मेरे गुरु त्रिजटा अघोरी || mere guru trijata aghori

मेरे गुरु त्रिजटा अघोरी || mere guru trijata aghori

गुरु त्रिजटा अघोरी


    सच्ची कहानी


    तंत्र के क्षेत्र में जो थोड़ी भी रुचि रखता है इसके मन में कही न कही यह इच्छा अवश्य दबी हुई हे की बह आपने जीवन में त्रिजटा अघोरी को एक बार दर्शन करले और इस महान सिद्धाश्रम संस्पशीत तंत्र प्राण बेक्तित्ब के साथ कुछ क्षण ब्यतित करे।


    परंतु बहुत ही कम सौभाग्यशाली हे जिनका भेट त्रिजटा अघोरी से जीवन में हुई हे।में जब भारत की इस गुप्त विद्या शिखने गुरूजी के घर गेया तो मुझे बिस्वास नही था की गुरुदेव मुझे अपना लेंगे और में उनसे कुछ प्राप्त कर सकूंगा,इसके लिए में घर से ए निकलने से पूर्व सबा लाख गुरु मंत्र जप प्रयोग करके निकला था जिससे की बे मुझे अपना लें,और मेरा यह परम सौभाग्य रहा की मुझे कुछ बर्ष गुरुबर श्री श्रीमाली जी के पास में कुछ सीखने का अवसर मिला और आज में इस क्षेत्र में जो भी कुछ हू उसका पूरा पूरा श्रेय गुरुदेव को ही हे।


    इतने बरसों के बाद में अधिकार पूर्ण स्वर से कह सकता हु की गुरुदेव के समान सहनशील और सहायक दूसरा कोई बेक्तित्ब नही होगा,उनका बेक्तित्ब ठीक उस बादाम को तरा हे जो ऊपर से अत्यंत कठोर और कड़ा दिखाई देता हे,पर उसके भीतर घुसने पर सुस्वादु मधुर फल खाने को मिलता हे।गुरुदेव ऊपर से अत्यंत सामान्य, सरल दिखाई देते हे उन्हें देख कर या उनके साथ चार छ महीने रहने के बाद भी कुछ ऐसा संकेत या अनुभव नहीं होता की इन्हे कुछ जानकारी हे भी नही।इसमें बुराई यह की सामान्य बेक्ति मिलने के बाद एकदम से बहुत ऊंची धारणा नही बना लेता,और कुछ दिनों के बाद छिटके कर दूर जा खड़ा होता है,परंतु इसके पीछे एक अच्छाई यह भी है की जो सौभाग्य शाली है,जिनमे धैर्य और गंभीरता है बो ही उनसे जुड़े रहते हे,और जब उनकी कठोर कसोटी पर बेक्ति खरा उतर जाता है,तो उसके जीवन में भैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से किसी प्रकार की कोई कमी नही रहती।

    में लगभग तीन बरसो तक उनके साथ रहा,इन तीन बरसो में बो मुझे एक सामान्य गृहस्थ दिखाई दिए,परंतु उनके अंदर भारत की गुप्त बिद्याओ का अपार सागर लहरा रहा हे।और उनसे जो कुछ मुझे प्राप्त हो सका है, वह मेरे जीवन कीअमूल्य निधि है। इस छोटे से ज्ञान के बलबूते पर यदि मुझे इतना अधिक सम्मान मिला है तो उनके समान ज्ञान की पूर्णता पर स्थिति और क्या होगी, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। और यदि उनके व्यक्तित्व का सही रूप से विश्लेषण करना हो या उन्हें भली प्रकार से समझना हो तो इस गृहस्थ में या सांसारिक वृत्तियों के बीच उन्हें पूर्ण रूप से नहीं जाना जा सकता, हम जब उच्च कोटि के योगियों और सन्यासियों के बीच बैठते हैं और श्रीमाली जी की चर्चा होते ही जिस प्रकार से वे लोग श्रद्धानत होकर भाव-विभोर हो जाते हैं, उसी के आधार पर उनके व्यक्तित्व का विश्लेषण किया जा सकता है। उन दिनों भी, जब मैं उनके चरणों में दुर्लभ ज्ञान प्राप्त
    कर रहा था, तब भी मैंने दबी जबान से कई बार निवेदन किया था, कि मुझे एक बार त्रिजटा अघोरी के दर्शन करने हैं। आप किसी भी यात्रा में मुझे साथ रखें, जिससे कि मैं उस विशाल तेजपुंज के दर्शन कर सकूं, परन्तु हर बार वे बात टालते रहे । विदा होते समय उन्हें सब कुछ याद था, वे बोले तुम्हारी इच्छा यह भी रही है कि तुम त्रिजटा अघोरी से मिलो, यह इच्छा तुम्हारी शीघ्र ही पूरी हो सकेगी। जोधपुर से आने के बाद मेरी यह इच्छा पूरे चार वर्ष के बाद पूरी हुई, जब मैं साधना माध्यम से संकेत प्राप्त होने पर त्रिजटा अघोरी से मिलने के लिए रवाना हुआ। इस बीच में जिस प्रकार से उनके व्यक्तित्व पर अनैतिक, अन्यायपूर्ण और घिनौना कीचड़ उछालने के जो प्रयत्न किए जाते रहे, उससे हम सब सन्यासी क्षुब्ध थे। हम उनके पास जाना भी चाहते थे, परन्तु उन्होंने बलपूर्वक मना कर दिया कहा कि यह स्थिति मेरे साथ है, और मैं अकेले ही इसको भोगूंगा। मन मार कर हम विचलित से घूमते रहते थे। इसी बीच यह संकेत मिलने पर मन को जरा तसल्ली हुई, और मैं त्रिजटा अघोरी से मिलने चल पड़ा।उनका निश्चित पता मुझे ज्ञात नहीं था, परंतु साधनात्मक संकेतों के आधार पर से मैं बराबर गतिशील रहा। सबसे पहले मैं देहरादून पहुंचा और वहां से बस द्वारा मसूरी पहुंचकर एक दिन विश्राम किया। दूसरे दिन यद्यपि नवम्बर का महीना होने के कारण सर्दी ज्यादा थी, फिर भी अपने पथ पर आगे बढ़ गया। मसूरी को पार करने के बाद लाल टीब्बा स्थान आया, जो कि परिचित स्थान है। यहां पर कई वर्षों से पगला बाबा रहते हैं, जिन्होंने महावीर साधना सिद्ध कर रखी है। कुछ समय उनके पास ठहर कर मैं वहां से आगे बढ़ गया। लाल टिब्बे से हिमालय पर जमी बर्फ स्पष्ट दिखाई देती है, जहां से उत्तर की तरफ अस्सी किलोमीटर दूर भैरव पहाड़ी है, तथा सारा पैदल रास्ता है, इसके आगे मैं पहली रात वेलाटीला नामक गांव में ठहरा, यहां मीरा बहिन सामाजिक कार्यकत्री हैं, उनसे त्रिजटा के बारे में थोड़ा बहुत पता चला। दूसरी रात मेरा विश्राम 'पीलवा' नामक ग्राम में हुआ, यह ग्राम घेरण्ड बाबा की वजह से मशहूर है। वे उच्च कोटि के तांत्रिक हैं और कुछ समय त्रिजटा अघोरी के साथ रह चुके हैं। उनसे मुझे त्रिजटा के बारे में काफी कुछ जानकारी मिली। यहां से भैरव  पहाड़ी साफ-साफ दिखाई देती है । चौथे दिन जब मैं भैरव पहाड़ी पर पहुंचा तो कोहरा सा छाया हुआ था, पर कुछ ही समय बाद कोहरा छंट गया और प्रखर धूप निकल गई, यह मेरे लिए शुभ संकेत था। भैरव पहाड़ी अत्यन्त कठिन और श्रम साध्य है। लगभग पांच घंटे की जी-तोड चढ़ाई के बाद ही मैं ऊपर पहुंच सका, जब मैं ऊपर पहुंचा तो उस सर्दी में भी मैं पसीने से लथ-पथ था और मेरा सारा शरीर निढाल सा हो गया था, फिर भी मन में प्रसन्नता थी कि मैं गन्तव्य स्थल तक पहुंच गया हूं।सामने ही छोटा सा भैरव मंदिर, जिसमें भैरव की प्राचीनतम प्रतिमा स्थापित है। उसके आगे पहाड़ी पर ही बड़ा सा मैदान है, जहां से चारों तरफ का प्राकृतिक दृश्य अत्यन्त ही मनोहर और रमणीक है। एक तरफ ऊपर से झरना सा आता है, जिससे वहां का कुण्ड हमेशा ताजे पानी से लबालब भरा
    रहता है । इसके पास ही गर्म पानी का कुण्ड है, जिसमें से भाप निकलती रहती है। कहते हैं कि चावल की पोटली बनाकर इस गर्म पानी में लटका दी जाय तो दो मिनट बाद ही चावल सिक जाते हैं । मुझे कहीं पर भी त्रिजटा दिखाई नहीं दिए। मैंने भैरव मंदिर की परिक्रमा भी की। मंदिर के बगल में ही गुफा है, संभवतः यही त्रिजटा का आवास हो, इसके पीछे पंद्रह-बीस और भी छोटी-छोटी गुफाएं दिखाई दी जो कि सुंदर और सुरम्य थीं, ऐसा लग रहा था कि इन गुफाओं में भी कोई है, जो कि साधनारत है। मैं घूमकर भैरव मंदिर के सामने आ गया और भैरव की स्तुति कर एक तरफ बैठ गया, अब तक मैं स्वस्थ हो गया था, गर्म सोते से हाथ पैर मुंह धोने से मेरी सारी थकावट दूर हो गई थी । अकस्मात् एक तरफ से हलचल दिखाई दी। पहले दौड़ते हुए दो तीन शिष्य आए जैसे कि वे हांफ रहे हों और उनके पीछे ही एक उच्च कोटि का भव्य व्यक्तित्व प्रकट हुआ, लम्बा-चौड़ा ऊंचा कद, लम्बी जयएं जो कि कमर तक लटकी हुई थी, बड़ा सा दिप्-दिप् करता हुआ चेहरा, जिस पर लाल सुर्ख बड़ी-बड़ी दो आंखें, विशाल स्कन्ध, लम्बी बलिष्ठ भुजाएं और चौड़ा रोम मिश्रित सीना, ऐसा लग रहा था, कि जैसे कोई पुराणों में वर्णित विशाल दानव सामने उपस्थित हो गया हो, मोटी और पुष्ट जंघाएं तथा कमर के नीचे व्याध चर्म लपेटे हुए, इसके अलावा पूरे शरीर पर किसी भी प्रकार का कोई परिधान नहीं था, कंधे पर एक मोटा सा कद्दावर बकरा लिए हुए जब वह मेरे सामने आया तो मैं एकबारगी सिटपिटाकर सहम सा गया, ऐसा लग रहा था कि जैसे विशाल हिमालय के नीचे ही छोटी सी पहाड़ी खड़ी हो । उसने जोरों से हुंकार भरी, सच कह रहा हूं, उस समय लगा जैसे बांसों का जंगल परस्पर खड़खड़ा गया हो। हुंकार भरने के साथ ही त्रिजटा ने उस लम्बे चौड़े बकरे को जमीन पर खड़ा किया। वह जीवित बकरा त्रिजटा की विशाल मुट्ठी की कसावट से छूटते ही हड़बड़ा कर अपने पांवों पर खड़ा हुआ, तभी मेरे सामने त्रिजटा ने उस मोटे ताजे कद्दावर बकरे को बाएं हाथ से ऊपर उठाया और दाहिने हाथ से उसकी गर्दन मरोड़ दी, एक झटके से गर्दन को खींचकर फेंक दी और उसके गरम-गरम निकलते खून से अपना मुंह लगा लिया, यह सब कुछ पलक झपकते ही हो गया, कुछ ही क्षण में वह सारा खून गटक गया और फिर उसकी पस्त लाश का जमीन पर फेंक, दाहिने हाथ से मुंह पोंछ, जोरों से 'जय भैरव नाथ' कह कर एक तरफ पत्थर की उभरी हुई चट्टान पर बैठ गया। शिष्यों ने तुरंत टूटी हुई गर्दन को धड़ के साथ लगा कर रख दिया। मेरे लिए यह सब कुछ सर्वथा अप्रत्याशित था, एकबारगी तो मैं अत्याधिक जीवट वाला होने के बावजूद भी अंदर तक से कांप गया और उसकी हुंकार से न चाहते हुए भी मेरा सारा शरीर थरथराने लगा। उसकी नजर अब सीधी मुझ पर थी, मेरा चेहरा भय से पीला पड़ता जा रहा था, मैं प्रयत्न करके भी मुंह से बोल नहीं निकाल पा रहा था, मेरा सारा शरीर पीपल के पत्ते की तरह कांप रहा था । अकस्मात् वह व्यक्तित्व जोरों से हंसा, ऐसा लगा कि जैसे पहाड़ पर भूकम्प आ गया हो और सारा पहाड़ खड़खड़ाकर नीचे गिर रहा हो, उस खड़खड़ाहट की ध्वनि के आघात से ही मैं जमीन पर मजबूरन बैठ सा गया, परन्तु तभी मुझे अपनी सुध हो आई और साहस कर मैं पुनः अपने पैरों पर खड़ा हो सका। उसने उस मरे हुए बकरे पर नजर डाली, शिष्यों ने अब तक उसका सिर धड़ से बराबर लगा दिया था, त्रिजटा ने कुण्ड से हाथ में जल लेकर कुछ मंत्र पढ़कर उस पर छिड़का और दूसरे क्षण वह बकरा जीवित होकर अपने पैरों पर खड़ा हो गया । यह मेरे लिए दूसरा बड़ा आश्चर्य था, निश्चय ही त्रिजटा ने “शुक्रोपासित मृत संजीवनी विद्या" का प्रयोग किया था और जीवित होते ही बकरा चारों पैरों से कूद कर पहाड़ी के नीचे उतर गया । अब त्रिजटा ने मेरी ओर घूरा और अपना दाहिना हाथ मेरी पीठ पर लगा दिया। मैं अपने आपको काफी हृष्ट
    पुष्ट समझता हूं, परंतु मुझे ऐसा लग रहा था कि उसकी हथेली ने मेरी पूरी पीठ को घेर रखा हो। बोला तुम आ गए, मुझे तुम्हारे आने का संकेत मिल चुका था। मैं थोड़ा बहुत आश्वस्त हुआ, मैंने उन्हें अपना नाम बताया और संक्षेप में जानकारी दी कि अब तक मैं कौन-कौन सी विद्याएं सीख चुका हूं। जब मैंने उन्हें जानकारी दी कि मेरे गुरुदेव पूज्य श्रीमाली जी हैं और उन्हीं से मैंने तीन वर्ष तक यह थोड़ा बहुत ज्ञान प्राप्त किया है, तो उसका चेहरा प्रसन्नता के मारे खिल उठा, श्रीमाली जी नाम लेते ही उसके चेहरे पर एक अपूर्व आभा दिखाई दी और प्रसन्नता के आवेग में उसने दाहिने हाथ से मुझे
    उठा लिया, उसकी हथेली में मैं गेंद की तरह लटका हुआ था,
    और उसकी प्रसन्नता को मैं अनुभव कर रहा था, दूसरे ही क्षण उसने धीरे से मुझे जमीन पर खड़ा किया और अपने सीने में भींच कर मेरे सिर पर करुणापूरित हाथ फेग, तो मुझे ऐसा लगा कि इस कठोर और भयानक व्यक्तित्व के पीछे करुणामय हृदय है और उसमें दया, स्नेह, प्रेम तथा मधुरता का सागर लहलहा रहा है। त्रिजता पुनः उसी पत्थर की चट्टान पर बैठ गया, मुझे भी पास में बैठने का संकेत दिया, पर मैं उनके सामने
    नम्रतापूर्वक खड़ा रहा, वे ज्यादा से ज्यादा मेरे गुरुदेव के बारे
    में जानना चाहते थे, समझना चाहते थे । पूज्य गुरुदेव के इस गृहस्थ जीवन से वे थोड़े बहुत परिचित थे और मुझे जितनी जानकारी थी, वह मैंने उन्हें बताई, मेरी बात सुनते सुनते कई बार उनके चेहरे का रंग बदला और एक बार तो मेरे यह कहने पर कि इतनी भीषण आग में भी सर्वथा शांत होकर बैठे हैं, और सहन कर रहे हैं, तो उनका चेहरा क्रोध से लाल भभूका हो गया, आंखें अंगार की तरह सुर्ख हो गईं और अपनी दाहिनी हथेली चट्टान पर पटक कर बोले-“अब मैं कुछ भी नहीं सुनना चाहता, मैं अब किसी की कोई परवाह नहीं करूंगा, पता नहीं क्यों वे वहां आग में बैठे हुए हैं, क्यों नहीं पुनः सिद्धाश्रम आ जाते हैं? अब मैं न तो सिद्धाश्रम की बात सुनूंगा और न श्रीमाली जी की ही। अगर सिद्धाश्रम से भी विद्रोह करना हुआ तो मैं करूंगा, परन्तु उन्हें अकेले आग में जलते हुए नहीं देख सकता । उनके विरुद्ध जिन्होंने भी दुष्कर्म और षडयंत्र किए हैं, उनको फल तो अवश्य ही मिलेगा, और शीघ्र मिलेगा, मैंने श्रीमाली जी को कम से कम दस बार संकेत किया है, पर उन्होंने कुछ भी करने के लिए मुझे कसम दे रखी है, मैं उनकी सौगन्ध को टाल नहीं सकता, उससे मैं बंधा हुआ हूं, अन्यथा मैं अब तक सब कुछ कर चुका होता”। क्रोध के मारे त्रिजटा उफन रहा था बोला- "यह उन्हीं का दमखम है कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शांत बैठे हुए हैं, क्यों नहीं अपनी सिद्धियों का प्रयोग करते? आज का युग बदल गया है, आदमी ओछा और राक्षस प्रवृति का हो गया है, वह जमाना बीत चुका जब साधु को शांत रहना चाहिए, वह समय समाप्त हो गया जब सन्यासी को सब कुछ सहन
    करना चाहिए, अब तो इस राक्षस युग में आंख से आंख मिलाकर बात करने का समय आया है, ईंट का जबाब पत्थर से देने का युग आया है। अब मैं और सहन नहीं कर सकूंगा, चाहे मुझे उनकी स्वयं की सौगन्ध ही क्यों न तोड़नी पड़े” । क्रोधातिरेक में उनका सारा शरीर लाल सुर्ख अंगारे की तरह दमक रहा था और फिर गुस्से में वे तेज-तेज चलते हुए अपनी गुफा में प्रवेश कर गए । उनकी आवाज, उनके क्रोध, और उनकी उत्तेजना से सारा बातावरण अग्नि की तरह दहक रहा था, हवा सन्न सी होकर रह गई थी और वातावरण में एक अजीब प्रकार का बोझिलपन आ गया था, सारे शिष्य उस क्रोधमय भयानक आवाज को सुनकर बाहर निकल आए थे, उन्होंने अपने पूरे जीवन में त्रिजटा को इतनी क्रोधावस्था में नहीं देखा था । बाद में उनके शिष्यों से पता चला कि श्रीमाली जी का त्रिजटा से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है, यद्यपि काफी समय पहले श्रीमाली जी यहीं पर कुछ सीखने के लिए आए थे और इसी पहाड़ी पर काफी समय रहे भी थे। उन्होंने तंत्र की उच्च
    कोटि की क्रियाएं इनसे सीखी भी थीं, पर बाद में वे काफी आगे बढ़ गए और दोनों ही सिद्धाश्रम संस्पर्शित होने के कारण गुरु भाई की तरह हैं, और इनके मन में श्रीमाली जी के प्रति अत्याधिक आदर और सम्मान है। उन्हें सारी घटनाओं की जानकारी है, आध्यात्मिक एवं साधनात्मक रूप से इन्होंने प्रत्येक विपरीत परिस्थिति के बाद श्रीमाली जी से सम्बन्ध स्थापित किया, और इतने ही उत्तेजना पूर्ण शब्दों में विरोधियों को उनकी हैसियत दिखाने का आग्रह किया, परन्तु उनकी सौगन्ध को त्रिजटा नहीं तोड़ सकते और इसीलिए आग में दहकते हुए भी चुप हैं। उनके प्रधान शिष्य से बातचीत करने पर पता चला कि पिछले दिनों उच्च कोटि के योगियों और तांत्रिकों की गोष्ठी हुई थी, वे सभी श्रीमाली जी से घनिष्ठ हैं और किसी न किसी क्षेत्र में श्रीमालीजी से मार्गदर्शन प्राप्त कर चुके हैं। उन सभी का यह आग्रह था कि अब उन्हें गृहस्थ में और सांसारिक जीवन में रहने की और इतना विरोधाभास भोगने की जरूरत नहीं है,उन्हें वापिस सन्यास जीवन में आ जाना चाहिए। उन सभी ने यह भी निश्चय किया था कि परम श्रेष्ठ योगीराज सिद्धाश्रम अधिष्ठाता स्वामी सच्चिदानन्द जी से आग्रह किया जाए कि उन्हें वापस बुला लें। इस प्रकार उन्हें आग में झोंके रहने सेकोई लाभ नहीं है। राक्षसों के बीच राक्षस बन कर ही जिन्दा रहा जा सकता है। या तो उन्हें सब कुछ करने की अनुमति दी जाए या उन्हें पुनः सन्यास जीवन प्राप्त करने का अधिकार दिया जाए। इस प्रकार उन्हें घुटते हुए नहीं देखा जा सकता। यह सही है कि वे सब कुछ झेलने के बाद भी शांत बने रहेंगे, यह उन्हीं का तपोबल है कि वे इतनी अधिक विपरीत परिस्थितियों में भी अडिग बने रहे हैं, सब प्रकार से समर्थ और श्रेष्ठ होने के बावजूद भी सामान्य गृहस्थ रहे हैं, भी एक सीमा होनी चाहिए।परन्तु इसकी ठीक है सिद्धाश्रम भारतवर्ष की पुण्य भूमि में भारत की प्राचीन गौरवपूर्ण विद्याओं को स्थापित करना चाहता है और इसके लिए समय-समय पर उच्च कोटि को साधकों को भी भेजना उसका कर्त्तव्य है। गुरुदेव संसार और सिद्धाश्रम के बीच की कड़ी हैं, परंतु इसे कौन समझ पाया है? लोगों ने इसका क्या लाभ लिया है? यह दुर्भाग्य ही है कि हम किसी व्यक्तित्व के बाद ही यह एहसास करते हैं कि उनसे कुछ प्राप्त हो जाता तो ज्यादा अच्छा रहता, परन्तु तब तक तो वह व्यक्तित्व ही चला जाता है। सारा वातावरण बोझिल हो गया था। उस दिन और दूसरे दिन भी त्रिजटा अपनी गुफा से बाहर नहीं निकले थे। तीसरे दिन प्रातःकाल वे गुफा से बाहर निकले तब तक शांत हो चुके थे।मैं करीब एक सप्ताह तक वहां रहा, और इस एक सप्ताह में मैंने त्रिजटा के दूसरे रूप को भी देखा । इसमें कोई दो राय नहीं कि तंत्र के क्षेत्र में त्रिजटा संसार के अद्वितीय साधक हैं। उनकी बराबरी कोई कर ही नहीं सकता।'मृत संजीवनी विद्या' के वे एकमात्र जीवित साधक हैं और तंत्र की समस्त क्रियाओं पर उनका असाधारण अधिकार हैं, साथ ही साथ वे अत्यन्त ही सरल, सौम्य और सहृदय हैं, उनका हृदय वे बच्चे की तरह कोमल और भावुक है। ऊपर से इस भयंकर चट्टान को देखकर कल्पना नहीं की जा सकती कि इसके भीतर ठण्डे शीतल पानी की झरना भी बह रहा है। श्रीमाली जी के प्रति उसके मन में अगाध श्रद्धा है। उन्होंने एक दिन बातचीत में मेरे कंधे पर हाथ रखकर सजल नयनों से कहा था कि, वे वहां पर बैठे हैं, मैं यहां पर अग्निवत् जल रहा हूं, एक क्षण के लिए मैंने आराम नहीं लिया है। दूसरे प्रसंग में उन्होंने कहा था कि वास्तव में ही वे लोग अत्यन्त सौभाग्यशाली हैं जिनको श्रीमाली जी का संरक्षण प्राप्त है, या जो उनके शिष्य हैं। आज तो नहीं, पर कल वे शिष्य अवश्य ही अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करेंगे कि वे एक महान व्यक्तित्व के सम्पर्क में रह चुके हैं। एक अन्य प्रसंग में उन्होंने कहा था कि मैं उस व्यक्तित्व को भली प्रकार से जानता हूं । शिष्यों को परखने की उनकी कसौटी अलग ही है। हो सकता है वे शीघ्र ही सिद्धाश्रम जाने वाले हैं, और उससे पहले इस प्रकार का वातावरण बनाकर
    देखना चाहते हैं, कि वास्तव में ही कौन ऐसे शिष्य हैं, जो इस भयंकर आग में भी उनके साथ हैं।हिमालय स्थित साधकों की यह तीव्र लालसा है कि
    वे शीघ्र ही पुनः संन्यास लेकर हिमालय में आ जाएं जिससे कि उनके जैसा मधुर व्यक्तित्व अपने बीच पाकर वे आनन्दमय हों, उन्हें सभी दृष्टियों से पथ-प्रदर्शन प्राप्त हो, और मैं यह दावे के साथ कहता हूं, कि जिस दिन वे संन्यास लेंगे, वह दिन गृहस्थ लोगों के लिए दुर्भाग्यमय होगा, क्योंकि उनके बीच से एक ऐसा व्यक्तित्व निकल जाएगा, जो कि वास्तविक रूप में अद्वितीय है, और वह दिन हम सब लोगों के लिए सौभाग्यशाली होगा, क्योंकि वह व्यक्तित्व भविष्य में हमेशा के लिए हमारे बीच रहेगा। मैं लगभग एक सप्ताह तक वहां रहा और इस बीच मैंने देखा कि त्रिजटा एक अद्वितीय असाधारण व्यक्तित्व है। प्रसाद स्वरूप उसे मुझे दो महत्वपूर्ण विद्याए भी प्राप्त हुईं जो कि मेरे जीवन की निधि है, विदा होते समय उन्होंने मुझे कहा कि वास्तव में ही तुम और तुम्हारे गुरुभाई सौभाग्यशाली हैं कि तुम लोगों को उनके चरणों में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है और यह विश्वास रखो कि किसी भी हालत में तुम खाली हाथ नहीं रहोगे। में पहाड़ी से विदा देने के लिए वे काफी दूर तक मेरे साथ आए, यह मेरे लिए अत्यन्त सौभाग्य की बात थी । गुरुदेव का स्मरण आते ही पुनः उनकी आंखें भर आईं। उनकी आंखों में सजलता, और होठों पर एक दृढ़ निश्चय था जो कि अग्निवत् दहक रहा था, उनके होंठ यह भी बोले- उनकी सौगन्ध का पालन करना भी मेरे लिए कठिन हो गया है, उन्हें इस प्रकार व्यथित होते मैं किसी भी हालत में न तो देख सकता हूं, और न सहन कर सकता हूं- और बोझिल मन से तुरंत वे मुड़कर ऊपर पहाड़ी की तरफ बढ़ गए ।

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