शत्रु का मुख बंध करने का उपाय || स्तंभन क्रिया

शत्रु का मुख बंध करने का उपाय || स्तंभन क्रियाशत्रु का मुख बंध करने का उपाय || स्तंभन क्रिया

 






    गमनोत्थानवाग्बाणखड्गादिशस्त्र केषु
    शत्रुसैन्याशनीनाञ्च स्तम्भनं शम्भुनोदितम् ।। १ ।

    अब स्तम्भन के सम्बन्ध में कहा जा रहा है। लोगों के चलने, उठने, बोलने
    तथा बाण, खड्ग प्रभृति शस्त्र के और शत्रुसैन्य एवं वज्र प्रभृति के स्तम्भनार्थ
    महादेव द्वारा कथित प्रयोग कहा जा रहा है ॥ १ ॥



    गतिस्तम्भन करने का उपाय 




    रजन्या हरितालैर्वा भूर्जपत्रे समालिखेत् ।
    यन्त्रं हरितसूत्रेण वेष्टयित्वा ततः पुनः ।
    शिलायां बन्धयेत् तञ्च गतिस्तम्भकरं परम् ॥ २ ॥


    हरिद्रा अथवा हरिताल द्वारा भोजपत्र पर स्तम्भन यन्त्र को अंकित
    करना चाहिए। उसे हरे रंग के धागे से लपेट कर एक पोटली बनाये । इसे
    इच्छित व्यक्ति के सामने फेंकने से उसकी गति स्तम्भित हो जाती है। यह
    सिद्धयोग है ॥ २ ॥



    उत्थानस्तम्भन करने का उपाय 




    र्मकारस्य कुण्डाच्च रजकस्य तथैव च ।
    कुण्डान्मलं समुद्धृत्य चाण्डालीऋतुवाससा ॥ ३ ॥
    बन्धयेत् पोट्टलीं प्राज्ञो यस्याग्रे तां विनिक्षिपेत् ।
    तस्योत्थाने भवेत् स्तम्भः सिद्धयोग उदाहृतः ॥ ४




    पहले चर्मकार के यहाँ से और धोबी के यहाँ से उस कुण्डस्थान का
    कीचड़ लाये जहाँ चर्मकार चमड़ा धोता है और जहाँ धोबी कपड़ा धोता है।
    चाण्डाली के ऋतुकालजनित रक्त से रंगे वस्त्र में इन दोनों को बाँधकर
    एक पोटली बनाये। इसे शत्रु के सम्मुख फेंकने पर उसकी गति वहीं स्तम्भित
    हो जाती है। यह सिद्धयोग कहा गया है । ३-४ ।।



    गो मेषादि स्तम्भन करने का उपाय 




    उष्ट्रस्यास्थि चतुर्दिक्षु निखनेद् भूतले ध्रुवम् ।
    गोमेषमहिषीवाजीन् स्तम्भयेत् करिणोऽपि च ॥ ५ ॥



    जहाँ गाय, भैंस, घोड़ा या हाथी बाँधे जाते हैं अथवा रहते हैं, वहाँ पर
    चारों ओर जमीन में ऊँट की हड्डी गाड़ देने से उसमें रहने वाले पशु, यहाँ
    तक कि हाथी भी स्तम्भित हो जाते हैं ॥ ५॥



    लोक स्तम्भन करने का उपाय 





    सिद्धगुञ्जाफलं वाप्यं नृपात्रे पीतमृत्सह ।
    निशि कृष्णचतुर्दश्यां त्रिदिनं तत्र जागृयात् ।
    नित्यं सिञ्चेज्जलेनैव मन्त्रं पूजाञ्च कारयेत् ॥ ६ ॥
    तस्याः शाखा लता ग्राह्या शुभर्क्षे सुनिमन्त्रिता ।
    क्षिपेद् यस्यासने तान्तु स्तम्भयत्येव तं ध्रुवम् ।। ७ ।।
    'ॐ गुरुभ्यो नमः । ॐ वज्ररूपाय नमः । ॐ वज्रकिरणे शिवे रक्ष
    रक्ष भवेद् गाधि अमृतं कुरु कुरु स्वाहा' ।


    कृष्णपक्ष की चतुर्दशी की रात्रि में मनुष्य की खोपड़ी में पीली मिट्टी के
    साथ सफेद घुमची का फल बोना चाहिए । वहाँ तीन दिन जागरण करते हुए
    उक्त मन्त्र से जप करे ।
    जब उस बीज से पौधा निकले, तब उसकी शाखा एवं लता को इसी मन्त्र
    से अभिमन्त्रित करके जिसके आसन के नीचे रखा जायेगा, वह निश्चित रूप से आसन से उठ नहीं सकेगा ।। ६-७ ।।



    मुखस्तम्भन करने का उपाय 




    हरिद्राकारितं पद 
    तालपत्रे सुपूजितम् ।
    चत्वरे साध्यमन्त्राङ्कं मुखस्तम्भकरं रिपोः ॥ ८ ॥


    'ॐ सहचरवद शायि अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्वाहा' ।
    तालवृक्ष के पत्ते पर हरिद्रा की स्याही से ( हरिद्रा को पीसकर ) एक
    अच्छा कमल बनाकर उसमें शत्रु का नाम लिखे। तदनन्तर उक्त मन्त्र से पूजा करके उसे गाड़ देने पर शत्रु का मुख स्तम्भित हो जाता है । मन्त्र में जहाँ 'अमुकस्य' है वहाँ इसके स्थान पर शत्रु का नाम लेना चाहिए ॥ ८ ॥



    वाक्स्तम्भन करने का उपाय 







    पन्नगाकारः साध्यकर्णे विचिन्तितः ।
    करोति वचनस्तम्भं चित्रं देवगुरोरपि ॥ ९ ॥
    'ॐ मूकन्तु सुकर्णाय स्वाहा' ।


    अपने शत्रु के कानों का ध्यान करके यह चिन्तन करे कि उसमें 'अ' अक्षर
    सर्पाकृति में विराजित है और मन्त्र का जप करे। इससे देवगुरु बृहस्पति तक
    की भी वाणी स्तम्भित हो जाती है ॥ ९ ॥ शतं जप्तेन कीलेन खादिरेणास्य बन्धनम् । जायते वैरिणां स्तम्भो दुर्गान्ते कीलितं ध्रुवम् ।। १० ।।
    'ॐ स इति मूर्तिरुद्राय स्वाहा' ।
    खदिर ( खैर ) की लकड़ी द्वारा एक कीलक बनाकर उक्त मन्त्र से १००
    बार अभिमन्त्रित करे और साथ ही यह मन्त्र लिखकर उसमें बाँध भी दे ।
    इसे शत्रु के दुर्ग ( किला ) में गाड़ देने पर शत्रुओं में स्तम्भन का संचार हो
    जाता है ।। १० ।।


    कुङ्कुमैलिखितं पद्म भूर्जे नामाङ्कितं रिपोः ।
    वेष्टितं नीलसूत्रेण सम्यक् स्तम्भकरं भवेत् ॥ ११ ।।


    'ॐ सह धनेशाय स्वाहा' ।
    भोजपत्र पर कुंकुम द्वारा शत्रु का नाम एक पद्म पर लिखकर उसे नीले
    धागे से बाँधें । यह सम्यक् रूप से स्तम्भन करता है। उक्त मन्त्र से १०० बार अभिमन्त्रित भी करे ॥ ११ ॥


    शत्रु का वाक्यस्तम्भन करने का उपाय 



    लिखित्वा प्रेतवक्त्रे च साध्यमाम पुरीकृतम् ।
    वेष्टितं नीलसूत्रेण श्मशाने प्रोत्थयेत् ध्रुवम् ।
    वाक्स्तम्भनं भवेच्छत्रोः शम्भुदेवेन भाषितम् ॥ १२ ॥


    'ॐ सहश्वेताय अमुकस्य वाचं स्तम्भय स्तम्भय स्वाहा' ।
    मृत व्यक्ति ( शव ) के मुख में पहले यह मन्त्र लिखे । जहाँ 'अमुकस्य'
    लिखा है वहाँ शत्रु का नाम अंकित करे। इसे नीले धागे से बाँधकर श्मशान-
    भूमि में गाड़े । महादेव का कथन है कि इस युक्ति द्वारा शत्रु का वाक्स्तम्भन
    हो जाता है ॥ १२ ॥


    मन, वचन एवं गति का स्तम्भन



    यस्याभिधानमुच्चार्य सप्ताहं जप्यते 
    मनोवचोगतिस्तम्भं
    रिपोः । 
    चेटकं कुरुते ध्रुवम् ॥ १३ ॥
    'ॐ नमो हुण्डने अमुकस्य मुखं वाचं गति स्तम्भय ज्वालागर्द-
    भाग्निमुत्काधिकं बन्ध बन्ध स्तम्भय कुरु च महेप्सितानि ठः ठः हुं
    फट् स्वाहा' ।
    हरिद्रया वेष्टयेद् पीतसूत्रैश्च
    स्थापयेत् शिलयोर्मध्ये वाक्स्तम्भो जायते ध्रुवम् ॥ १४ ॥
    क्षिपेद् यन्त्रं भूर्जपत्रे समाहितः ।
    पीतपुष्पैश्च पूजयेत् ।
    शतं जप्तेन कीलेन खादिरेणास्य बन्धनम् ।
    जायते वैरिणां स्तम्भो दुर्गान्ते कीलितं ध्रुवम् ।। १० ।।
    'ॐ स इति मूर्तिरुद्राय स्वाहा' ।


    खदिर ( खैर ) की लकड़ी द्वारा एक कीलक बनाकर उक्त मन्त्र से १००
    बार अभिमन्त्रित करे और साथ ही यह मन्त्र लिखकर उसमें बाँध भी दे ।
    इसे शत्रु के दुर्ग ( किला ) में गाड़ देने पर शत्रुओं में स्तम्भन का संचार हो
    जाता है ।। १० ।।

    कुङ्कुमैलिखितं पद्म भूर्जे नामाङ्कितं रिपोः ।
    वेष्टितं नीलसूत्रेण सम्यक् स्तम्भकरं भवेत् ॥ ११ ।।

    'ॐ सह धनेशाय स्वाहा' ।
    भोजपत्र पर कुंकुम द्वारा शत्रु का नाम एक पद्म पर लिखकर उसे नीले
    धागे से बाँधें । यह सम्यक् रूप से स्तम्भन करता है। उक्त मन्त्र से १०० बार अभिमन्त्रित भी करे ॥ ११ ॥



    शत्रु का वाक्यस्तम्भन




    लिखित्वा प्रेतवक्त्रे च साध्यमाम पुरीकृतम् ।
    वेष्टितं नीलसूत्रेण श्मशाने प्रोत्थयेत् ध्रुवम् ।
    वाक्स्तम्भनं भवेच्छत्रोः शम्भुदेवेन भाषितम् ॥ १२ ॥

    'ॐ सहश्वेताय अमुकस्य वाचं स्तम्भय स्तम्भय स्वाहा' ।
    मृत व्यक्ति ( शव ) के मुख में पहले यह मन्त्र लिखे । जहाँ 'अमुकस्य'
    लिखा है वहाँ शत्रु का नाम अंकित करे। इसे नीले धागे से बाँधकर श्मशान-
    भूमि में गाड़े । महादेव का कथन है कि इस युक्ति द्वारा शत्रु का वाक्स्तम्भन हो जाता है ॥ १२ ॥ मन, वचन एवं गति का स्तम्भन यस्याभिधानमुच्चार्य सप्ताहं जप्यते मनोवचोगतिस्तम्भं रिपोः ।
    चेटकं कुरुते ध्रुवम् ॥ १३ ॥
    'ॐ नमो हुण्डने अमुकस्य मुखं वाचं गति स्तम्भय ज्वालागर्द-
    भाग्निमुत्काधिकं बन्ध बन्ध स्तम्भय कुरु च महेप्सितानि ठः ठः हुं
    फट् स्वाहा' ।
    हरिद्रया वेष्टयेद् पीतसूत्रैश्च
    स्थापयेत् शिलयोर्मध्ये वाक्स्तम्भो जायते ध्रुवम् ॥ १४ ॥ क्षिपेद् यन्त्रं भूर्जपत्रे समाहितः । पीतपुष्पैश्च पूजयेत् ।
    साधक ध्यानमग्न होकर भोजपत्र पर हल्दी द्वारा स्तम्भन यन्त्र अंकित
    करे । तदनन्तर उसे दो पत्थरों के बीच में रखे । अर्थात् पहले एक पत्थर उस पर यन्त्र, उस पर पुनः पत्थर रखे। इस प्रकार शत्रु का वाक्स्तम्भन होता है ॥ १४॥


    बुद्धिस्तम्भन करने का उपाय 



    भृङ्गराजोऽप्यपामार्गः सिद्धार्थं सहदेविका |
    तुल्यं तुल्यं वचा श्वेता द्रव्यमेषां समाहरेत् ।। १५ ।।
    लौहपात्रे विनिक्षिप्य द्विदिनान्ते समुद्धरेत् ।
    तिलके सर्वशत्रूणां बुद्धिस्तम्भकरं भवेत् ॥ १६ ॥

    भृंगराज, चिड़चिड़ा, सफेद सरसों, सहदेई और सफेद वचा को समान
    मात्रा में लेकर लोहे के पात्र में उनका रस निकाल कर दो दिन ढाँक कर
    सुरक्षित रखे । तीसरे दिन उसका तिलक करने पर उसके सभी शत्रु जब
    उसे देखेंगे, तब उनकी बुद्धि का स्तम्भन होगा ।। १५-१६ ।।
    मन्त्रजप द्वारा मुख तथा गति का स्तम्भन
    'ॐ नमो भगवते विश्वामित्राय नमः सर्वमुखीभ्यां विश्वामित्राय
    विश्वामित्रोद्दापयति शक्त्या आगच्छतु ।' अनेन मन्त्रेण नदीं प्रविश्य
    अष्टोत्तरशताम्बुभिस्तर्पयेत् । शत्रुणो मुखस्तम्भो भवति ।
    'ॐ नमो ब्रह्मवेसरि रक्ष रक्ष ठः ठः' । अनेन मन्त्रेण सप्त पाषाणान्
    गृहीत्वा त्रीन् कट्यां बद्ध्वा अपरे मुष्टिकाभ्यां धारणीयाः । चौराणां
    गतिस्तम्भो भवति ।
    नदी के जल में खड़े होकर 'ॐ नमो भगवते' से 'आगच्छतु' पर्यन्त के मन्त्र
    को १०८ बार जपते हुए इसी मन्त्र से १०८ बार तर्पण करे। इससे शत्रु का
    मुखस्तम्भन होता है ।
    अन्य प्रयोग से चोरों की गति स्तम्भित होती है। 'ॐ नमो ब्रह्मवेसरि' से
    ‘ठः ठः' पर्यन्त के मन्त्र को जपते हुए सात ढेले लेने चाहिए। इनमें से तीन को कमर में खोंसे तथा दो-दो ढेलों को दोनों मुट्ठी में बन्द करे ।
    अग्नि, मूषक, बाघ, राजा, चोर तथा शत्रु भय-निवारण


    अङ्गुली लक्ष्मणा पुंसी सर्पाक्षी शिखिमूलिका |
    विष्णुक्रान्ता जटा नीला पाठा श्वेतापराजिता ॥ १७ ॥
    पाटली सहदेवी च मूलश्व सहदेविका।
    पुष्यार्के तु समुद्धृत्य मुखे शिरसि संस्थिता ॥ १८ ।।
    एकैकं वारयत्येव शस्त्रसन्धारणो नृणाम् ।
    वह्नयाखुव्याघ्रभूपालचौरशत्रुभयं
    त्यजेत् ॥ १९ ॥



    अंकोल-फल, लक्ष्मणा ( सफेद कंटकारी, पुत्रदा ), कण्टकारी, सर्पाक्षी
    अपाङ्ग ( गाजर ) की जड़, काली अपराजिता, जटामांसी, नीली, पाठा, सफेद
    अपराजिता, पाटली और सहदेई ( पीली तथा श्वेत ) की जड़ ( इन सबकी
    जड़ ) को ऐसे रविवार को लाये जब पुष्य नक्षत्र हो । इन्हें मिलाकर मुख
    या मस्तक पर धारण करने से, प्रत्येक में शत्रु के शस्त्रस्तम्भन की शक्ति आ जाती है और अग्नि, मूषक, बाघ, राजा, चोर एवं शत्रु जनित भय का
    निवारण हो जाता है ।। १७-१९ ।।
    बाणस्तम्भन


    ऋक्षे श्वेतगुञ्जीयमूलन्तु चोत्तरभाद्रके ।
    उत्तराभिमुखं ग्राह्यं बाणस्तम्भकरं मुखे ॥ २० ॥


    उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में उत्तर की ओर मुख करके सफेद घुमची की जड़
    लाकर मुख में रखने पर विपक्ष के बाणों का स्तम्भन हो जाता है ॥ २० ॥
    शत्रुभय-निवारण

    मूलं शुक्लत्रयोदश्यां ग्राह्यं शिखरिकन्ययोः ।
    बलामूलं तथा ग्राह्यं पिष्ट्वा तद् गोलकीकृतम् ।
    धार्यं मूनि करे बाहौ सर्वशत्रुनिवारणम् ।। २१ ।।

    शुक्लपक्ष की त्रयोदशी को अपाङ्ग की जड़, घीकुँआर की जड़ तथा बला
    की जड़ को लाकर पीसे और उसकी गोली बनाये । इसे शिर अथवा बाहु
    में धारण करने से समस्त शत्रुभय का निवारण होता है ॥ २१ ॥संग्राम में



    शत्रु स्तम्भन करने का उपाय 




    गोजिह्वा हठली द्राक्षा वचा श्वेतापराजिता ।
    विष्णुक्रान्ता हरिकर्णी सुश्वेता कण्टकारिका ॥ २२ ॥
    मूलान्यादाय पुष्याक रम्भासूत्रेण वेष्टयेत् ।
    स्वहस्ते कङ्कणं धार्यं शत्रुस्तम्भकरं रणे ॥ २३ ॥


    गोजिह्वा नामक शाक, जलकुम्भी, द्राक्षा, वच, श्वेत अपराजिता, नीली
    अपराजिता, पलाश एवं श्वेत कण्टकारी की जड़ ऐसे रविवार को लाये,
    कि पुष्य नक्षत्र हो। इसे केले के पेड़ की छाल के सूत से बाँधकर बाहु में
    कंगन की तरह बाँधने से संग्राम में विजय मिलती है ।। २२-२३॥

    जबपाठा रुद्रा जटा वाथ श्वेता च शरपुङ्खिका ।
    श्वेतगुञ्जीयकं मूलं पुष्यार्के तु समुद्धृतम् |
    प्रत्येकं मुखमध्यस्थं रणेषु स्तम्भकृद् रिपोः ॥ २४ ॥

    पाठा, रुद्रा, ( रुद्रजटा ), जटामांसी, कण्टकारी, शंखपुष्पिका तथा सफेद  घुमची की जड़ को ऐसे रविवार को निकाले जब पुष्य नक्षत्र पड़ा हो ।
    इन्हें मुख में रखने से रण में ( शत्रु के लिए ) साधक भयंकर-सा हो जाता
    है ।। २४ ।।

    गम्भारीं चैव कुम्भीं च पुष्यार्के तु समुद्धरेत् ।
    मूलं तण्डुलतोयेन पिष्ट्वा पीत्वा दिनत्रयम् ।
    प्रत्येकं वारयत्येव शत्रुसङ्घ रणे ध्रुवम् ॥ २५ ॥

    पुष्य नक्षत्र में पड़े रविवार के दिन गम्भारी एवं कुम्भी की जड़ को
    लाकर चावल की माड़ में मलकर तीन दिन पीने से वह साधक रण में

    का स्तम्भन करने में निश्चित रूप से सफल होता है ॥ २५ ॥

    खड्गस्तम्भन एवं शत्रुबाधा निवारण
    केतकी मस्तके नेत्रे तालमूली मुखे स्थिता ।
    खर्जूरे चरणे हृत्स्थे खड्गस्तम्भः प्रजायते ॥ २६ ॥

    केतकी पौधे की जड़ को मस्तक एवं आँखों पर, तालमूली की जड़ मुख में
    तथा खजूर की जड़ पैर तथा वक्षःस्थल में धारण करने से शत्रु के खड्ग का
    स्तम्भन हो जाता है ।। २६ ।।

    एकत्र त्रीणि मूलानि चूर्णीकृत्य घृतैः पिबेत् ।
    प्रातः सायं ततः शत्रुर्यावज्जीवं न बाधते ।। २७ ।।

    श्लोक २६ में वर्णित तीनों जड़ों को एक साथ चूर्ण करके घृत में मिलाकर
    सुबह एवं रात्रि को पीने से आजीवन शत्रु की बाधा एवं शत्रुविघ्न का प्रकोप
    नहीं होता ।। २७ ।।

    शिरीषमूलं पुष्याकें ग्राहयेत् पेषयेज्जलैः ।
    अर्द्धाहारे कृते पश्चात् तज्जलं चार्द्धकं पिबेत् ॥ २८ ॥

    पुष्य नक्षत्र वाले रविवार को शिरीष वृक्ष की जड़ लाकर जल के साथ
    पीसे। आधा भोजन करने के पश्चात् इस पीसे हुए द्रव्य का आधा हिस्सा पी
    लेना चाहिए । तदनन्तर बचा भोजन समाप्त करके पुनः द्रव्य का आधा पी
    लेना होगा ॥ २८ ॥

    यावद्दिनानि तत् पीतं तावत् शस्त्रैर्न बाध्यते ।
    तन्मूले तु गले बद्धे खड्गैर्मंध्ये न छिद्यते ॥ २९ ॥

    जब तक साधक इस प्रकार से उस जल का पान करेगा तब तक उसे कोई
    शस्त्र पीड़ित नहीं कर सकेगा । यहाँ तक कि लाई गई उक्त जड़ को यदि
    बकरे के गले में बाँध दिया जाये तो उसे भी कोई खड्ग द्वारा छेदन नहीं कर
    सकेगा । ( पुष्य नक्षत्र युक्त रविवार को शिरीष की जड़ प्रचुर मात्रा में
    लाकर रखे और उसमें से नित्य एक-एक टुकड़ा लेकर पीसे और उक्त रीति
    से उसका पान करे ) ॥ २९ ॥

    पुंसीमूलञ्च पुष्यार्के वराटस्योदरे क्षिपेत् ।
    तं वराटं समानीय फलमध्ये विनिक्षिपेत् ।
    तत्फलं मुखमध्यस्थं शस्त्रस्तम्भकरं परम् ॥ ३० ॥

    पुष्य नक्षत्र जिस रविवार को पड़े, उस दिन मदार की जड़ उखाड़ कर
    एक छोटे तावीज में भरे । तदनन्तर इसे एक फल के भीतर भरे । इस
    फल को मुख में रखने से शत्रु का मुखस्तम्भन हो जाता है ॥ ३० ॥
    ग्रस्ते रवौ समुद्धृत्य शरपुवं समन्त्रकम् ।
    वक्त्रे यो धारयेन्मौनी शत्रुखड्गैर्न बाध्यते ॥ ३१ ।।
    सूर्यग्रहण के समय जो व्यक्ति मौन धारण करके उक्त मन्त्र को पढ़ते
    हुए सरसों के पोधे की जड़ को उखाड़ कर मौन अवस्था में ही मुख में रखता
    है, उसे शत्रु की तलवार या खड्ग से आहत होने का भय नहीं रह जाता ॥३१॥


    समूलपत्रं शाखां तु विष्णुक्रान्तां विचूर्णयेत् ।
    तैलपक्वं ततः कृत्वा तेनैवाङ्गानि मर्दयेत् ।
    खड्गादिसर्वशस्त्राणां भवेद् युद्धे निवारणम् ॥ ३२ ॥

    'ॐ नुरु रुरु चेतालि स्वाहा' ।

    काली ( नीली ) अपराजिता की जड़, पत्ते, शाखा तथा फूल आदि का
    चूर्ण करे। उसे तेल में पकाकर सर्वाङ्ग में मले। इससे वह युद्ध में
    आदि शस्त्र के भय से रहित हो जाता है । मन्त्र पूर्ववत् है ॥ ३२ ॥
    खड्ग


    कुकलासस्य वामाङ्घ्रि हरितालेन वेष्टयेत् ।
    ताम्रपत्रैः पुनर्वेष्ट्य मुखस्थं सर्वशत्रुजित् ॥ ३३ ॥


    'ॐ चामुण्डे भयहारिणि स्वाहा' ।
    गिरगिट के बायें पैर को लाकर उसे हरिताल द्वारा बाँधे । पुनः उसे ताँबे
    की महीन चादर के टुकड़े से लपेटे ( या ताँबें की तावीज में भरे ) । इसे
    मुख में रखने से समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है। प्रयोग में उक्त
    मन्त्र का १००८ जप करे ॥ ३३ ॥


    वज्रहेमाभ्रकं ताप्यं कान्तं सूतं समं समम् ।
    सद्यो जम्बीरजैद्रवेिदिनं खल्वे ततः पुनः ॥ ३४ ॥
    ब्रह्मवृक्षस्य बीजानि कार्पासास्थीनि राजिका ।
    वन्ध्या च जनयित्री च पिष्ट्वा तन्मध्यगं कुरु ॥ ३५ ॥
    पूर्वं यन्मदितं गोलं लघु सप्तपुटैः पचेत् ।
    ततो गजपुटं दद्यान्मुखं रुद्ध्वा धमेद्धठात् ॥ ३६ ॥
    तद् गोलं धारयेद् वक्त्रे शस्त्रस्तम्भकरो भवेत् ।
    हन्ति रोगं जरामृत्युं गुटिका सुरसुन्दरी ॥ ३७ ॥


    हीरा, सोना, अभ्रक, सोनामाखी प्रभृति रत्न, लोहा तथा पारा इन सब
    द्रव्यों को समान भाग में लेकर ताजे जम्बीरी नीबू के रस को खल में डालकर
    १ दिन तक मर्दन करके गोली बनाये । अब किसी ऐसी स्त्री से जिसे सन्तान कभी हुई ही न हो, अथवा ऐसी स्त्री से जिसका कोई बच्चा कभी मरा न हो, उदुम्बर के बीज, कपास के बीज तथा सरसों को समान मात्रा में पिसवा कर उस गोली के साथ मिलवाये । तदनन्तर अत्यन्त धीमी अग्नि में इसे सात बार पुटपाक में पकवाये । तदनन्तर तुरन्त आयुर्वेदोक्त रीति से गजपुट यन्त्र में इसे सात बार पुनः पकाना चाहिए । इस बटी को मुख में रखने से शत्रुओं का स्तम्भन हो जाता है । यह बटी देवताओं को भी प्रिय है। इससे समस्त रोग, असमय का बुढ़ापा तथा मृत्युभय का निवारण हो जाता है ॥ ३४-३७ ।।


    सर्वेषामुक्तयोगानां कुम्भकर्णः स्मरेद् यदि ।
    आयान्तं सम्मुखं शत्रुसमूहं सन्निवारयेत् ॥ ३८ ॥


    'ॐ अहो कुम्भकर्ण महाराक्षस निकषागर्भसम्भूत परसैन्यभञ्जन
    महारुद्र भगवन् रुद्र आज्ञा अग्नि स्तम्भय ठः ठः' ।
    इति श्रीसिद्धनागार्जुनविरचिते कक्षपुढे शत्रुस्तम्भनं नाम अष्टाविंशं पटलम्। औषध निर्माण काल में 'ॐ अहो' से लेकर 'ठः ठः' पर्यन्त मन्त्र को
    इससे यह योग सिद्ध हो जाता है । इसे धारण करने से
    सामने आये शत्रु भी भाग जाते हैं ॥ ३८ ॥
    १०००० बार जपे ।

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