वनस्पति तंत्र ||vanaspati tantra

वनस्पति तंत्र ||vanaspati tantra


वनस्पति तंत्र (Vanaspati Tantra)




    आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि--"वृक्ष प्राणियों के समान ही चेतना सम्पन्न हैं और इनमें भी चेतन प्राणी के समान सुख- दुःख का अनुभव होता है।” और इससे भी अधिक दैवी-शक्ति का निवास हमारे प्राचीन आचार्यों ने वृक्षों में माना था और यही कारण था कि वृक्षों के पाँचों अंग--१-मूल, २-शाखा, ३-पत्र, ४-पुष्प और ५-फल को विभिन्‍न रूप से उपयोगी घोषित कर उनको भी उपासना में आदरणोय स्थान दिया । तन्त्र में भी वनस्पति के पाँचों अंग महत्त्व- पुर्ण माने गए है।

    इनमें कई औषधियाँ हमारी परिचित और अनुभूत हैं। इश्वरि- ककड़ी, कुमारी-वड़ी इलायची, वैष्णवी-तुलसी, वाराही-जल-बेंत,. बजरिनी-थूहर, चण्डी-सोंफ, सोवा सफेद दूब, लांगली-मजीठ, नारि- यल, केवाँच; राजी-राई, मुदुगरी-मोगरा, भूतकेशी-स्वेततुलसी, सोम-- राजी-बाकुची इत्यादि के अभिमन्त्रक, तान्त्रिक प्रयोगों का विधान आदि का उल्लेख भी तन्त्रग्रन्थों में यत्र-तत्र प्राप्त होता है। हम इनमें से क्‌छः वनस्पतियों का विधिपुवंक प्रयोग आगे प्रस्तुत करेंगे । 

    वैसे इन्हीं वनस्पतियों के सूखे हुए अंशों से धूप बनाकर भी साधना को जाती है । षडंग धूप, अष्टांग या दशांग धूप के विधान भी हम आगे. प्रस्तुत करेंगे । 

    वनस्पति हमारे जीवन के लिये कितनी उपयोगी है, यह किसी से छिपा नहीं है। दैवी-शक्ति से सम्पन्न कुछ वृक्षों की नित्य पूजा का विधान भी शास्त्रों में प्राप्त होता है। यही कारण है कि भारतीय आस्तिक समाज ऐसे वृक्षों की नित्य पूजा करता है । वट, पीपल, तुलसी, आँवला और केले के वृक्षों की जल सींचकर गन्धाक्षत से पुजा की जाती है । यदा कदा दूध भी चढ़ाते हैं । कच्चा सूत अथवा मौली चढ़ाई जाती है । तुलसी का विवाह भी इसी आचार में आता है। 

    वनस्पति का प्रयोग तिलक के लिए भी होता है । चन्दन, हल्दी या. अन्य वनौषधियों को घिसकर ललाट पर लगाने में भी तान्त्रिक रहस्य छिपा हुआ है। कहीं-कहीं इन्हें अभिमन्त्रित करके कंटि, भुजा, कण्ठ: और शिखा-स्थान पर काले, लाल या अन्य रंग के ऊनी डोरे या वस्त्र मैं बांधकर धारण करने का विधान आता हे ,तो कही कही इन्हे जल में मिलाकर स्नान करने की विधि हे और कुछ को तेल का प्रयोग भी मिलता हे।इनमे कुछ प्रयोग आगे बताएंगे




    वनस्पति जड़ लाने का विधि




    सर्वबिध ओसुधी को मूलिका या जड़ ग्रहण के लिए कुछ विधि विधान हे।

    शनिवार अथवा किसी पर्व के दिन के पहले जिस वृक्ष की जड़ लाना हे उसको बहा पड़ पवित्र होकर संध्या काल को जय तथा मम कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा।इस मंत्र का २१ बार जप करके अक्षत (चावल)चढ़ाए तथा मैं कल शूवे आपको लेने आऊंगा,आप अपनी शक्ति सहित तैयार रहे यह बोलकर प्रणाम करे और निमंत्रण देके चला आय।

    दूसरे दिन शुभे सुर्जउदय से पहले उठकर स्नान करके परिस्कार वस्त्र पहन कर शिव की पूजा करे फिर उस निमंत्रित पेड़ के पास जाय और बहा मंत्र बोलकर उसे उठा लाय।

    ॐ बेतालाश्च पिशाचश्च राक्षसाश्च सरीसूपा: । अपसर्पन्तु ते सर्वे वृक्षादस्माच्छिवाज्ञया ॥ १ ॥ ॐनमस्ते अमृतसम्भूते बलवीय॑-विवधिनि ! । बलमायुश्च

    मे देहि पापान्‌ मां त्राहि दुरत ॥ २॥ ॐ येन त्वां खनते ब्रह्मा, येन त्वां खनते भगु: । येन होन्द्रोथ वरुणो, येन त्वामपचक्रमे ॥। ३ ॥। तेनाहं खनयिष्यामि, मंत्रपूतेन पाणिना। मा पातेमानि पतिते, मा ते तेजोन्यथा भवेत्‌ ।। अत्रेब तिष्ठ कल्याणि ! मम का्यकरी भव । मम कार्ये कृते सिद्ध ! ततः स्वर्ग गमिष्यसि ॥ ४

    अर्थात--जो वेताल, पिशाच, राक्षस, सप॑ आदि इस वृक्ष से सम्बद्ध हों वे भगवान्‌ शिव की आज्ञा से दूर चले जाएं ॥:१॥ हे अमृत से, उत्पन्न, बल और वीर्य को बढ़ाने वाली औषधि ! मुझे बल और आयुष्य प्रदान करो तथा दूर से ही मुझे पापों से बचाओ ॥। २ ॥ जिस मन्त्र द्वारा पवित्र हाथ से तुझे ब्रह्माजी खोदते हैं, जिससे भूगु ऋषि खोदते हैं, जिस विधि से इन्द्र और वरुण तुझे मूल से अलग करते हैं उसी विधि से मैं भी तुझे खोदूँगा--निकालूँगा । अतः तुम स्वयं गिरो नहीं और तुम्हारा तेज तुमसे पृथक्‌ न हो ।। ३-४ ॥ हे कल्याणी, तुम यहीं और निवास करो । मेरे कार्य की सिद्धि हो जाने पर स्वर्ग में जाना । (इससे यह स्पष्ट है कि वृक्ष को उखाड़ने पर उसका सिद्धितत्त्व उसके अभिमन्त्रण के बिना उसमें से निकल जाता है ।) ।

    फिर ॐ ह्रिं चण्डे हूँ फट, स्वाहा' यह मन्त्र बोलते हुए पौधे को उबाड़े । ॐ ह्रिं क्षों फट स्वाहा ।इस मन्त्र से उसके ऊपर अभिमंत्रित करके जड़ अलग करे

    या किसी देव देवी का दुहाई देकर

     जैसे मंत्र :सत्य युगेर गाछ तुमि कलियुगे जागो ये काजे लगाबों आमी से काजेते लागो।दुहाई धरमेर दुहाई रामेर।।

    सुर्ज ग्रहण,चंद्र ग्रहण दीपावली के  दिन ,रवि पुष्य योग , रवि मूल योग,और महानवमी के दिन मूल संग्रह करने का विधान हे।

    सबसे अच्छा है अगर ग्रहण काल में जड़ को उठा जाय तो उसके दिब्बता कही गुण बड़ जाता है।

    किसीभी जड़ को उखाड़ के घर लाने के बाद उसको नीचे ना रखे उसको किसी ऊंचा स्थान पर रख दे।इसके बाद पंचगव्य से स्नान कराएं और धूप आदि देकर लाल वस्त्र या काले वस्त्र पर लैपट कर रख दे।इस प्रकार से धारण करने से इच्छित कर्म में सिद्धी मिलता हे।



    सहदेवी कल्प



    सहदेवी का एक छोटा सा पौधा होता हे।जिसे जड़ी बूटी के रूप में  इसका बहुत प्रयोग हे तंत्र में या साधारण में।

    सहदेवी का पोधा उठाने के लिए किसी शुक्र बार निमंत्रण देकर धूप ,दीप ,अक्षत,फूल,सिंदूर चड़ाके अाय और प्रार्थना करे की हे सहदेवी काल शुभे में अपना काम के सिद्धि हेतु आपको लेने आऊंगा आप मेरे साथ चलेंगे।दूसरे दिन शुभे सूरज उठने के पहले बहा जाकर १ फल अर्पण करे और जल चढ़ाएं फिर इस मंत्र को २१ बार पड़े मंत्र : ॐ नमो भगवती सहदेवी सदबल दायिनी सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा।।

    इस मंत्र पड़कर जड़ सहित उठाके लाय और घर में लाकर धूप दीप देकर पूजा करे और प्रार्थना करे "हे देवी मेरी अभीष्ट सिद्धि के लिए आप प्रसन्न हो तथा इच्छित प्रयोग करने की आज्ञा प्रदान करे। ऐसी प्राथना करके प्रणाम करे तथा यह भावना करे कि “आज्ञा प्राप्त हो गई है' तदनन्तर उसका रस निकाले । इस रस में गोरोचन और केसर डालकर गोली बना ले । फिर जव कभी काम पड़े तब गोली को घिसकर तिलक लगाये । ऐसा करने से जिसके साथ वार्तालाप होगा, वह आकर्षित होगा तथा कार्यसिद्धि होगी । 



    सहदेवी के अन्य प्रयोग 



    (१) ऊपर बताई गई विधि के अनुसार ही लाई हुई सहदेवी की जड़ को हाथ पर धूप देकर बांधने से विविध रोग नष्ट होते हैं। 

    (२) इसके चूर्ण को गाय के घी में मिलाकर खाने से वन्ध्या स्त्री को पुत्र की प्राप्ति होती है । 

    (३) प्रसव के समय कष्ट हो रहा हो, तो इसकी जड़ को कमर में चाँधने से सुखपू्वक प्रसव होता है 

    (४) कण्ठमाल रोग से पीड़ित रोगी के गले में बाँधने से उक्त रोग चला जाएगा । 

    (५) हाथ के किसी भाग में बाँधकर वाद-विवाद में जाने से विजय प्राप्त होती है। 

    विशेष--जड़ को किसी लाल वस्त्र में लपेटकर पुरुष दाहिने हाथ के मणिबन्ध अथवा भुजा पर बाँधे तथा स्त्री बाँए हाथ में बाँघें । 



     स्वेतर्ककल्प(आक)




    आक के वृक्ष की दो जातियाँ है। एक लाल तथा अन्य सफेद। इनमें सफेद जाति के आक को संस्कृत में 'मन्दार' कहा जाता है। इसमें विलक्षणता होने से इसके सम्बन्ध में कई “कल्पों' का निर्माण हुआ है।

    प्राचीन मान्यता है कि जहाँ -सफेद आक का पेड़ होता है, उसके

    आस-पास जमीन में गड़ा हुआ धन रहता है और जिस दिशों की ओर वह धन रहता है, उस ओर जड़ें अधिक फैलंती हैं । 

    प्राचीन काल में धन-सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए उसे भिन्न-भिन्न स्थानों पर जमीन के अन्दर गाड़ देते थे। और उसकी जानकारी के लिए कुछ निशानियाँ रख लेते थे । कालान्तर में ऐसे स्थानों पर आस- पास में सफेद अर्क॑ के पौघे निकल आते और उनकी. जड़ें उसी दिशा की ओर अधिक बढ़ती रहतीं कि जिस ओर धन गड़ा हुआ होता है । 

    ऐसे जमीन में गाड़े गये धन को निकालना सरल कार्य नहीं होता । अत: आचार्यों ने विभिन्‍न प्रयोग दिखाये हैं । अर्क की जड़ के चार प्रयोग यहाँ दिये जा रहे हैं -- 

    (१ )श्वेतार्कमूल-रविवार तथा पुष्य नक्षत्र को जब यह अर्क. लाना हो, तो उसके एक दिन पूर्व पूर्वलिखित विधि के अनुसार ले आने का आमन्त्रण दें आये तथा दूसरे दिन सूचित विंधि के अनुसार प्रार्थना करके सफेद आक की जड़ निकालकर घर लाये और फिर विधि के अनुसार पूजन करे । 

    यह जड़ जिस पुरुष के दाहिने हाथ में अथवा जिस स्त्री के बाँयें हाथ में बाँधी जाती है उसे सभी कार्यों में यश और विजय प्राप्त होती है । महिलाओं के सौभाग्य की अभिवृद्धि होती है । सन्तान की. इच्छा रखनेवाली स्त्री की कटि में वाँधने से पुत्र की प्राप्ति होती है । 

    (२) उपर्युक्त विधि से लाए गए आक के मूल को छाया में सुखा कर उसका चूर्ण बनाए तथा उस चूर्ण को प्रतिदिन गाय के दूध के साथ सेवन करे, तो बुढ़ापे से उत्पन्न शिथिलता दूर होती है; स्मरण शक्ति बढ़ती है और शरीर कॉन्तिमान्‌ बनता है।

    कुल ४० दिन तक इस चूर्ण का सेवन करने से सभी प्रकार के रोग नष्ट होते हैं तथा आयु एवं बल की वृद्धि होती है । यह चू्णें थोड़ी मांत्र में ही सेवन करना चाहिए जिससे यंदि कोई विकार उंत्पन्नें होता।दिखाई दे, तो इसका सेवन बन्द कर दे। 

    (३) इस मूल को घिसकर ठण्डें पानी के साथ पिलाने से अनेक प्रकार के विष का शमन होता है और लेप करने से बिच्छू आदि का जहर उतर जाता है । 

    स्वेतार्क गणपति--सफेद आक की जड़ों में कहीं-कहीं ऐसी गाँठें होती हैं कि जिनका आकार गणपति और उनकी सूँड के समान बन जाता है । जहाँ ऐसी सम्भावना हो अथवा पर्याप्त पुराना हुआ पेड़ हो वहाँ पुर्वोकत विधि से आमन्त्रित करके रविपुष्य, गुरुपुष्य अथवा गणेश चतुर्थी को बैठकर चाँदी के कुदाल से जमीन खोदकर चाँदी. के ही चाकू, से मूल भाग निकाले और फिर उसको गणपति के आकार में छोलकर मूर्ति बना लें फिर घर लाकर विधिवत्‌ प्राण-प्रतिष्ठा और पूजन करें । ऐसो स्वेतार्क॑मूल से बनाई गई मूर्ति की नित्य पुजा करने से लक्ष्मी, सुख- सौभाग्यादि प्राप्त होते हैं ।* “दत्तात्रेयतन्त्र' में यही प्रयोग इस प्रकार बतलाया है--  

    रविपुष्य के दिन सफेद आक की जड़ लाकर एक अंगूठे के बराबर 

    गणपति की मूति बनाये तथा उसकी (प्राण-प्रतिष्ठा करके) पूजा करे--- 

    गणपति के स्वरूप का भक्तिपूर्वक ध्यान करते हुए लाल कनेर के पुष्प, गन्ध आदि से ॐ ग॑ नमः, ॐ अन्तरिक्षाय स्वाहा' अथवा “ॐ गं गणपतये नमः” यह मन्त्र बोलते हुए पूजा करे । बाद में ॐ ह्रिं' पूर्व- दयां ॐ ह्रिं  फट्स्वाहा' इस मन्त्र से लाल कनेर के पुष्पों का हवन करे। यह अनुष्ठान एक मास तक हविष्य अन्न खाते हुए ब्रह्मचर्यपू्वक करने से सभी इच्छित फलों को प्रदान करता है। 



    निर्गुण्डी कल्प 



    निर्गुण्डी का दूसरा नाम सिन्दुवार है, भाषा में इसे नगोड़ भी कहते हूँ । मराठी में निर्गुणी और बंगाली में निशिन्दा कहते हैं । निर्गुण्डो का वृक्ष पर्याप्त ऊंचा बढ़ता है । इसकी प्रत्येक शाखा में लम्बे और पतले तीन-तीन अथवा पाँच-पाँच पत्ते होते हैं । इसके फल आम की मज्जरी के समान गुच्छेदार और जामुनिया रंग के होते हैं। 

    “इसके बीजों को रेणुक बीज कहते हैं । 

    (१) प्रयोग-रात्रि के समय अकेले वृक्ष के पास जाए और ॐ नमो गणपतये कुबेरायेकदन्ताय फट स्वाहा'। इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए प्रदक्षिणा करते हुए उसकी २१ बार प्रदक्षिणा करे। इस प्रकार सात "रात्रि तक देने से वृक्ष सिद्ध होकर अत्यन्त गुणकारी बन जाता है । बाद में इस वृक्ष की छाल का चूर्ण और जीरे का चूर्ण समभाग में एकत्र करके आठ दिन तक सेवन करे । इसके सेवन से ज्वरादि दूर होते हैं, भूमिगत द्रव्य जानने की क्षमता प्राप्त होती है तथा अधिक दिन तक सेवन करने से शारीरिक बल बढ़ता है । 

    (२) निर्गुण्डी के पत्तों का रस निकालकर २१. दिन तक प्रात:काल में वैद्य की सलाह से सेवन करे तथा इन दिनों में भोजन बहुत हल्का, खिचड़ी आदि का सेवन करने से योगसाधना अथवा अन्य मन्त्रसाधना में मानसिक शान्ति, आत्मबल तथा शारीरिक स्वस्थता प्राप्त होती है



     रक्तगुंजा-कल्प




    रक्तगुंजा अथवा लाल घूघची (चिरमीटी) की उत्पत्ति लता पर होती है तथा इसके पतले और लम्बे पत्ते होते हैं । इस पर लगनेवाली घूघची के तोन प्रकार होते हैं--सफेद, लाल और काली । यह एक विष है, अतः इसका शोधन किये विना खाने में उपयोग नहीं किया जाता । इसके अनोको प्रयोग हे जो प्राचीन ग्रंथो मिलता हे।

    रविवार को पुष्प नक्षत्र हो, शुक्रवार को रोहिणी नक्षत्र हो, कुृष्णपक्ष को अष्टमी को हस्त नक्षत्र हो, चतु्देशी को स्वाति नक्षत्र हो अथवा पूर्णिमा को शतभिषा नक्षत्र हो तब अधेरात्रि में निःशंक होकर धूप-दीप करके रक्तगूंजा को जड़ निकालकर लाये । इस विधि से लाई गई जड़ (मूल) का किस-किस रूप में प्रयोग किया जाए ? इस सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रयोग बतलाये हैं-

    जदि किसी पुरुष या स्त्री को किसी प्रकार का विष शरीर में आ गेया हे तो जड़ को धो कर पिलाने से विष का प्रभाव नष्ट हो जाते हे।

    लाल गुंचा की जड़ को घिसकर माथा पे तिलक लगाने से वशीकरण हो जाते हे।ऐसा तिलक धारी बेक्ति जहा पर जाते हे बह पर मान सम्मान बढ़ता है।

    ईस मूल को जो स्त्री तांबे की ताबीज में भरकर पहन ता है उसका पुत्र संतान की प्राप्ति होता है।

    इस जड़ को काजल के साथ मिलाके आँख में लगाने से सभी बेक्ति मोहित हो जाते है।

    इस जड़ को मधु के सहित घिसकर अंजन करने से उसे वीर बेताल दिखाई देता हे और उसके द्वारा जो चाहे बो मिल सकते हे।

    इस मूल की जड़ को दूध में घिसकर उसको सारे शरीर पर लेपन करने से भूत प्रेत आदि उसका सेवा में उपस्थित हो जाते हे।

    जो बेक्ति इस जड़ को घृत,चीनी और तिल का तेल में घिसकर शरीर पर उसका लेपन करे तो समस्त लोगो में श्रेष्ठ हो जाते हे।




    बट का तांत्रिक प्रयोग



    अर्थात--जिस बरगद के पेड़ के नीचे बरगद का दूसरा पोधा निकल आया हो उसे रविपुष्य या गुरुपुष्य आदि से पूर्व सन्ध्या को निमन्त्रित कर आए तथा वहीं एक दीपक लगा दे, बाद में अर्धरात्रि में उसे उखाड़कर उसका मलभाग घर ले आए' । फिर स्नान करके बिना वस्त्र पहिने धूप लगाए और घर में जहाँ अन्न रखा हो उस कोठी में अथवा जहाँ द्रव्य-गहने आदि रखे हों उनमें उसे रख दे तथा ईश्वर का स्मरण करता रहे । ऐसा करने से धन्य-धान्य की पर्याप्त वृद्धि होती है। 

    बिस्बमित्र का कथन है कि रोहिणी नक्षत्र में वट वृक्ष का बन्दा लाकर हाथ में धारण करने से वशीकरण होता है। अर्थात्‌ सब लोग उसके प्रति सद्भाव रखकर कार्यों में सहयोग करते हैं ।

    फिर वृक्ष को नमस्कार कर सूर्य उदय से पूर्व नग्न रहते हुए, अर्थात्‌ धोती का काछा खुला रखकर तोड़ लाये । रात्रि में दीपावली पूजन करके एकान्त में उस बन्दे का पंच उपचारों से पूजन करे और बाकी रात्रि में नीचे लिखे मन्त्र का जप करे 

    ॐ बुक्षराज महाश्रीमत,. विष्णुसौख सनातन धनधान्य-समूद्धि मे, देहि नित्य नमोस्तु ते॥ 

    दूसरे दिन प्रात काल स्तान करके बन्दे को धूप देकर किसी यंत्र में घारण करे। घन अक्षय रहता हैं। लक्ष्मी-मन्त्र का सम्पुट देकर बिष्णु सहस्र नाम' के १०९ पाठ १० दिने में करने से तथा बाद में हवन करने से यह तन्त्र जागृत रहता हैं ।

     



    जीबिका प्राप्ति के लिए पीपल का वन्दा 




    जब साधक का चन्द्रमा बली हो तब रिक्ता तिथि--(शनिवार को ७, ९ अथवा १४ तिथि होने पर) के दिन पूर्व दिन संध्या के समय पीपल वृक्ष को निमंत्रण दे आये। फिर शनिवार को पप्रात: सूर्योदय से पहले बंदे को तोड़ लाये और तब से दूसरी तिथि तक बन्दे की नित्प पांचोंपचार पूजा करे । फिर उस दिन नोचे लिखे मंत्र से अभिम्तित कर धूप दे ओर ताबीज में रखकर धारण करे-- 

    (२) धन समुद्धि के लिए पलाश का बांदा होलिका के एक दिन पहले संध्या समय बन्देवाले पलाश को निमंत्रण देकर होली के दिन प्रात काल सूरज उदय होने के पहले बांदा लाय तथा पांचों पचार में पूजन करे भोग लगाय फिर उक्त मंत्र का जप करे

    ॐ वृक्षराज समृद्धत्सबं बिष्णु लोकेशु बर्तसे करू धान्य समृद्धि त्वं क्षे त्रे कोटिधबर्जित।।

    जदि धान्य में रखे तो ऊपर मंत्र जप करे और धन में रखे तो धन वृद्धि होती हे।

    (३) कृत्तिका नक्षत्र में धूहर के वृक्ष का बांदा लाकर हाथ में (विधि- दूं) वॉधने से वाक्य सिद्ध होती है। 

    स्वाति नक्षत्र में ' ॐअन्तरिक्षाय स्वाहा' इस मंत्र से विधिपुर्वक बेर के बूक्ष का वन्दा लाकर हाथ में वाँधे, तो जिन-जिन पदार्थों की इच्छा करेगा वे सब प्राप्त होंगे । (५) धन-धान्य अक्षय रखने के लिये इमली का बन्दा--. 

    (९) रवि पुष्य से पूर्व शनिवार को निमन्तरण देकर सूोदय से पहले इमली का बंदा लाये तथा उपर्युक्त मंत्र का १००० वार जप कर. अल्न-धन में स्थापित करे, तो धन-धान्य की समृद्धि होती है। 



     इसी प्रकार अन्य बन्दे रखने के प्रयोग एवं फल-- 



    (२) पूर्वाफालयुनी नक्षत्र में अनार तथा समेर का बंदा रखने से सुख समृद्धि होती हे। 

    (३) मघा नक्षत्र में बुआर (हरसिगार) को बंदा रखने से सुख समृद्धि होती हे। 

    (४) हस्त नक्षत्र में निर्गुण्डी का बंदा रखने से धन संपत्ति का प्राप्ति होती हे। 

    (४) भरणी नक्षत्र में कुशा का बंदा रखने से धन संपत्ति का प्राप्ति होती हे। 

    (९) रोहिणी नक्षत्र में गूलर का वंदा रखें से घन-धान्य को अभि- वृद्धि होती है।

    सब बांदा रखने से पहले नीचे लिखें मत्त का १० हजार जप करें। 

    नमः धनदाय स्वाहा ।।

    (७) भूसिगत घन प्राप्ति के लिए गूलर का बन्दा 

    चंद्र अबवा सूर्यग्रहण वाले दिन से एक दिन पूर्व गुलर के पेड़ को ऊपर बताई हुई विधि से निमन्तण दे आगे और वाद में ग्रहण के दिन सूर्योदय से पहले श्वेत तथा हलुए का नैबद्द चढ़ाकर नमस्कार करके बंदा तोड़ लाए। फिर ग्रहण लगते हीं बंदे की, पांचोंपचार से पूजा करें और पूरे ग्रहणकाल मैं 'ॐ महा लक्ष्में चर विद्महे, विष्णु पत्ते च धीमही तन्नों लक्ष्मो:प्रचोदयात्‌'।। इस मन्त्र का जप करे । इस जप में कमलगढ्डे की माला अधिक फल देने बालो मानीं गई है। फिर गुलर के बन्दे को स्वर्ण के यंत्र(ताबोज) में रखकर धारण करे, तो भूमिगत घन दिखाई दे तथा उसको प्राप्ति होती हे। 




    अदृश्य होने के लिये विविध बंदे के प्रयोग



    (१) अनुराधा नक्षत्र मं रोहितक का बंदा लाकर मुख में रखने से अद्रिस्य होती हे । 

    (२) मुगशिसा नक्षत्र में शाखोट (सिंघोर) का बंदा पान के साथ मुंह में रखने से अद्रिस्य होता हे । 

    (३) भरीनि नक्षत् में कपास का बंदा लाकर हाय में धारण करने से अद्रिस्य होता हे।

    (९) स्वाति नक्षण में नीम का बंदा धारण करने से । (दो अस्विनी नक्षत में बेल का बंदा धारण करने से अद्रिस्य हो जाते हे।

    (६) मुगशिरा अथवा उत्तरावाढ़ा नक्षत्र में बेल का बंदा हाथ में धारण करने से मनुष्य अदृश्य होता है ।इन प्रयोग के लिए मंत्र जप करके लाय।

    मंत्र: ॐ नमो भगवते रुद्राय मृतार्कमध्ये संस्थिनाय मम शरीरममृतं कुरु कुरु स्वाहा।।

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