तांत्रिक का प्रतिशोध
कामाख्या मंदिर विश्व प्रसिद्ध है, क्योंकियहां उच्च कोटि के साधकों ने साधनाएं सिद्ध की हैं, यह सारी भूमि ही पुण्य भूमि है, साधकों के लिए तीर्थ स्थली है।जो साधक हैं, उन्हें अपने जीवन में एक बार तो कम से कम इस कामाक्षा मंदिर में जाना ही चाहिए, तभी उन्हें अनुभव होगा, कि पुण्य भूमि का तात्पर्य क्या होता है। उस स्थान का कुछ ऐसा ही महत्व है, कि व्यक्ति स्वयं साधना में रत हो जाता है। चारों तरफ का प्राकृतिक वातावरण और उसके बीच कामाक्षा का विश्वविख्यात मंदिर अपने आप में ही अद्वितीय और मनोहारी है। मां काली की भव्य विशाल मूर्ति जीवन को सान्त्वना और सुख देने में समर्थ है। उसकी लपलपाती निकलती हुई जीभ पूरे विश्व के दुःख और दैन्य को लीलने के लिए उद्यत है, गले में पड़ी हुई ना मुण्डों की माला जावन की निस्सारता को उद्घोषित करती है, और इससे बढ़कर मां काली का सम्पूर्ण विग्रह आँखों को संतोष और हृदय को सुख देने में समर्थ है। यह मंदिर अत्यन्त प्राचीन है। कहते हैं कि जब भगवान शिव की अर्द्धागिंनी सती अपने पिता दक्ष के व्यवहार से अपमानित होकर यज्ञ कुण्ड में कूद पड़ी, तब क्रोधित अवस्था में भगवान शिव ने उसकी लाश को अपने कंधे पर उठाकर पूरे विश्व का भ्रमण किया। भगवान शिव इस कृत्य से इतने क्रोधित हुए कि उनकी आंखों से निकलती हुई चिनगारियां पूरे वन प्रान्तर को जला कर खाक कर रही थीं, उन्हें कहीं पर भी संतोष नहीं मिल रहा था, पर इस स्थान पर आते-आते सती का सिर गिर पड़ा और तभी से यह विश्व का श्रेष्ठतम शक्तिपीठ बन गया, सबसे पहले भगवान शिव ने इस स्थान पर बैठकर उच्च कोटि की तांत्रिक साधनाएं सम्पन्न कीं और कहा कि आज से यह स्थान स्वयं ही "सिद्ध स्थान" है, जो भी साधक यहां साधनाएं करेगा, उसे निश्चित रूप से सफलता मिलेगी। और आज हजारों वर्ष बीतने पर भी भगवान शिव के ये शब्द अलौकिक रूप से फलप्रद हैं। पूरे संसार में कहीं पर भी बैठने से और साधना करने से भी यदि सफलता नहीं मिल रही हो और वह साधक इस स्थान पर बैठकर साधना सम्पन्न करे तो उसे निश्चित रूप से सफलता मिल जाती है, और जिस प्रकार चाहे सिद्धि प्राप्त हो जाती है। कालांतर में इसी स्थान पर मत्स्येन्द्रनाथ और गुरु गोरखनाथ ने साधनाएं सम्पन्न की। जिन स्थान पर भगवान शिव बैठे थे, वही "सप्त मुण्डी आश्रम" कहलाया और ठीक इसी स्थान पर गोरखनाथ ने बैठकर अपनी साधनाओं के द्वारा अलौकिक सिद्धियां प्राप्त कीं। आगे चलकर त्रिजटा अघोरी ने भी छः वर्ष तक इसी स्थान पर बैठकर उन सिद्धियों को प्राप्त किया जो कि अपने आप में दुर्लभ और अलौकिक कहलाती हैं। भूर्भुआ बाबा, स्वामी कार्तिकेय, विरुपाक्ष बाबा, स्वामी अंजनानन्द और कपाली बाबा जैसे विश्वविख्यात योगियों ने भी इसी स्थान पर बैठकर अपनी साधनाएं सिद्ध कीं और उन्हें आश्चर्यजनक रूप से सफलता प्राप्त हुई। आज भी लोग इन योगियों और साधकों के प्रति श्रद्धानत हैं जिन्होंने विश्व की लुप्त होती हुई साधनाओं और सिद्धियों को अक्षुण बनाए रखा। स्वामी असंज्ञानन्द देश के अद्भुत और आश्चर्यजनक सिद्धियों के स्वामी हैं, अघोर साधना के क्षेत्र में उनका कोई मुकाबला ही नहीं है, उच्च कोटि के साधक आज भी अपनी साधना प्रारम्भ करने से पूर्व स्वामी असंज्ञानंद को मन ही मन प्रणाम कर साधना प्रारम्भ करते हैं, जिससे कि अप्रच्छन में ही सही, स्वामी जी का सहयोग और अशीरबार प्राप्त करसकें। लम्बा चौड़ा शरीर, विशाल वक्षस्थल और लम्बी जटाओं के स्वामी असंज्ञानन्द के व्यक्तित्व के सामने सिर स्वतः ही झुक जाता है। साधना और सिद्धियों के क्षेत्र में स्वामी असंज्ञानंद महारथी हैं। उन्होंने अपने प्रयत्नों से और परिश्रम के बल पर उन अलौकिक सिद्धियों को भी प्राप्त कर लिया है, जो कि अपने आप में अद्वितीय कही जाती हैं। उन्होंने कई कृत्याओं को भी सिद्ध कर रखा है, जिनके माध्यम से पूरे विश्व में तहलका मचाया जा सकता है। मुझे उनसे मिलने का अवसर मिला है, और उनका दर्शन वास्तव में ही जीवन का पुण्य कहा जाता है । यद्यपि वे अत्यधिक शांत, सरल और सौम्य हैं, परन्तु यदि उनके अहं पर चोट की जाती है, या उन्हें कोई चुनौती देने की मुद्रा में खड़ा हो जाता है, तो वे क्रोध के साक्षात् विग्रह बन जाते हैं, उस समय उनका चेहरा ही नहीं, अपितु पूरा शरीर अग्निमय हो जाता और वे सामने वाले को ध्वंस करने में एक क्षण के लिए भी नहीं हिचकिचाते। ऊंचे से ऊंचा साधक और उनके शिष्य भी उनके इस रूप से और प्रभाव से परिचित हैं और इसीलिए उनसे बात करते हुए घबराते हैं, उनका रुख और प्रसन्न मुख मुद्रा देखकर ही उनसे बात करने का साहस जुटा पाते है, इसीलिए तो त्रिजटा अघोरी ने एक बार बातचीत के प्रसंग में कहा था, कि "असंज्ञानंद क्रोध का ही दूसरा नाम है।"सन् १६५२ का अप्रैल महीना, स्वामी असंज्ञानंद इसी सप्त मुण्डी स्थान पर बैठकर नव कृत्याओं को सिद्ध करना चाहते थे, जो कि अपने आप में दुष्कर और कठिन साधना कही जाती है। यह एक ऐसी साधना हैं, जिसे सिद्ध कर लेने पर व्यक्ति विश्व का अजेय साधक बन जाता है, परन्तु यदि पूरे साधनाकाल में कोई त्रुटि रह जाए तो वह स्वयं जल कर राख हो जाता है। ऐसी कठिन साधना को सम्पन्न करने के लिए काफी हिम्मत और हौसले की जरूरत होती है। इस साधना को सिद्ध करने के लिए स्वामी जी ने इस महत्वपूर्ण स्थान को चुना जिससे कि वे अपने उद्देश्य में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकें।स्वामी असंज्ञानंद कामाक्षा मंदिर पहुंचे और मां काली के सामने खड़े होते ही उनका सारा शरीर रोमांचित और भाव विह्वल हो उठा, उनके मुंह से अनायास ही मां काली की विश्व प्रसिद्ध स्तुति के शब्द निकल पड़े- ध्यायेत कालीं महामायां त्रिनेत्रां बहु रूपिणीम् चतुर्भुजां लसजिहा पूर्णचन्द्रनिभाननाम् । । १ ।
नरमुण्डं तथा खड्गं कमलं वरदं तथा । | २ | |
विभ्राणां रक्तवदनां दंष्ट्राल घोररूपिणीम् ।
अट्टाहास निरतां सर्वदा च दिगम्बराम् | | ३|
हां ह्रीं कालिके घोरद्रंस्त्रेरुधिरप्रिये रुदिसूर्यनको ।
रुधिरावृतस्तति मम सर्वशत्रून खादय खादय हिंस्र हिंस
मारय मारय भिन्धि भिन्धि छिन्धि उच्चाटय उच्चाटय
विद्रावय विद्रावय शोषय शोषय स्वाहा। रां रीं काराये
महीपशत्रून मदेय स्वाहा ।
अर्क जय जय किर किर किट किट मर्द मर्द
मोहय मोहय हर हर मम रिपून ध्वंस ध्वंस भक्ष भक्ष त्रोटय
त्रोटय यातुधानिका चामुण्डा सर्वजनान् राजपुरुषान्
स्त्रियो मम वश्यं कुरु कुरु अश्वान् गजान् दिव्यकामिनी
पुत्रान् राज्याश्रयं देहि देहि नूतनं नूतनं धान्यं धनं यक्षं
रक्षां क्षां क्षीं क्षं क्षै क्षः स्वाहा । ।
और बोलते-बोलते ही काली विग्रह के सामने उनका ध्यान लग गया, कितने समय तक वे ध्यानस्थ रहे, इसका उन्हें होश ही नहीं रहा, जब वे पुनः चैतन्य हुए तो उन्हें लगा कि वे मां काली मंद-मंद मुस्करा रही है और अपने स्नेह पूर्ण नेत्रों से आशीर्वाद दे रही है "वत्स! जिस उद्देश्य से और जिस साधना के निमित्त तुम आए हो वह साधना प्रारम्भ करो, तुम्हें अवश्य ही सफलता मिलेगी।”कुछ क्षण वहां बैठने के बाद स्वामी असंज्ञानन्द सप्तमुण्डी स्थान पर आ गये, जहां पर उन्हें आने वाले दिनों में साधना सम्पन्न करनी थी, सप्तमुण्डी स्थान साधना के लिए प्रेसिद्ध हैं, कहते हैं कि इस स्थान पर भगवान शिव ने स्वयं बैठकर त्रैलोक्य विजय साधना सम्पन्न की थी, इसके बाद उच्चकोटि के साधकों, ऋषियों ने भी इस स्थान का महत्व अनुभव किया था। कालांतर में शंकराचार्य ने इसी सप्तमुण्डी
शिला पर बैठकर विश्व प्रसिद्ध काली स्तोत्र की रचना की थी, और स्तोत्र पूरा होते-होते भगवती महाकाली ने स्वयं वहां उपस्थित होकर शंकराचार्य को अपने हाथों से भोजन कराया था, इसी स्थान पर बाद में गुरु गोरखनाथ ने आश्रम स्थापना की और तभी से यह स्थान "सप्तमुण्डी आश्रम" कहलाया।
कहा जाता है, कि यहां पर सप्तमुण्डों की बलि दी गई थी, कुछ
लोगों की धारणा के अनुसार यहां पर एक बार मंत्र उच्चारण करने पर सात प्रतिध्वनियां स्वतः ही उच्चरित हो जाती हैं, इसीलिए इस स्थान को सप्त मुण्डी कहते हैं। जो भी हो पर निश्चित है कि यह स्थान साधना की दृष्टि से अद्वितीय है। कपाल स्वामी भी इस देश के महान योगी और तंत्र साधनाओं के अधिकारी साधक हैं। लगभग १५० वर्षों से भी ज्यादा आयु प्राप्त करने के बावजूद भी वे चिरयौवनमय दिखाई देते हैं, उनके चेहरे पर एक अपूर्व आभा और तेज प्रतिक्षण अनुभव होता है। साधना के क्षेत्र में वे जितने पहुंचे हुए योगी है, क्रोध के क्षेत्र में भी वे उतने ही बड़े दुर्वासा हैं, किस बात पर कब क्रोध आ जाएगा, इसका कुछ पता नहीं चलता, इसीलिए उनके शिष्य भी सोच समझकर उनसे बात करते हैं। कपाल स्वामी की भी कई दिनों से मन ही मन इच्छा थी कि सप्त मुण्डी आश्रम पर जाकर वायदीय सिद्धि प्राप्त की
जाय जो कि तंत्र के क्षेत्र में एक अद्वितीय साधना कही जाती है, और अपने तीन चार शिष्यों के साथ वे कामाक्षा की तरफ आ भी गए। सबसे पहले वे मां काली के सिंह द्वार पर पहुंचे और खड़े-खड़े ही कात्यायनी प्रयोग से उन्होंने मां काली का स्तवन किया, दाहिने अंगूठे को चीर कर टपकती हुई रक्त की बूंदों से उसका अभिषेक किया। स्तवन-अभिषेक के बाद शंकराचार्य
प्रणीत 'काली स्तुति' सम्पन्न कर प्रतिज्ञा की, "मां! मैं आपके ही सान्निध्य में कल प्रातःकाल से सप्त मुण्डी आश्रम पर वायवीय साधना प्रारम्भ कर रहा हूं, और तब तक मैं अपने स्थान से उठूगा ही नहीं जब तक कि मुझे पूर्ण सिद्धि और सफलता नहीं मिल जाएगी।” काली मंदिर से बाहर निकल कर वे सप्त मुण्डी आश्रम की ओर आए तो उन्होंने देखा कि आश्रम की पवित्र दिव्य सप्त मुण्डी शिला पर कोई और योगी तांत्रिक बैठा हुआ है, और उसके तीन चार शिष्य भी उसके आसपास खड़े परस्पर वार्तालाप में संलग्न हैं ।यहां आश्रम होने पर भी आश्रम जैसा वातावरण नहीं है, अपितु एक अत्यन्त विशाल समतल शिला है, जो घनी लताओं और बेलों से आच्छादित है। चारों तरफ हरी भरी वनस्पति और विभिन्न प्रकार के पेड़ों से घिरी हुई यह शिला
एक आश्रम का ही रूप धारण करती है, इसी शिला पर भगवान शिव,शंकराचार्य, गोरखनाथ आदि साधकों ने बैठकर अपनी साधनाएं सम्पन्न की थीं। कहा जाता है कि इस शिला पर एक बार में एक ही व्यक्ति साधना सम्पन्न कर सकता है, शिला के अलावा अन्य स्थान पर बैठने से उतनी सफलता नहीं मिल पाती जितनी कि प्राप्त होनी चाहिए। ज़ब कपाल स्वामी ने देखा कि कोई दूसरा योगी शिला पर बैठा हुआ है, तो उन्होंने अपने शिष्य से कहलाया कि वे किसी अन्य स्थान निवास कर लें, इस शिला को जल से और फिर मंत्रों से शुद्ध, पवित्र बनाना है, क्योंकि कल से
कपाल स्वामी इस पर बैठ कर उच्चकोटि की साधना सम्पन्न करेंगे। कपाल स्वामी ने सोचा कि मेरा नाम लेना ही पर्याप्त होगा और जो सामने बैठा हुआ तांत्रिक है, वह अन्य स्थान पर चला जाएगा । जब कपाल स्वामी ने यह बात शिला पर बैठे हुए असंज्ञानंद को सुनाई तो असंज्ञानंद ने नम्रता से जवाब दिया मैं स्वयं इस शिला पर बैठकर साधना सम्पन्न करने का विचार रखता हूं, और आगे चालीस दिनों तक इस शिला पर ही साधना सम्पन्न करूंगा। इसलिए तुम अपने गुरु को जाकर कह दो कि वे किसी अन्य स्थान पर जाकर बैठ जाएं या जब मैं साधना सम्पन्न कर लूं तब वे इस शिला पर बैठकर साधना कर सकते हैं। पर इससे पूर्व किसी प्रकार से यह सम्भव नहीं है, कि मैं इस स्थान से हट जाऊं और अन्य किसी स्थान पर बैठकर साधना करूं। असंज्ञानंद के मुंह से ऐसा उत्तर पाकर वह शिष्य हक्का-बक्का रह गया, उसने सोचा कि इस बैठे हुए व्यक्ति को शायद कपाल स्वामी की सिद्धियों के बारे में ज्ञान नहीं है, तभी ऐसी बात कह रहा है, यदि कपाल स्वामी क्रोधित हो गए तो इस व्यक्ति और इसके पास बैठे हुए शिष्यों का कहीं पता ही नहीं चलेगा। इसलिए कपाल स्वामी के शिष्य ने एक बार फिर
पूछा कि क्या मैं आपका यह उत्तर उन्हें सुना दूं, तो स्वामी असंज्ञानंद व्यंग से मुस्करा दिए और बोले- 'जाकर वही कह दे जो मैंने कहा है। " शिष्य ने वापस आकर कपाल स्वामी को वे वाक्य ज्यों के त्यों सुना दिए, जो असंज्ञानंद ने कहे थे, सुन कर कपाल स्वामी की त्योरियां चढ़ गईं, गुस्से से होंठ फड़फड़ाने लगे, परंतुफिर भी अपने क्रोध को जबरदस्ती नियन्त्रित करते हुए अपने प्रधान शिष्य को कहा - "तू जाकर उस मूर्ख को भली प्रकार समझा दे कि जिसने यह समाचार कहलवाया है, वह ऐरा गैरा नहीं अपितु कपाल स्वामी है, और जिसके चढ़े हुए तेवर देखकर प्रकृति भी एक क्षण के लिए रुक कर सोचने लगती है, मैं उसे केवल तीन घण्टे को समय देता हूं, कि
इस अवधि में वह इस शिला को खाली कर अन्यत्र चला जाए, अन्यथा इसके बाद जो कुछ भी घटित होगा, उसकी जिम्मेवारी उस पर होगी, मैं नहीं चाहता कि मेरे हाथों से किसी और योगी की मृत्यु हो जाए।" कपाल स्वामी का प्रधान शिष्य विरूचि अपने गुरु का संदेश लेकर वहां गया जहां स्वामी असंज्ञानंद बैठे हुए थे, और कहा - "आपको शायद पता नहीं है, मैं विश्व प्रसिद्ध दुर्वासा के साक्षात् अवतार कपाल स्वामी का शिष्य हूं और वे इसी
सप्तमुण्डी शिला पर बैठकर विश्व की सर्वोच्च साधना सम्पन्न करना चाहते हैं, मैं आपको नहीं जानता कि आप कौन हैं, परन्तु इतना कह देता हूं, कि यदि आपके व्यवहार से कपाल स्वामी क्रोधित हो गए तो आपका और आपके शिष्यों का सर्वनाश निश्चित है, उन्होंने आपको कहलया है, कि आप तीन घंटे के भीतर-भीतर इस सप्तमुण्डी आश्रम को खाली कर दें, जिससे कि वे साधना प्रारम्भ करे सकें, तीन घण्टे के बाद जो कुछ भी
घटित होगा उसकी पूरी-पूरी जिम्मेवारी आपकी रहेगी।"उसे सुनकरसे आसज्ञानंद जी जोर से अट्टहास कर बोले- "तू अभी छोकरा है, और तेरा गुरु कपाल स्वामी मेरे सामने बच्चा ही है, उसे जाकर कह दे कि असंज्ञानंद को आज्ञा देने वाला न तो अभी तक पृथ्वी पर पैदा हुआ है, और न आने वाले वर्षों में कोई पैदा होगा ही।" "मैं साधना प्रारम्भ करने के अवसर पर लड़ाई-झगड़ा नहीं करना चाहता, उसको जाकर कह दे, कि मैं चालीस दिन की साधना सम्पन्न करने के लिए कटिबद्ध हूं," और यह कहते-कहते उन्होंने हाथ के झटके से उसे वापस जाने के लिए कह दिया। इतनी बात तो कपाल स्वामी के लिए असह्य सी थी, कोई उनकी बात को काट दे या उनका विरोध कर दे, यह उनके लिए मृत्यु तुल्य था, वे उसी क्षण अपने स्थान से उठ खड़े हुए और गोरखनाथ मुण्डी अर्थात् सप्त मुण्डी आश्रम पर जा धमके, जहां असंज्ञानन्द, सप्त मुण्डी शिला पर अपने शिष्यों के बीच बैठे हुए थे, आते ही बोले-“तू शायद यह नहीं जानता कि मैं कपाल स्वामी हूं और साधनाओं के बल पर पूरे ब्रह्मांड को नियंत्रित करने की सामर्थ्य रखता हूं, मैं एक गोपनीय साधना सम्पन्न करने के लिए आया हूं, और आज प्रातः ही मैंने मां 'काली के विग्रह का रक्ताभिषेक किया है, अच्छा है तुम इस स्थान से हट जाओ, इस प्रकार की छिछोरी बातें तुम्हारे मुंह से अच्छी नहीं लगती ।” असंज्ञानंद ने देखा सामने एक विचित्र व्यक्तित्व लिए साधु खड़ा है, काला रंग, लम्बा चौड़ा हाथी की तरह शरीर, बड़ा सा सिर और ललाट के मध्य में त्रिशूल के आकार का तिलक लगाए हुए। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह जो सामने कपाल स्वामी के नाम से तांत्रिक खड़ा है, अवश्य ही बहुत कुछ जानता होगा और जिस प्रकार से इसके तेवर हैं, उसके अनुसार यह
क्रोध में आकर कुछ भी कर सकता है, परंतु इस प्रकार से घुटने टेक देना असंज्ञानंद के जीवन में सम्भव ही नहीं था, उसी चुनौती की मुख मुद्रा में उन्होंने जवाब दिया कि "तुम कपाल स्वामी हो, ऐसा तुम्हारे शिष्य से पता चला है, परंतु तुम जैसे सैकड़ों कपाल स्वामी को मैं अपने जेब में लिए घूमता हूं, तुमने अंगूठे के रक्त से काली का स्तवन अर्चन किया है, परंतु तुम्हारी बलि दी जानी बाकी है, और यदि तुम अपने आप में नियंत्रित नहीं रहे तो ऐसा क्षण भी आ सकता है, कि जबकि तुम्हारा भक्ष्य मां काली स्वीकार करे ।”कपाल स्वामी का सारा शरीर अंगारे की तरह लाल हो गया, काला शरीर तो था ही, क्रोध के तेज में वह और भयानक हो उठा, उसी समय वहीं खड़े-खड़े ही कपाल स्वामी ने हवा में हाथ लहराया और कुछ काली मिर्च तथा पीली सरसों के दाने शून्य में से प्राप्त किए और तीव्र मारण प्रयोग ढ़ते हुए दाने हवा में उछाल दिए। हवा में उन दानों का उछालना था कि मारक मंत्र के
प्रभाव से एक-एक दाना बन्दूक की गोली की तरह तीव्र प्रभावयुक्त बन गया और वे सभी दाने-असंज्ञानंद के सीने सेजा टकराये । यदि कोई दूसरा सामान्य सा तांत्रिक होता तो निश्चय ही उसी क्षण उसकी मृत्यु निश्चित थी, कोई ताकत उसको बचा नहीं सकती थी, परंतु असंज्ञानंद ने उस वार को
झेल लिया और पलट कर बोले- "मैं असंज्ञानंद, तुम्हें फिर सावधान करता हूं कि इस प्रकार का कृत्य तुम्हारे लिए उचित नहीं है, यदि मैंने पलट कर वार किया तो तुम्हारे शरीर के चिथड़े-चिथड़े होकर हवा में उड़ जायेंगे, और तुम्हारा कोई आस्तिव ही नहीं रहेगा।" परंतु कपाल स्वामी कब मानने वाले थे, उन्होंने कृत्या प्रयोग करने का निश्चय किया, यदि मारण प्रयोग से कोई
जानकार तांत्रिक नहीं मरे, तो फिर कृत्या के प्रयोग से तो सर्वनाश निश्चित है। असंज्ञानंद समझ गए कि यह सामने खड़ा हुआ तांत्रिक अपने मंत्र - मद में पागल हो रहा है, और यदि समय रहते इसे नहीं रोका गया तो यह कुछ भी कर सकता है, तंत्र अनुकूलता के लिए हैं, प्रहार और दुष्टता के लिए नहीं। यदि कोई नीचता और दुष्टता पर ही उतर आये तो उसको अक्ल देना भी शास्त्र मर्यादा के अनुकूल है ऐसा मन में सोचकर असंज्ञानंद विचलित हो गए, उसने देखा कि सामने कपाल स्वामी कृत्या मंत्र प्रयोग दोहरा रहे हैं, और किसी भी स्थिति को पैदा करने के लिए आमादा हैं, देखकर असंज्ञानंद मन ही मन क्रोध से अभिभूत हो गए, दुष्ट को जब तक दुष्टता का अहसास नहीं कराया जाए तब तक वह अनकूल और नियंत्रित नहीं होता, ऐसा सोचकर असंज्ञानंद उसी शिला पर उठ खड़े हुए और गरज कर बोले- "मूर्ख कपाल, मैंने अभी तक अपने आपको नियंत्रित किया है, पर अब तू अपने सर्वनाश पर ही तुल गया है, तो मैं तुझे इसका मजा चखा देता हूं"- और ऐसा कहते-कहते उन्होंने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा लिए । कपाल स्वामी ने देखा कि असंज्ञानंद उठ खड़ा हुआ है, और निश्चय ही वह मेरी कृत्या प्रयोग के जबाव में कोई कृत्या का प्रयोग ही करेगा इसीलिए जितना जल्दी हो सके पहले वार कर लेना चाहिए, जिससे कि सामने वाले शत्रु को सोचने या प्रहार करने का अवसर नहीं मिले। असंज्ञानंद कृत्या के उच्च प्रयोग-फेत्कारिणी कृत्या प्रयोग से संबंधित मंत्र उच्चरित करने लगे, उनके दोनों हाथों
में लौंग आ गए थे, और उन लौंगों के माध्यम से ही यह प्रयोग
सम्पन्न होना था, मंत्र के शब्द सुन सारे शिष्य जो उनके पास खड़े थे, भयभीत और वेचलित हो गए। फत्करिणी प्रयोग तो
अत्यन्त तीक्ष्ण और तीव्र होता है, इस प्रयोग से तो सर्वनाश
निश्चित है, मगर जब असंज्ञानंद जी ने प्रयोग प्रारम्भ ही कर
दिया है, तो उन्हें अब रोक ही कौन सकता है, पास खड़े शिष्य देख रहे थे, कि क्रोध के मारे असंज्ञानंद लाल सुर्ख हो गए हैं, और ऐसा लग रहा है कि वे स्वयं साक्षात् यमराज के अवतार हों । कपाल स्वामी ने कृत्या मंत्र सम्पन्न किया और अपने हाथों में लिए हुए दाने हवा में उछाल दिए, पर तभी असंज्ञानंद ने भी फेत्कारिणी कृत्या को प्रयोग सम्पन्न कर लिया था, और
प्रत्युत्तर में ज्यों ही लौंग हवा में उछालीं कि एक भयानक विस्फोट हुआ और जहां कपाल स्वामी खड़े थे, वहां पर परमाणु बम सा विस्फोट हो गया, चारों तरफ चिनगारियां फूट रही थीं। और ऐसा लग रहा था, जैसे सैकड़ों बम एक साथ फट गए हों। सामने तीव्र रोशनी और आग के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था, जहां पर कपाल स्वामी खड़े थे, वहां पर कुछ भी स्पष्ट नहीं था, ऐसा लग रहा था, जैसे पृथ्वी और दिशाएं उस प्रहार से थर्रा उठी हैं, पशु-पक्षी क्रंदन कर उठे। जिस स्थान पर कपाल स्वामी और शिष्य खड़े थे, वह भूमि अग्नि से लाल सुर्ख होकर काली हो गयी थी और आसपास की सारी चट्टानें रेत के कणों में परिवर्तित हो गई थीं, जब आधे घण्टे बाद उस स्थान को देखना संभव हुआ तो वहां न कपाल स्वामी थे, और न उनके शिष्य ही, शायद कृत्या प्रयोग की तीव्र अग्नि में जल कर वे खाक हो गये या उनके शरीर टुकड़े-टुकड़े होकर चारों तरफ बिखर गए । जो कुछ घटित हुआ वह अपने आप में अलौकिक और रोमांचकारी था, उस प्रयोग के प्रभाव से पृथ्वी पर जो कंपन हुआ उसका अहसास २०-२० मील दूर गांवों के निवासियों तक को हुआ, ऐसा लगा जैसे कोई भूकम्प आ गया हो ।
लगभग तीन चार घण्टे बाद स्थिति शांत हुई, तब तक असंज्ञानंद उसी चट्टान पर उसी मुद्रा में अडिग खडे रहे, काफी समय बाद वे उस शिला से उतरे और मां काली के मंदिर में जाकर उनके चरणों में लिपट गए । आज भी इस रोमांचकारी घटना के सैकड़ों लोग साक्षी हैं। उस क्षण की याद कर आज भी वहां के बड़े-बूढ़े थर्रा उठते हैं, उस दृश्य को स्मरण कर आज भी उन प्रत्यक्षदर्शी लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं, और उस सप्तमुण्डी शिला के सामने ही आज भी पृथ्वी का वह भूभाग जला हुआ दिखाई देता है,
जहां पर कपाल स्वामी और उसके शिष्य खड़े थे।
।नीलोत्पलसमप्रख्यां शत्रुसंध विदारिणीम् ।
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