए अपेक्षित सामग्री की प्राप्ति आदि सहज ही कर लेते थे और सदा अयाचक वृत्ति से जीवन बिताते थे । 


    यह सत्य है कि सभी वस्तुओं के सब अधिकारी नहीं होते हैं और न सभी लोग सब तरह के विधानों के जानने के ही। साधना को गुप्त रखने का तन्त्रशास्त्रीय आदेश भी इसीलिए प्रसिद्ध है-- 



    गोपनीयं गोपनीयं गोपनीय प्रयत्नतः 



    और-- (प्रयत्नपूवक मौन रखिये ताकि आपके होठ सदा के लिये बन्द न हो जायेँ ।) अतः सारांश यह हैं कि ऐसी वस्तुओं को गुप्त रखने में ही सिद्धि हैं । 

    तन्त्र योग में शरीर और ब्रह्माण्ड का जितना अद्भुत साम्य . दिखाया गया है, वैसा अन्यत्र कहीं भी दुर्लभ है। “यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' (जैसा पिंण्ड-शरी र में, . वैसा ही ब्रह्माण्ड में) इस उक्ति को केवल पुस्तकों तक ही सीमित न रखकर प्रत्येक वस्तु को उसके गुणों के अनुसार पहचानकर उसका उचित तन्त्र द्वारा विनियोग करते हुए पत्यक्ष कर दिया है ।

    तन्त्र के प्रयोगों में भी एक अपूर्व वैज्ञानिकता है, जो प्रकृति से प्राप्त पंचभूतात्मक पृथ्वी, जल, तेज, अग्नि, वायु और आकाश-- वस्तुओं के सहयोग से जैसे एक वैज्ञानिक रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा नवीन वस्तु की उपलब्धि करता हैं वैसे ही--नई-नई सिद्धियों को प्राप्त 

    करता है। तन्त्रों ने प्रकृति के साथ बड़ा ही गहरा सम्बन्ध स्थापित कर रखा है। इसमें छोटे पीधों की जड़ें, पत्ते, शाखाएँ, पुष्प और फल सभी अभि- मन्त्रित उपयोग में लिए जाते हैं। मोर के पंख तान्त्रिक विधान में “पिच्छक' बनाने में काम आते हैं तो माष के दाने कुछ प्रयोगों में अत्या-बश्यक होते हैं । सुये-ग्रहण और चन्द्र-ग्रहण में तान्त्रिक-साधना का बड़ा ही महत्त्व हैं।शामशान, शुन्यागार, कुछ वृक्षों की छाया; नदी-तठ आदि इस साधना में विशेष महत्त्व रखते हैं । 

    स्नान, गन्ध, अक्षत, पुष्प, घूप, दीप, नैवेद्थ, आरती और पुष्पांजलि आदि पूजा-पद्धति की क्रियाएं तन्त्रों के द्वारा ही सर्वत्र व्याप्त हुई हैं । इस तरह तन्त्र विज्ञान और विज्ञान तन्त्र का परस्पर पूरक है, यह कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं है । 




    तन्त्र-साधना से पूर्व विचारणीय 



    किसी भी कार्य का आरम्भ करने से पहले पर्याप्त सोच-विचारकर, उससे होने वाले फलाफल के प्रति अपनी निश्चित धारणा बना लेनी चाहिए । 'देह पातयामि वा कार्य साधयामि--शरीर को नष्ट कर दूँ (पर) कायें को सिद्ध करूं'--ऐसी तैयारी होने से साहस बढ़ता है और विघ्न-बाधाएंँ लक्ष्य के प्रति बढ़ने से रोक नहीं सकती । 

    इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि--किसी एक प्रकार की साधना पर मन को स्थिर न करें । जैसे सृष्टि की प्रत्येक वस्तु में कुछ- न-कुछ अन्तर होने के कारण विविधता रहती है, उसी प्रकार साधनाओं में भी छोटी-बड़ी विषमता रखते हुए विविधता दिखलाई गई है, किन्तु सिद्धि सभी से होती है । अतः जिस प्रकार की साधना की ओर अपना मन लगे अथवा किसी महात्मा, विद्वान, हितैषी या गुरु के द्वारा उपदेश प्राप्त हो, उसी पर स्थिर-विश्वास रखकर आगे बढ़ना चाहिए। ऐसी साधनाओं में विशेष रूप से विश्वास होने से ही श्रद्धा जम जाती है और श्रद्धालु पुरुष ही अपने कार्यों में दत्त-चित्त होकर अपने प्रयत्नों से विजय प्राप्त करता है । 

    शुद्ध श्राराधना जब मन में दृढ़ निस्चय हो जाए, तो सबसे पहले सात प्रकार की 

    शुद्धियों पर अवस्य ध्यान देना चाहिए । इन शुद्धियों के बारे में कहा गया हैं कि-- 

    अंग वसन मन भूमिका,द्रव्योपकरण सार । 

    न्याय द्रव्य विधि-शुद्धता, सुद्धि सात प्रकार ॥ 

    अर्थात्‌ आराधना करते समय (१) शरीर, (२) वस्त्र, (३) मन, (४) भुमि, (५) द्रव्य-सामग्री, (६) न्याय पूर्वक उर्पाजित धन और (७) विधि की शुद्धता इन सात शुद्धियों पर ध्यान रखने से उत्तम फल प्राप्त होता है । 

    बहुत बार. ऐसा होता है कि -दुःखी ' व्यक्ति अपनी साध्य-दुष्टि से शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त करने के लिए विधान कुछ कम होता हैं तो; अथवा शुद्धि में वास्तविकता न हो, तब भी उसकी तरफ सावधानी नहीं रखते तथा फल-सिद्धि देखने को लालायित रहते हैं । इस तरह के शीघ्रस्वभावी साधक को सावधान करने के लिए कहा गया हैं कि जैसे बिना विधि के विद्या-ग्रहणादि कार्य संसार में नहीं किए जाते, क्योंकि विधि-रहित इन विद्याओं के ग्रहण से विपरीत फल होता हैं, इसीं प्रकार साधक को साधना में भी विधिहदीनता से कोई कर्म तहीं करना चाहिएं। साथ ही पहले विधान को ठीक तरह से समझ कर साधना करनी चाहिए । जिस मनुष्य से विधान बरावर नहीं होता हैं; वह असिद्धि में विद्या का दोष बताता है। 



    साधक की योग्यता 



    साधना करने से पहले प्रत्येक साधक को चाहिए कि वह 'इस कार्य को करने की योग्यता स्वयं में है अथवा नहीं ?' यह अबस्य विचार करे जैसे कि किसी ओषधि को पुष्टि-कारक बनाने के लिए वैद्य ने उत्तमोत्तम सामग्री और शास्त्रीय विधान के अनुसार उसका निर्माण भी किया; किन्तु उसे पचाने की शक्ति खाने वाले के शरीर में नहीं हो, तो उसमें वैद्य का कया दोष हैं? और औषधि का लाभ भी क्या होगा ? अथवा पचाने की शवित रहने पर भी उसके पथ्य के रूप में बताए गए नियमों कां यथावत्‌ पालन नहीं किया जाए तो रोग-शमन की अपेक्षा रोग और बढ़ेगा ही । ऐसी परिस्थिति में ओषधि और वैद्य दोनों का क्या दोष है ? अतः यह पूर्णरूपेण ध्यान रखना चाहिए कि किसी प्रकार की साधना करते से पहले अपनी योग्यता, पात्रता, आत्मबल एवं दृढ़ता का विचार करके ही सिद्धि के लिए प्रयास करें तथा प्रभु-कृुपा से सिद्धि प्राप्त हो जाए, तो उसका अनुचित उपयोग न करें । 



    निरन्तर प्रयत्न 



    'देवता मन्त्रों के अधीन हैं' । अतः वे साधक की पूर्णरूपेण सहायता करते हैं। किन्तु कभी-कभी साधक के पुण्यों की न्यूनता के कारण जो फल तत्काल प्राप्त होनी चाहिए, वह उस समय नहीं मिल पाता और

    उसका परिणाम यह होता है कि जपकर्ता-साधक कुछ हताश हो जाता: है। धीरे-धीरे उसके प्रयास में शिथिलता आने लगती है। और कभी- कभी तो ऐसी स्थिति भी आ जाती है कि वह सिद्धि के द्वार पर पहुँच : कर भी लौट आता है । 

    इसके लिए एक बात समझ लें, कि जैसे दो बालकों का जन्म एक ही समय में होता है और उनके जन्म-समय के ग्रहों के योग भी समान .. होते हैं, फिर भी एक राज्य करता है और एक ऑफीसरी । काम दोनों के समान हैं, किन्तु पद में अन्तर आ जाता है । तब यही कहना पड़ता है कि राज्य करने वाले के पुण्य प्रबल थे और दुसरे के कम । इसी प्रकार साधना करने वालों के फल में भी तरतमता हो जाती है। अत: हताश या शिथिल न होकर निरन्तर प्रयत्न करते रहें । 



    कुछ बिशेस बाते 




    साधक के लिए यह अत्यावदयक है कि वह किसी भी साधना अथवा' प्रयोग में समान-शक्ति का चिन्तन करे अर्थात्‌ प्रयोग छोटा हो, अथवा बड़ा; कार्य सभी सम्पन्न करने हैं, अत: उनमें किसी प्रकार से हीनभाव न आने दे तथा कर्तव्य कर्मों के प्रति भी उदास भाव न रखे । यदि कर्ता के मन में छोटा-बड़ापन घर कर जाएगा, तो क्रिया में अन्तर आ जाएगा और क्रिया में अन्तर आ जाने से सफलता में भी अन्तर आ जाएगा । 

    साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सभी प्रकार के प्रयोगों में शास्त्र ही प्रमाण हैं और शास्त्रों के आदेशों के अनुसार किए गए कायें ही सफल होते हैं । अत: उसमें अपने मन की प्रवृत्ति के आधार पर इच्छानुसार परिवतंन अथवा मिश्रण न करें । हमारे तन्त्रों में ऐसे मिश्रण के कारण ही वास्तविकता से हम दूर हो गए हैं और यथार्थ को छोड़कर कल्पित को ही अपनाए हुए हैं ।

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