जानिये अपने तरक्की में रूकाबट की कारन || janiye tarakki me rubat ki karan

जानिये अपने तरक्की में रूकाबट की कारन || janiyetarakki me rubat ki karan

कालसर्प दोष निवारक काल भैरव अनुष्ठान









    आधुनिक ज्योतिषशास्त्र में कालसर्प दोष (योग) का विशेष स्थान है। जिन लोगों के जन्मांगों में कालसर्प दोष पाया जाता है, वे अपने जीवन में अनेक प्रकार की आशंकाओं से घिरे रहते हैं । एक अव्यक्त भय हमेशा उन्हें भयभीत किये रहता है । वे समझते हैं कि कालसर्प दोष होने के कारण उनका पूरा जीवन दुःख एवं कष्टों से बीतेगा,उन्हें बार-बार अपने जीवन में मानसिक संताप और उतार-चढ़ाव की परिस्थितियों से गुजरना ही पड़ता है। ऐसे जन्मांगों वाले बहुत से लोग अन्य विशेष योगों की उपस्थिति के कारण कुछ क्षेत्रों में तो निरन्तर उच्च सफलताएं प्राप्त करते चले जाते हैं, परन्तु जीवन के अन्य क्षेत्रों में उन्हेंबार-बार असफलताओं का सामना करना पड़ता है ।



    कालसर्प दोष क्यों होता 




    ज्योतिषशास्त्र में राहू और केतु नामक छाया ग्रहों को पीड़ादायक और नीच स्वभाव के ग्रह माना गया है। यह दोनों छाया ग्रह ( राहू और केतु) एक-दूसरे के बिलकुलविपरीत, आमने-सामने अर्थात् क्षितिज के विपरीत ध्रुवों पर स्थित रहते हैं । इनकी परस्पर स्थिति 180 डिग्री अंश के अन्तर पर रहती है । यह दोनों छायाग्रह जिन शुभ भावों अथवा शुभ ग्रहों के साथ बैठते हैं, उन्हें भी अपने दूषित प्रभाव से प्रतिकूल फल प्रदान करने वाला बना देते हैं। अगर इन दोनों छाया ग्रहों के मध्य एक विशेष स्थिति में अन्य सातों ग्रह आ जायें, तो वह जन्मांग कालसर्प योग से दूषित माना जाता है। ऐसी स्थिति में इन छाया ग्रहों के अशुभ प्रभाव उन अन्य ग्रहों पर और भी प्रबल रूप से है। इन्हीं के फलस्वरूप उन लोगों को जीवन भर अनेक प्रकार के संताप भुगतने पड़ते हैं । इन छाया ग्रहों की स्थिति अनुसार कालसर्प योग के अनेक रूप सामने आते हैं, परन्तु उनमें से बारह भावों के आधार पर कालसर्प योग के बारह प्रकार सर्वाधिक मुख्यहैं । 



    कालसर्प दोष का फल





    राहू-केतु के भावगत स्थिति के आधार पर जो कालसर्प योग निर्मित होते हैं, उन्हीं के आधार पर तत्संबंधी घटनाएं लोगों के जीवन में घटित होती जाती हैं। कालसर्प दोष का प्रभाव व्यक्ति के जीवन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र, स्वास्थ्य, शिक्षा, व्यवसाय, गृहस्थ सुख, संतान, आर्थिक स्थिति, पैत्रिक सम्पत्ति, बाल्यकाल का सुख, माँ बाप का प्यार - दुलार, सम्पन्नता, मान-सम्मान आदि पर देखा जाता है। इसी के कारण उन लोगों के जीवन में अनेक प्रकार की समस्यायें एवं अवरोध उत्पन्न होते रहते हैं। कालसर्प योग कारण कई तरह की विसंगतियां आमतौर पर उत्पन्न होने लगती हैं, जिनमें विवाह बाधा, कलहपूर्ण दाम्पत्य जीवन, धन हानि, आर्थिक विषमता, संतानहीनता, कमजोर स्वास्थ्य, असाध्य व्याधि, व्यवसाय में अवनति, सम्मान की क्षति, दुर्घटनाएं, अनावश्यक मुकदमेबाजी और वैधव्य आदि कुछ प्रमुख हैं। अनेक बार ऐसा देखने में आया है कि जिन लोगों के जन्मांग में कालसर्प योग विद्यमान रहता है, उनके जीवन में एकाएक नाटकीय मोड़ आ जाता है, जिससे उनके जीवन की धारा एकाएक बदल जाती है, क्योंकि अन्य ग्रहों की कुछ विशेष दशाओं में, उनके जीवन पर राहू अथवा केतु के क्रूर एवं दुष्प्रभाव एकाएक रूप में और भी तीव्र हो जाते हैं। इसलिये उन्हें अपने जीवन में अप्रत्याशित रूप से हानि उठानी पड़ती है या उनक जीवन की प्रगति में अवरोध उत्पन्न होने लगते हैं। इन्हीं अवस्थाओं में लोगों के मान- सम्मान को गहरी ठेस पहुंचती है। नौकरी में एकाएक बाधाएं खड़ी होने लग जाना अथवा पदोन्नति रुक जाना भी कालसर्प दोष के कारण हो सकता है। ऐसी ही स्थितियों के कारण अधिकारियों से अकारण लड़ाई-झगड़े की स्थितियां बन जाना, बार-बार नौकरी में स्थानान्तर (ट्रांसफर) का सामना करना, जीवन भर संचित किये धन का एकाएक किसी कारणवश
    समाप्त हो जाना, दाम्पत्य सुख में विसंगतियां पैदा होने लग जाना अथवा एकाएक कलह एवं विघटन की स्थितियां उत्पन्न हो जाना, बिना किसी कारण संतानहीनता की स्थिति बन जाना अथवा अनावश्यक रूप से विवाह आदि में विलम्ब होते चले जाना आदि कुछ ऐसी ही स्थितियां हैं, जिनके मूल में कालसर्प दोष मुख्य कारण होता है। कालसर्प दोष का सीधा व तीव्र प्रभाव व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर देखा जाता है। ऐसे

    लोगों की मानसिक स्थिति हमेश बेचैनी युक्त बनी रहती है। मानसिक पीड़ा के साथ ही इन लोगों को प्राय: कई तरह के शारीरिक रोगों का भी सामना करना पड़ता है। कई बार तो ऐसे रहस्यमय रोग के भी शिकार बन जाते हैं जिनका निदान तक चिकित्सक नहीं कर पाते। कालसर्प दोष के तीव्र प्रभाव के कारण एकाएक अपमानित होना, कारागार जाने की स्थिति आ जाना अथवा अकाल मृत्यु का सामना भी करना पड़ सकता है । वास्तव में ही कालसर्प दोष का प्रभाव बहुत ही पीड़ादायक रूप में सामने आता है।
    कालसर्प दोष से पीड़ित असंख्य लोगों को संताप भोगते हुये देखा जा सकता है।




    कालसर्प दोष का निबरण





    ज्योतिषशास्त्र में कालसर्प दोष के शमन के लिये कई तरह के पूजा-पाठ और उपायों का उल्लेख हुआ है, किन्तु देखने में यह आया है कि कालसर्प दोष की अनेक विषम परिस्थितियों में काल भैरव की आराधना करने एवं उनके तांत्रोक्त अनुष्ठान को सम्पन्न करने से पीड़ाजन्य प्रभाव को कम करने की राह प्रशस्त होती है। काल भैरव की अनुकंपा से शीघ्र ही कालसर्प दोष के कारण उत्पन्न विषम परिस्थितियां फिर से अनुकूल बनने लगती हैं

    तथा साधक फिर से अपने मान-सम्मान, यश, धन, स्वास्थ्य और पद आदि की प्राप्ति कर लेता है। काल भैरव अपने प्रभाव से साधक के समस्त दुःख एवं पीड़ा को समाप्त कर देते हैं। काल भैरव के तांत्रिक अनुष्ठान से लाभान्वित हुये दो मित्रों से सम्बन्धित अनुभव का

    यहां मैं उल्लेख करना चाहूंगा-

    एक मित्र तो अमृतसर के ही हैं। इन्होंने अपने जीवन में अनेक बार उतार-चढ़ाव को निकट से देखा है। अनेक बार उन्होंने लाखों रुपया कमाया और उसी तरह अनेक बार घर - बार, दुकान आदि तक सब कुछ बेचना पड़ा। शुरू में इन्होंने दिल्ली, चांदनी चौक स्थित अपने पिता की कैमिकल संबंधी दुकान संभाली। चार-पांच साल के भीतर ही अपनी मेहनत और युक्ति से इन्होंने अपने कारोबार को काफी ऊंचाईयों तक पहुंचा दिया। इस अवधि में इन्होंने अपने मकान को नये सिरे से बनवाया और इसी दौरान उनका विवाह भी सम्पन्न हो गया। जैसे ही पिता की मृत्यु हुई, वैसे ही भाइयों में कलह की भावना उत्पन्न हो गई। दो वर्ष के भीतर ही सारा कारोबार तबाह हो गया। दुकान, घर-बार सब कुछ बेचकर इन्हें अपनी ससुराल (अमृतसर) आना पड़ा। यहां पर भी चार-पांच साल तक कई फर्मों में नौकरियां की, फिर कुछ पैसे इधर- उधर से उधार पकड़ कर प्लास्टिक की फैक्ट्री लगा ली। शुरू में तो फैक्ट्री का काम- काज ठीक-ठाक ही था, लेकिन फिर उसकी किस्मत जाग गई। अगले कुछ वर्षों में उनकी तीन प्लास्टिक की फैक्ट्रियां हो गई और कारोबार कई शहरों तक फैल गया। कई वर्ष तक बहुत अधिक सम्पन्नता बनी रही, लेकिन फिर उनके और उनकी पत्नी, दोनों के जन्मांग में मौजूद कालसर्प दोष ने अपना प्रभाव दिखाया तथा देखते-देखते फिर से वह सड़क पर आ गये । सम्पन्नता की बात तो दूर, खाने तक को लाले पड़ गये । डेढ़ साल के भीतर ही स्वयं इन्हें तीन ऑपरेशन कराने पड़े। एक ऑपरेशन पत्नी का हुआ । पति-पत्नी में कोई दोष नहीं है, लेकिन विवाह के 30 वर्ष बाद भी वह नि:संतान हैं। इतना लम्बा-चौड़ा व्यापार करते रहने के उपरांत भी किराये के मकान में रहने पर विवश हैं। कोई भी रिश्तेदार सहायता को तैयार नहीं होता। इन्होंने जीवन भर मित्र और रिश्तेदारों की जी खोल कर मदद की, किन्तु आवश्यकता के समय इनकी मदद को कोई आगे नहीं आया। अन्ततः इनके जीवन में भी काल भैरव अनुष्ठान से बहुत बदलाव आया। काल भैरव अनुष्ठान को इस सज्जन ने लगभग चार वर्ष पहले सम्पन्न किया था। उस समय इनकी बहुत ही दयनीय हालत थी । न तो पति-पत्नी, दोनों का शारीरिक स्वास्थ्य ही ठीक रहता था और न ही इन्हें बाजार में अपने उत्पादों के लिये खरीददार ही मिलते थे । जो इनका माल खरीद लेता था, वह पैसे देने में ही आना-कानी करता रहता था । परिणामस्वरूप इनके घर पर सदैव लेनदारों का तांता लगा रहता था। जैसे ही इन्होंने काल भैरव तांत्रिक अनुष्ठान को सम्पन्न करवाया, वैसे ही इनकी हालत में चमत्कारिक रूप में बदलाव आने लगा। इस अनुष्ठान के बाद उनकी शारीरिक व्याधियां तो दूर हुई ही, उनका कारोबार भी फिर से व्यवस्थित होता चला गया । बाजार में उसकी लाखों की जो रकम फंस गई थी, वह भी वापिस मिलने लगी । काल भैरव की कृपा दृष्टि से कुछ ही समय में अपने मान-सम्मान, आर्थिक और सामाजिक स्थिति को प्राप्त कर लिया। आज भी यह दम्पती नियमित रूप से काल भैरव की पूजा आराधना करने में किसी भी प्रकार की लापरवाही नहीं करते ।

    इसी तरह का एक अन्य उदाहरण है। इस व्यक्ति ने भी अपने जीवन में कई उतार- चढ़ाव देखे हैं। कुछ समय पहले तक वह लाखों में खेलता था । वह एक प्राइवेट फर्म में सेल्स मैनेजर की नौकरी करता था, फिर भी उसने अच्छी कमाई की थी। 10-12 साल के भीतर ही उसने शहर में महंगा मकान बनवा लिया था । बच्चे बड़े स्कूल में पढ़ते थे । में उसकी एक दुकान भी थी जिसे उसकी पत्नी व नौकर देखते थे । यह वह समय था जब उसके पास भाई-बहिन, माँ-बाप के लिये एक दिन निकाल पाना भी कठिन होता था ।

    इसके बाद काल सर्पयोग के दोष ने इस व्यक्ति के मान-सम्मान को खण्डित करके रख दिया। इस बार भी कालसर्प दोष के प्रभाव से कुछ ऐसा घटनाक्रम घटित हुआ कि उस व्यक्ति का मान-सम्मान, घर-गृहस्थी, व्यापार आदि सब कुछ चौपट हो गया । मालिक के साथ ऐसा अविश्वास उत्पन्न हुआ कि नौकरी छोड़नी पड़ी । शारीरिक स्वास्थ्य भी कई महीनों तक खराब रहा। दुकान बन्द हो गई। अपना घर-परिवार छोड़ना पड़ा, पुलिस के चक्कर में पड़ना पड़ा। बीवी-बच्चों को छोड़कर काम की तलाश में अन्य शहरों में भटकने पर भी विवश होना पड़ा। कालसर्प दोष का प्रभाव बहुत ही विषम है, जो अपने प्रभाव से व्यक्ति को किसी भी हद तक दुःख पहुंचा सकता है, लेकिन इस व्यक्ति के जीवन में भी काल भैरव के तांत्रिक अनुष्ठान से फिर से मुस्कुराहट लौटते हुये देखी गई। उसे काल भैरव के अनुष्ठान से ही शान्ति, धन और मान-सम्मान की प्राप्ति हुई । काल भैरव के तांत्रिक अनुष्ठान को सम्पन्न करने के तीन महीने के भीतर ही उसे अन्य जगह पहले जैसी ही सम्माननीय नौकरी मिल गई । कम्पनी ने ही उसके रहने ठहरने की समुचित व्यवस्था करवा दी। थोड़े ही दिनों में वह तीन वर्ष की पीड़ा का दुःख, संताप, सब कुछ भूल गया । कालसर्प योग शान्ति की प्रक्रिया से





    कालसर्प दोष का निबरण विधियां






    ज्योतिषशास्त्र में कालसर्प दोष के शमन के लिये अनेक प्रकार के विधान,
    और उपाय बताये गये हैं। इनमें राहू-केतु के अतिरिक्त अन्य सातों ग्रहों से सम्बन्धित पूजा-पाठ, जप, हवन आदि तो सम्मिलित हैं, इसके अतिरिक्त अन्य अनेक उपाय भी शामिल हैं। ऐसे सभी अनुष्ठानों एवं उपायों को सम्पन्न करने के लिये पर्याप्त धैर्य, शुद्धि एवं अपेक्षित समय की आवश्यकता पड़ती है। इसके साथ-साथ ऐसे सभी पूजाक्रमों को पूर्णतः एवं कुशलतापूर्व सम्पन्न कराने के लिये विद्वान आचार्यों का सहयोग लेना पड़ता है। ऐसे पूजा-पाठ का प्रभाव काल भैरव अनुष्ठान की अपेक्षा धीमी गति से ही होता है। व्यक्तिगत अनुभवों में यह बात देखने में आयी है कि अगर कालसर्प दोष से पीड़ित. चल रहे ऐसे लोग काल भैरव सम्बन्धी अग्रांकित तांत्रिक अनुष्ठान को सम्पन्न कर लें अथवा किसी आचार्य द्वारा सम्पन्न करवा लें, तो कालसर्प दोष के संताप से मुक्त हुआ जा सकता है।


    काल भैरव का यह तांत्रिक अनुष्ठान बहुत ही प्रभावशाली और अद्भुत है। इसकी प्रभावशीलता का अनुभव अनेक बार किया जा चुका है। इसलिये यह अनुष्ठान कालसर्प दोष के लिये ही नहीं, अपितु अन्य अनेक प्रकार की समस्याओं से मुक्ति पाने के लिये भी किया जाता है।



    आवश्यक सामग्री :




    इस तांत्रिक अनुष्ठान के लिये सबसे पहले किसी शुभ मुहूर्त में गांव के बाहर से लाई गई अथवा किसी कुयें/तालब से निकाली गई मिट्टी की आवश्यकता पड़ती है। इसी मिट्टी से काल भैरव की एक प्रतिमा बनाकर अनुष्ठान के काम में लाई जाती है । इसके अलावा इस अनुष्ठान के लिये सिन्दूर, घी, मिष्ठान अथवा खीर, मिट्टी का एक बर्तन, पांच दीये, पुष्प, धूप, दीप, कपूर आदि सामग्रियों की आवश्यकता पड़ती है। भैरव पूजा के लिये तांत्रिक अनुष्ठान किसी रविवार अथवा मंगलवार के दिन से शुरू किया जाता है। ऐसा रविवार या मंगलवार शुक्लपक्ष का हो तो और भी अच्छा है। ज्ञातव्य है कि भैरव हनुमानजी की भांति शिव के ही अंश हैं, अतः इनकी साधना के लिये रविवार का दिन तो शुभ है ही, मंगलवार का दिन भी ठीक रहता है।

    काल भैरव का यह तांत्रिक अनुष्ठान कुल 31 दिन का है। इसके लिये साधक को उत्तराभिमुख होकर अनुष्ठान में बैठना पड़ता है। अनुष्ठान में बैठने के लिये काले ऊनी कम्बल के आसन की आवश्यकता पड़ती है। प्राचीन समय में मृगचर्म पर बैठ कर अनुष्ठान किया जाता था किन्तु आज मृग का वध करके उसका चर्म प्राप्त करना अपराध की श्रेणी में आता है ।



    अगर भैरव से सम्बन्धित ऐसे अनुष्ठान घर से बाहर किसी भैरव के मंदिर में बैठकर अथवा किसी कुये की मुंडेर के नजदीक बैठकर सम्पन्न किये जाये, तो तत्क्षण अपना असर दिखाने लगते हैं। भैरव मंदिरों में निरन्तर पूजा-अर्चना का क्रम जारी रहने से वहां का सारा वातावरण ही प्रभावपूर्ण बन जाता है । इसलिये ऐसी पवित्र एवं प्रभावपूर्ण जगह में प्रवेश करते ही लोगों में एक विशेष प्रकार की अनुभूति होने लग जाती है। ऐसे पूज्य स्थानों पर जाकर पूर्ण भक्ति भाव युक्त प्रार्थना करना एवं भैरव सना करना ही पर्याप्त

    रहता है। यहां पर भैरव के दर्शन मात्र से ही अनेक प्रकार के कष्ट स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। अगर ऐसे प्रभावपूर्ण स्थानों पर बैठकर अनुष्ठान सम्पन्न किये जाये तो उसका प्रभाव शीघ्र दिखाई देने लगता है। भैरव कृपा से कोई कष्ट शेष रह ही नहीं सकता। भैरव का वास कुयें में माना गया है, इसलिये अधिकतर भैरव मंदिरों की स्थापना कुओं के किनारे अथवा उनके ऊपर की जाती है। कुयें पर प्रतिष्ठित किये गये ऐसे भैरव मंदिर अधिक प्रभावी सिद्ध होते हैं। यहां आकर पूजा-अर्चना करने से अवश्य ही भैरव

    प्रसन्न होते हैं और आशीर्वाद के रूप में अपने भक्तों की अनेक पीड़ाओं का हरण कर लेते हैं ।

    इस भैरव अनुष्ठान को किसी मंदिर में बैठकर अथवा कुर्ये के निकट सम्पन्न कर पाना संभव न हो पाये, तो इसे घर पर भी पूर्ण विधान से सम्पन्न किया जा सकता है। घर पर इस अनुष्ठान को सम्पन्न करने के लिये किसी एकान्त कक्ष को साधना कक्ष का रूप दिया जाता है। इसमें एक बात का विशेषतौर पर ध्यान रखा जाता है कि अनुष्ठान के पूर्ण

    होने तक अन्य दूसरा व्यक्ति साधना कक्ष में प्रवेश न करे, विशेष रूप से मासिक चक्र के दौरान उन स्त्रियों को साधना कक्ष से ही दूर रहने के साथ-साथ साधक के सम्पर्क में आने से भी बचना चाहिये ।

    भैरव साधना के लिये सर्वाधिक उपयुक्त समय संध्याकाल के छः बजे के बाद अर्थात् सूर्यास्त के बाद का समय रहता है । जिस दिन से इस अनुष्ठान की शुरूआत करनी

    है, उससे एक दिन पहले पूजा की समस्त सामग्रियों को एक जगह एकत्र करके रख लेना चाहिये। उस दिन सबसे पहले सायंकाल में स्नान-ध्यान करके पवित्र हो जायें। अपने शरीर पर श्वेत रंग का एक अधोवस्त्र ही रहे तो अधिक अच्छा है।

    अपने साधनाकक्ष में जाकर आसन पर उत्तराभिमुख होकर बैठ जायें। अपने सामने की थोड़ी सी जगह को गाय के गोबर से लीप कर शुद्ध कर लें। उस स्थान पर एक चौकी रख कर उसके ऊपर लाल रंग का एक रेशमी वस्त्र बिछा लें। चौकी के ऊपर आक अथवा पलाश के पत्ते बिछाकर उनके ऊपर मिट्टी की बनी भैरव प्रतिमा को रख दें । इनकी जगह पर आम के पत्ते अथवा तांबे के पात्र का प्रयोग भी किया जा सकता है ।



    इसके उपरान्त दिशा को बांधने (दिग्बन्धन) का कार्य करें । भैरव आदि साधनाओं के दौरान आत्मरक्षा के लिये निमित्त दिशा बंधन करना बहुत आवश्यक होता है।


    दिग्बन्धन करने के लिये आप अग्रांकित मंत्र बोलते हुये और अपने हाथ से अस्त्र मुद्रा बनाते हुये अर्थात् दाहिने हाथ की मध्यमा एवं अंगुष्ठ के द्वारा चुटकी बजाकर अन्त में दाहिने हाथ की तर्जनी, मध्यमा और बायें हाथ की हथेली से तीन बार ताली बजाते हुये भावना करें कि आपके चारों ओर आत्मरक्षार्थ एक अग्रि की लकीर खिंच गयी है ।



    दिग्बन्धन मंत्र है-



    ॐ सर्वभूत निवारणाय सारंगाय सशराय ।

    सुदर्शनाय अस्त्रराजाय हूं फट् स्वाहा ।

    फिर निम्न मंत्र बोलते हुये निर्दिष्ट दिशा की ओर मुंह करके प्रणाम करें-

    दाहिनी ओर-

    ॐ आधार शक्त्यै नमः ।

    बायीं ओर-

    ॐ गं गणपतये नमः ।

    अपने सामने-

    ॐ श्री काल भैरवाय नमः ।

    अपने पीछे-

    ॐ श्री नृसिंहासनाय नमः ।

    इसके पश्चात् भूत अदि अतृप्त आत्माओं की शान्ति के लिये निम्न क्रिया करें-

    अपने बायें हाथ में थोड़ा सा जल और काले तिल लेकर दायें हाथ से ढक लें तथा निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये उन्हें अपने चारों ओर, सभी दिशाओं में छिड़कते जायें-

    अपसर्पन्तु ये भूताः ये भूता भूमि संस्थिता ।

    ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ॥

    अचक्रामन्तु भूतानि पिशाचाः सर्वतो दिशम् ।

    सर्वेषाभविरोधेन पूजा कर्म समारंभे ॥

    इसके उपरांत अपने बायें पैर की ऐड़ी को उठाकर तीन बार भूमि पर मारें ( ताड़न करें) । इस शुद्धि कर्म के पश्चात् एक कांसे की कटोरी में सिन्दूर को घी में ठीक से मिला लें तथा निम्न मंत्र का तीन बार उच्चारण करते हुये मिट्टी की प्रतिमा पर लेपन कर दें ।

    भैरव प्रतिष्ठा का मंत्र निम्न प्रकार है-

    ॐ आं ह्रीं क्रीं मम प्राणा इह प्राणाः ।

    ॐ आं ह्रीं क्रों मम जीव इह स्थितः ॥

    ॐ आं ह्रीं क्रों मम वाङ्ग मनस्त्वच्चक्षुः श्रोत्रजिलाघ्राण ।

    पाणिपाद् पायुस्थानि इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा ॥

    ॐ असुनीते पुनरस्मासु चक्षुः पुनः प्राणमिह नो धेहि भोगम्।।

    ज्योक्पश्येम सूर्यमुच्चरन्तमनुमते मूडपानः स्वस्ति ॥

    तत्पश्चात् घी का एक दीप जलाकर भैरव प्रतिमा के सामने रख दें। फिर निम्न मंत्र का तीन बार उच्चारण करते हुये भैरव प्रतिमा पर क्रमशः वस्त्र, पुष्प, सुपारी, लौंग, कालीमिर्च, पान, सुगन्ध, नैवेद्य आदि चढ़ाते जायें। मंत्र इस प्रकार है-ॐ ह्रीं अः संहार भैरवाय नमः ।

    संहार भैरव श्री पादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।

    फिर काल भैरव का आह्वान करते हुये उन्हें पुन: पांच लौग, पांच कालीमिर्च के दाने और पांच इलायची समर्पित करें। नैवेद्य के रूप में उन्हें खीर का भोग लगायें और स्वयं भी अपने मस्तक पर सिन्दूर का टीका लगा लें।

    इसके साथ ही पूजा क्रम सम्पूर्ण हो जाता है। अतः काल भैरव के सामने आंखें मूंदकर और पूर्ण भक्ति भाव युक्त होकर अपनी प्रार्थना करें। अगर आप पूर्ण तन्यमयता के साथ भैरव के सामने प्रार्थना करते रहेंगे, तो अगले कुछ दिनों के पश्चात् ही आपको ऐसा प्रतीत होने लगेगा कि काल भैरव स्वयं आपके सामने उपस्थित होकर आपकी प्रार्थना सुन रहे हैं। आपको अपने अन्तरमन में काल भैरव की तीक्ष्ण आंखों की रोशनी अनुभव होने

    लगेगी। अतः पूर्ण एकाग्रता के भाव में की गई प्रार्थना तत्क्षण अपना प्रभाव दिखाती है। काल भैरव के सामने अपनी प्रार्थना करने के पश्चात् उन्हीं की आज्ञा लेकर उनके मंत्र का जाप पूरा करें और काल भैरव स्तोत्र का ग्यारह बार पाठ करें। चूंकि यह काल भैरव तांत्रिक अनुष्ठान, कालसर्प दोष के शमन के निमित्त किया जाता है, अतः प्रार्थना के दौरान इस बात का विशेष उल्लेख करते रहना चाहिये । काल भैरव से अनुरोध करना चाहिये कि वह अपने प्रताप से शीघ्रताशीघ्र आपको समस्त संकटों से मुक्ति दिला दें ।

    काल भैरव का मंत्र निम्न प्रकार है-

    ॐ ह्रां ह्रीं हूंः ह्रः क्षां क्षीं क्षूं क्षः ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रः ध्रां ध्रीं धूं ध्रः म्रां म्रीं मूं म्रः श्रीं

    श्रीं श्रीं श्री ज्रों ज्रों ज्रों हुं हुं हुं हुं हुं हुं हुं हुं फट् । सर्वतो रक्ष रक्ष रक्ष काल भैरवाय हूं फट् ।

    इस काल भैरव का जाप लघु पंचमुखी रुद्राक्ष माला अथवा काली हकीक माला से किया जाता है। जप माला में 108 मनके होने चाहिये । जपोपरान्त माला को अपने गले में धारण कर लेना चाहिये । जब आपका मंत्रजाप सम्पन्न हो जाये तो उसके उपरान्त एकादश बार निम्न काल भैरवाष्टक स्तोत्र का पाठ भी कर लेना लाभदायक रहता है । अगर ग्यारह माला का मंत्रजाप एवं ग्यारह बार भैरवाष्टक स्तोत्र का पाठ करने में आपको असुविधा अनुभव हो तो इनकी संख्या को अपनी सामर्थ्य के अनुसार पांच-पांच तक भी सीमित किया जा सकता है। ग्यारह माला मंत्रजाप एवं ग्यारह बार काल भैरवाष्टक स्तोत्र का पाठ तो तांत्रिकों के लिये विशेष कार्यों को सिद्ध करने के लिये निर्धारित किया गया है। सामान्य लोगों के लिये तो जितना मंत्रजाप हो जाये और सुविधाजनक रूप से जितने पाठ सम्भव हों, उतने ही पर्याप्त रहते हैं । यद्यपि विशेष परिस्थितियों में इस प्रकार के तांत्रिक अनुष्ठानों को सम्पन्न कराने के लिये विद्वान व कर्मकाण्ड करने वाले ब्राह्मणों की मदद ली जा सकती है ।

    मंत्रजाप सम्पन्न हो जाने के पश्चात् एक मिट्टी के पात्र में आम, पीपल की लकड़ियां रखकर अग्नि प्रज्ज्वलित करें तथा अग्नि को घी, काले तिल, जौ, लोबान, आक के पुष्प, कमल के सूखे हुये बीज, पीली सरसों, सुगन्धबाला, तुलसी के बीज, राई और काली हल्दी के मिश्रण की आहुतियां दें । काल भैरवाष्टक स्तोत्र का पाठ करने के से पहले ग्यारह बार ही उनके निम्न काल भैरवाष्टक स्तोत्र का पाठ कर लें:-



    काल भैरवाष्टकम्

    देवराज सेव्यमान पावनाँघ्रि पंकजम्, व्याल यक्ष सूत्रमिन्दुशेखरं कृपा करम् ।

    नारदादि योगि वृन्द वन्दितं दिगम्बरं, काशिकापुराधिनाथ काल भैरवं भजे ॥

    भानुकोटि भास्करं भवाब्धितारकं परं, नीलकण्ठमीप्सितार्थ दायकं त्रिलोचनम्।

    काल कालमम्बु जाक्ष मक्ष शूल मक्षरं, काशिकापुराधिनाथ काल भैरवं भजे ॥

    शूलटडड्ढपाशदण्ड पाणिमादिकारणं, श्याम कायमादिदेवमक्ष रंनिरामयम् ।

    भीम विक्रमं प्रभुं विचित्र ताण्डवप्रियं, काशिकापुराधिनाथ काल भैरवं भजे ॥

    भुक्तिमुक्ति दायकं प्रशस्त चारूविग्रहं, भक्तवत्सलस्थितं समस्तलोक विनिग्रहम् ।

    विनिक्कणः मनोज्ञहेमकिंकिणीलसत्कटिं, काशिकापुराधिनाथ काल भैरवं भजे ॥

    धर्मसेतु पालकंत्व धर्ममार्ग नाशकं, कर्मपाश मोचकं सुशर्मदायकं विभुम् ।

    स्वर्णवर्ण शेष पाशशेभिताड़ मण्डलं, काशिकापुराधिनाथं काल भैरवं भजे ॥

    रत्न पादुका प्रभाभिराम पादयुग्मकं, नित्य मद्वितीयमिष्ट दैवतं निरन्जनम् ।

    मृत्युदर्प नाशनंकराल दंष्ट मोक्षणं, काशिकापुराधिनाथ काल भैरवं भजे ॥

    अट्टाहास भिन्न पद्मजाडकोशसन्तति, दृष्टिपात नष्ट पाप जाल युग्र शासनम् ।

    अष्ट सिद्धि दायकं कपाल मालिकन्धरं, काशिकापुराधिनाथ काल भैरवं भजे ॥

    भूतसंघनायकं विशाल कीर्तिदायकं, काशिवासलोकं पुण्य पाप शोधकं विभुम् ।

    नीतिमार्ग कोविदं पुरातनं जगत्पतिं, काशिकापुराधिनाथ काल भैरवं भजे ॥

    काल भैरवाष्टकं पठन्ति ये मनोहरं, ज्ञानमुक्ति साधनं विचित्र पुण्य वर्धनम् ।

    शोकमोह दैन्य लोभ कोपताप नाशनम्, तेप्रयान्ति काल भैरवांघ्रि सन्निधिंध्रुवम् ॥

    यह काल भैरवाष्टक स्तोत्र है। इस स्तोत्र पाठ के दौरान एक विशेष बात का भी ध्यान रखें कि इसके ठीक से उच्चारण न करने पर अशुद्धि दोष उत्पन्न हो जाता है। ऐसी अशुद्धि दोष से पाठ के फल में न्यूनता उत्पन्न होती है। कई बार गम्भीर अशुद्ध उच्चारण के फलस्वरूप विपरीत प्रभाव भी उत्पन्न होने लग जाते हैं । अतः अनुष्ठान में स्तोत्र का समावेश करने से पहले किसी विद्वान आचार्य से इसके शुद्ध उच्चारण को सीख लिया जाये तो अति उत्तम रहता है। गुरु-शिष्य परम्परा में भी किसी अनुष्ठान में बैठने से पहले, अनुष्ठान की सम्पूर्ण प्रक्रिया को ठीक से समझना तो होता ही था, इस प्रकार के स्तोत्र, कवच आदि को भी गुरु के सानिध्य में कंठस्थ करना होता था। इस स्तोत्र के साथ आप एक प्रयोग भी कर सकते हैं। गुरु अथवा किसी आचार्य से स्तोत्र का ठीक से उच्चारण सीखने के साथ, आप उनकी आवाज में स्तोत्र को टैप रिकार्डर में रिकार्ड भी कर सकते हैं और अनुष्ठान के दौरान स्तोत्र का स्वयं उच्चारण करने के साथ उसका ध्यानमग्न अवस्था में श्रवण भी कर सकते हैं। इस माध्यम से स्तोत्र पाठ में त्रुटि होने की संभावना नहीं रहती। जब ग्यारह बार अथवा आपकी सुविधानुसार संख्या में स्तोत्र का पाठ सम्पन्न हो जाये तो एक बार पुनः ग्यारह बार मूल मंत्र का उच्चारण करते हुये अग्नि को ग्यारह बार

    ही समिधा की आहुतियां दें। तत्पश्चात् एक बार पुनः काल भैरव के सामने प्रार्थना करते हुये अपनी समस्याओं को दूर करने का निवेदन करें और फिर उनकी आज्ञा प्राप्त करके अपना आसन छोड़ दें ।

    भैरव को अर्पित किये गये नैवेद्य (खीर) को किसी काले कुत्ते को खिला दें अथवा पीपल के पेड़ के नीचे चढ़ा दें। अगर इस काल भैरव अनुष्ठान को भैरव की प्रसन्नता पाने के लिये किया जाता है, तो थोड़ा सा प्रसाद स्वयं भी ग्रहण करना होता है। भैरव का वाहन कुत्ता ही है, अतः कुत्ते को भोजन आदि कराने से भी भैरव की कृपा प्राप्त होती है। अगर खीर का थोड़ा सा अंश किसी कुयें में भी डलवा दिया जाये एवं कुयें की मुण्डेर पर रात्रि को तेल का एक दीया जलाकर रख दिया जाये, तो अतिशीघ्र भैरव कृपा की प्राप्ति होती है।

    अनुष्ठान अवधि के दौरान भूमि पर शयन करना, मांस, मछली, अण्डा, मदिरा के सेवन से दूर रहना तथा विषय-विकार का त्याग कर देना, अनुष्ठान के अंग माने जाते हैं। इस प्रकार के काल भैरव अनुष्ठान का शीघ्र ही प्रभाव दिखाई देने लगता है। दैनिक जीवन में उत्पन्न होने वाली समस्याओं से मुक्ति मिलने लगती है। जीवन में निरन्तर उठ खड़े होने

    वाले अवरोध भी समाप्त होने लगते हैं। काल भैरव का यह स्तोत्र बहुत ही चमत्कारिक प्रभाव रखता है। अगर तांत्रिक अनुष्ठान की पूरी प्रक्रिया किसी कारणवश संभव न हो पाये, तो भी भैरव मंदिर में जाकर अथवा स्वयं अपने घर पर ही भैरव प्रतिमा के सामने धूप, दीप आदि जलाकर इस काल

    भैरवाष्टक स्तोत्र का 11 या 5 या 3 बार नियमित रूप से पाठ किया जाये तो भी भैरव कृपा की प्राप्त होने लग जाती है। अनेक दुःखों का शमन पाठ करने मात्र से ही हो जाता है।इस प्रकार 31वें दिन यह तांत्रिक अनुष्ठान सम्पन्न हो जाता है। इस दिन तक कालसर्प दोष सम्बन्धी अनेक प्रकार की पीड़ाएं शान्त हो जाती हैं। फिर भी अनुष्ठान के अन्तिम दिन ग्यारह या पांच ब्राह्मणों को भोजन कराना अथवा इतनी ही संख्या में लांगुरों को भोजन कराकर एवं दान-दक्षिणा देकर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिये । इस दिन काले कुत्ते को खीर खिलाना अथवा दूध पिलाना आवश्यक होता है। अनुष्ठान समाप्ति के पश्चात् पूजा में प्रयुक्त की गई समस्त सामग्रियों, मिट्टी की भैरव प्रतिमा के साथ किसी कुयें अथवा तालाब में छोड़ देना चाहिये । इस तरह इस अनुष्ठान की समाप्ति के साथ ही कालसर्प दोष का शमन हो जाता है। ।

    इन तांत्रिक अनुष्ठानों के सम्बन्ध में एक विशेष बात का सदैव ध्यान रखना चाहिये कि यह अनुष्ठान भौतिक पीड़ाओं से मुक्ति पाने के साधन तो बनते ही है, अगर इन्हें कुछ विशेष रूप से सम्पन्न किया जाये तो यह उसी इष्ट की साधना के माध्यम भी बन जाते हैं। फिर ऐसी साधनाओं के दौरान साधकों को अनेक प्रकार के दिव्य अनुभव भी मिलने लग जाते हैं, यहां तक कि साधना में पूर्ण सिद्धि प्राप्त होने के साथ इष्ट का साक्षात्कार भी प्राप्त

    हो जाता है। तंत्रशास्त्र में इस तरह की स्थिति को सिद्धि प्राप्त करना कहा जाता है ।

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