भैरव साधना के तांत्रिक प्रयोग
तंत्र ग्रंथों में भैरव शब्द की व्याख्या करते हुये लिखा गया है कि जो समस्त प्रकार की विपत्तियों, आपदाओं को भयभीत करके भगा सके, वही भैरव कहलाने के योग्य है ।
जैसे- विभेति क्लेशो यस्मादिति भैरवः
भैरव देव की कलियुग में अपार महिमा मानी गई है । एक तरह से इन्हें कलियुग का ही देव माना गया है । इसलिये यह साधारण पूजा-अर्चना से ही प्रसन्न हो जाते हैं। अपनी शरण में आये अपने भक्तों के ऊपर अपनी करुणा एवं कृपा की वर्षा करने लगते हैं। तांत्रिकों के यह प्रत्यक्ष देव ही रहे हैं, इसलिये तंत्र साधकों के मध्य भैरव साधना का विशेष आकर्षण रहा है । भैरव की तंत्र साधना को जैन धर्म में भी स्वीकार किया गया है ।
ऐसा भी प्राय: देखने में आता है कि तांत्रिकों का कोई भी कर्म अर्थात् पूजा-अर्चना व तांत्रिक अनुष्ठान तब तक निर्विघ्न सम्पन्न नहीं हो पाता, जब तक कि वहां भैरव की स्थापना करके उनका आशीर्वाद प्राप्त नहीं कर लिया जाता । इसलिये प्रत्येक तंत्र साधना में भैरव देव की सर्वप्रथम प्रतिष्ठा कर लेना अनुष्ठान का प्रथम भाग माना जाता है। भैरव को रक्षा करने वाला देव भी माना जाता है। इसलिये प्राचीन समय से ही प्रत्येक स्थान पर भैरव की स्थापना करने का विधान चला आ रहा है। भैरव साधना को सम्पन्न करते ही विभिन्न प्रकार की विघ्न बाधायें, आपदायें आदि अपने आप ही दूर होने लगती हैं। साधकों के शत्रु तक शत्रुता छोड़कर शांति में रुचि दिखाने लगते हैं । भैरव साधना से कई प्रकार की असाध्य बीमारियां साधक के घर का परित्याग करके चली जाती है। भैरव साधक का पूरा परिवार पूरी तरह से स्वस्थ रहता है । भैरव शिव के रुद्र रूप माने गये हैं। शिवपुराण आदि ग्रंथों एवं तंत्रशास्त्र में भैरव के बावन रूपों की बहुत प्रसिद्धि रही है। तंत्र साधना में विभिन्न तरह की सिद्धियों को प्राप्त करने के लिये भैरव के इन सभी स्वरूपों की पूजा-अर्चना का विशेष विधान रहा है। तांत्रिकों की एक प्रमुख परम्परा में भैरव साधना ही उनकी साधना का अन्तिम एवं सर्वोच्च लक्ष्य माना जाता है ।
भैरव के बावन स्वरूपों में से आठ स्वरूपों, जिन्हें अष्ट भैरव के नाम से जाना जाता है, बहुत ही प्रसिद्ध रहे हैं । यह अष्ट भैरव निम्न प्रकार हैं- असितांग भैरव, रूरू भैरव, चंड भैरव, क्रोध भैरव, उन्मत भैरव, कपाल भैरव, भीषण भैरव और संहार भैरव । तंत्र साधना में इन भैरव के अलावा भी कई अन्य स्वरूपों की पूजा-अर्चना आदि का विधान प्राचीन समय से चला आ रहा है। भैरव के यह अन्य स्वरूप हैं- बटुक भैरव, काल भैरव, स्वर्णाकर्षण भैरव आदि । भैरव के इन स्वरूपों की मान्यता साधारणजनों में भी बहुत
अधिक रही है। तंत्र साधना में भैरव की प्रतिष्ठा और पूजा-अर्चना करके उनकी कृपा प्राप्त करना साधना का एक अनिवार्य अंग माना जाता है । इसलिये प्रत्येक तंत्र साधना स्थल पर सबसे पहले भैरव देव की प्रतिष्ठा करने की प्रथा चली आ रही है। आज भी यह स्थिति देखने को मिलती है। इसके अलावा शिव मंदिरों में भी भैरव की स्थापना और पूजन करना
प्राचीन समय से ही प्रचलन में रहा है। जगत जननी माँ दुर्गा और उनके समस्त स्वरूपों के साथ भैरव की अवश्य ही स्थापना की जाती है । इसलिये माँ का एक भी शक्ति स्थल (जिन स्थानों पर माँ के स्वरूपों की स्थापना की गई है, भारत भर में ऐसे 51 शक्ति स्थल माने गये हैं) ऐसा नहीं है, जहां पर भैरव की प्रतिष्ठा न की गई हो और जहां माँ की पूजा के साथ भैरव की पूजा को अनिवार्य न माना गया हो । कलियुग में भैरव देव को कितनी मान्यता प्राप्त हुई है, इस बात का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि भैरव मंदिर अथवा उनकी प्रस्तर प्रतिमायें सर्वत्र प्रतिष्ठित की हुई मिल जाती हैं। प्रत्येक गांव की सीमा पर भैरव की स्थापना करना रक्षा की दृष्टि
से अनिवार्य विषय माना जाता रहा है । भैरव को रक्षादेव माना गया है और वह हैं भी रक्षा के देव । भैरव के विषय में उनके विभिन्न नामों से ही स्पष्ट हो जाता है कि यह यथाशीघ्र प्रसन्न होकर अपने भक्तों की प्रायः सभी समस्याओं का निराकरण शीघ्र ही कर देते हैं । अपने काल भैरव स्वरूप में यह असाध्य रोगों के साथ-साथ असमय मृत्यु से भी अपने भक्तों को बचा लेते हैं। इनका यह स्वरूप भीषण आपदाओं से रक्षा करता है। इसी प्रकार
यह अपने बाल, बटुक स्वरूप में विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सहज ही निराकरण कर देते हैं। स्वर्णाकर्षण भैरव स्वरूप में यह आर्थिक सम्पन्नता प्रदान करते हैं तथा अनेक प्रकार के सुख-साधनों एवं ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। क्रोध भैरव के रूप में यह अपने साधकों को शत्रुओं से सुरक्षा प्रदान करते हैं। उन्हें बुरे विचारों, बुरी आत्माओं के प्रभाव से दूर रखते हैं। संहार भैरव के रूप में यह अपने साधकों के शत्रुओं का संहार करके उन्हें सदा के लिये अभय प्रदान करते हैं । भैरव की साधना सात्विक स्वरूप में भी की जाती है और उनके वीभत्स स्वरूप में भी। यह अपने आराध्य भगवान शिव की
सहज स्वभाव एवं शीघ्र प्रसन्न होने वाले हैं। यह सामान्य रूप से फल, फूल, चोला से की गई पूजा से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं, किन्तु जब यह क्रोधित रूप में आते हैं तो उनके तेज से कोई नहीं बच पाता । क्रोधित होने पर यह पल भर में ही सर्वस्त्र विध्वंस करने में पीछे नहीं रहते, लेकिन अपने भक्तों के लिये भैरव सदैव सहज हृदय ही बने रहते हैं ।भैरव के कुछ स्वरूपों को भावनावश सुरापान भी कराया जाता है। ऐसी पूजा का विधान मुख्यतः कापालिक सम्प्रदाय में रहा है। आज भी भैरव के कई प्रसिद्ध स्थल है जहां नैवेद्य के रूप में उन्हें सुरा चढ़ाई जाती है। ऐसा भैरव का एक मंदिर उज्जैन में हैं। उज्जैन के अतिरिक्त ऐसे भैरव मंदिर गोरखपुर के पास, कर्ण प्रयाग और बंगाल - बिहार में स्थित हैं। इन मंदिरों में एक समय कापालिक सम्प्रदाय के तांत्रिक बलि भी चढ़ाया करते थे, किन्तु भैरव अपने साधारण रूप में दूध की खीर, घी- गुड़ से तैयार की गई लस्सी एवं गुड़-चना आदि के नैवेद्य से भी अतिशीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं । भैरव देव को हनुमानजी की
तरह घी-सिन्दूर का चोला बहुत भाता है। अतः इनकी पूजा-अर्चना में चोला चढ़ाने का भी विधान है। इस अध्याय में भैरव से सम्बन्धित कुछ अनुभूत तांत्रोक्त प्रयोगों का वर्णन किया जा रहा है। इन तांत्रोक्त प्रयोगों को सहजता के साथ हर कोई सम्पन्न कर सकता है तथा भैरव देव को प्रसन्न करके अपनी अनेक प्रकार की समस्याओं एवं दुःखों से मुक्ति प्राप्त क सकता है।
ऐसा भी प्राय: देखने में आता है कि तांत्रिकों का कोई भी कर्म अर्थात् पूजा-अर्चना व तांत्रिक अनुष्ठान तब तक निर्विघ्न सम्पन्न नहीं हो पाता, जब तक कि वहां भैरव की स्थापना करके उनका आशीर्वाद प्राप्त नहीं कर लिया जाता । इसलिये प्रत्येक तंत्र साधना में भैरव देव की सर्वप्रथम प्रतिष्ठा कर लेना अनुष्ठान का प्रथम भाग माना जाता है। भैरव को रक्षा करने वाला देव भी माना जाता है। इसलिये प्राचीन समय से ही प्रत्येक स्थान पर भैरव की स्थापना करने का विधान चला आ रहा है। भैरव साधना को सम्पन्न करते ही विभिन्न प्रकार की विघ्न बाधायें, आपदायें आदि अपने आप ही दूर होने लगती हैं। साधकों के शत्रु तक शत्रुता छोड़कर शांति में रुचि दिखाने लगते हैं । भैरव साधना से कई प्रकार की असाध्य बीमारियां साधक के घर का परित्याग करके चली जाती है। भैरव साधक का पूरा परिवार पूरी तरह से स्वस्थ रहता है । भैरव शिव के रुद्र रूप माने गये हैं। शिवपुराण आदि ग्रंथों एवं तंत्रशास्त्र में भैरव के बावन रूपों की बहुत प्रसिद्धि रही है। तंत्र साधना में विभिन्न तरह की सिद्धियों को प्राप्त करने के लिये भैरव के इन सभी स्वरूपों की पूजा-अर्चना का विशेष विधान रहा है। तांत्रिकों की एक प्रमुख परम्परा में भैरव साधना ही उनकी साधना का अन्तिम एवं सर्वोच्च लक्ष्य माना जाता है ।
भैरव के बावन स्वरूपों में से आठ स्वरूपों, जिन्हें अष्ट भैरव के नाम से जाना जाता है, बहुत ही प्रसिद्ध रहे हैं । यह अष्ट भैरव निम्न प्रकार हैं- असितांग भैरव, रूरू भैरव, चंड भैरव, क्रोध भैरव, उन्मत भैरव, कपाल भैरव, भीषण भैरव और संहार भैरव । तंत्र साधना में इन भैरव के अलावा भी कई अन्य स्वरूपों की पूजा-अर्चना आदि का विधान प्राचीन समय से चला आ रहा है। भैरव के यह अन्य स्वरूप हैं- बटुक भैरव, काल भैरव, स्वर्णाकर्षण भैरव आदि । भैरव के इन स्वरूपों की मान्यता साधारणजनों में भी बहुत
अधिक रही है। तंत्र साधना में भैरव की प्रतिष्ठा और पूजा-अर्चना करके उनकी कृपा प्राप्त करना साधना का एक अनिवार्य अंग माना जाता है । इसलिये प्रत्येक तंत्र साधना स्थल पर सबसे पहले भैरव देव की प्रतिष्ठा करने की प्रथा चली आ रही है। आज भी यह स्थिति देखने को मिलती है। इसके अलावा शिव मंदिरों में भी भैरव की स्थापना और पूजन करना
प्राचीन समय से ही प्रचलन में रहा है। जगत जननी माँ दुर्गा और उनके समस्त स्वरूपों के साथ भैरव की अवश्य ही स्थापना की जाती है । इसलिये माँ का एक भी शक्ति स्थल (जिन स्थानों पर माँ के स्वरूपों की स्थापना की गई है, भारत भर में ऐसे 51 शक्ति स्थल माने गये हैं) ऐसा नहीं है, जहां पर भैरव की प्रतिष्ठा न की गई हो और जहां माँ की पूजा के साथ भैरव की पूजा को अनिवार्य न माना गया हो । कलियुग में भैरव देव को कितनी मान्यता प्राप्त हुई है, इस बात का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि भैरव मंदिर अथवा उनकी प्रस्तर प्रतिमायें सर्वत्र प्रतिष्ठित की हुई मिल जाती हैं। प्रत्येक गांव की सीमा पर भैरव की स्थापना करना रक्षा की दृष्टि
से अनिवार्य विषय माना जाता रहा है । भैरव को रक्षादेव माना गया है और वह हैं भी रक्षा के देव । भैरव के विषय में उनके विभिन्न नामों से ही स्पष्ट हो जाता है कि यह यथाशीघ्र प्रसन्न होकर अपने भक्तों की प्रायः सभी समस्याओं का निराकरण शीघ्र ही कर देते हैं । अपने काल भैरव स्वरूप में यह असाध्य रोगों के साथ-साथ असमय मृत्यु से भी अपने भक्तों को बचा लेते हैं। इनका यह स्वरूप भीषण आपदाओं से रक्षा करता है। इसी प्रकार
यह अपने बाल, बटुक स्वरूप में विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सहज ही निराकरण कर देते हैं। स्वर्णाकर्षण भैरव स्वरूप में यह आर्थिक सम्पन्नता प्रदान करते हैं तथा अनेक प्रकार के सुख-साधनों एवं ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। क्रोध भैरव के रूप में यह अपने साधकों को शत्रुओं से सुरक्षा प्रदान करते हैं। उन्हें बुरे विचारों, बुरी आत्माओं के प्रभाव से दूर रखते हैं। संहार भैरव के रूप में यह अपने साधकों के शत्रुओं का संहार करके उन्हें सदा के लिये अभय प्रदान करते हैं । भैरव की साधना सात्विक स्वरूप में भी की जाती है और उनके वीभत्स स्वरूप में भी। यह अपने आराध्य भगवान शिव की
सहज स्वभाव एवं शीघ्र प्रसन्न होने वाले हैं। यह सामान्य रूप से फल, फूल, चोला से की गई पूजा से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं, किन्तु जब यह क्रोधित रूप में आते हैं तो उनके तेज से कोई नहीं बच पाता । क्रोधित होने पर यह पल भर में ही सर्वस्त्र विध्वंस करने में पीछे नहीं रहते, लेकिन अपने भक्तों के लिये भैरव सदैव सहज हृदय ही बने रहते हैं ।भैरव के कुछ स्वरूपों को भावनावश सुरापान भी कराया जाता है। ऐसी पूजा का विधान मुख्यतः कापालिक सम्प्रदाय में रहा है। आज भी भैरव के कई प्रसिद्ध स्थल है जहां नैवेद्य के रूप में उन्हें सुरा चढ़ाई जाती है। ऐसा भैरव का एक मंदिर उज्जैन में हैं। उज्जैन के अतिरिक्त ऐसे भैरव मंदिर गोरखपुर के पास, कर्ण प्रयाग और बंगाल - बिहार में स्थित हैं। इन मंदिरों में एक समय कापालिक सम्प्रदाय के तांत्रिक बलि भी चढ़ाया करते थे, किन्तु भैरव अपने साधारण रूप में दूध की खीर, घी- गुड़ से तैयार की गई लस्सी एवं गुड़-चना आदि के नैवेद्य से भी अतिशीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं । भैरव देव को हनुमानजी की
तरह घी-सिन्दूर का चोला बहुत भाता है। अतः इनकी पूजा-अर्चना में चोला चढ़ाने का भी विधान है। इस अध्याय में भैरव से सम्बन्धित कुछ अनुभूत तांत्रोक्त प्रयोगों का वर्णन किया जा रहा है। इन तांत्रोक्त प्रयोगों को सहजता के साथ हर कोई सम्पन्न कर सकता है तथा भैरव देव को प्रसन्न करके अपनी अनेक प्रकार की समस्याओं एवं दुःखों से मुक्ति प्राप्त क सकता है।
भैरव से सम्बन्धित कुछ तांत्रोक्त अनुष्ठान निम्न प्रकार हैं:
आपदा निवारक बटुक भैरव साधना जीवन परेशानियों का नाम है । यह परेशानियां अनेक रूपों में सामने आती हैं और असंख्य लोगों को जीवन के विभिन्न पक्षों में अनेक प्रकार के दुःख, दर्द, पीड़ाएं देकर सताती रहती हैं। यद्यपि यह आपदाएं (समस्यायें) बिना बुलाये ही हमला करती हैं, लेकिन कुछ सीमा तक उनके लिये हमारे पूर्व जन्म के कर्म और वर्तमान जीवन के
क्रियाकलाप भी जिम्मेदार रहते हैं। बिना बुलाये प्रकट हुई आपदाएं हमें शारीरिक या मानसिक दु:ख ही नहीं देतीं, बल्कि सुव्यवस्थित घर गृहस्थी तक को प्रभावित करती हैं । इनके कारण परिवार में कलह बनी रहने लगती है, बिना किसी विशेष कारण के लड़ाई- झगड़े शुरू हो जाते हैं। घर में बीमारी का स्थायी निवास बना रहने लगता है तथा अन्य कई प्रकार की समस्यायें सताने लगती हैं। आपदाएं अनेक अन्य रूपों में भी प्रकट हो सकती हैं। जैसे कि व्यक्ति एक जगह पर कई साल तक नौकरी करके अपनी घर-गृहस्थी को ठीक से बसाता है, कई तरह के प्रयास करके बच्चों को शहर के प्रतिष्ठित स्कूलों में प्रवेश दिलाता है, अपने रहने के लिये स्थायी निवास के रूप में कर्ज आदि लेकर मकान बनाता है और तभी एकाएक उसका स्थानान्तरण किसी अन्य शहर में कर दिया जाता है अथवा उसे तत्काल शहर से दूर किसी गांव-देहात की शाखा में जाकर काम संभालना है। ऐसे आदेश व्यक्ति को अनेक प्रकार की परेशानियों में डाल देते हैं । वह एकाएक घबरा जाता है। उसे समझ नहीं आता कि क्या किया जाये ?
इसी प्रकार एक अन्य व्यक्ति समस्त उपायों के बाद एक भूखण्ड खरीदता है अथवा कोई मकान खरीदता है या फिर मकान बनवाने के लिये बैंक, अपने रिश्तेदारों, मित्रों आदि से कर्ज लेता है, किन्तु बाद में उसे पता चलता है कि खरीदा गया भूखण्ड तो विवादास्पद है अथवा किसी अन्य कारण से मकान की अलॉटमेंट में बार-बार विलम्ब होता रहता है या फिर उसे अनावश्यक रूप से सरकारी कार्यालयों के चक्कर काटने पर विवश होना पड़ता है, अधिकारियों को कई बार रिश्वत देनी पड़ती है। ऐसी स्थिति में उसका जीवन नरक बनकर रह जाता है। ऐसी समस्यायें उसके समस्त सुख-चैन को छीन लेती हैं। इस बारे में कटु सत्य यह है कि अनेक प्रकार की समस्यायें बार-बार जीवन में आती रहती हैं। मुकदमेबाजी में फंस जाना भी किसी समस्या से कम नहीं है। आज के समय में मुकदमेबाजी में तो फंस जाना एक सामान्य बात हो गई है। किसी भी सामान्य बात अथवा लापरवाही के कारण भी यह स्थिति उत्पन्न हो सकती है। आयकर, सेवा शुल्क, गृह कर आदि समय पर न देने से बैठे-बिठाये ऐसी परेशानियां आ सकती हैं। मानसिक शांति का क्षय कर डालती हैं ।
इस संदर्भ में एक बात देखने में आई है कि इस प्रकार की सभी परेशानियों एवं ऐसी समस्त समस्याओं से बचने में बटुक भैरव साधना अथवा उनका अनुष्ठ ही लाभदायक सिद्ध होता है । बटुक भैरव, भैरव का बाल रूप है । यह भैरव के बावन स्वरूपों में सबसे सौम्य रूप माना जाता है। बटुक भैरव की प्रसन्नता भर से ऐसी समस्त परेशानियां चमत्कारिक रूप से समाप्त होने लग जाती हैं। इस बात का अनुभव असंख्य लोगों ने अनेक बार किया है ।
यहां मैं एक ऐसे साधक के बारे में बताना चाहता हूं जो बटुक भैरव के उपासक थे और उन पर प्रबल विश्वास भी था । इस साधना का यह अनुभव रहा है कि उस पर जब भी किसी प्रकार की समस्या अथवा विपत्ति आयी, तभी श्री बटुक भैरव ने उसे सकुशल निकाल दिया। इस साधक के नाम का उल्लेख करना तो उचित नहीं होगा किन्तु उनके जीवन की अनेक घटनाओं में से एक घटना को अवश्य बताना चाहूंगा । बटुक भैरव के संबंध में उनका अनुभव बहुत ही अद्भुत रहा है। भैरव की कृपा को उन्होंने अनेक बार अनुभव किया है। भैरव पर उनकी अगाध आस्था है। यह साधक यू.पी. कैडर के आई.पी.एस. अधिकारी रहे हैं। अनेक वर्षों तक दिल्ली में रहकर वह भारत सरकार को अपनी सेवायें प्रदान करते रहे हैं। उन्हें भी अनेक बार ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा जिनसे ऐसा लगा कि जैसे कि अब नौकरी को छोड़ देना चाहिये। कई बार उन्हें अपने उच्च अधिकारियों अथवा कार्यालय के सहकर्मियों के साथ उलझना पड़ा। एक बार उनकी अपने एक उच्च अधिकारी से इतनी तनातनी हो गई कि उस अधिकारी ने एकाएक चिढ़ कर उनका स्थानान्तरण बहुत ही विषम परिस्थितियों वाली जगह पर कर दिया, जहां जाना उनके लिये सम्भव नहीं था। उन्हें बटुक भैरव जी का सदैव आशीर्वाद मिलता रहा था। जब भी उनके सामने कोई परेशानी पेश आती, वह तत्काल बटुक भैरव की शरण में जाते और उन्हें तत्काल अनुकंपा भी मिल जाती । इस बार भी उनकी परेशानी सहज ही दूर होगी, ऐसा उन्हें पूरा विश्वास था। इस बार जैसे ही उन्हें पता चला कि उनका स्थानान्तरण दिल्ली से उठाकर मिजोरम की पहाड़ियों पर कर दिया गया है तो तुरन्त ही वह अपनी परेशानी को लेकर अपने आराध्य बटुक भैरव की शरण में पहुंच गये। उन्होंने तत्काल अपने घर पर ही बटुक भैरव की पूजा-अर्चना करने की व्यवस्था करवायी तथा 21 दिन वाला भैरव का तांत्रिक
अनुष्ठान सम्पन्न करवा लिया। इस बार भी उन पर भैरव की अप्रत्याशित कृपा हुई । अनुष्ठान के दौरान ही ग्यारहवें दिन सचिवालय स्तर पर कुछ ऐसा घटनाक्रम घटित हुआ कि उनका स्थानान्तरण एकाएक रोक दिया गया। जिस अधिकारी ने उनका स्थान्तरण किया था, उसे अवश्य अन्य प्रदेश भेज दिया गया। स्थानान्तरण रुकने के साथ ही इस साधक को दिल्ली में मनोनुकूल विभाग का दायित्व भी दे दिया गया । बटुक भैरव की
अनुकंपा के कई अन्य मामले भी देखे गये हैं ।
बटुक भैरव साधना रहस्य :
तंत्रशास्त्र में भैरव साधना को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है । तंत्रशास्त्र के अन्तर्गत जो मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तभंन, विद्वेषण जैसी षक्रियायें की जाती हैं, उनके विपरीत प्रभावों को निरस्त करने के लिये सबसे पहले भैरव साधना का ही विधान है। इसी प्रकार तंत्र के शाक्त मत में जिन दस महाविद्याओं की साधना का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया गया है, उन महाविद्याओं की पूर्ण प्राप्ति और उनकी साधनाओं में पूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिये भी सबसे पहले भैरव की कृपा प्राप्त करना आवश्यक होता है। वास्तव में भैरव साधना और तांत्रोक्त अनुष्ठान एक-दूसरे के पूरक ही हैं। जम्मू-कश्मीर स्थित वैष्णो देवी के दर्शन करने वाले इस बात को जानते हैं कि वहां भी माँ के दर्शनों का पूरा लाभ भैरव के सामने नतमस्तक होने पर ही मिल पाता है। कटरा से माँ वैष्णो की गुफा तक की 13 किलोमीटर की यात्रा मार्ग में मुख्यतः दो ही पड़ाव पड़ते हैं। एक गर्भयोनि का स्थान और दूसरा भैरव पहाड़ी पर स्थित भैरव मंदिर का ।
महामाई की यात्रा का लक्ष्य तब तक अधूरा माना जाता है, जब तक कि भैरव की अनुकंपा प्राप्त नहीं कर ली जाती । इसी प्रकार दस महाविद्याओं से सम्बन्धित जितने भी शक्तिपीठ हैं, उन सब स्थानों पर भी महाविद्याओं के साथ ही भैरव जी की प्रतिष्ठा भी सबसे प्रमुख रूप में की गई है। यह भी अद्भुत बात है कि उन शक्तिपीठों पर भी आद्य माँ की पूजा-अर्चना का कार्य तब तक अधूरा ही समझा जाता है जब तक कि भैरव की कृपा प्राप्त नहीं कर ली जाती । महाविद्याओं के साथ ही नहीं बल्कि हनुमान जी के अनेक अनुग्रहों के साथ भी भैरव की स्थापना करने का विधान रहा है। हनुमान जी के ऐसे अनेक प्रसिद्ध स्थान हैं, जहां हनुमान जी के साथ भैरव जी की पूजा-अर्चना की जाती है । दरअसल भैरव भगवान शिव के द्वादशवें रुद्र हैं। तंत्रशास्त्र में भैरव के बावन स्वरूपों का वर्णन आया है, जिनमें अष्ट भैरवों की पूजा-उपासना का तो बहुत विस्तार से उल्लेख हुआ है। भैरव के यह अष्टरूप असितांग भैरव, रूरू भैरव, चंड भैरव, क्रोध भैरव, उन्मत भैरव, कपाल भैरव, भीषण भैरव और संहार भैरव । यद्यपि तांत्रिक साधनाओं में भैरव के अन्य स्वरूपों की साधना, पूजा, अनुष्ठानों का प्रचलन भी रहा है। इनमें से काल भैरव, स्वर्णाकर्षण भैरव, बटुक भैरव, आदि कुछ प्रमुख हैं। बटुक भैरव को भैरव का बाल स्वरूप माना गया है। नवरात्रियों के दौरान अष्टमी अथवा नवमी के दिन नवकंजकाओं के साथ एक लांगुर के रूप में लड़के की पूजा का विधान भी चला आ रहा है। लांगुर का यह रूप बटुक भैरव का ही प्रतीक है। मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को भगवान भैरव का प्रादुर्भाव हुआ, ऐसा माना जाता है। भैरव की पूजा-अर्चना का दिन रविवार का माना गया है। रविवार के दिन भैरव की पूजा-अर्चना करने, भैरव मंदिर में मस्तक झुकाने, भैरव को चोला चढ़ाने तथा उस दिन उपवास रखते हुये संयम से रहने से वह शीघ्र प्रसन्न होते हैं। रविवार को दिन में भैरव मंदिरों के बाहर दर्शनार्थियों की लम्बी कतारें लगी हुई देखी जा सकती हैं।
महामाई की यात्रा का लक्ष्य तब तक अधूरा माना जाता है, जब तक कि भैरव की अनुकंपा प्राप्त नहीं कर ली जाती । इसी प्रकार दस महाविद्याओं से सम्बन्धित जितने भी शक्तिपीठ हैं, उन सब स्थानों पर भी महाविद्याओं के साथ ही भैरव जी की प्रतिष्ठा भी सबसे प्रमुख रूप में की गई है। यह भी अद्भुत बात है कि उन शक्तिपीठों पर भी आद्य माँ की पूजा-अर्चना का कार्य तब तक अधूरा ही समझा जाता है जब तक कि भैरव की कृपा प्राप्त नहीं कर ली जाती । महाविद्याओं के साथ ही नहीं बल्कि हनुमान जी के अनेक अनुग्रहों के साथ भी भैरव की स्थापना करने का विधान रहा है। हनुमान जी के ऐसे अनेक प्रसिद्ध स्थान हैं, जहां हनुमान जी के साथ भैरव जी की पूजा-अर्चना की जाती है । दरअसल भैरव भगवान शिव के द्वादशवें रुद्र हैं। तंत्रशास्त्र में भैरव के बावन स्वरूपों का वर्णन आया है, जिनमें अष्ट भैरवों की पूजा-उपासना का तो बहुत विस्तार से उल्लेख हुआ है। भैरव के यह अष्टरूप असितांग भैरव, रूरू भैरव, चंड भैरव, क्रोध भैरव, उन्मत भैरव, कपाल भैरव, भीषण भैरव और संहार भैरव । यद्यपि तांत्रिक साधनाओं में भैरव के अन्य स्वरूपों की साधना, पूजा, अनुष्ठानों का प्रचलन भी रहा है। इनमें से काल भैरव, स्वर्णाकर्षण भैरव, बटुक भैरव, आदि कुछ प्रमुख हैं। बटुक भैरव को भैरव का बाल स्वरूप माना गया है। नवरात्रियों के दौरान अष्टमी अथवा नवमी के दिन नवकंजकाओं के साथ एक लांगुर के रूप में लड़के की पूजा का विधान भी चला आ रहा है। लांगुर का यह रूप बटुक भैरव का ही प्रतीक है। मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को भगवान भैरव का प्रादुर्भाव हुआ, ऐसा माना जाता है। भैरव की पूजा-अर्चना का दिन रविवार का माना गया है। रविवार के दिन भैरव की पूजा-अर्चना करने, भैरव मंदिर में मस्तक झुकाने, भैरव को चोला चढ़ाने तथा उस दिन उपवास रखते हुये संयम से रहने से वह शीघ्र प्रसन्न होते हैं। रविवार को दिन में भैरव मंदिरों के बाहर दर्शनार्थियों की लम्बी कतारें लगी हुई देखी जा सकती हैं।
भैरव साधना विधान :
भैरव को लाल सिन्दूर और सरसों का तेल बहुत प्रिय है । अतः इनकी पूजा-
अर्चना, अनुष्ठान आदि में इन्हें विशेषतौर पर सम्मिलित किया जाता है। सरसों के तेल में सिन्दूर मिलाकर उसका मूर्ति पर लेपन करने से वे शीघ्र प्रसन्न होते हैं। सिन्दूर चढ़ाने की इस प्रक्रिया को चोला चढ़ाना कहा जाता है। हनुमान जी को भी इसी तरह का चोला चढ़ाया जाता है लेकिन हनुमान जी को सरसों के तेल की जगह घी में सिन्दूर मिलाकर चोला चढ़ाया जाता है। चोला चढ़ाने से भैरव और हनुमान जी शीघ्र प्रसन्न होते हैं और उनकी मनोकामनाओं की सहज ही पूर्ति कर देते हैं। बटुक भैरव अनुष्ठान की इस प्रक्रिया में भैरव के तीन रूपों की प्रतिष्ठा की जाती है। अतः इनकी साधना के तीन क्रम हैं। एक उनकी सात्विक उपासना का क्रम है, दूसरी राजसिक उपासना का क्रम है और तीसरी तामसिक उपासना का क्रम है। भैरव की सात्विक उपासना से साधक को समस्त आधि-व्याधियों से सहज ही मुक्ति मिल जाती है, उसके मान-सम्मान में वृद्धि होती है तथा कई तरह की असाध्य बीमारियों से भी मुक्ति प्राप्त हो जाती है। भैरव की सात्विक उपासना का विधान बहुत ही सौम्य और सहज है। इसके अन्तर्गत किसी भैरव के मंदिर जाकर भैरव की संक्षिप्त पूजा अर्चना कर लेना अथवा रविवार के दिन उन्हें चोला चढ़ाकर व उनके कवच आदि का अभीष्ट संख्या में जाप कर लेना ही पर्याप्त रहता है जबकि भैरव साधना के अन्य विधान थोड़े भिन्न हैं।
अर्चना, अनुष्ठान आदि में इन्हें विशेषतौर पर सम्मिलित किया जाता है। सरसों के तेल में सिन्दूर मिलाकर उसका मूर्ति पर लेपन करने से वे शीघ्र प्रसन्न होते हैं। सिन्दूर चढ़ाने की इस प्रक्रिया को चोला चढ़ाना कहा जाता है। हनुमान जी को भी इसी तरह का चोला चढ़ाया जाता है लेकिन हनुमान जी को सरसों के तेल की जगह घी में सिन्दूर मिलाकर चोला चढ़ाया जाता है। चोला चढ़ाने से भैरव और हनुमान जी शीघ्र प्रसन्न होते हैं और उनकी मनोकामनाओं की सहज ही पूर्ति कर देते हैं। बटुक भैरव अनुष्ठान की इस प्रक्रिया में भैरव के तीन रूपों की प्रतिष्ठा की जाती है। अतः इनकी साधना के तीन क्रम हैं। एक उनकी सात्विक उपासना का क्रम है, दूसरी राजसिक उपासना का क्रम है और तीसरी तामसिक उपासना का क्रम है। भैरव की सात्विक उपासना से साधक को समस्त आधि-व्याधियों से सहज ही मुक्ति मिल जाती है, उसके मान-सम्मान में वृद्धि होती है तथा कई तरह की असाध्य बीमारियों से भी मुक्ति प्राप्त हो जाती है। भैरव की सात्विक उपासना का विधान बहुत ही सौम्य और सहज है। इसके अन्तर्गत किसी भैरव के मंदिर जाकर भैरव की संक्षिप्त पूजा अर्चना कर लेना अथवा रविवार के दिन उन्हें चोला चढ़ाकर व उनके कवच आदि का अभीष्ट संख्या में जाप कर लेना ही पर्याप्त रहता है जबकि भैरव साधना के अन्य विधान थोड़े भिन्न हैं।
बटुक भैरव साधना का सात्विक रूप :
बटुक भैरव की सात्विक साधना के लिये सिन्दूर से भैरव का श्रृंगार करना सबसे प्रथम कार्य है। भैरव की प्रतिमा को सरसों के तेल में सिन्दूर मिलाकर चोला चढ़ाना और उनकी विधिवत पूजा करना सात्विक उपासना का क्रम है। भैरव को चोला चढ़ाने के उपरांत उन्हें धूप, दीप अर्पण करें। उन्हें पुष्प माला, गन्ध अर्पित करें। रविवार की पूजा में भैरव देव को सिन्दूर से रंग कर कुशा मूल अर्पित करके उसे अपने घर ले आयें । उसे किसी तांबे के बर्तन अथवा चांदी के पात्र में रख कर अपने पूजास्थल पर स्थापित कर देना चाहिये। रविवार की पूजा में भैरव को केशरयुक्त खीर का नैवेद्य लगाया जाता है। पंचमेवा भी प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाता है । इसके पश्चात् भैरव मंदिर में बैठकर भैरव के निम्न बाल स्वरूप का ध्यान करना चाहिये तथा इसी मंत्र का ग्यारह बार उच्चारण करते हुये भैरव के ऊपर अथवा भैरव मंदिर की चौखट पर ग्यारह लौंग, सुपारी, इलायची युक्त अखण्डित पान अर्पित करें।
भैरव का ध्यान मंत्र है-
वन्दे बालं स्फटिक सदृशं कुण्डलोद्भासि वक्त्रम्,
दिव्या कल्पैर्नव मणि मयैः किङ्किणी नूपुराढयैः ।
दीप्ताकरं विशदवदनं सुप्रसन्नं त्रिनेत्रम्,
हस्ताध्जाभ्यां बटुकमनिशं शूलदण्डौ दधानम् ॥
ध्यान के पश्चात् भैरव जी के सामने अपनी कामनापूर्ति के लिये प्रार्थना करनी चाहिये। उनसे बार-बार अनुरोध करते हुये समस्याओं एवं दुःखों से तत्काल मुक्ति दिलाने का निवेदन करें। अन्त में भगवान भैरव से प्रार्थना करने के पश्चात् उन्हीं की आज्ञा लेकर वहीं बैठकर निम्न मंत्र का ग्यारह माला जाप करें। मंत्रजाप के लिये रुद्राक्ष की माला का उपयोग करना अतिश्रेष्ठ रहता है ।
दिव्या कल्पैर्नव मणि मयैः किङ्किणी नूपुराढयैः ।
दीप्ताकरं विशदवदनं सुप्रसन्नं त्रिनेत्रम्,
हस्ताध्जाभ्यां बटुकमनिशं शूलदण्डौ दधानम् ॥
ध्यान के पश्चात् भैरव जी के सामने अपनी कामनापूर्ति के लिये प्रार्थना करनी चाहिये। उनसे बार-बार अनुरोध करते हुये समस्याओं एवं दुःखों से तत्काल मुक्ति दिलाने का निवेदन करें। अन्त में भगवान भैरव से प्रार्थना करने के पश्चात् उन्हीं की आज्ञा लेकर वहीं बैठकर निम्न मंत्र का ग्यारह माला जाप करें। मंत्रजाप के लिये रुद्राक्ष की माला का उपयोग करना अतिश्रेष्ठ रहता है ।
बटुक भैरव का मंत्र निम्न प्रकार है-
ॐ ह्रीं बटुक भैरवाय आपदु द्धारणाय कुरू कुरू स्वाहा ।
जब आपका ग्यारह माला का मंत्रजाप पूर्ण हो जाये तो एक बार पुनः अपनी
प्रार्थना को भैरव के सामने दोहरा लें तथा अपने आसन से उठने से पहले उनकी आज्ञा प्राप्त कर लें । अनुष्ठान के दौरान कुछ विशेष बातों का ध्यान भी रखना चाहिये जैसे कि सम्पूर्ण जपकाल के दौरान घी का दीपक भैरव के सामने अखण्ड रूप में जलते रहना चाहिये । दूसरा, धूप, गंध आदि के माध्यम से साधना स्थल के वातावरण को सुगन्धित बना लेना चाहिये। तीसरे, यह अनुष्ठान केवल रविवार के दिन ही सम्पन्न करना होता है और निरन्तर ग्यारह रविवार तक इस क्रम को जारी रखना होता है । प्रत्येक रविवार के दिन इस प्रकार भैरव मंदिर जाकर सरसों के तेल सिन्दूर का चोला चढ़ायें। भैरव को खीर का नैवेद्य एवं पंचमेवा का भोग लगायें तथा अन्य पूजा-क्रम को वैसे ही जारी रखते हुये ग्यारह बार उनके ध्यान के मंत्र को उच्चारित करके प्रार्थना एवं मंत्रजाप के क्रम को बनाये रखें। अगर रविवार के दिन उपवास रखा जा सके, तो अवश्य ही रखना चाहिये । उपवास के दिन केवल एक बार केसरयुक्त खीर को ही भैरव क़े प्रसाद रूप में ग्रहण करना चाहिये । बटुक भैरव की पूजा- संध्याकाल के समय ही सम्पन्न की जाती है। अतः खीर का सेवन भी संध्याकाल को ही अनुष्ठान सम्पन्न करने के बाद करना चाहिये, जबकि साधारणतः पूरे दिन उपवास ही रखना चाहिये । जो साधक सारा दिन उपवास नहीं रख सकते तथा भैरव मंदिर में बैठकर ग्यारह माला मंत्रजाप भी नहीं कर सकते, वह साधक अपनी सामर्थ्य के अनुसार व्रत रखने का निर्णय ले सकते हैं । इसी प्रकार वह मंत्रजाप की संख्या को भी निर्धारित कर सकते हैं । अन्य साधना, अनुष्ठानों की तरह ही भैरव अनुष्ठान में भी साधकों को पूर्ण आस्था एवं विश्वास का भाव बनाये रखना चाहिये । गहन आस्था और पूर्ण विश्वास से ही समस्त साधनाओं में अभीष्ट फलों की प्राप्ति होती है। भैरव अनुष्ठान के दौरान एक विशेष बात भी देखने में आयी है कि अगर भैरव से संबंधित तांत्रोक्त अनुष्ठान किसी प्राचीन भैरव मूर्ति के सामने बैठकर सम्पन्न किये जाये, तो उनका प्रभाव तत्काल दिखाई देता है। परिणामस्वरूप साधक के सामने उत्पन्न हुई समस्यायें शीघ्र ही दूर हो जाती हैं। अगर भैरव की ऐसी प्रतिमा कुर्ये के ऊपर अथवा उसके किनारे पर स्थापित की गई है तो वह और भी प्रभावपूर्ण एवं शक्ति सम्पन्न हो जाती है। ऐसे शक्ति सम्पन्न स्थानों पर अनुष्ठान करने की बात तो दूर, वहां के दर्शनमात्र एवं संक्षिप्त पूजा-अर्चना से भी भैरव देव प्रसन्न होकर अपने भक्तों की अनेक प्रकार की समस्याओं का निराकरण कर देते हैं। इन स्थानों पर अनुष्ठान सम्पन्न करने का तो विशेष फल प्राप्त होता ही है । हमारे देश में ऐसे अनेक शक्ति सम्पन्न भैरव मंदिर हैं, जहां बटुक भैरव की स्थापना कुयें के किनारे की गई है। इसलिये उन भैरव मंदिरों की विशेष मान्यता है। वहां भक्तों की लम्बी-लम्बी कतारें हमेशा लगी रहती हैं। ऐसा एक भैरव मंदिर दिल्ली में नेहरू पार्क के पास स्थित है। ऐसा ही एक भैरव मंदिर काशी में कोतवाल भैरव का है। ऐसे अन्य अनेक भैरव मंदिर उज्जैन, दौसा (बालाजी हनुमान के पास), उत्तरकाशी, हरिद्वार आदि में हैं। दिल्ली में नेहरू पार्क के पास भैरव का जो मंदिर है वह बहुत ही प्राचीन भैरव मंदिर है। मंदिर में भैरव की बहुत भारी मूर्ति की स्थापना की गई है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस भैरव प्रतिमा की स्थापना पाण्डव पुत्र भीम के द्वारा की गई है। इस मंदिर में असंख्य लोगों की मनोकामनायें पूर्ण हुई हैं।
इस भैरव मंदिर के बारे में एक बहुत प्राचीन मान्यता है कि इस भारी भरकम प्रतिमा को किसी दूरस्थ स्थान से लाकर यहां एक कुयें के ऊपर स्थापित किया गया है। इसलिये यह भैरव मूर्ति अत्यन्त शक्ति सम्पन्न बन गई है। इतना ही नहीं, दीर्घकाल तक नियमित रूप से पूजा-उपासना का क्रम चलते रहने से यहां का सम्पूर्ण वातावरण एक अद्भुत आध्यात्मिक ऊर्जा सम्पन्न बन गया है । इस मूर्ति की आंखें ऐसे विशेष पत्थर से बनी हुई हैं कि उनके ऊपर अधिक समय तक अपनी आँखों को स्थिर रख पाना संभव नहीं हो पाता। अगर अधिक समय तक अपनी आंखों को भैरव प्रतिमा के ऊपर स्थिर बनाये रखा जाये तो हृदय में एक भय का संचार होने लग जाता है । इस भैरव प्रतिमा की प्रतिष्ठा विशेष तांत्रिक प्रक्रिया के द्वारा की गई है, इसलिये भी यह स्थान बहुत ही उच्च ऊर्जायुक्त बन गया है। बटुक भैरव का जो उपरोक्त अनुष्ठान है, उसमें रविवार के दिन भैरव के मंदिर जाकर वहां पर भैरव देव की विधिवत पूजा-अर्चना एवं मंत्रजाप करना होता है। इसके
साथ ही घर पर भी भैरव की संक्षिप्त पूजा सम्पन्न करने एवं भैरव स्वरूप कुशा मूल के सामने घी का एक दीपक जलाकर रखना चाहिये। वहीं पर कम्बल का आसन बिछाकर सोमवार से शनिवार तक ग्यारह बार भैरव के उपरोक्त ध्यान मंत्र का उच्चारण करके पांच माला (अथवा अपनी सुविधानुसार संख्या में) का मंत्रजाप करते रहना चाहिये । मंत्रजाप से
पूर्व कुशा मूल पर सिन्दूर का टीका अवश्य लगा लें। इस प्रकार प्रत्येक रविवार के दिन भैरव मंदिर जाकर और शेष पांच दिन घर पर रहकर ही विधि-विधानपूर्वक पूजा करने एवं अभीष्ट संख्या में भैरव मंत्र का जाप करते रहना चाहिये। प्रत्येक रविवार के दिन भैरव को सिन्दूर का चोला भी चढ़ाना चाहिये तथा नैवेद्य के रूप में केसरयुक्त खीर एवं पंचमेवा का प्रसाद चढ़ायें। अगर सम्भव हो तो प्रत्येक रविवार के दिन व्रत अवश्य रखें।
इस प्रकार ग्यारहवें रविवार तक यह भैरव अनुष्ठान सम्पन्न हो जाता है। अतः उस दिन पूजा क्रम समाप्त होने के उपरांत तीन (3 से 6 वर्ष की आयु के) बालकों को बटुक भैरव के रूप में भोजन करवा कर दान-दक्षिणा देकर प्रसन्न करना चाहिये तथा उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिये । इस तरह यह भैरव अनुष्ठान पूर्ण रूप से सम्पन्न हो जाता है तथा साधक की परेशानियां अपने आप ही समाप्त होने लगती हैं।
प्रार्थना को भैरव के सामने दोहरा लें तथा अपने आसन से उठने से पहले उनकी आज्ञा प्राप्त कर लें । अनुष्ठान के दौरान कुछ विशेष बातों का ध्यान भी रखना चाहिये जैसे कि सम्पूर्ण जपकाल के दौरान घी का दीपक भैरव के सामने अखण्ड रूप में जलते रहना चाहिये । दूसरा, धूप, गंध आदि के माध्यम से साधना स्थल के वातावरण को सुगन्धित बना लेना चाहिये। तीसरे, यह अनुष्ठान केवल रविवार के दिन ही सम्पन्न करना होता है और निरन्तर ग्यारह रविवार तक इस क्रम को जारी रखना होता है । प्रत्येक रविवार के दिन इस प्रकार भैरव मंदिर जाकर सरसों के तेल सिन्दूर का चोला चढ़ायें। भैरव को खीर का नैवेद्य एवं पंचमेवा का भोग लगायें तथा अन्य पूजा-क्रम को वैसे ही जारी रखते हुये ग्यारह बार उनके ध्यान के मंत्र को उच्चारित करके प्रार्थना एवं मंत्रजाप के क्रम को बनाये रखें। अगर रविवार के दिन उपवास रखा जा सके, तो अवश्य ही रखना चाहिये । उपवास के दिन केवल एक बार केसरयुक्त खीर को ही भैरव क़े प्रसाद रूप में ग्रहण करना चाहिये । बटुक भैरव की पूजा- संध्याकाल के समय ही सम्पन्न की जाती है। अतः खीर का सेवन भी संध्याकाल को ही अनुष्ठान सम्पन्न करने के बाद करना चाहिये, जबकि साधारणतः पूरे दिन उपवास ही रखना चाहिये । जो साधक सारा दिन उपवास नहीं रख सकते तथा भैरव मंदिर में बैठकर ग्यारह माला मंत्रजाप भी नहीं कर सकते, वह साधक अपनी सामर्थ्य के अनुसार व्रत रखने का निर्णय ले सकते हैं । इसी प्रकार वह मंत्रजाप की संख्या को भी निर्धारित कर सकते हैं । अन्य साधना, अनुष्ठानों की तरह ही भैरव अनुष्ठान में भी साधकों को पूर्ण आस्था एवं विश्वास का भाव बनाये रखना चाहिये । गहन आस्था और पूर्ण विश्वास से ही समस्त साधनाओं में अभीष्ट फलों की प्राप्ति होती है। भैरव अनुष्ठान के दौरान एक विशेष बात भी देखने में आयी है कि अगर भैरव से संबंधित तांत्रोक्त अनुष्ठान किसी प्राचीन भैरव मूर्ति के सामने बैठकर सम्पन्न किये जाये, तो उनका प्रभाव तत्काल दिखाई देता है। परिणामस्वरूप साधक के सामने उत्पन्न हुई समस्यायें शीघ्र ही दूर हो जाती हैं। अगर भैरव की ऐसी प्रतिमा कुर्ये के ऊपर अथवा उसके किनारे पर स्थापित की गई है तो वह और भी प्रभावपूर्ण एवं शक्ति सम्पन्न हो जाती है। ऐसे शक्ति सम्पन्न स्थानों पर अनुष्ठान करने की बात तो दूर, वहां के दर्शनमात्र एवं संक्षिप्त पूजा-अर्चना से भी भैरव देव प्रसन्न होकर अपने भक्तों की अनेक प्रकार की समस्याओं का निराकरण कर देते हैं। इन स्थानों पर अनुष्ठान सम्पन्न करने का तो विशेष फल प्राप्त होता ही है । हमारे देश में ऐसे अनेक शक्ति सम्पन्न भैरव मंदिर हैं, जहां बटुक भैरव की स्थापना कुयें के किनारे की गई है। इसलिये उन भैरव मंदिरों की विशेष मान्यता है। वहां भक्तों की लम्बी-लम्बी कतारें हमेशा लगी रहती हैं। ऐसा एक भैरव मंदिर दिल्ली में नेहरू पार्क के पास स्थित है। ऐसा ही एक भैरव मंदिर काशी में कोतवाल भैरव का है। ऐसे अन्य अनेक भैरव मंदिर उज्जैन, दौसा (बालाजी हनुमान के पास), उत्तरकाशी, हरिद्वार आदि में हैं। दिल्ली में नेहरू पार्क के पास भैरव का जो मंदिर है वह बहुत ही प्राचीन भैरव मंदिर है। मंदिर में भैरव की बहुत भारी मूर्ति की स्थापना की गई है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस भैरव प्रतिमा की स्थापना पाण्डव पुत्र भीम के द्वारा की गई है। इस मंदिर में असंख्य लोगों की मनोकामनायें पूर्ण हुई हैं।
इस भैरव मंदिर के बारे में एक बहुत प्राचीन मान्यता है कि इस भारी भरकम प्रतिमा को किसी दूरस्थ स्थान से लाकर यहां एक कुयें के ऊपर स्थापित किया गया है। इसलिये यह भैरव मूर्ति अत्यन्त शक्ति सम्पन्न बन गई है। इतना ही नहीं, दीर्घकाल तक नियमित रूप से पूजा-उपासना का क्रम चलते रहने से यहां का सम्पूर्ण वातावरण एक अद्भुत आध्यात्मिक ऊर्जा सम्पन्न बन गया है । इस मूर्ति की आंखें ऐसे विशेष पत्थर से बनी हुई हैं कि उनके ऊपर अधिक समय तक अपनी आँखों को स्थिर रख पाना संभव नहीं हो पाता। अगर अधिक समय तक अपनी आंखों को भैरव प्रतिमा के ऊपर स्थिर बनाये रखा जाये तो हृदय में एक भय का संचार होने लग जाता है । इस भैरव प्रतिमा की प्रतिष्ठा विशेष तांत्रिक प्रक्रिया के द्वारा की गई है, इसलिये भी यह स्थान बहुत ही उच्च ऊर्जायुक्त बन गया है। बटुक भैरव का जो उपरोक्त अनुष्ठान है, उसमें रविवार के दिन भैरव के मंदिर जाकर वहां पर भैरव देव की विधिवत पूजा-अर्चना एवं मंत्रजाप करना होता है। इसके
साथ ही घर पर भी भैरव की संक्षिप्त पूजा सम्पन्न करने एवं भैरव स्वरूप कुशा मूल के सामने घी का एक दीपक जलाकर रखना चाहिये। वहीं पर कम्बल का आसन बिछाकर सोमवार से शनिवार तक ग्यारह बार भैरव के उपरोक्त ध्यान मंत्र का उच्चारण करके पांच माला (अथवा अपनी सुविधानुसार संख्या में) का मंत्रजाप करते रहना चाहिये । मंत्रजाप से
पूर्व कुशा मूल पर सिन्दूर का टीका अवश्य लगा लें। इस प्रकार प्रत्येक रविवार के दिन भैरव मंदिर जाकर और शेष पांच दिन घर पर रहकर ही विधि-विधानपूर्वक पूजा करने एवं अभीष्ट संख्या में भैरव मंत्र का जाप करते रहना चाहिये। प्रत्येक रविवार के दिन भैरव को सिन्दूर का चोला भी चढ़ाना चाहिये तथा नैवेद्य के रूप में केसरयुक्त खीर एवं पंचमेवा का प्रसाद चढ़ायें। अगर सम्भव हो तो प्रत्येक रविवार के दिन व्रत अवश्य रखें।
इस प्रकार ग्यारहवें रविवार तक यह भैरव अनुष्ठान सम्पन्न हो जाता है। अतः उस दिन पूजा क्रम समाप्त होने के उपरांत तीन (3 से 6 वर्ष की आयु के) बालकों को बटुक भैरव के रूप में भोजन करवा कर दान-दक्षिणा देकर प्रसन्न करना चाहिये तथा उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिये । इस तरह यह भैरव अनुष्ठान पूर्ण रूप से सम्पन्न हो जाता है तथा साधक की परेशानियां अपने आप ही समाप्त होने लगती हैं।
बटुक भैरव साधना का राजसिक प्रयोग :
बटुक भैरव की राजसिक उपासना का भी वही क्रम है, जो उनकी सात्विक उपासन का है। इस साधना या अनुष्ठान के दौरान भी ॐ ह्रीं बटुक भैरवाय आपदुद्धारणाय कुरू कुरू स्वाहा मंत्र का ही जाप करना होता है, लेकिन इस उपासना के दौरान भैरव का ध्यान थोड़ा बदल जाता है, साथ ही उनकी पूजा में कुशा मूल की जगह रजत पत्र पर निर्मित किये गये भैरव यंत्र की विधिवत स्थापना करनी पड़ती है। बटुक भैरव का यह यंत्र अगर किसी शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि को रजत पत्र पर बनवाकर विधिवत चेतना सम्पन्न कर लिया जाता है तो साधना का फल शीघ्र प्राप्त होने की संभवना बन जाती है । यद्यपि रजत यंत्र की जगह इस भैरव यंत्र को भोजपत्र के ऊपर भी अष्टगंध अथवा पंचगंध से अनार की कलम द्वारा तैयार किया जा सकता है।

भैरव यंत्र को रजत पत्र अथवा भोजपत्र पर विधिवत तैयार करके, सबसे पहल षोडशोपचार पूजन से उसे चेतना सम्पन्न करना होता है और फिर अनुष्ठान के निमित्त उक् यंत्र को काम में लाया जाता है। इस प्रकार प्राण-प्रतिष्ठित भैरव यंत्र की स्थापना से साध अनायास पैदा होने वाली बाधाओं, शत्रु बंधनों एवं तंत्र प्रयोग से सदा से सुरक्षित रहता है ऐसे साधक पर ही नहीं, बल्कि उस स्थान विशेष पर भी शत्रुओं के हमले एवं सभी तरह
के तंत्र प्रयोग सदैव निष्फल सिद्ध होते हैं। ऐसे भैरव यंत्र की स्थापना से साधक की बहु सी अभिलाषाएं पूर्ण हो जाती हैं। यह बटुक भैरव की अत्यधिक प्रभावी साधना है बटुक भैरव के इस राजसिक अनुष्ठान के दौरान साधक को प्रत्येक रविवार के दि भैरव मंदिर जाकर भैरव को सिन्दूर का चोला चढ़ाना होता है तथा नैवेद्य के रूप में उन्हे उड़द की दाल से बनाये गये पकौड़े, इमरती, कचौरी, दही पकौड़े आदि चढ़ाया जाता है कुत्ते को दूध पिलाना पड़ता है तथा घर पर विशेष पूजा स्थान पर भैरव यंत्र की स्थापना
करनी पड़ती है।

भैरव यंत्र को रजत पत्र अथवा भोजपत्र पर विधिवत तैयार करके, सबसे पहल षोडशोपचार पूजन से उसे चेतना सम्पन्न करना होता है और फिर अनुष्ठान के निमित्त उक् यंत्र को काम में लाया जाता है। इस प्रकार प्राण-प्रतिष्ठित भैरव यंत्र की स्थापना से साध अनायास पैदा होने वाली बाधाओं, शत्रु बंधनों एवं तंत्र प्रयोग से सदा से सुरक्षित रहता है ऐसे साधक पर ही नहीं, बल्कि उस स्थान विशेष पर भी शत्रुओं के हमले एवं सभी तरह
के तंत्र प्रयोग सदैव निष्फल सिद्ध होते हैं। ऐसे भैरव यंत्र की स्थापना से साधक की बहु सी अभिलाषाएं पूर्ण हो जाती हैं। यह बटुक भैरव की अत्यधिक प्रभावी साधना है बटुक भैरव के इस राजसिक अनुष्ठान के दौरान साधक को प्रत्येक रविवार के दि भैरव मंदिर जाकर भैरव को सिन्दूर का चोला चढ़ाना होता है तथा नैवेद्य के रूप में उन्हे उड़द की दाल से बनाये गये पकौड़े, इमरती, कचौरी, दही पकौड़े आदि चढ़ाया जाता है कुत्ते को दूध पिलाना पड़ता है तथा घर पर विशेष पूजा स्थान पर भैरव यंत्र की स्थापना
करनी पड़ती है।
बटुक भैरव के राजसिक स्वरूप का ध्यान मंत्र निम्न प्रकार है-
उद्यद्भास्करसन्निभं त्रिनयनं रक्ताङ्ग रागस्त्रजम्,
स्मेरास्यं वरदं कपालमभयं शूलं दधानं करै ।
नीलग्रीमुदारभूषणशतं शीतांशुखण्डोज्जलम्,
बन्धूकारुणावाससं भयहरं देवं सदा भाव्ये ॥
स्मेरास्यं वरदं कपालमभयं शूलं दधानं करै ।
नीलग्रीमुदारभूषणशतं शीतांशुखण्डोज्जलम्,
बन्धूकारुणावाससं भयहरं देवं सदा भाव्ये ॥
इस ध्यान मंत्र का ग्यारह बार जाप करते हुये भैरव के सामने घी का दीपक
जलाकर रखना होता है और उन्हें नैवेद्य के साथ लौंग, सुपारीयुक्त पान अर्पित करना होता है। इसके उपरांत भैरव देव से प्रार्थना करके एवं उनसे आज्ञा लेकर भैरव मंत्र का ग्यारह माला अथवा अपनी सामर्थ्य अनुसार मंत्रजाप करना चाहिये । अनुष्ठान का अन्य पूजाक्र पूर्ण रूप से ज्यों का त्यों ही जारी रखना होता है । अनुष्ठान समाप्ति के पश्चात् पांच लांगुरों
को भोजन करना तथा दक्षिणा आदि देकर उनका आशीर्वाद लेना होता है। इसी से अने प्रकार की विपत्तियां धीरे-धीरे अपने आप समाप्त होने लगती हैं।
जलाकर रखना होता है और उन्हें नैवेद्य के साथ लौंग, सुपारीयुक्त पान अर्पित करना होता है। इसके उपरांत भैरव देव से प्रार्थना करके एवं उनसे आज्ञा लेकर भैरव मंत्र का ग्यारह माला अथवा अपनी सामर्थ्य अनुसार मंत्रजाप करना चाहिये । अनुष्ठान का अन्य पूजाक्र पूर्ण रूप से ज्यों का त्यों ही जारी रखना होता है । अनुष्ठान समाप्ति के पश्चात् पांच लांगुरों
को भोजन करना तथा दक्षिणा आदि देकर उनका आशीर्वाद लेना होता है। इसी से अने प्रकार की विपत्तियां धीरे-धीरे अपने आप समाप्त होने लगती हैं।
बटुक भैरव साधना का तामसिक प्रयोग :
बटुक भैरव साधना का जो तामसिक क्रम है, वह भैरव की उपरोक्त साधनाओं स थोड़ा भिन्न है। वैसे भी, आमतौर पर भैरव के तामसिक रूप की साधना शत्रुनाश, शत्रुओ द्वारा बार-बार सताये जाने, शत्रुओं के द्वारा बार-बार झूठे मुकदमों में फंसा देना, तांत्रि अभिचार क्रियाओं में फंस जाने आदि परिस्थितियों से मुक्ति पाने के उद्देश्य से की जात है । अनेक बार लम्बी बीमारी में फंस जाने पर भी भैरव के तामसिक स्वरूप की साधना
की जाती है। यद्यपि भैरव की इस तामसिक साधना के दौरान भी बटुक भैरव के अग्रांकि मंत्र का जाप ही करना पड़ता है और उनके अनुष्ठान की विधि भी काफी हद तकउपरोक्त अनुसार ही रहती है ।
की जाती है। यद्यपि भैरव की इस तामसिक साधना के दौरान भी बटुक भैरव के अग्रांकि मंत्र का जाप ही करना पड़ता है और उनके अनुष्ठान की विधि भी काफी हद तकउपरोक्त अनुसार ही रहती है ।
बटुक भैरव की तामसिक साधना का मंत्र है- -
ॐ ह्रीं बटुक भैरवाय आपदुद्धारणाय कुरू कुरू स्वाहा
अगर बटुक भैरव के इस अनुष्ठान को भैरव अष्टमी के दिन एक बार विधिव पूजा-अर्चना एवं मंत्रजाप आदि के साथ सम्पन्न कर लिया जाये, तब तो इसका प्रभा और भी चमत्कारिक रूप में सामने आता है। वैसे भी प्राचीन समय में तांत्रिकों में ए बात सर्वत्र प्रचलित रही है कि भैरव साधना के बिना तंत्र सिद्धियां प्राप्त नहीं हो पाती हैं यद्यपि सिद्धियों से अलग हट कर अभीष्ट विपत्तियों से मुक्ति पाने के लिये इस भैर अनुष्ठान को किसी भी रविवार के दिन से प्रारम्भ किया जा सकता है बटुक भैरव के इस तामसिक अनुष्ठान के लिये सबसे पहले भैरव यंत्र का विधिव निर्माण करके उसकी स्थापना करनी पड़ती है । भैरव का यह यंत्र भैरवाष्टमी के दि अथवा किसी भी उजले पक्ष की अष्टमी तिथि को रजत पत्र अथवा भोजपत्र पर अष्टगंध या पंचगंध से अनार की कलम से तैयार करके प्राण-प्रतिष्ठित करना चाहिये । अष्टगं अथवा पंचगंध के रूप में गोरोचन, केसर, कस्तूरी, अगर, तगर, श्वेत चन्दन, रक्त चंदन जवाकुसुम के पुष्प काम में लाये जाते हैं।
यंत्र का निर्माण अगर किसी धातु जैसे कि स्वर्ण, रजत, ताम्र, लोहे में से किसी प करना हो तो उसके सम्बन्ध में भी कुछ बातों का ध्यान कर लेना चाहिये। सबसे पहल इसी बात का ख्यान रखना चाहिये कि धातुयें निद्रादोष से पीड़ित न हों अर्थात् यंत्र निर्मा के लिये काम में लायी जाने वाली धातुएं न तो दान में ग्रहण की गई हो और न ही चुराई छीनी गई हों। धातुएं शुभ मुहूर्त में पूरा मूल्य चुका कर प्रसन्नतापूर्वक खरीदी गई हों खरीदने के बाद उन्हें विधिवत् शुद्ध किया गया हो । उन पर शुभ मुहूर्त में शुभ दिन पर शुद् आचार-विचार के बाद यंत्र को निर्मित करवाया गया हो । इसके पश्चात् उसकी विधिवत प्राण-प्रतिष्ठा की गई हो । सामान्य साधक चाहें तो भोजपत्र पर अष्टगंध की स्याही स अनार अथवा पीपल वृक्ष की कलम से यंत्र का निर्माण कर सकते हैं अथवा ताम्रपत्र प उत्कीर्ण करवाया जा सकता है। आर्थिक पक्ष अगर सबल है तो रजत पत्र पर यंत्र उत्कीर् करवाया जा सकता है। किसी भी साधना अथवा अनुष्ठान में इस बात का महत्त्व अधि है कि साधक की भावना कैसी है ? अगर साधक अच्छे मन से सीमित साधनों द्वारा भ साधना करता है तो उसे इसका लाभ अवश्य ही प्राप्त होगा अगर उपरोक्त प्रकार के यंत्र प्राप्ति में समस्या उत्पन्न हो तो उसकी जगह इ अनुष्ठान को कुयें की मिट्टी से निर्मित भैरव प्रतिमा अथवा भैरव मंदिर जाकर भी सम्पन् किया जा सकता है। इस तामसिक अनुष्ठान में भी सबसे पहले भैरव प्रतिमा को सिन्दू पति सरसों के तेल का चोला चढ़ाया जाता है। भैरव के गले में जवा कुसुम के पुष्पों स निर्मित माला अथवा जो माला उपलब्ध हो, वह पहनाई जाती है । शतावरी से तैयार माल भी उन्हें अर्पित की जा सकती है। इसके बाद भैरव को घी का दीपक अर्पित किया जात है। उन्हें उड़द की दाल से तेल में तले पकौड़े या पुए का नैवेद्य लगाया जाता है। तत्पश्चात भैरव के अग्रांकित तामसिक ध्यान का ग्यारह बार उच्चारण करते हुये उनका आह्वान करत हैं तथा यंत्र अथवा प्रतिमा के सामने ग्यारह - ग्यारह काली मिर्च के दाने, लौंग, सुपारी काली मुनक्का आदि अर्पित किये जाते हैं।
अगर बटुक भैरव के इस अनुष्ठान को भैरव अष्टमी के दिन एक बार विधिव पूजा-अर्चना एवं मंत्रजाप आदि के साथ सम्पन्न कर लिया जाये, तब तो इसका प्रभा और भी चमत्कारिक रूप में सामने आता है। वैसे भी प्राचीन समय में तांत्रिकों में ए बात सर्वत्र प्रचलित रही है कि भैरव साधना के बिना तंत्र सिद्धियां प्राप्त नहीं हो पाती हैं यद्यपि सिद्धियों से अलग हट कर अभीष्ट विपत्तियों से मुक्ति पाने के लिये इस भैर अनुष्ठान को किसी भी रविवार के दिन से प्रारम्भ किया जा सकता है बटुक भैरव के इस तामसिक अनुष्ठान के लिये सबसे पहले भैरव यंत्र का विधिव निर्माण करके उसकी स्थापना करनी पड़ती है । भैरव का यह यंत्र भैरवाष्टमी के दि अथवा किसी भी उजले पक्ष की अष्टमी तिथि को रजत पत्र अथवा भोजपत्र पर अष्टगंध या पंचगंध से अनार की कलम से तैयार करके प्राण-प्रतिष्ठित करना चाहिये । अष्टगं अथवा पंचगंध के रूप में गोरोचन, केसर, कस्तूरी, अगर, तगर, श्वेत चन्दन, रक्त चंदन जवाकुसुम के पुष्प काम में लाये जाते हैं।
यंत्र का निर्माण अगर किसी धातु जैसे कि स्वर्ण, रजत, ताम्र, लोहे में से किसी प करना हो तो उसके सम्बन्ध में भी कुछ बातों का ध्यान कर लेना चाहिये। सबसे पहल इसी बात का ख्यान रखना चाहिये कि धातुयें निद्रादोष से पीड़ित न हों अर्थात् यंत्र निर्मा के लिये काम में लायी जाने वाली धातुएं न तो दान में ग्रहण की गई हो और न ही चुराई छीनी गई हों। धातुएं शुभ मुहूर्त में पूरा मूल्य चुका कर प्रसन्नतापूर्वक खरीदी गई हों खरीदने के बाद उन्हें विधिवत् शुद्ध किया गया हो । उन पर शुभ मुहूर्त में शुभ दिन पर शुद् आचार-विचार के बाद यंत्र को निर्मित करवाया गया हो । इसके पश्चात् उसकी विधिवत प्राण-प्रतिष्ठा की गई हो । सामान्य साधक चाहें तो भोजपत्र पर अष्टगंध की स्याही स अनार अथवा पीपल वृक्ष की कलम से यंत्र का निर्माण कर सकते हैं अथवा ताम्रपत्र प उत्कीर्ण करवाया जा सकता है। आर्थिक पक्ष अगर सबल है तो रजत पत्र पर यंत्र उत्कीर् करवाया जा सकता है। किसी भी साधना अथवा अनुष्ठान में इस बात का महत्त्व अधि है कि साधक की भावना कैसी है ? अगर साधक अच्छे मन से सीमित साधनों द्वारा भ साधना करता है तो उसे इसका लाभ अवश्य ही प्राप्त होगा अगर उपरोक्त प्रकार के यंत्र प्राप्ति में समस्या उत्पन्न हो तो उसकी जगह इ अनुष्ठान को कुयें की मिट्टी से निर्मित भैरव प्रतिमा अथवा भैरव मंदिर जाकर भी सम्पन् किया जा सकता है। इस तामसिक अनुष्ठान में भी सबसे पहले भैरव प्रतिमा को सिन्दू पति सरसों के तेल का चोला चढ़ाया जाता है। भैरव के गले में जवा कुसुम के पुष्पों स निर्मित माला अथवा जो माला उपलब्ध हो, वह पहनाई जाती है । शतावरी से तैयार माल भी उन्हें अर्पित की जा सकती है। इसके बाद भैरव को घी का दीपक अर्पित किया जात है। उन्हें उड़द की दाल से तेल में तले पकौड़े या पुए का नैवेद्य लगाया जाता है। तत्पश्चात भैरव के अग्रांकित तामसिक ध्यान का ग्यारह बार उच्चारण करते हुये उनका आह्वान करत हैं तथा यंत्र अथवा प्रतिमा के सामने ग्यारह - ग्यारह काली मिर्च के दाने, लौंग, सुपारी काली मुनक्का आदि अर्पित किये जाते हैं।
ध्यान मंत्र:- भैरव का तामसिक ध्यान निम्न प्रकार है-
ध्यायेन्नीलाद्रिकान्तं शशिशकलधरं मुण्डमालं महेशम् ।
दिग्वस्त्रं पिङ्ग लाक्षं डमरूमथ सृणिं खड्ग शूलाभयानि ॥
नागं घंटां कपालं करसरसिरू हर्विभ्रतं भीमदंष्ट्रम ।
सर्पाल्पं त्रिनेत्रं मणिमयबिलत्किङ्गिणीनूपुराढ्मम्॥
बटुक भैरव ध्यान के पश्चात् काले कम्बल अथवा ऊन के आसन पर बैठकर भैरव देव के सामने अपनी प्रार्थना को रखें। शत्रुओं से पीछा छुड़ाने का अनुरोध करें, तत्पश्चात भैरव देव की आज्ञा प्राप्त करके रुद्राक्ष माला अथवा काले मनके वाली यजमानी हकी माला से अभीष्ट संख्या में मंत्रजाप पूरा कर लें। मंत्रजाप पूर्ण हो जाने पर एक बार पुन भैरव से प्रार्थना करें और उन्हीं की आज्ञा प्राप्त करके अपने आसन से उठें अनुष्ठान का यह पूरा क्रम ही पूर्ण साधनाकाल में बना रहता है। इसमें प्रत्ये मंगलवार के दिन यंत्र की सम्पूर्ण पूजा अथवा भैरव प्रतिमा पर चोला चढ़ाना, भैरव क जवा कुसुम अथवा शतावरी माला का अर्पण, उड़द की दाल से बने पुए अथवा पकौड़े
का नैवेद्य अर्पित करना है। इसके अलावा भैरव का दीप दान, उनका आह्वान भी आवश्य है। भैरव को कालीमिर्च, लौंग आदि का अर्पण और तत्पश्चात् प्रार्थना आदि के बा अभीष्ट संख्या में मंत्रजाप किये जाने चाहिये जिस दिन आपका अनुष्ठान सम्पन्न हो जाये उस दिन मंत्रजाप करने के उपरांत घी पीली सरसों, जवाकुसुम, भूतकेशी, काले तिल, जौ आदि सामग्री से इसी मंत्रजाप के सा 51 मंत्रों की अग्नि में आहुति देकर पांच लड़कों को भोजन कराना तथा दक्षिणा आदि देक प्रसन्न करना होता है। इसके पश्चात् अगले दिन पूजा की समस्त सामग्री को किसी स्वच्छ वस्त् में बांधकर बहते जल में प्रवाहित कर दें। इस तरह बटुक भैरव तंत्र अनुष्ठान की समाप्ति हो
जाती है और साधक को भी अपनी आपात पीड़ाओं से निश्चित रूप से मुक्ति मिल जात है । इस तामसिक अनुष्ठान से साधक के शत्रु स्वतः ही कमजोर पड़कर पीछे हट जाते है तथा साधक को सताना छोड़ देते हैं। इतना ही नहीं, घर-परिवार में अगर कोई लम्बी बीमार से पीड़ित चल रहा है तो वह भी भैरव की अनुकंपा से शीघ्र ही स्वस्थ हो जाता है साधकों को भैरव अनुष्ठान के संबंध में एक विशेष बात भी ठीक से समझ लेन चाहिये कि तांत्रिक अनुष्ठान एक विशेष प्रक्रिया पर आधारित रहते हैं। ऐसे तांत्रिक अनुष्ठानों
को पूर्णता के साथ सम्पन्न कर पाना हर किसी के लिये सम्भव नहीं हो पाता। ऐस अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिये कई तरह की तांत्रिक वस्तुयें और विशेष शुभ मुहूर्तों क आवश्यकता तो पड़ती ही है, इनके अलावा भी ऐसे तांत्रिक अनुष्ठान किसी मार्गदर्श (गुरु) के बिना सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं हो पाते । अतः ऐसे तांत्रिक अनुष्ठानों की जग भैरव की कृपा प्राप्त करने तथा अपनी विभिन्न तरह की समस्याओं से मुक्ति पाने के लिय उनकी साधारण पूजा अथवा उनके मंदिर जाकर चोला चढ़ा देना तथा अपनी सुविधानुसा उन्हें नैवेद्य चढ़ा देना, पुष्प, घी का दीपक चढ़ा देना, उन्हें गंध आदि अर्पित कर देन पर्याप्त रहता है। इसी से भैरव देव प्रसन्न हो जाते हैं। वैसे भी भैरव कलियुग के प्रत्यक्ष दे है । वह अपने साधकों क प्रार्थना से तत्काल प्रसन्न होकर उनकी मनोकामनाओं की सह ही पूर्ति कर देते हैं ।
ध्यायेन्नीलाद्रिकान्तं शशिशकलधरं मुण्डमालं महेशम् ।
दिग्वस्त्रं पिङ्ग लाक्षं डमरूमथ सृणिं खड्ग शूलाभयानि ॥
नागं घंटां कपालं करसरसिरू हर्विभ्रतं भीमदंष्ट्रम ।
सर्पाल्पं त्रिनेत्रं मणिमयबिलत्किङ्गिणीनूपुराढ्मम्॥
बटुक भैरव ध्यान के पश्चात् काले कम्बल अथवा ऊन के आसन पर बैठकर भैरव देव के सामने अपनी प्रार्थना को रखें। शत्रुओं से पीछा छुड़ाने का अनुरोध करें, तत्पश्चात भैरव देव की आज्ञा प्राप्त करके रुद्राक्ष माला अथवा काले मनके वाली यजमानी हकी माला से अभीष्ट संख्या में मंत्रजाप पूरा कर लें। मंत्रजाप पूर्ण हो जाने पर एक बार पुन भैरव से प्रार्थना करें और उन्हीं की आज्ञा प्राप्त करके अपने आसन से उठें अनुष्ठान का यह पूरा क्रम ही पूर्ण साधनाकाल में बना रहता है। इसमें प्रत्ये मंगलवार के दिन यंत्र की सम्पूर्ण पूजा अथवा भैरव प्रतिमा पर चोला चढ़ाना, भैरव क जवा कुसुम अथवा शतावरी माला का अर्पण, उड़द की दाल से बने पुए अथवा पकौड़े
का नैवेद्य अर्पित करना है। इसके अलावा भैरव का दीप दान, उनका आह्वान भी आवश्य है। भैरव को कालीमिर्च, लौंग आदि का अर्पण और तत्पश्चात् प्रार्थना आदि के बा अभीष्ट संख्या में मंत्रजाप किये जाने चाहिये जिस दिन आपका अनुष्ठान सम्पन्न हो जाये उस दिन मंत्रजाप करने के उपरांत घी पीली सरसों, जवाकुसुम, भूतकेशी, काले तिल, जौ आदि सामग्री से इसी मंत्रजाप के सा 51 मंत्रों की अग्नि में आहुति देकर पांच लड़कों को भोजन कराना तथा दक्षिणा आदि देक प्रसन्न करना होता है। इसके पश्चात् अगले दिन पूजा की समस्त सामग्री को किसी स्वच्छ वस्त् में बांधकर बहते जल में प्रवाहित कर दें। इस तरह बटुक भैरव तंत्र अनुष्ठान की समाप्ति हो
जाती है और साधक को भी अपनी आपात पीड़ाओं से निश्चित रूप से मुक्ति मिल जात है । इस तामसिक अनुष्ठान से साधक के शत्रु स्वतः ही कमजोर पड़कर पीछे हट जाते है तथा साधक को सताना छोड़ देते हैं। इतना ही नहीं, घर-परिवार में अगर कोई लम्बी बीमार से पीड़ित चल रहा है तो वह भी भैरव की अनुकंपा से शीघ्र ही स्वस्थ हो जाता है साधकों को भैरव अनुष्ठान के संबंध में एक विशेष बात भी ठीक से समझ लेन चाहिये कि तांत्रिक अनुष्ठान एक विशेष प्रक्रिया पर आधारित रहते हैं। ऐसे तांत्रिक अनुष्ठानों
को पूर्णता के साथ सम्पन्न कर पाना हर किसी के लिये सम्भव नहीं हो पाता। ऐस अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिये कई तरह की तांत्रिक वस्तुयें और विशेष शुभ मुहूर्तों क आवश्यकता तो पड़ती ही है, इनके अलावा भी ऐसे तांत्रिक अनुष्ठान किसी मार्गदर्श (गुरु) के बिना सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं हो पाते । अतः ऐसे तांत्रिक अनुष्ठानों की जग भैरव की कृपा प्राप्त करने तथा अपनी विभिन्न तरह की समस्याओं से मुक्ति पाने के लिय उनकी साधारण पूजा अथवा उनके मंदिर जाकर चोला चढ़ा देना तथा अपनी सुविधानुसा उन्हें नैवेद्य चढ़ा देना, पुष्प, घी का दीपक चढ़ा देना, उन्हें गंध आदि अर्पित कर देन पर्याप्त रहता है। इसी से भैरव देव प्रसन्न हो जाते हैं। वैसे भी भैरव कलियुग के प्रत्यक्ष दे है । वह अपने साधकों क प्रार्थना से तत्काल प्रसन्न होकर उनकी मनोकामनाओं की सह ही पूर्ति कर देते हैं ।
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