महा काली साधना के कुछ नियम और गुप्त कथा || know about mahakali sadhana disciplines or hidden story

महा काली साधना के कुछ नियम और गुप्त कथा || know about mahakali sadhana disciplines or hidden story

महा काली साधना के कुछ नियम और गुप्त कथा


    किसी भी मन्त्र-तन्त्र की साधना से पूर्व निम्नलिखित निर्देशों को ध्यान में रखना आवश्यक है :- (९) मंत्र-तन्त्र का जप अंग-शुद्धि, सरलीकरण एवं विधि-विधान पुर्बक करना उचित है। आत्म-रक्षा के लिए सरलीकरण की आवश्यकता (२), किसी भी तन्त्र अथवा मन्त की साधना करते समय उक्त पर पूणं श्रद्धा रखना आवश्यक है, अन्यंथा वांछित फल प्राप्त नहीं 'होगा । (३) मन्त्रतन्त्र साघन के समय शरीर का स्वस्थ्य एवं पवित्र रहना आव-श्यक है। चित्त शान्त हो तथा मन में किसी प्रकार की ग्लानि न रहे। 

    (४ शुद्ध, हवादार, पवित्र एवं एकान्त-स्थान में ही मन्त्र साधना करनी चाहिए । मन्त्र-तन्त्र साधना की समाप्ति तक एक स्थान परिवतेन नहीं करना चाहीये । 

    (५) जिस मंत्र की जैसी -विधि वणित दै, उसी के अनुरूप सभी कमं करने बाहिए अन्यथा परिवर्तन करने से निघ्न-बाधाएँ उपस्थित हो सकती हैं तथा सिद्धी में भी सन्देह हो सकता है । 


    (६) जिस मन्त्र की जप संख्या आदि जितनि लिखी है उतनी ही संख्या में तप-हवन आदि करना चाहिए। इसी प्रकार जिस दिशा की ओर मुंह करके बैठना लिखा हो तथा जिस रंग के पुष्पो का विधान हो, उन सबका यथावतु पालन करना चाहिए । 


    (७) एक बार में एक ही तत्र की साधना करना उचित हैं। इसी प्रकार एक समय केवल एक हौ मनोभिलाषा की पूर्ति का उद्देश्य सम्मुख रहना चाहिए ।




    भगवती मां काली साधना 




    भगवती दुर्गा के बाद भगवती काली उपासना का ही हमारे देश मैं सर्वाधिक प्रचलन है । कलकत्ता में कालीघाट का मन्दिर जहाँ विश्व-प्रसिद्ध है, वहीं अन्य स्थानों पर भी भगवती काली के अनेकं प्रसिद्ध मन्दिर पाये जते है । काली- भक्तों तथा साधको कौ संख्या भी भपरमित है । भगवती काली के अनेक भेद हैं, उनमें दशमहाविद्यान्तरंत प्रथम महा विद्या भगवती आद्याकाली को साक्षात्‌ ब्रह्मस्वरूपा, अनादि और अनन्ता माया है वे ही परब्रह्म शिव की पराशक्ति ह दुर्गासप्तशती में जिन काली देवी की उत्पत्ति भगवती दुर्गा के मस्तक से बताई गई है, उन्हें भगवती आद्याकाली का अवतार कहा जा सकता है । 

     भगवती आद्या काली के रूपभेदो मे दक्षिणाकाली का स्वरूप फल- प्रद माना गया है । भगवती दक्षिणा काली के अनेक मन्त्र है! यदि श्रद्धा भक्ति करके कै मन्त्रो का साधन किया जाय तो साधक को चतुवेग की प्राप्ति होती हेअन्त मे भगवती का सामूज्य भी प्राप्त होता है । प्रस्तुत संकलन मे भगवती दक्षिणकाली के मन्व की साघन-विधि का शास्त्रीय एवं विस्तृत उल्लेख किया गया है साथ ही उनके अन्य रूपो गुह्यकालौ भद्रकाली, श्मशान काली एवं महाकाली के विविध मन्त्र तथा उनकी शाधन विधि का भी वर्णन किया गया है । 

    अन्त में, भगवती आद्याकाली से सम्बन्धित, कीलक, अर्गल, कवच, स्त्रोत सहस्राक्षरी, बीजाक्षरी, सतनाम तथा सहस्रनाम स्त्रोत आदि देकर संकलन को सर्वाद्धपूणं बनाने की चेष्टा की गई है ।



    काली' शब्द का अर्थ है--




    'काल' की: पत्नी ।' 'काल' शिवजी का नाम हैं, अतः शिव-पत्नी को ही काली' की संज्ञा से अभिहित किया गया दै । इन्हे आद्या काली' भी कहते है । 


    माकण्डेय पुराण के दुर्गा सप्तशती खण्ड मे भगवती अम्बिका के ललाट से' जिन काली की उत्पत्ति का वणन करिया गया है, भगवती आचा काली उनसे भिन्न ` है । भगवती अम्बिका के ललाट से उत्पन्न काली दुर्गा की श्रिमूतियों में से एक हैं । उनके ध्यान का स्वरूप भी आद्या काली के ध्यान से भिन्न है । 


    तंत्र शास्त्रों मे आद्या भगवती के दस भेद कहे गए है (१) काली, (२) तारा, (३) षोडशी, (४) मूवनेश्वरी, (५) भैरवी, (६) छिन्नमस्ता, (७) धूमावती, 

    (८) बगला, (९) मातंगी. एवं (१०) कमलात्मिका । इन्हें सम्मिलित रूप में दशमहाविद्या" के नाम से भी जाना जाता है । इनमें भगवती काली मुख्य हैं । भगवती काली के रूप-भेद असंख्य दै । तत्त्वतः सभी देवियां, योगिनि्यँ आदि भगवती की ही प्रतिरूपा है, तथापि इनके आठ भेद मुख्य माने जते हैं-- (१) चिन्तामणि काली, (२) स्पर्समणि काली, (३) सन्ततिप्रदा काली, (४) सिद्धि- काली (५) दक्षिणा काली, (६) कामकला काली, (७) हंस काली एवं (४) गुह्य काली । 'काली-क्रम-दीक्षा' में भगवती काली के इन्हीं आठ भेदों के मन्त्र दिए जाते हैं । इनके अतिरिक्त (१) भद्रकाली, (२) श्मशानकाली तथा (३) महाकाली- ` ये तीन भेद भी विशेष प्रसिद्ध हैँ तथा इनकी उपासना भी विशेष रूप से कीं. जाती है । दशमहाविद्याओं के मन्त्र जप ध्यान पूजन तथा प्रयोग की ` विधियां कवच, स्तोत्र सहखरनाम आदि पृथक हे । 


    भगवती कालिका के स्वरूपों में 'दक्षिणा काली' मुख्य हैं दक्षिणा कालिका आदि नामों से सम्बोधित किया जती है ।

    काली उपासको मे सर्वाधिक लोकप्रिय भी भगवती "दक्षिणा काली" ही हैं। उनके विविध मंत्र कौ साधन-विधियों का विस्तृत उल्लेख किया गया है । 


    गृह्मकाली, भद्रकाली, श्मशान काली तथा महाकाली--यें चारों स्वरूप भी प्रकारान्तर से भगवती दक्षिणा कालिका ही हे तथा इनके मन्तो का जप, न्यास, पूजन, ध्यान आदि भी प्रायः भगवती दक्षिणा काली की भाँति ही किया जाता है, अतः इन चारों के मन्त्र तथा ध्यानादिं के भेदों को भी इसमे समाविष्ट कर किया गया है ।

    भगवती काली को अनादिरूपा, आद्या विद्या, वृह्यस्वरूपिणी तथा कँवल्य दात्री भाना गया है । अन्य महाविद्या मोक्षदात्री कही गई हैं । 


    दशमहाविद्याओं मे मगवती षोडशी (जिन्हे 'त्रिपुर सुन्दरी" भी कहा जाता है), मुवनेश्वरी तथा छिन्नमस्गा रजोगुण प्रधाना एतं सतवगुणात्मिका है! अतः ये मोण रूप से मुक्तिदात्री हैँ । धूमावती, भेरवी, बगला, मातंगी तथा कमलात्मिका--ये सव देवियां तमो गुण युक्त प्रधाना है, अतः इनकी उपासना मुख्यतः षट्कर्म मे ही कौ जाती है। 



    शस्त्रो के अनुसार-



    'पञचशुन्ये स्थिता तारा सर्वान्ते कालिकास्थिता ' अर्थात्‌ पाचों तत्वों तक सत्वगुणात्मिका भगवती तारा की स्थिति हे तथा सवके अन्त मे भगवती काली स्थित है अर्थात्‌ भगवती काली आद्याशक्ति चिन्ताशक्ति के रूप भ विद्यमान्‌ रहती है । अस्तु, वह अनित्य, अनादि, अनन्तं एवं सव की. स्वामिनी है। वेदम भद्रकाली के रूपमे इन्हीं की स्तुति की गई है । हर जैसाकि बारम्बार कहा गया है, भगवती काली अजन्मा तथा निराकार है, तथापि भावुक भक्तजन अपनी भावनाओं तथा देवी के गुण कार्यों के अनुरूप उनके काल्पनिक साकार रूप की उपासना करते है । भगवती चकि अपने भक्तों पर स्नेह रखती हैं, उनका कल्याण करती हैं तथा उन्हें युक्ति-मुक्ति प्रदान करती है, अतः वे उनके हृदयाकाश मे अभिलषित रूपमे सरकार भी हो जाती है। इस प्रकार निराकार होते हए भी वे साकार है, अदृश्य होते हुए भी हृश्यमान हैं ।



    दक्षिणा काली



    “भगवती का नाम' दक्षिणा काली' क्यों है अथवा "दक्षिणा काली' शब्द का भावार्थ कया है ?--इस सम्बन्ध में शास्त्रों ने विभिन्न मत प्रस्तुत किए हैं, जो संक्षेप में इस प्रकार है हर 



    निर्वाण तन्त्र' के अनुसार-- 



    (१) दक्षिण दिशा में रहने वाला सुर्य-पुत्र 'यम' काली का नाम सुनते ही भयभीत होकर दूर भाग जाता है, अर्थात्‌ वह काली-उपासकों को नरक में नहीं ले जा धकता, इसीकारण भगवती को दक्षिणां कालीः कहते हैं । 



    अन्य मतानुसार 



    (२) जिस प्रकार किसी धार्मिक कर्मं की समाप्ति पर दक्षिणा फल की सिद्धि देने वाली होती दै, उसी प्रकार भगवती काली भी सभी कर्म-फलों की सिद्धि प्रदान करती है, इस कारण उनका नाम दक्षिणा है।

    (३) देवी वर देने में अत्यन्त चतुर हैं इसलिए उन्हें 'दक्षिणा' कहां जाता है ।

    (४) सर्वप्रथम दक्षिणामूर्ति भैरव ने इनकी आराधना की थी, अतः भगवती को "दक्षिणा काली" कहते है । | 

    (५) पुरुष को दक्षिण तथा शक्ति को “वामा' कहते है । वही वामा दक्षिण पर विजय प्राप्त कर्‌, महामोक्ष प्रदायिनी बनी, इसी कारण तीनों लोकों में उन्हे “दक्षिणा' कहा गया है । 



    भगवती की स्वरूप की भावार्थ



    भगवती काली के स्वरूप आदि से सम्बन्धित शब्दों का भावार्थ जाने बिना अथेका अनर्थ हो जाता है । अतः यहां कुछ प्रमुख शब्दों के भावार्थ प्रस्तुत किए जा रहे हैं । 

    देवी के बर्न 

     'महानिर्वाण' तन्त्र के अनुसार--“जिस प्रकार श्वेत, पीत आदि सभी रंग काले रंग समाहित हो जाते हैं, उसी प्रकार सब जीवों का लय काली में ही होता है, अतः कालशक्ति, नीर गुना , निराकार भगवती काली का वर्ण भी 'काल' ही निरुपित किया गया है। 


    कुछ तन्त्र मे भगवती का बर्न काला तथा 'लाल--दोनो ही बताये गए हैं, परन्तु साथ हीं यह भी स्पष्ट कर द्विया गया है कि भगवती ष्दक्षिणा कालीः का रंग काला तथा भगवती त्रिपुर सुन्दरी अर्थातु तारा का रंग लाल है । यथा “कालिका द्विविधा प्रोक्ता-कृष्णा रक्त प्रभेदतः । कुष्णातु दक्षिणा प्रोक्ता रक्तातु सुन्दरी मता इयंग नारायणी काली तारा स्यात्‌ शृन्यवाहिनी ॥ सुन्दरी र्त काली तत्‌ भैरवी नादिनी तथा ।। अस्तु, भगवती के दक्षिण काली अथवा भद्रकाली, गुहाकाली श्मशानकाली तथा महाकाली आदि रूपों के उपासक भक्तों को देवी के श्यामवर्णं" अथात्‌ काले रंग के शरीर की ही भावना करनी चाहिए ।

    निवास--

    भगवती काली को 'श्मशान वासिनी' कहा गया है । श्मशान का लौकिक अथं है-- जहाँ मृत प्राणियों के शरीर जलायें जाति हो ।' परन्तु देवी के निवास-स्थल के सग्वन्ध में 'मशान' शब्द का यह अथे लागू नहीं होता है । पंच महाभूतो का “चिद ब्रह्म में लय होता है. । भगवती आद्याकालीं 'चिदू- ब्रह्म स्वरूपा' है । अस्तु, जिस स्थान पर पंचमहाभूत लय हो, वही श्मशान है और वहीं भगवती का निवास है-यहू समझना चाहिए । संसारिक विषयों काम-क्रोध रागादि के भस्म होने का मुख्य स्थान "हृदय है जिस स्थान पर कोई वस्तु भस्म हो, वह स्थान 'शमशान' कहलाता है।, अत: काम क्रोध रागादि से रहित श्मशान रूपी हृदय में ही भगवती काली निवास करती है । अस्तु भक्तजनों को चाहिए के वे अपने हृदय में भगवती काली को स्थापित करने है. उसे शमशान" बनालं अर्थात्‌ सांसारिक राग-दोषादि से पूर्णतः रहित करलं । चिता में आग के प्रज्ज्वलित होने का तात्पर्य है--राग-द्वेषादि विकार-रहित हृदयरूपी श्मशान में ज्ञानाग्ति' का निरन्तर प्रज्ज्वलित बने रहना,  कंकाल अस्थि (हड्डी) तथा शवमुण्ड की ति का तात्पर्य है--शिवा, शव- ज आदि अपच्चीकृत महाभूत है तथा अस्थि-कङ्काल आदि उज्ज्वल वणं सत्व- गुण के बोधक है अर्थात्‌ हृदयरूपी ए्मशान मेँ अपञ्चीकृत महाभूत चिता, शवमुण्ड आदि के रूप में तथा अस्थि-कंकाल आदि सत्वगुण के रूप में उपस्थित हे रहते हैं ।



    आसन--



    'शिव' से जब शक्ति पृथक्‌ हो जाती है, तो वह शव' मातर रह जाता है अर्थात्‌ जिस प्रकार शिव का अन्य स्वरूप जीव-शरीर प्राण रूपौ शक्तिं के हट जाने पर मृत्यु को प्राप्त होकर शव' हो जाता है, उसी प्रकार उपासक जब अपनी प्राणशक्ति को .चितु शक्ति में समाहित कर देता है, तवं उसका पच्च- भौतिक शरीर शव की भाति निर्जीव हौ जाता है। उस स्थिति में भगवती आद्या शक्ति उसके ऊपर अपना आसन बनाती है अर्थात्‌ उस पर अपनी कृपा बरसाती हैं और उसे स्वयं में सन्निहित कर देता है। यही भगवती का/शवासन है और इसीलिए शव" को भगवती का आसन" कल्पित किया गया है ।  शशि शेधरः--भगवती के ललाट पर चन्द्रमा की स्थिति बताकर उन्हें “शशि शेखरा" कहा गया है, इसका भावार्थं यह है कि वे चिदानन्दमयी है तथा अमृतत्व रूपी चन्द्रमा को धारण किण हैँ अर्थात उनकी शरण में पहुँचने वाले साधक को अमृतत्व की उपलब्धि होती है । 



    मुक्त केशी कथा की अर्थ --



    'भगवती के बाल बिखरे हैं, इसका तात्पर्य है कि भगवती , केश-विन्यासादि विकारों से रहित त्रिगुणातीता हैं ।  प्रिनेत्रा--'भगवती के तीन नेत्र हैं यह कहने को आशय है कि सूये, चन्द्र तथा अग्नि ये तीनों ही भगवती केनेत्र रूप ह । दूसरे शब्दों मे भगवती तीनों  लोकों को, तीनों कालों को देख पाने में सक्षम हँ । 


    महाघोरा कथा की अर्थ -


    भगवती उच्चस्वर वाली है, इसका भावार्थ है भगवती कां नाम सुनते ही पाप-समुह उशी प्रकारः पलायन कर जाते हैं, जिस प्रकार सिंह की दहाड सुनकर वन के पशु दूर्‌ भाग जते है । 



    बालावतंक्षा कथा की अर्थ --



    भगवती अपने कानों मे बालकों के शव पहने हैँ । इस कथन -का अशय यह है कि वे पूर्वोक्त शवं तुल्य निविक्रार हदय वाले वाल-स्वभाव जैसे ` -मक्तो की ओर कान लगाये रखती दँ अर्थात्‌ उनकी प्रत्येक प्रार्थना को ध्यान से सुनती ह । शुककद्रयगलद्‌ रक्षत धारा--'भगवती के दोनों होठो के कोनो से रक्त की धारा वह्‌ रही है”-यह कहने का आशय है कि भगवती शुद्ध सत्वात्मिका हैँ गौर ` चे रजोगुण एवं तमोगुण को निःस्रित कर रही है ।


    प्रकटितरदना कथा की अर्थ --



    ' भगवती के दात बाहर की ओर निकलें हैं, जिनसे वे जीभ को दबाये हृए हे! इस कथन का आशय यह है कि भगवती तमोगुण एवं रजोगुण | रूपी जीभ को अपने सतोगुण रूपी उज्ज्वल दांतों से दवाये हुए हैं । 


    स्मितमुखी कथा की अर्थ  - 


    “भगवती के मुख पर मुस्कान बनी रहती है--ईसका तात्पयं “है कि वे नित्यानन्द स्वरूपा है । 



    पीनोन्नत पयोधरा कथा की अर्थ -



    “भगवती के स्तन बड़ तथा उन्नत हैं”--यह कहने का आशय है कि वे तीनों लोकों को आहार देकर उनका पालन करती है तथा . स्वभक्तों को अमरत्व अथवा मोक्षरूपी दुग्ध पान कराती हैं । ...... कैण्ठावसक्तमुण्डालीगलदुरुधिरचचिता--इस कथन का आशय है--मुण्ड- ` माला के पचास मुण्ड अर्थात्‌ पचास “मातृकावर्णों को धारण करने के कारण भगवती शब्द ब्रह्म स्वरूपा है । उस शब्द गुण से रजोगुण का टपकना अर्थात सृष्टि का उत्यन्न होना ही, रक्त स्राव है । भगवती उसी स्राव से आप्लाकित दै अर्थात्‌ निरन्तर नवीन सृष्टि करती रहती है । दिगम्बरा- भगवती दिगम्बरा है इसका आशय यह है कि वे मायारूपी आवरण ते आच्छादित नहीं है अर्थात्‌ उन माया अपनी लपेट में नहीं लें पाती । शवानांक . संघाते-कृतकाञ्चो-- “भगवती शवो के हाथ की करधनी पहने है--इस कथन का तात्पयं यह्‌ है कि कल्पान्त में सभी जीव स्थूल-शरीर त्यागकर सृक्ष्म शरीरके रूप मे (कल्पारम्भ पर्यन्त, जव तक कि उनका मोक्ष नहीं हो जाता) भगवती के कारण शरीर के संलग्न रहते है । शव की भुजाओं से आशय जीवों के कमं की प्रधानता का है। वे भुजां देवी के गृप्ताङ्ग को ढकि हुए है - इस कथन का आशय यह है किं नवीनकल्प के आरम्भ होने तक देवी द्वारा सृष्टि-निर्माण का कार्य स्थगिक बना रहता है ।


    वामहस्ते कृपाण कथा की अर्थ --

     

    देवी के ऊपर वाले बाँये हाथ में कृपाण है”-- इसका 

    आशय यह है कि भगवती हानिरूपी तलवार से मोहरूपी मायापाश को नष्ट करती है । तलवार के बाये हाथ में होने का तात्पये यह्‌ है कि भगवती वाम-मार्भं 


    अर्थात्‌ शिवजी (शिवजी का एक नाम "वामदेव" भी है) के बताये हृए मार्ग पर चलने वाले निष्काम भक्तों के अज्ञान को नष्ट कर, उन्हें मुक्ति प्रदान करती है। 



    छिननमृण्डं तथाधः--


    देवी के नीचे वाले बाए हाथ मे कटा हुए सिर है-- 

    यह्‌ कहने का तात्पयं है कि दवी अपने निचले बाँये हाथ में अर्थात्‌ वाम-मार्ग की निम्नतम माने जाने वाली क्रियाओं में भी, रजोगुण-रहित तत्वज्ञान के आधार मस्तक (शुद्धज्ञान) को धारण किये रहती हैं । 


    सब्येचाभोव॑ रजच कथा की अर्थ --


    'देवी के दाई ओर के हाथों में अभय तथा वर मुद्रा है - इस कधन का तात्पयं है कि देवी दक्षिण मार्गी सकाम-साधकों को अभयः (निर्भयता) तथा "वर' (मनोभिलाषाओं की पूर्ति) प्रदान करती है । 



    महाकाल सुरता कथा की अर्थ  -- 


    देवी महाकाल के साय सुरत (सहवास) मे संलग्न हैं अर्थात्‌ भगवता महाकाल को शक्ति प्रदान करती हैं। जब वे निर्गुणा होती है तो महाकाल उन्हीं मे सन्निविष्ट हो जाता है ओर जब सद गुणा होती हैं तो महा- काल से मुक्त रहते हैं । अस्तु, वे स्थिति-क्रम में महाकाल के साथ “सुरता' एवं सृष्टिक्रम में 'विपरीत रता' रहती हैं ।

    नित्य यौवनवती देवी नित्य यौवनवती है-- यह कहने का आशय है कि भगवती में अवस्था सम्बन्धी कोई परिवर्तन नहीं होता । वे नित्य चितु स्वरूपा युवती जैसी वनी रहती है ।


    करालवदना कथा की अर्थ -- 



    इसका तात्पयं है कि भगवती के विराट्‌ स्वरूप को देखकर दुष्टजन भयभीत हो जाते है । 

    अन्य शब्दों के भावार्थ 


    मातृ योनि कथा की अर्थ --


    इसका अर्थ-मूलाधार स्थित त्रिकोण जयमाला के सुमेरु को भी “मातृ योनि' कहा जाता है । 


    लिङ्ग कथा की अर्थ 


     इसका अथं है - जीवात्मा । 



    भगिनी कथा की अर्थ  -



    कूण्डलिनी' को जीवात्मा की भगिनी कहा गया हे । 

    योनि सुमेरु' के अतिरिक्त माला के अन्य दानो की योनि" कटा जाता है । 



    मद्यपान कथा की अर्थ -



    इसका आशय है- कुण्डलिनी - को जगाकर ऊपर उठाए तथा षट्‌ चक्र का भेदनं करते हए सहस्रार में ले जाकर, शिवशक्ति की समरसता के आनन्दामृत का बारम्बार पान करना । कुण्डलिनी को मुलाघार चक्र अर्थात पृथ्वी तत्व से. उठाकर सहस्त्र में. ले जाने से जिस आनन्द रूपी अमृत की उपलब्धि होती है, वहीं 'मद्दोपान' है और ऐसे अमृत रूपी मद्य का पान करने से पुनर्जन्म नहीं होता ।

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