बगलामुखी साधना का रहस्य
तांत्रिकों का जो शाक्त सम्प्रदाय रहा है, उस शाक्त सम्प्रदाय से संबंधित विभिन्न तांत्रिक ग्रंथों जैसे मुण्डमाला तंत्र, रुद्रयामल तंत्र, कुलार्णवतंत्र, ब्रह्मयामल तंत्र, शाक्त प्रमोद, शारदा तिलक, प्राणतोषिणी, कुब्जिका तंत्र आदि में आद्य शक्ति के दस रूपों का बहुत विस्तार से वर्णन हुआ है। तांत्रिकों की यह दस शक्तियां दस महाविद्याओं के रूप में विख्यात हैं। तांत्रिकों की यह दस महाविद्याएं समस्त प्रकार के भौतिक सुखों, भोगों एवं
ऐश्वर्य को प्रदान करने वाली हैं। इतना ही नहीं, यह अपनी साधनाओं से साधकों को मुक्ति लाभ भी प्रदान करने वाली हैं। इन दस महाविद्याओं की साधनाओं के माध्यम से सैंकड़ों तांत्रिक परम तत्व को उपलब्ध होते रहे हैं। इनमें महर्षि वशिष्ठ, विश्वामित्र, परशुराम, नारद से लेकर ऋषि पुलस्त्य, रावण, आचार्य द्रोण, भीष्म पितामह, अश्वस्थामा, युधिष्ठिर, कर्ण, विक्रमादित्य, रामकृष्ण परमहंस, माँ आनन्दमयी, महातांत्रिक जिज्ञासानन्द, अघोरी कृष्णानन्द, उडिया बाबा आदि सभी इन महाविद्याओं के साधक रहे हैं। महर्षि परशुराम को तो शाक्त मत का प्रथम आचार्य ही माना जाता है। तंत्रशास्त्र से संबंधित जो सैंकड़ों ग्रंथ उपलब्ध होते हैं, उनमें इन दस महाविद्याओं से संबंधित विभिन्न तरह की साधना विधियां और विभिन्न तरह के अनुष्ठानों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इसी प्रकार तांत्रिक सम्प्रदाय से संबंधित जो अलग-अलग वर्ग रहे हैं, उनमें दस महाविद्याओं से संबंधित साधनाओं की अलग-अलग तरह की पद्धतियां प्रचलित रही हैं। इनमें वामाचार पद्धति, कौल पद्धति, अघोर प्रक्रियायें तथा दक्षिण मार्ग से संबंधित वैदिक पद्धतियां कुछ विशेष हैं। यद्यपि कुछ शताब्दी पहले तक दस महाविद्याओं की साधनाओं के लिये वामाचार पद्धतियां ही अधिक प्रचलित थी, लेकिन अब इन पद्धतियों के बहुत कम साधक रह गये हैं। वर्तमान समय में इन महाविद्याओं की कृपा पाने के लिये वैदिक पद्धतियां ही प्रचलित हैं। तंत्र साधनाओं और तांत्रिक अनुष्ठानों को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिये वैदिक क्रियाकर्म ही अब अधिक प्रचलित हो गया है। ऐसी शुद्ध साधनाओं के माध्यम से महाविद्याओं की शीघ्र अनुकंपा प्राप्त हो जाती है।
बगला महाविद्या का रहस्य :
तंत्र शास्त्र से संबंधित मुण्डमाला तंत्र, चामुण्डा तंत्र, अग्नि पुराण, मेरूतंत्र, सांख्यायन तंत्र जैसे ग्रंथों में आद्य जगत जननी के रूप में जिस 'बगला महाविद्या' का उल्लेख हुआ है, उसे समस्त चराचर जगत की आद्य शक्ति के रूप में स्वीकार करते हुये समस्त भोगों को प्रदान करने वाली और मृत्यु उपरान्त मोक्ष प्रदाता गया है। अपने बगला रूप में यह महाविद्या अपने साधकों के समस्त कष्टों, दुःख-दर्द का हरण करके समस्त प्रकार के सुख एवं ऐश्वर्य वाली हैं। यह शत्रुओं पर सदैव अजेयता प्रदान करती हैं, साथ ही साधकों की समस्त मनोकामनायें भी पूरी करती हैं। तंत्र में माँ बगला का उल्लेख संहारक शक्ति के रूप में हुआ है, क्योंकि यह महाविद्या पूजा-अर्चना से शीघ्र ही प्रसन्न होकर अपने साधकों के समस्त कष्टों, बाधाओं, विपदाओं का संहार कर देती हैं। इनकी साधना से साधक के शत्रुओं का शीघ्र ही दमन हो जाता है तथा साधकों को स्तंभन शक्ति प्राप्त हो जाती है। ऐसी स्तंभन शक्ति के सामने कोई भी विरोधी, साधक के सामने ठहर नहीं पाता। ऐसे साधक युद्ध भूमि से लेकर साहित्य के क्षेत्र और तर्क-वितर्क वाली वार्ताओं में सदैव अजेय रहते हैं। उनकी वाक्शक्ति के सामने, उनके तर्कों को काटने की शक्ति उनके प्रतिरोधियों के पास नहीं रहती । शत्रु ऐसे व्यक्तियों
के सामने शीघ्र ही अपनी हार मान लेते हैं । बगलामुखी साधना का उल्लेख तांत्रिक ग्रंथों में ही नहीं, बल्कि इतिहास के पृष्ठों पर भी पढ़ने-देखने को मिलता है। विभिन्न ग्रंथों में ऐसे उल्लेख मिले हैं कि चाणक्य ने चन्द्रगुप्त
को कामाख्या में बगलामुखी का तांत्रिक अनुष्ठान सम्पन्न कराया था और माहमाई बगला के वरदहस्त से ही वह अपने शत्रुओं को समाप्त करके विशाल साम्राज्य स्थापित करने में सफल हो पाये थे। चन्द्रगुप्त के अतिरिक्त विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त, राज राजेन्द्र चोल भी युद्ध भूमि में जाने से पहले माँ बगला का 'शत्रुदमन' नामक विशेष तांत्रिक अनुष्ठान सम्पन्न करवाते थे। माँ बगला के प्रभाव से ही वह अपने शत्रुओं पर अनेक बार अद्वितीय सफलताएं प्राप्त करने में सफल रहे थे । यह हम सभी स्वीकार करते हैं कि जीवन में सहज शांति संभव नहीं है। अनायास ही जीवन में कई तरह की विघ्न-बाधाएं खड़ी होती रहती हैं और अनेक तरह के शत्रु उत्पन्न होते रहते हैं। यह विघ्न-बाधाएं जीवन में असंतुलन उत्पन्न कर देती हैं। जीवन में विघ्न बाधाएं उत्पन्न न हों, शत्रुओं के समस्त प्रयास
के सामने शीघ्र ही अपनी हार मान लेते हैं । बगलामुखी साधना का उल्लेख तांत्रिक ग्रंथों में ही नहीं, बल्कि इतिहास के पृष्ठों पर भी पढ़ने-देखने को मिलता है। विभिन्न ग्रंथों में ऐसे उल्लेख मिले हैं कि चाणक्य ने चन्द्रगुप्त
को कामाख्या में बगलामुखी का तांत्रिक अनुष्ठान सम्पन्न कराया था और माहमाई बगला के वरदहस्त से ही वह अपने शत्रुओं को समाप्त करके विशाल साम्राज्य स्थापित करने में सफल हो पाये थे। चन्द्रगुप्त के अतिरिक्त विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त, राज राजेन्द्र चोल भी युद्ध भूमि में जाने से पहले माँ बगला का 'शत्रुदमन' नामक विशेष तांत्रिक अनुष्ठान सम्पन्न करवाते थे। माँ बगला के प्रभाव से ही वह अपने शत्रुओं पर अनेक बार अद्वितीय सफलताएं प्राप्त करने में सफल रहे थे । यह हम सभी स्वीकार करते हैं कि जीवन में सहज शांति संभव नहीं है। अनायास ही जीवन में कई तरह की विघ्न-बाधाएं खड़ी होती रहती हैं और अनेक तरह के शत्रु उत्पन्न होते रहते हैं। यह विघ्न-बाधाएं जीवन में असंतुलन उत्पन्न कर देती हैं। जीवन में विघ्न बाधाएं उत्पन्न न हों, शत्रुओं के समस्त प्रयास
निरन्तर असफल होते रहे, शत्रु स्वतः
ही निस्तेज हो जाए, इन सबके लिये प्राचीन समय से ही बगला अनुष्ठान सम्पन्न करने का प्रचलन रहा है । इनके अलावा भी माँ बगलामुखी के कई तरह के अनुष्ठान प्रयोग देवी प्रकोपों, जैसे अनायास घर-परिवार, समाज पर मुसीबतों का पहाड़ सा टूट पड़ना, पारिवारिक सदस्यों की एक के बाद एक मृत्यु होते जाना, निरन्तर दुर्घटनाओं का शिकार बनते रहना, अनायास
व्यापार आदि में घाटा होने लग जाना, धोखा देकर भाग जाना, पारिवारिक सदस्यों के मध्य एकाएक वैमनस्य की भावना का बलवती होना आदि अनेक विषम परिस्थितियों की शांति के लिये भी बगला के तांत्रिक उपायों एवं अनुष्ठानों की मदद लेनी पड़ती है। माँ बगला के अनुष्ठानों के प्रभाव से धन-धान्य की प्राप्ति भी सहज ढंग से होने लग जाती है। साधक की आर्थिक स्थिति में तेजी से सुधार आने लगता है। डूबा हुआ उधार का पैसा वापिस
मिल जाता है। माँ बगला का सबसे प्रमुख प्रभाव अभिचार कर्मों की शांति के दौरान अथवा शत्रुजन्य पीड़ाओं के दौरान देखने को मिलता है। व्यक्ति के ऊपर चाहे तंत्र क्रिया का प्रयोग किया गया हो अथवा शत्रु ने कृत्या से आघात करवाया हो, व्यक्ति के ऊपर कोई भी मारण, उच्चाटन, विद्वेषण जैसा कोई भी कर्म कराया गया हो, माँ बगला के विशिष्ट अनुष्ठान के द्वारा वे तत्काल प्रभावहीन एवं नष्ट हो जाते हैं। व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति में शीघ्र बदलाव देखने को मिलता है। माँ की अनुकंपा मात्र से साधक के शत्रु शीघ्र ही क्षमायाचना करने लग जाते हैं। माँ की प्रसन्नता के प्रभाव से घर-परिवार में अनावश्यक रूप में उत्पन्न हुई वैर-भाव की भावना दूर हो जाती है। माँ बगला की कृपा से टूटते हुये परिवार और तलाक की स्थिति तक पहुंच चुके पति-पत्नी के सम्बन्ध फिर से प्रेम, अपनत्व और जिम्मेदारी के भाव से भरते चले जाते हैं। मुकदमेबाजी तक में माँ का चमत्कार देखने को मिलता है। माँ के विशिष्ट तांत्रिक अनुष्ठान से हारे हुये मुकदमों से विजयश्री मिलते हुये देखी गयी है। माँ की विशेष अनुकंपा से राजनैतिक द्वन्द्व में भी निश्चित विजय प्राप्त होते देखी गयी है ।
यह निश्चित रूप से माना जा सकता है कि आज के दौर में महामाई बगलामुखी की साधना, उपासनाएं करना सबसे अधिक अनुकूल सिद्ध होता है। आज समाज जिस तीव्र गति से विकास की ऊंचाई पर चढ़ता जा रहा है, उसी तीव्र गति से विभिन्न प्रकार की बाधाएं, परेशानियां, बीमारियां समाज में बढ़ती जा रही हैं। देखा जाये तो सम्पूर्ण जीवनचक्र ही विविध प्रकार की बाधाओं, अड़चनों, परेशानियों के बोझ तले दब सा गया है। पग-पग पर कठिनाइयों और परेशानियों से सामना होने लगा है। इसलिये कभी स्वास्थ्य संबंधी समस्या तो कभी आर्थिक समस्या, कभी परिवार संबंधी समस्यायें तो कभी संतान की शिक्षा-दीक्षा संबंधी परेशानियां आड़े आती रहती हैं । खर्चे बढ़ते जा रहे हैं, लेकिन लोगों की आमदनी में पर्याप्त वृद्धि नहीं हो रही है। अगर किसी नये काम में हाथ डाला जाता है तो वह कार्य ठीक से सिरे नहीं चढ़ता । निरन्तर नये कामों में असफलता का मुंह देखने को मिलता है। पारिवारिक कलह ने पति-पत्नी, पिता-पुत्र, भाई-भाई के मध्य गहरी खाइयां बनानी शुरू कर दी है। पुत्र अपने सोच-विचार से चलना चाहता है, पुत्रवधु अपने हिसाब से घर की व्यवस्था करना चाहती है और माँ-बाप अपने आदर्शों से परिवार का संचालन करने की चाहत रखते हैं। हर समय अकाल मृत्यु और अनचाहे संकट की आशंका बनी रहने लगी है
निरन्तर कई तरह के पूजा-पाठ करते रहने. जगह-जगह संत-महात्माओं, पंडितों, ज्योतिषियों आदि के पास अनेक चक्कर काटने पर भी शांति नहीं मिल पा रही है। हर समय एक अज्ञात, अकारण भय लोगों के मन पर सवार रहता है । इसलिये व्यक्ति इधर-उधर भाग कर एक निश्चित समाधान पाना चाहता है, एक सुनिश्चित, स्थायी शांति की तलाश में भटकता है। अन्ततः अनुभवों से यही निष्कर्ष निकलता है कि सभी तरह की परेशानियों तथा सभी तरह के दु:खों से स्थायी रूप में मुक्ति केवलमात्र आद्यशक्ति की शरण में जाने से ही प्राप्त हो सकती है। आद्य जगतजननी के सानिध्य में ही परम शांति की राह प्राप्त हो सकती है । परम पिता परमात्मा पर पूर्ण आस्था एवं विश्वास रखने वाले लगभग समस्त साधकों, सभी संत-पुरुषों, विशेषकर शाक्त उपासकों, औघड़ों, कपालिकों तक ने एक मत से स्वीकार किया है कि जब तक बगलामुखी की अनुकंपा प्राप्त नहीं हो जाती, जब तक उनकी तांत्रिक साधनाएं पूर्ण रूप से सम्पन्न नहीं कर ली जाती, तब तक जीवन में पूर्णता का समावेश नहीं हो सकता । जीवन में सब कुछ रहने के बावजूद जब एक रिक्तता बनी रहती है, तब तक जीवन नीरस और उत्साहीन ही बना रहेगा। इसलिये तंत्र पथ के समस्त सिद्ध साधकों ने एक मत से बगला को पूर्णता के साथ स्वयं में आत्मसात करने की वकालत निरन्तर की है। सभी का एकमत से यह विचार रहा है कि एकमात्र बगलामुखी देवी ही जीवन में पूर्णता प्रदान कर सकती है। अनेक सिद्ध साधकों ने एक मत से माना है कि व्यक्ति गृहस्थाश्रम में रहे अथवा आध्यात्मिक पथ का अनुसरण करे, जीवन की समस्त चुनौतियों का मुकाबला केवल महाविद्या बगला साधना के माध्यम से ही कर सकता है। इन्हीं के वरदान से वह जीवन की समस्त चुनौतियों पर विजयश्री और जीवन में शाश्वत आनन्द की झलक प्राप्त कर सकता है। जिन लोगों ने तंत्र के पथ को स्वीकार कर लिया है और जो तंत्र साधना के उच्च शिखर तक पहुंचना चाहते हैं, तंत्र की दिव्य अनुभूतियां या साक्षात्कार करना चाहते हैं, उन सभी लोगों के लिये बगला साधना करना अत्यन्त आवश्यक है । इसी महाविद्या की साधना से वह साधक तंत्र के अभौतिक संसार में प्रवेश के अधिकारी बन पाते हैं।
व्यापार आदि में घाटा होने लग जाना, धोखा देकर भाग जाना, पारिवारिक सदस्यों के मध्य एकाएक वैमनस्य की भावना का बलवती होना आदि अनेक विषम परिस्थितियों की शांति के लिये भी बगला के तांत्रिक उपायों एवं अनुष्ठानों की मदद लेनी पड़ती है। माँ बगला के अनुष्ठानों के प्रभाव से धन-धान्य की प्राप्ति भी सहज ढंग से होने लग जाती है। साधक की आर्थिक स्थिति में तेजी से सुधार आने लगता है। डूबा हुआ उधार का पैसा वापिस
मिल जाता है। माँ बगला का सबसे प्रमुख प्रभाव अभिचार कर्मों की शांति के दौरान अथवा शत्रुजन्य पीड़ाओं के दौरान देखने को मिलता है। व्यक्ति के ऊपर चाहे तंत्र क्रिया का प्रयोग किया गया हो अथवा शत्रु ने कृत्या से आघात करवाया हो, व्यक्ति के ऊपर कोई भी मारण, उच्चाटन, विद्वेषण जैसा कोई भी कर्म कराया गया हो, माँ बगला के विशिष्ट अनुष्ठान के द्वारा वे तत्काल प्रभावहीन एवं नष्ट हो जाते हैं। व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति में शीघ्र बदलाव देखने को मिलता है। माँ की अनुकंपा मात्र से साधक के शत्रु शीघ्र ही क्षमायाचना करने लग जाते हैं। माँ की प्रसन्नता के प्रभाव से घर-परिवार में अनावश्यक रूप में उत्पन्न हुई वैर-भाव की भावना दूर हो जाती है। माँ बगला की कृपा से टूटते हुये परिवार और तलाक की स्थिति तक पहुंच चुके पति-पत्नी के सम्बन्ध फिर से प्रेम, अपनत्व और जिम्मेदारी के भाव से भरते चले जाते हैं। मुकदमेबाजी तक में माँ का चमत्कार देखने को मिलता है। माँ के विशिष्ट तांत्रिक अनुष्ठान से हारे हुये मुकदमों से विजयश्री मिलते हुये देखी गयी है। माँ की विशेष अनुकंपा से राजनैतिक द्वन्द्व में भी निश्चित विजय प्राप्त होते देखी गयी है ।
यह निश्चित रूप से माना जा सकता है कि आज के दौर में महामाई बगलामुखी की साधना, उपासनाएं करना सबसे अधिक अनुकूल सिद्ध होता है। आज समाज जिस तीव्र गति से विकास की ऊंचाई पर चढ़ता जा रहा है, उसी तीव्र गति से विभिन्न प्रकार की बाधाएं, परेशानियां, बीमारियां समाज में बढ़ती जा रही हैं। देखा जाये तो सम्पूर्ण जीवनचक्र ही विविध प्रकार की बाधाओं, अड़चनों, परेशानियों के बोझ तले दब सा गया है। पग-पग पर कठिनाइयों और परेशानियों से सामना होने लगा है। इसलिये कभी स्वास्थ्य संबंधी समस्या तो कभी आर्थिक समस्या, कभी परिवार संबंधी समस्यायें तो कभी संतान की शिक्षा-दीक्षा संबंधी परेशानियां आड़े आती रहती हैं । खर्चे बढ़ते जा रहे हैं, लेकिन लोगों की आमदनी में पर्याप्त वृद्धि नहीं हो रही है। अगर किसी नये काम में हाथ डाला जाता है तो वह कार्य ठीक से सिरे नहीं चढ़ता । निरन्तर नये कामों में असफलता का मुंह देखने को मिलता है। पारिवारिक कलह ने पति-पत्नी, पिता-पुत्र, भाई-भाई के मध्य गहरी खाइयां बनानी शुरू कर दी है। पुत्र अपने सोच-विचार से चलना चाहता है, पुत्रवधु अपने हिसाब से घर की व्यवस्था करना चाहती है और माँ-बाप अपने आदर्शों से परिवार का संचालन करने की चाहत रखते हैं। हर समय अकाल मृत्यु और अनचाहे संकट की आशंका बनी रहने लगी है
निरन्तर कई तरह के पूजा-पाठ करते रहने. जगह-जगह संत-महात्माओं, पंडितों, ज्योतिषियों आदि के पास अनेक चक्कर काटने पर भी शांति नहीं मिल पा रही है। हर समय एक अज्ञात, अकारण भय लोगों के मन पर सवार रहता है । इसलिये व्यक्ति इधर-उधर भाग कर एक निश्चित समाधान पाना चाहता है, एक सुनिश्चित, स्थायी शांति की तलाश में भटकता है। अन्ततः अनुभवों से यही निष्कर्ष निकलता है कि सभी तरह की परेशानियों तथा सभी तरह के दु:खों से स्थायी रूप में मुक्ति केवलमात्र आद्यशक्ति की शरण में जाने से ही प्राप्त हो सकती है। आद्य जगतजननी के सानिध्य में ही परम शांति की राह प्राप्त हो सकती है । परम पिता परमात्मा पर पूर्ण आस्था एवं विश्वास रखने वाले लगभग समस्त साधकों, सभी संत-पुरुषों, विशेषकर शाक्त उपासकों, औघड़ों, कपालिकों तक ने एक मत से स्वीकार किया है कि जब तक बगलामुखी की अनुकंपा प्राप्त नहीं हो जाती, जब तक उनकी तांत्रिक साधनाएं पूर्ण रूप से सम्पन्न नहीं कर ली जाती, तब तक जीवन में पूर्णता का समावेश नहीं हो सकता । जीवन में सब कुछ रहने के बावजूद जब एक रिक्तता बनी रहती है, तब तक जीवन नीरस और उत्साहीन ही बना रहेगा। इसलिये तंत्र पथ के समस्त सिद्ध साधकों ने एक मत से बगला को पूर्णता के साथ स्वयं में आत्मसात करने की वकालत निरन्तर की है। सभी का एकमत से यह विचार रहा है कि एकमात्र बगलामुखी देवी ही जीवन में पूर्णता प्रदान कर सकती है। अनेक सिद्ध साधकों ने एक मत से माना है कि व्यक्ति गृहस्थाश्रम में रहे अथवा आध्यात्मिक पथ का अनुसरण करे, जीवन की समस्त चुनौतियों का मुकाबला केवल महाविद्या बगला साधना के माध्यम से ही कर सकता है। इन्हीं के वरदान से वह जीवन की समस्त चुनौतियों पर विजयश्री और जीवन में शाश्वत आनन्द की झलक प्राप्त कर सकता है। जिन लोगों ने तंत्र के पथ को स्वीकार कर लिया है और जो तंत्र साधना के उच्च शिखर तक पहुंचना चाहते हैं, तंत्र की दिव्य अनुभूतियां या साक्षात्कार करना चाहते हैं, उन सभी लोगों के लिये बगला साधना करना अत्यन्त आवश्यक है । इसी महाविद्या की साधना से वह साधक तंत्र के अभौतिक संसार में प्रवेश के अधिकारी बन पाते हैं।
बगलामुखी का वैदिक अभिप्राय :
बहुत से लोग बगला महाविद्या को तामसिक रूप में स्वीकार करते हैं, लेकिन उनका ऐसा सोचना ठीक नहीं है, क्योंकि माँ बगला वैष्णवी शक्ति है और उनमें त्रिशक्ति का समावेश है। इसलिये बगलामुखी साधना से साधक शीघ्र ही भय से मुक्त हो जाते हैं। उनके शत्रु उन्हें किसी तरह की हानि पहुंचाने की बात सोच नहीं पाते। धन का अभाव भी ऐसे व्यक्तियों को कभी परेशान नहीं करता । बल बुद्धि के मामले में ऐसे साधक श्रेष्ठ सिद्ध होते हैं। उनकी वाक् शक्ति के सामने कोई अन्य टिक नहीं पाता। इसलिये तंत्र शास्त्रों में कहा गया है-
शिव भूमि युंतुं शक्तिनाद बिंदु समन्वितम् ।
बीजं रक्षामम् प्रोक्तं मुनिभिर्बत्स् वादिभिः ।
इसी प्रकार बगलामुखी शब्द को लेकर भी आम लोगों में एक भ्रम बना हुआ है। साधारण लोग माँ के ‘बगला' नाम का अर्थ पक्षी विशेष के मुख के रूप में लगाते हैं, परन्तु उनका ऐसा सोचना उचित नहीं है। संस्कृत में वल्गा कृत्या विशेष को कहा जाता है, जिसके माध्यम से अभिचार कर्म सम्पन्न किये जाते हैं । इसी प्रकार 'मुख' शब्द का अर्थ निकलना होता है। इस प्रकार बगलामुखी शब्द का पूर्ण अभिप्रायः होता है, जो शक्ति शत्रुकृत अभिचार कर्म को नष्ट करे, वह बगलामुखी है ।
पौराणिक ग्रंथों में ऐसे सैंकड़ों उल्लेख प्राप्त होते हैं जिनके अनुसार देवता लोग अपने शत्रुओं को समाप्त करने के लिये कृत्या के द्वारा सूक्ष्म और गुप्त प्रहार किया करते थे | तंत्र ग्रंथों में माँ के ऐसे अनेक स्वरूपों का बार-बार वर्णन होता रहा है ।
इसी प्रकार बगलामुखी शब्द को लेकर भी आम लोगों में एक भ्रम बना हुआ है। साधारण लोग माँ के ‘बगला' नाम का अर्थ पक्षी विशेष के मुख के रूप में लगाते हैं, परन्तु उनका ऐसा सोचना उचित नहीं है। संस्कृत में वल्गा कृत्या विशेष को कहा जाता है, जिसके माध्यम से अभिचार कर्म सम्पन्न किये जाते हैं । इसी प्रकार 'मुख' शब्द का अर्थ निकलना होता है। इस प्रकार बगलामुखी शब्द का पूर्ण अभिप्रायः होता है, जो शक्ति शत्रुकृत अभिचार कर्म को नष्ट करे, वह बगलामुखी है ।
पौराणिक ग्रंथों में ऐसे सैंकड़ों उल्लेख प्राप्त होते हैं जिनके अनुसार देवता लोग अपने शत्रुओं को समाप्त करने के लिये कृत्या के द्वारा सूक्ष्म और गुप्त प्रहार किया करते थे | तंत्र ग्रंथों में माँ के ऐसे अनेक स्वरूपों का बार-बार वर्णन होता रहा है ।
यथा-
जिह्वाग्रभादाय करेण देवीं वामेन शत्रून परिपीड़यन्तीम् ।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन पीताम्बराढयां द्विभुजां नमामि ॥
अर्थात् शत्रु के हृदय पटल पर जो आरूढ़ है, जिनके बायें हाथ में वज्र है, जो शत्रु जिह्वा को खींचकर दायें हाथ से गदा का प्रहार करने वाली है, जो पीताम्बर स्वरूप धारण किये हुये हैं और जो द्विभुजाधारी है अर्थात् जो दोनों रूपों, वाममार्ग एवं दक्षिणमार्ग से पूजित किये जाने पर शीघ्र प्रसन्न होती है, ऐसी बगलादेवी को मैं नमस्कार करता हूं ।
इसी प्रकार एक अन्य श्लोक निम्न प्रकार है-
मध्ये सुधाब्धि मणि मण्डप रत्न वेदी,
सिंहासनोपरि गतां परिपोत वर्णाम् ।
पीताम्बरामरण माल्य विभूषिताङ्गी
देवीं नमामि घृत्तमुद्गा वैरिजिह्वाम् ॥
अर्थात् सुधा समुद्र के मध्य अवस्थित मणि मण्डप पर अन्न देवी है, उस पर रत्न सिंहासन पर पीत वर्ण के वस्त्र और पीत वर्ण के आभूषण माल्य से विभूषित अंगों वाली बल्गा है। देवी के एक हस्त में शत्रु जिह्वा है और दूसरे हाथ में मुद्गर । उस पीत वस्त्रधारी बल्गा देवी को मैं नमस्कार करता हूं।
यद्यपि तंत्रशास्त्र से संबंधित जो संख्यायन तंत्र, मेरू तंत्र जैसे श्रेष्ठ ग्रंथ हैं, उनमें इनके चतुर्भुजधारी स्वरूप का भी वर्णन हुआ है। इसी चतुर्भजधारी स्वरूप का ध्यान ही तंत्र के सभी साधक और तांत्रिक लोग करते आ रहे हैं। माँ के इस चतुर्भुज रूप से माँ की अनन्त शक्ति का पूरा पता चल जाता है । इस चतुर्भुजधारी रूप में उनके प्रत्येक हाथ में क्रमशः मुद्गर, पास, वज्र एवं शत्रु जिह्वा दिखाई जाती है। माँ भक्त की पुकार से उसके शत्रुओं कीजीभ को कीलन कर देती है। ऐसे साधक से कोई भी विद्वान शास्त्रार्द्ध में विजयी नहीं हो सकता। मुकदमे आदि में इसलिये माँ का अनुष्ठान निश्चित विजयश्री दिलाता है। माँ बगला से संबंधित जो स्तोत्र, कवच, सहस्त्रनाम आदि हैं, उनके पाठ मात्र से भी विभिन्न प्रकार कौं बाधाएं, शत्रु क्रियायें, अभिसार संबंधी प्रयोग आदि तत्काल शांत हो जाते हैं।
जिह्वाग्रभादाय करेण देवीं वामेन शत्रून परिपीड़यन्तीम् ।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन पीताम्बराढयां द्विभुजां नमामि ॥
अर्थात् शत्रु के हृदय पटल पर जो आरूढ़ है, जिनके बायें हाथ में वज्र है, जो शत्रु जिह्वा को खींचकर दायें हाथ से गदा का प्रहार करने वाली है, जो पीताम्बर स्वरूप धारण किये हुये हैं और जो द्विभुजाधारी है अर्थात् जो दोनों रूपों, वाममार्ग एवं दक्षिणमार्ग से पूजित किये जाने पर शीघ्र प्रसन्न होती है, ऐसी बगलादेवी को मैं नमस्कार करता हूं ।
इसी प्रकार एक अन्य श्लोक निम्न प्रकार है-
मध्ये सुधाब्धि मणि मण्डप रत्न वेदी,
सिंहासनोपरि गतां परिपोत वर्णाम् ।
पीताम्बरामरण माल्य विभूषिताङ्गी
देवीं नमामि घृत्तमुद्गा वैरिजिह्वाम् ॥
अर्थात् सुधा समुद्र के मध्य अवस्थित मणि मण्डप पर अन्न देवी है, उस पर रत्न सिंहासन पर पीत वर्ण के वस्त्र और पीत वर्ण के आभूषण माल्य से विभूषित अंगों वाली बल्गा है। देवी के एक हस्त में शत्रु जिह्वा है और दूसरे हाथ में मुद्गर । उस पीत वस्त्रधारी बल्गा देवी को मैं नमस्कार करता हूं।
यद्यपि तंत्रशास्त्र से संबंधित जो संख्यायन तंत्र, मेरू तंत्र जैसे श्रेष्ठ ग्रंथ हैं, उनमें इनके चतुर्भुजधारी स्वरूप का भी वर्णन हुआ है। इसी चतुर्भजधारी स्वरूप का ध्यान ही तंत्र के सभी साधक और तांत्रिक लोग करते आ रहे हैं। माँ के इस चतुर्भुज रूप से माँ की अनन्त शक्ति का पूरा पता चल जाता है । इस चतुर्भुजधारी रूप में उनके प्रत्येक हाथ में क्रमशः मुद्गर, पास, वज्र एवं शत्रु जिह्वा दिखाई जाती है। माँ भक्त की पुकार से उसके शत्रुओं कीजीभ को कीलन कर देती है। ऐसे साधक से कोई भी विद्वान शास्त्रार्द्ध में विजयी नहीं हो सकता। मुकदमे आदि में इसलिये माँ का अनुष्ठान निश्चित विजयश्री दिलाता है। माँ बगला से संबंधित जो स्तोत्र, कवच, सहस्त्रनाम आदि हैं, उनके पाठ मात्र से भी विभिन्न प्रकार कौं बाधाएं, शत्रु क्रियायें, अभिसार संबंधी प्रयोग आदि तत्काल शांत हो जाते हैं।
माँ बगला के सिद्ध पीठ :
वैसे तो जिस स्थान पर बैठकर तांत्रिक साधनाएं सम्पन्न की जाती हैं, वह स्थान ही चेतना सम्पन्न हो जाता है, फिर भी ऐसे सैंकड़ों साधना स्थान हैं जहां बैठकर अनेक साधकों ने सफलतापूर्वक साधनाएं सम्पन्न की हैं। यह साधना स्थल अन्य स्थानों की अपेक्षा कुछ अधिक ही चेतना सम्पन्न हैं। इन स्थानों पर बैठकर अगर किसी तरह की
तांत्रिक साधनाएं सम्पन्न की जाती हैं, तो उनमें साधकों को निश्चित सफलता प्राप्त होती है । तंत्र ग्रंथों में ऐसे स्थानों को सिद्ध पीठ के नाम से जाना जाता है। माँ बगलामुखी देवी के भी ऐसे अनेक सिद्ध स्थान हैं, इनमें तंत्र साधना के पांच स्थान बहुत ही प्रमुख रहे हैं। पूरे भारत में माँ बगला के पांच सिद्ध पीठ मान गये हैं। इन सिद्ध पीठों पर महामाई स्वयं विद्यमान रहती हैं। अपनी शरण में आने वाले अपने भक्तों पर अपनी कृपा दृष्टि की वर्षा अवश्य करती है । इन शक्ति पीठों का तांत्रिक क्रियाओं के लिये और भी विशेष महत्त्व देखा जाता है। इसलिये इन शक्तिपीठों पर सदैव तांत्रिकों और शाक्त उपासकों की भीड़ जुटी रहती है और तांत्रिकों को विभिन्न प्रकार की क्रियायें करते हुये देखा जा सकता है। कुछ विशेष अवसरों जैसे अश्विन मास और चैत्र मास के नवरात्रों के दौरान यहां लाखों की भीड़ जुट जाती है। इनके अलावा प्रत्येक वर्ष दो और ऐसे अवसर आते हैं जिन पर दूर-दूर से तांत्रिक और अघोरी आदि वहां आकर एकत्रित होते हैं। यहां वे कई प्रकार के तांत्रिक अनुष्ठान और तंत्रक्रियायें सम्पन्न करते हैं। तांत्रिकों में साधना के लिये सुनिश्चित किये गये इन दिनों को गुप्त नवरात्रों के नाम से जाना जाता है। हमारे देश में बगला महाविद्या का एक सिद्धपीठ हिमाचल प्रदेश में ज्वाला जी, दूसरा मध्यप्रदेश में सतना के पास मैहर में, तीसरा उज्जैन में महाकाल भैरव के पास क्षिप्रा तट पर, चौथा झांसी के पास दतिया में और पांचवां तांत्रिक सिद्धपीठ उत्तरकाशी में बडकोट नामक स्थान पर मंदाकिनी के किनारे स्थित है। वैसे बगलामुखी का एक सिद्धपीठ नेपाल में भी काठमाण्डू के पास बाग्मती नदी के तट पर स्थित है। इस स्थान पर नेपाल की अधिष्ठात्री देवी 'भगवती गुह्येश्वरी' विराजमान है। यह सिद्ध स्थल श्री पशुपतिनाथ मंदिर के पास बाग्मती के गुह्येश्वरी घाट पर स्थित । यह नेपाल राज्य की इष्टदेवी है । नवरात्रों के अवसरों पर यहां विशेष पूजा-अर्चना की प्रथा है । इन अवसरों पर सामान्य व्यक्ति माँ का आशीर्वाद लेने आता है।हिमाचल प्रदेश के ज्वाला जी में माँ बगला अपने ज्वाला रूप में प्रतिष्ठित है। माँ का यह रूप अनंतकाल से इसी रूप में प्रज्ज्वलित चला आ रहा है। माँ की इन अखण्ड ज्वालाओं को समाप्त करने के लिये समय-समय पर अनेक लोगों ने कई तरह के प्रयास किये, लेकिन माँ की शक्ति के सामने वह सभी नतमस्तक होकर रह गये । ज्वाला जी के इसी सिद्ध पीठ पर बैठकर गुरु गोरखनाथ ने अपनी आराध्य माँ का साक्षात्कार प्राप्त किया था और अपनी तंत्र साधना को सम्पूर्णता प्रदान की थी । गोरख डिब्बी और गोरख पीठ के रूप में गुरु गोरखनाथ के प्रतीक अवशेष अब भी माँ के दरबार में देखे जा सकते हैं । माँ बगला के इस सिद्ध पीठ की इतनी महिमा है कि जो भी माँ का भक्त सच्चे मन, पूर्ण श्रद्धा एवं समर्पण भाव से आकर माँ के समाने अपने कष्टों को रख देता है, माँ अपने उस भक्त की पुकार को अवश्य ही स्वीकार कर लेती है। इसलिये आज के समय भी माँ के दरबार में भक्तों की लम्बी-लम्बी कतारें लगी रहती हैं। नवरात्रों के दौरान माँ की एक झलक पाने के लिये भी घंटों लाइन में खड़ा रहकर प्रतीक्षा करनी पड़ती है
नवरात्रों के दिनों में यहां तांत्रिक अनुष्ठानों को सम्पन्न कराने वालों की होड़ सी लगी रहती है। ऐसा अनुष्ठान सम्पन्न कराने के लिये कई-कई महीनों पहले समय लेना और प्रबन्ध कराना पड़ता है। इन दिनों यहां दूर-दूर के राज्यों और विदेशों तक से श्रद्धालु आकर, जिनमें काफी अधिक संख्या में प्रख्यात राजनेताओं, उद्योगपतियों, व्यापारियों से लेकर खिलाड़ी तक सम्मिलित रहते हैं, विभिन्न तरह की इच्छाओं के लिये अनुष्ठान सम्पन्न कराते हुये देखे जा सकते हैं। अनेक राजनीतिज्ञ चुनावों में अपनी विजय सुनिश्चित करने, मंत्रीपद पाने अथवा अपनी गद्दी को बचाये रखने के लिये गुप्त रूप से भी ऐसे तांत्रिक अनुष्ठान सम्पन्न कराते रहते हैं। बगला महाविद्या का दूसरा सिद्ध पीठ मध्यप्रदेश में सतना के पास पहाड़ी पर स्थित है । वह मैहर शक्ति पीठ के नाम से जाना जाता है । यह शक्तिपीठ एक पहाड़ी पर स्थित है। यह 5000 वर्ष से भी अधिक प्राचीन है। ऐसे प्रमाण हैं कि इस शक्ति पीठ पर अपने दो भाइयों, भीम और अर्जुन के साथ बैठकर युधिष्ठर ने महामाई बगला से शत्रुदमन करने का आशीर्वाद प्राप्त किया था। अगले जन्म में युधिष्ठिर आल्हा रूप में जन्म लेकर महामाई की इतनी पूजा-अर्चना की कि महामाई को अपने भक्त को चिंरजीवी होने का वरदान देना पड़ा। आज भी महामाई की प्रथम पूजा का अधिकार आल्हा के लिये ही
निर्धारित है। इसके पश्चात् ही पुजारी माँ की आरती - वंदना आदि करते हैं और सामान्य भक्तगणों को भगवती के दर्शन होते हैं। मैहर स्थित इस सिद्धपीठ में माँ बगला अपने 'शारदा' रूप में प्रतिष्ठित है। इन देवी शारदा को संगीत और विद्या की देवी सरस्वती के रूप में भी जाना जाता है । महोवा का यह सिद्ध क्षेत्र तांत्रिकों के लिये विशेष आकर्षण का केन्द्र बिन्दू रहा है। इस सिद्धपीठ के आसपास स्थित अनेक गुफाओं में अब भी अनेक तंत्र साधकों को शाक्त उपासना में संलग्न देखा जा सकता है। इन साधकों में से अनेक तो ऐसे सिद्ध पुरुष हैं, जिन्होंने स्वयं कुछ विशेष अवसरों पर सिद्धपीठ के अन्दर माँ को साक्षात प्रकट होते देखा है। ऐसी भी मान्यता है कि कुछ साधकों को अब भी वर्ष में दो बार किन्हीं विशेष अवसरों पर आल्हा
के साथ माँ शारदा की पूजा-अर्चना करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। तंत्र साधना के लिये यह उपयुक्त स्थान है। माँ के विग्रह के सामने बैठकर माँ के मंत्र का जाप करने और उनके स्तोत्र का पूर्ण तन्मयता के साथ पाठ करते ही एक अद्भुत आनन्द की प्राप्ति होने लगती है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे साधक की पुकार को माँ स्वयं साक्षात भाव से सुन रही है । मैहर का सिद्ध पीठ अद्भुत चेतना सम्पन्न है। बगला महाविद्या का तीसरा सिद्धपीठ उज्जैन में स्थित है। उज्जैन सम्राट विक्रमादित्य के समय से ही शाक्त उपासकों एवं शिव साधकों का सबसे उपयुक्त केन्द्र रहा है। यहां का महाकालेश्वर शिवलिंग द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इसी महाकालेश्वर मंदिर से थोड़ी दूर पर ही रुद्रसागर के आसपास महाराज विक्रमादित्य की कुलदेवी 'हर सिद्ध माता' के रूप में माँ बगलामुखी विराजमान है। माँ के इस शक्तिपीठ ने उज्जैन के इस क्षिप्रा के तट को अद्भुत बना दिया है। इस शक्तिपीठ पर लगभग प्रत्येक दिन सैंकड़ों की
संख्या में माँ के भक्त अपने दुःख-दर्द लेकर आते हैं और माँ से अभय कृपादान लेकर वापिस लौट जाते हैं । इस शक्तिपीठ के संबंध में सदैव से अनेक प्रकार की चमत्कारिक घटनाएं सुनने को मिलती हैं । सम्राट विक्रमादित्य पर माँ सिद्ध माता की विशेष अनुपकंपा थी । माँ के वरदहस्त के प्रताप से ही उनके सामने कोई महारथी न तो युद्धभूमि में ठहर पाया और न ही विद्वता, तर्क-वितर्क, साहित्य एवं कला, काव्य रचना के क्षेत्र में मुकाबला कर पाया। सम्राट विक्रमादित्य भारतीय इतिहास में एक ऐसे अजेय महापुरुष के रूप में जाने जाते हैं जिन्होंने अपने राज्य, शासन, युद्धभूमि, ललित कलाओं, न्याय, साहित्य, विद्या इत्यादि समस्त क्षेत्रों में अद्भुत कीर्तिमान स्थापित किये । यह सब महामाई की अद्भुत कृपा का प्रसाद ही रहा है। विक्रमादित्य के कुल पुरोहित और अन्य तंत्र उपासक माँ के तांत्रिक अनुष्ठानों में निरन्तर लगे रहते थे । स्वयं सम्राट विक्रमादित्य ने भी माँ के सामने बैठकर कई अनुष्ठान सम्पन्न किये थे। ऐसे पौराणिक उल्लेख भी मिलते हैं कि माँ के इस पीठ पर सर्वप्रथम तांत्रिक अनुष्ठान सनत्कारों के द्वारा किया गया था । वास्तव में यह एक अद्भुत
तांत्रिक साधनाएं सम्पन्न की जाती हैं, तो उनमें साधकों को निश्चित सफलता प्राप्त होती है । तंत्र ग्रंथों में ऐसे स्थानों को सिद्ध पीठ के नाम से जाना जाता है। माँ बगलामुखी देवी के भी ऐसे अनेक सिद्ध स्थान हैं, इनमें तंत्र साधना के पांच स्थान बहुत ही प्रमुख रहे हैं। पूरे भारत में माँ बगला के पांच सिद्ध पीठ मान गये हैं। इन सिद्ध पीठों पर महामाई स्वयं विद्यमान रहती हैं। अपनी शरण में आने वाले अपने भक्तों पर अपनी कृपा दृष्टि की वर्षा अवश्य करती है । इन शक्ति पीठों का तांत्रिक क्रियाओं के लिये और भी विशेष महत्त्व देखा जाता है। इसलिये इन शक्तिपीठों पर सदैव तांत्रिकों और शाक्त उपासकों की भीड़ जुटी रहती है और तांत्रिकों को विभिन्न प्रकार की क्रियायें करते हुये देखा जा सकता है। कुछ विशेष अवसरों जैसे अश्विन मास और चैत्र मास के नवरात्रों के दौरान यहां लाखों की भीड़ जुट जाती है। इनके अलावा प्रत्येक वर्ष दो और ऐसे अवसर आते हैं जिन पर दूर-दूर से तांत्रिक और अघोरी आदि वहां आकर एकत्रित होते हैं। यहां वे कई प्रकार के तांत्रिक अनुष्ठान और तंत्रक्रियायें सम्पन्न करते हैं। तांत्रिकों में साधना के लिये सुनिश्चित किये गये इन दिनों को गुप्त नवरात्रों के नाम से जाना जाता है। हमारे देश में बगला महाविद्या का एक सिद्धपीठ हिमाचल प्रदेश में ज्वाला जी, दूसरा मध्यप्रदेश में सतना के पास मैहर में, तीसरा उज्जैन में महाकाल भैरव के पास क्षिप्रा तट पर, चौथा झांसी के पास दतिया में और पांचवां तांत्रिक सिद्धपीठ उत्तरकाशी में बडकोट नामक स्थान पर मंदाकिनी के किनारे स्थित है। वैसे बगलामुखी का एक सिद्धपीठ नेपाल में भी काठमाण्डू के पास बाग्मती नदी के तट पर स्थित है। इस स्थान पर नेपाल की अधिष्ठात्री देवी 'भगवती गुह्येश्वरी' विराजमान है। यह सिद्ध स्थल श्री पशुपतिनाथ मंदिर के पास बाग्मती के गुह्येश्वरी घाट पर स्थित । यह नेपाल राज्य की इष्टदेवी है । नवरात्रों के अवसरों पर यहां विशेष पूजा-अर्चना की प्रथा है । इन अवसरों पर सामान्य व्यक्ति माँ का आशीर्वाद लेने आता है।हिमाचल प्रदेश के ज्वाला जी में माँ बगला अपने ज्वाला रूप में प्रतिष्ठित है। माँ का यह रूप अनंतकाल से इसी रूप में प्रज्ज्वलित चला आ रहा है। माँ की इन अखण्ड ज्वालाओं को समाप्त करने के लिये समय-समय पर अनेक लोगों ने कई तरह के प्रयास किये, लेकिन माँ की शक्ति के सामने वह सभी नतमस्तक होकर रह गये । ज्वाला जी के इसी सिद्ध पीठ पर बैठकर गुरु गोरखनाथ ने अपनी आराध्य माँ का साक्षात्कार प्राप्त किया था और अपनी तंत्र साधना को सम्पूर्णता प्रदान की थी । गोरख डिब्बी और गोरख पीठ के रूप में गुरु गोरखनाथ के प्रतीक अवशेष अब भी माँ के दरबार में देखे जा सकते हैं । माँ बगला के इस सिद्ध पीठ की इतनी महिमा है कि जो भी माँ का भक्त सच्चे मन, पूर्ण श्रद्धा एवं समर्पण भाव से आकर माँ के समाने अपने कष्टों को रख देता है, माँ अपने उस भक्त की पुकार को अवश्य ही स्वीकार कर लेती है। इसलिये आज के समय भी माँ के दरबार में भक्तों की लम्बी-लम्बी कतारें लगी रहती हैं। नवरात्रों के दौरान माँ की एक झलक पाने के लिये भी घंटों लाइन में खड़ा रहकर प्रतीक्षा करनी पड़ती है
नवरात्रों के दिनों में यहां तांत्रिक अनुष्ठानों को सम्पन्न कराने वालों की होड़ सी लगी रहती है। ऐसा अनुष्ठान सम्पन्न कराने के लिये कई-कई महीनों पहले समय लेना और प्रबन्ध कराना पड़ता है। इन दिनों यहां दूर-दूर के राज्यों और विदेशों तक से श्रद्धालु आकर, जिनमें काफी अधिक संख्या में प्रख्यात राजनेताओं, उद्योगपतियों, व्यापारियों से लेकर खिलाड़ी तक सम्मिलित रहते हैं, विभिन्न तरह की इच्छाओं के लिये अनुष्ठान सम्पन्न कराते हुये देखे जा सकते हैं। अनेक राजनीतिज्ञ चुनावों में अपनी विजय सुनिश्चित करने, मंत्रीपद पाने अथवा अपनी गद्दी को बचाये रखने के लिये गुप्त रूप से भी ऐसे तांत्रिक अनुष्ठान सम्पन्न कराते रहते हैं। बगला महाविद्या का दूसरा सिद्ध पीठ मध्यप्रदेश में सतना के पास पहाड़ी पर स्थित है । वह मैहर शक्ति पीठ के नाम से जाना जाता है । यह शक्तिपीठ एक पहाड़ी पर स्थित है। यह 5000 वर्ष से भी अधिक प्राचीन है। ऐसे प्रमाण हैं कि इस शक्ति पीठ पर अपने दो भाइयों, भीम और अर्जुन के साथ बैठकर युधिष्ठर ने महामाई बगला से शत्रुदमन करने का आशीर्वाद प्राप्त किया था। अगले जन्म में युधिष्ठिर आल्हा रूप में जन्म लेकर महामाई की इतनी पूजा-अर्चना की कि महामाई को अपने भक्त को चिंरजीवी होने का वरदान देना पड़ा। आज भी महामाई की प्रथम पूजा का अधिकार आल्हा के लिये ही
निर्धारित है। इसके पश्चात् ही पुजारी माँ की आरती - वंदना आदि करते हैं और सामान्य भक्तगणों को भगवती के दर्शन होते हैं। मैहर स्थित इस सिद्धपीठ में माँ बगला अपने 'शारदा' रूप में प्रतिष्ठित है। इन देवी शारदा को संगीत और विद्या की देवी सरस्वती के रूप में भी जाना जाता है । महोवा का यह सिद्ध क्षेत्र तांत्रिकों के लिये विशेष आकर्षण का केन्द्र बिन्दू रहा है। इस सिद्धपीठ के आसपास स्थित अनेक गुफाओं में अब भी अनेक तंत्र साधकों को शाक्त उपासना में संलग्न देखा जा सकता है। इन साधकों में से अनेक तो ऐसे सिद्ध पुरुष हैं, जिन्होंने स्वयं कुछ विशेष अवसरों पर सिद्धपीठ के अन्दर माँ को साक्षात प्रकट होते देखा है। ऐसी भी मान्यता है कि कुछ साधकों को अब भी वर्ष में दो बार किन्हीं विशेष अवसरों पर आल्हा
के साथ माँ शारदा की पूजा-अर्चना करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। तंत्र साधना के लिये यह उपयुक्त स्थान है। माँ के विग्रह के सामने बैठकर माँ के मंत्र का जाप करने और उनके स्तोत्र का पूर्ण तन्मयता के साथ पाठ करते ही एक अद्भुत आनन्द की प्राप्ति होने लगती है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे साधक की पुकार को माँ स्वयं साक्षात भाव से सुन रही है । मैहर का सिद्ध पीठ अद्भुत चेतना सम्पन्न है। बगला महाविद्या का तीसरा सिद्धपीठ उज्जैन में स्थित है। उज्जैन सम्राट विक्रमादित्य के समय से ही शाक्त उपासकों एवं शिव साधकों का सबसे उपयुक्त केन्द्र रहा है। यहां का महाकालेश्वर शिवलिंग द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इसी महाकालेश्वर मंदिर से थोड़ी दूर पर ही रुद्रसागर के आसपास महाराज विक्रमादित्य की कुलदेवी 'हर सिद्ध माता' के रूप में माँ बगलामुखी विराजमान है। माँ के इस शक्तिपीठ ने उज्जैन के इस क्षिप्रा के तट को अद्भुत बना दिया है। इस शक्तिपीठ पर लगभग प्रत्येक दिन सैंकड़ों की
संख्या में माँ के भक्त अपने दुःख-दर्द लेकर आते हैं और माँ से अभय कृपादान लेकर वापिस लौट जाते हैं । इस शक्तिपीठ के संबंध में सदैव से अनेक प्रकार की चमत्कारिक घटनाएं सुनने को मिलती हैं । सम्राट विक्रमादित्य पर माँ सिद्ध माता की विशेष अनुपकंपा थी । माँ के वरदहस्त के प्रताप से ही उनके सामने कोई महारथी न तो युद्धभूमि में ठहर पाया और न ही विद्वता, तर्क-वितर्क, साहित्य एवं कला, काव्य रचना के क्षेत्र में मुकाबला कर पाया। सम्राट विक्रमादित्य भारतीय इतिहास में एक ऐसे अजेय महापुरुष के रूप में जाने जाते हैं जिन्होंने अपने राज्य, शासन, युद्धभूमि, ललित कलाओं, न्याय, साहित्य, विद्या इत्यादि समस्त क्षेत्रों में अद्भुत कीर्तिमान स्थापित किये । यह सब महामाई की अद्भुत कृपा का प्रसाद ही रहा है। विक्रमादित्य के कुल पुरोहित और अन्य तंत्र उपासक माँ के तांत्रिक अनुष्ठानों में निरन्तर लगे रहते थे । स्वयं सम्राट विक्रमादित्य ने भी माँ के सामने बैठकर कई अनुष्ठान सम्पन्न किये थे। ऐसे पौराणिक उल्लेख भी मिलते हैं कि माँ के इस पीठ पर सर्वप्रथम तांत्रिक अनुष्ठान सनत्कारों के द्वारा किया गया था । वास्तव में यह एक अद्भुत
एवं प्रभावपूर्ण क्षेत्र है जहां बैठकर तांत्रिक अनुष्ठान सम्पन्न करने से निश्चित ही मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है ।
महामाई बगला का एक अन्य चौथा तांत्रिक सिद्धपीठ झांसी-ग्वालियर मार्ग पर दतिया नामक स्थान पर स्थित है। यह पीताम्बरा सिद्ध पीठ के नाम से प्रसिद्ध है। यह शक्तिपीठ अधिक पुराना नहीं है लेकिन इस शक्तिपीठ की मान्यता और शक्ति अद्भुत है। यह महामाई की अद्भुत महिमा ही है कि थोड़ी सी अवधि में ही इस नवीन शक्तिपीठ की सर्वत्र ख्याति फैल चुकी है।
माँ पीताम्बरा पीठ के रूप में इस शक्तिपीठ की स्थापना बैरूआ बाबा नामक एक सिद्ध संत ने 1960 के दशक में की थी। बैरूआ बाबा स्वामी के नाम से जाने जाते थे। दतिया में स्वामी जी लगभग 40 वर्ष तक साधनारत् रहे। शुरू में स्वामी जी पंचपकस नामक पहाड़ी पर आकर रहे। वहां आकर उन्होंने तारा महाविद्या की स्थापना की । वह सिद्धस्थल अब भी पूर्ण रूप से एकान्त में वैसा ही बना हुआ है। कभी-कभी कोई शाक्त उपासक वहां आकर उपासना कर लेता है। स्वामी जी द्वारा स्थापित माँ बगला ( पीताम्बरा) और धूमावती देवी का यह सिद्धपीठ अद्भुत ऊर्जा और चेतना सम्पन्न है। माँ के इस विग्रह के सामने नतमस्तक होते ही साधक के शरीर में कम्पनों का प्रवाह शुरू हो जाता है। यह माँ की विशेष अनुकंपा ही है कि जो भी व्यक्ति जिस किसी कामना के साथ माँ के दरवाजे पर आकर माँ का अनुष्ठान सम्पन्न करा लेता है, उस पर माँ की करुणा की वर्षा अवश्य होती है।
बगला महाविद्या का एक और सिद्धपीठ उत्तरकाशी के आगे बड़कोट के पास मंदाकिनी के तट पर स्थित है। यह बगला सिद्धपीठ के नाम से जाना जाता है । यह सिद्धपीठ बहुत अद्भुत है । यह महामाई का गुप्त सिद्धपीठ है तथा तंत्र साधकों के द्वारा अपनी साधनाओं के निमित्त ही काम आता है। एक समय यह सिद्धपीठ शाक्त उपासकों का प्रमुख केन्द्र हुआ करता था। अब भी इस सिद्धपीठ के आसपास अनेक तांत्रिकों को तंत्र साधनाएं करते हुये देखा जा सकता है। इसी सिद्ध स्थान से कुछ दूरी पर ही अभी कुछ समय पहले प्रसिद्ध योगी महामण्डेश्वर पायलेट बाबा ने भी एक आश्रम का निर्माण
करवाया है। पायलेट बाबा का यह आश्रम कायाकल्प केन्द्र के नाम से जाना जाता है । यहां देश-विदेश से योग के जिज्ञासु सैंकड़ों लोग योग सीखने आते हैं।
बगला महाविद्या का साधना विधान :
माँ बगला की साधना के अनेक विधान रहे हैं, जिनमें शाक्त उपासकों की तंत्र साधना, औघड़ों की अघोर विद्या, कपालिकों की वीर तंत्र प्रक्रिया और नाथ योगियों की सिद्ध साधना आदि कुछ प्रमुख है। गोरखनाथ और अन्य कई शाक्त उपासकों ने माँ बगला के पांच प्रकार के मंत्र भेद बताये हैं। माँ बगला के इन विशिष्ट मंत्रों और रूपों की विशिष्ट तांत्रिक अनुष्ठान सम्पन्न करके अनेक प्रकार के मनोवांछित फलों की सहज ही प्राप्ति की
जा सकती है। विभिन्न तंत्र ग्रंथों में माँ से संबंधित इन रूपों का बहुत विस्तार से वर्णन हुआ है। माँ बगलामुखी के यह पांच रूप हैं- षडमामुखी, उल्कामुखी, जानत वेदमुखी, ज्वालामुखी, वृहद भानुमुखी । माँ बगलामुखी के यह सभी रूप अद्भुत, प्रभावशाली और चैतन्य सम्पन्न हैं । अन्य महाविद्याओं और साधनाओं की तरह ही बगला महाविद्या की साधना के भी कई विधान हैं। इनमें सबसे प्रथम और मुख्य विधान यह है कि माँ की पराशक्ति को ही पूर्ण रूप से स्वयं में आत्मसात किया जाये और उनकी परम सिद्धि प्राप्त की जाये। तांत्रिक साधनाओं में जिस सिद्धि शब्द का प्रयोग बहुतायत से होता रहा है, उसका मुख्य उद्देश्य सर्वव्यापिनी आद्यशक्ति को स्वयं में आत्मसात करना है। इसमें धीरे-धीरे स्वयं साधक ही शक्ति का एक अभिन्न अंग बनता चला जाता है । यह साधना की सर्वोच्च भाव स्थिति होती है, लेकिन इस स्थिति तक पहुंचना न तो हर किसी के लिये संभव होता है और न हर किसी की साधना का यह मुख्य उद्देश्य होता है। ऐसी परम स्थिति प्राप्त करने के लिये समय की कोई सीमा नहीं होती। साधना की ऐसी स्थिति प्राप्त करने के बाद साधक का आशीर्वाद मात्र ही उनके भक्तों के लिये पर्याप्त होता है। माँ बगलामुखी की प्रसन्नता एवं उनकी करुणा पाने के लिये उनके विविध तरह के अनुष्ठान सम्पन्न किये जाते हैं। माँ की आद्यशक्ति को पूर्णता के साथ स्वयं में आत्मसात
करने के लिये उनकी तांत्रिक साधनाएं भी की जाती हैं। तांत्रिक लोग विभिन्न कामनाओं की प्राप्ति के लिये उनके कई तरह के तांत्रिक अनुष्ठान सम्पन्न करते हैं। बगलामुखी तंत्र की सबसे प्रभावशाली शक्ति मानी गयी है । इसलिये इनका प्रभाव प्रत्येक साधना और अनुष्ठान के दौरान प्रत्येक क्षण और विभिन्न रूपों में देखने को मिलता है । बगला महाविद्या के अनुष्ठान शत्रुओं को निर्बल करने के लिये, बलवान शत्रुओं का मान-मर्दन करने के लिये, भूत-प्रेत आदि की बाधाओं को शांत करने के लिये, हारते हुये
मुकदमों में अपने अनुकूल परिणाम पाने के लिये, गृह क्लेश से शांति के लिये, अपने ऊपर किये गये गये अभिचार कृत्यों को नष्ट करने के लिये और व्यापारिक बाधाओं आदि को दूर करने के लिये किये जाते हैं।
बगला महाविद्या के तांत्रिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिये 'वीर रात्रि' को सबसे प्रभावी एवं सिद्धप्रद माना जाता है। मकर संक्रान्ति का सूर्य होने पर मंगलवार के दिन चतुर्दशी तिथि हो और उस दिन पुष्य नक्षत्र पड़ जाये तो उसे वीर रात्रि कहा जाता है।
ऐसी ही वीर रात्रि में माँ का अवतरण हुआ है। अगर ऐसे शुभ अवसर पर शुद्ध आचरण के साथ बगला महाविद्या के तांत्रिक अनुष्ठान सम्पन्न किये जायें, तो उनका फल तत्काल प्राप्त होता है। यद्यपि अनुष्ठनों को सम्पन्न करने के लिये ऐसे शुभ अवसर यदा-कदा ही सौभाग्यशाली साधकों को प्राप्त होते हैं ।
वीर रात्रि के अतिरिक्त बगला के ऐसे अनुष्ठान कई अन्य तिथियों एवं वारों से युक्त शुभ मुहूर्तों में भी सम्पन्न किये जाते हैं। माँ बगला अनुष्ठान के लिये किसी भी शुक्लपक्ष की अष्टमी अथवा कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि भी उपयुक्त रहती है । तांत्रिक और कृत्या प्रयोगों को समाप्त करने के लिये माँ के विशेष तांत्रिक अनुष्ठान अमावस्या की अन्धकार युक्त रात्रि को भी सम्पन्न किये जाते हैं। माँ के ऐसे तांत्रिक अनुष्ठान नाना प्रकार की समस्याओं का निदान तो करते ही हैं, साथ ही माँ की साधना मार्ग को भी प्रशस्त करते हैं । बगला महाविद्या के ऐसे तांत्रिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करने से पहले उनके संबंध में कुछ आवश्यक बातें समझ लेनी आवश्यक है, क्योंकि एक तो ऐसे सभी तांत्रिक अनुष्ठान विशेष पद्धति पर आधारित रहते हैं, दूसरे, इन अनुष्ठानों को पूर्णता के साथ सम्पन्न करने के लिये कई तरह की तांत्रिक वस्तुओं एवं गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है।
तीसरे, ऐसे अनुष्ठानों को बीच में ही अधूरा छोड़ देना स्वयं अनुष्ठानकर्ता के हित में नहीं रहता। इसलिये तंत्र के क्षेत्र में प्राचीन समय से ही आद्यशक्ति की कृपा पाने और साधकों के सुषुप्त चेतना केन्द्रों को जागृत करने के लिये बहुत तरह के अनूठे प्रयोग किये जाते रहे हैं।
सभी तरह के तांत्रिक अनुष्ठानों को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिये विशिष्ट साधनाकाल का ध्यान रखना पड़ता है। अनुष्ठान के लक्ष्य के अनुसार इसकी शुरूआत विशेष तिथि, विशेष नक्षत्र योग युक्त मुहूर्त में ही करनी पड़ती है। विशेष मुहूर्त के साथ ही अनुष्ठान के लिये दिन-रात में से उपयुक्त साधना काल का चुनाव करना पड़ता है। जैसे तांत्रिक प्रयोगों, कृत्या प्रयोगों को नष्ट करने एवं भूत-प्रेत आदि के प्रकोपों को शांत करने
क लिये जो बगला अनुष्ठान किये जाते हैं, उनके लिये ठीक दोपहर का समय या मध्यरात्रि का समय अधिक उपयुक्त रहता है । गृह क्लेश की शांति एवं शारीरिक पीड़ाओं से मुक्ति पाने के लिये माँ के अनुष्ठान रात्रि के दस बजे के बाद शुरू किये जाते हैं, आर्थिक स्थिति से उबरने के लिये माँ का अनुष्ठान प्रातः काल पांच बजे के आस-पास सम्पन्न करना पड़ता है।
शुभ मुहूर्त और उपयुक्त साधना काल की तरह ही ऐसे अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिये विशिष्ट अनुष्ठान स्थल और उसके सही रूप, रंग, आकार आदि का भी ध्यान रखना पड़ता है। अभीष्ट कार्यों के अनुसार ऐसे अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिये माँ के सिद्धि पीठ, माँ के मंदिर या शिव मंदिर, पीपल के वृक्ष के नीचे, नदी के किनारे अथवा खण्डहर मकान
या एकान्त कक्ष का चुनाव किया जाता है। प्रेतात्माओं की शांति एवं कृत्या जैसे कार्यों से मुक्ति पाने के लिये माँ के अनुष्ठान घर पर सम्पन्न नहीं करने चाहिये। ऐसे सभी अनुष्ठान घर से बाहर किसी खण्डहर में अथवा पीपल आदि वृक्ष के पास ही करने चाहिये। अनुष्ठान स्थल की तरह उसके रूप, रंग, आकार का महत्त्व भी अनुष्ठान में रहता है। बगलामुखी अनुष्ठान के लिये त्रिकोणाकृति वाले कक्ष अधिक उपयुक्त रहते हैं। आकार की अपेक्षा रंग का इन अनुष्ठानों में विशेष महत्त्व देखा जाता है। इस महाविद्या की साधना, अनुष्ठान में पीले रंग का अधिक महत्त्व रहता है। अनुष्ठान में प्रयुक्त की जाने वाली समस्त वस्तुएं, पूजा-सामग्री, माँ और साधक के वस्त्र, आसन, माला, पुष्प और दीपक तक पीले रंग के होने चाहिये। अनुष्ठान स्थल को भी अगर पीले रंग से पोत लिया जाये तो और भी अच्छा रहता है, अन्यथा कक्ष के दरवाजे, खिड़कियों पर पीले रंग के पर्दे डाले जा सकते हैं और कक्ष में पीले रंग के छोटे बल्ब की व्यवस्था की जा सकती है ।
पीले रंग का प्रभाव इन्द्रियों की उत्तेजना को नियंत्रित करता है। व्यक्ति के सोच-
विचार को प्रभावित करके उसकी निर्णय लेने की क्षमता को तीक्ष्ण बनाता है । यह बुद्धि का रंग माना गया है। माँ बगलामुखी को भी तर्क-वितर्क एवं वाक् शक्ति का प्रतीक माना गया है। माँ को पीला रंग बहुत पसंद है। अतः उनकी साधना के लिये यह रंग सर्वाधिक अनुकूल रहता है। माँ बगला के अनुष्ठानों में प्रयुक्त होने वाला पीला रंग हमारी आकांक्षाओं की पूर्ति करने वाला माना गया है। लक्ष्य सिद्धि की तीव्र इच्छा तथा तीव्र विश्लेषणात्मक क्षमता इस रंग से प्राप्ति होती है । इस रंग को पसंद करने वाले व्यक्तियों में सुख-शांति एवं समृद्धि पाने की तीव्र जिज्ञासा रहती है। ऐसे लोग दूरदृष्टा तथा जागरूक होते हैं। वह स्वभाव से मिलनसार तथा सबको अपने अनुकूल बना लेने की क्षमता रखते हैं। माँ बगला का एक नाम पीताम्बरा देवी भी है। वह इसी पीत (पीला) रंग के कारण आया है । ऐसे अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिये साधना तिथि, साधना स्थल और पूजा सामग्री के अलावा माँ के प्राण प्रतिष्ठित यंत्र, विभिन्न प्रकार की तांत्रिक वस्तुओं एवं विशेष बीज मंत्रों की आवश्यकता रहती है। बीज मंत्रों को किसी योग्य व्यक्ति (गुरु) के मुंह से ग्रहण करने का विधान रहा है। प्राण प्रतिष्ठित किये यंत्रों में स्वयं इष्टदेव निवास करते हैं, इसलिये यंत्रों को एक विशिष्ट प्रक्रिया से तैयार करके उन्हें चेतना सम्पन्न करने की परम्परा रही है। ऐसे चेतना शक्ति सम्पन्न यंत्रों को पूजास्थल पर स्थापित करके इष्ट का आह्वान करने पर वह स्वयं
उस यंत्र में स्थापित हो जाते हैं और सफलतापूर्वक उस अनुष्ठान को सम्पन्न करा देते हैं। ऐसे प्राण प्रतिष्ठित एवं पूजित यंत्रों को अनुष्ठान उपरांत जिन स्थानों पर स्थापित किया जाता है, वह स्थान भी विशेष भावपूर्ण बन जाते हैं। ऐसे स्थानों (घर, दुकान, भवन) पर बुरी आत्माएं अपना प्रभाव नहीं डाल पाती और न ही उनके ऊपर किसी प्रकार का तंत्र
प्रयोग सफल होता है। अतः सभी तरह के अनुष्ठानों को पूर्णता के साथ सम्पन्न करने के लिये चेतना सम्पन्न अभीष्ट देव ( बगला महाविद्या) के यंत्र की आवश्यकता पड़ती है। ऐसा यंत्र स्वयं अनुष्ठान से पहले निर्मित करके प्राण प्रतिष्ठित किया जा सकता है अथवा अपनी आवश्यकता अनुसार किसी शुभ मुहूर्त में पहले ही तैयार करवाया जा सकता है। यंत्रों के निर्माण की कई प्रक्रियायें हैं और उन्हें तैयार करने में कई चीजें काम में
लायी जाती है। जैसे कि भोजपत्र, अष्टगंध, अनार की कलम, स्वर्ण, रजत या ताम्रपत्र अथवा स्फटिक। जो यंत्र भोजपत्र पर निर्मित किए जाते हैं, उनका प्रभाव बहुत थोड़ा होता है, जो 9 से 12 महीने में समाप्त हो जाता है। बिल्लौरी स्फटिक पर निर्मित किये गये यंत्रों का प्रभाव तीन वर्ष तक बना रहता है । ताम्रपत्र पर बने यंत्र तो कई वर्ष तक चेतना सम्पन्न बने रहते हैं, लेकिन उन्हें बीच-बीच में पूर्ण चेतना सम्पन्न बनाये रखने के लिये मंत्रपूरित करने की आवश्यकता पड़ती है। स्वर्ण और रजत पत्र पर निर्मित यंत्र दीर्घकाल तक चेतना सम्पन्न बने रहते हैं। यह बात ठीक से अपने मन में बैठा लेनी चाहिये कि स्वर्ण और रजत ऐसी धातुयें हैं जो हमारी बुरी या अच्छी भावनाओं से शीघ्र प्रभावित होती हैं। तंत्र साधनाओं एवं तांत्रिक अनुष्ठानों में गुरु दीक्षा और गुरु की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है। यद्यपि सामान्य अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिये पुस्तकों की मदद ली जा सकती है, लेकिन पुस्तकें कई बातों की पूर्ण रूप से समाधान नहीं कर पाती है। अतः ऐसी स्थिति में योग्य व्यक्ति अथवा विद्वान आचार्य से परामर्श कर लेना तथा अनुष्ठान संबंधी क्रियाओं को ठीक से समझ लेना आवश्यक होता है। इससे अनुष्ठान संबंधी समस्त आवश्यक बातें समझ में आ जाती हैं ।
जा सकती है। विभिन्न तंत्र ग्रंथों में माँ से संबंधित इन रूपों का बहुत विस्तार से वर्णन हुआ है। माँ बगलामुखी के यह पांच रूप हैं- षडमामुखी, उल्कामुखी, जानत वेदमुखी, ज्वालामुखी, वृहद भानुमुखी । माँ बगलामुखी के यह सभी रूप अद्भुत, प्रभावशाली और चैतन्य सम्पन्न हैं । अन्य महाविद्याओं और साधनाओं की तरह ही बगला महाविद्या की साधना के भी कई विधान हैं। इनमें सबसे प्रथम और मुख्य विधान यह है कि माँ की पराशक्ति को ही पूर्ण रूप से स्वयं में आत्मसात किया जाये और उनकी परम सिद्धि प्राप्त की जाये। तांत्रिक साधनाओं में जिस सिद्धि शब्द का प्रयोग बहुतायत से होता रहा है, उसका मुख्य उद्देश्य सर्वव्यापिनी आद्यशक्ति को स्वयं में आत्मसात करना है। इसमें धीरे-धीरे स्वयं साधक ही शक्ति का एक अभिन्न अंग बनता चला जाता है । यह साधना की सर्वोच्च भाव स्थिति होती है, लेकिन इस स्थिति तक पहुंचना न तो हर किसी के लिये संभव होता है और न हर किसी की साधना का यह मुख्य उद्देश्य होता है। ऐसी परम स्थिति प्राप्त करने के लिये समय की कोई सीमा नहीं होती। साधना की ऐसी स्थिति प्राप्त करने के बाद साधक का आशीर्वाद मात्र ही उनके भक्तों के लिये पर्याप्त होता है। माँ बगलामुखी की प्रसन्नता एवं उनकी करुणा पाने के लिये उनके विविध तरह के अनुष्ठान सम्पन्न किये जाते हैं। माँ की आद्यशक्ति को पूर्णता के साथ स्वयं में आत्मसात
करने के लिये उनकी तांत्रिक साधनाएं भी की जाती हैं। तांत्रिक लोग विभिन्न कामनाओं की प्राप्ति के लिये उनके कई तरह के तांत्रिक अनुष्ठान सम्पन्न करते हैं। बगलामुखी तंत्र की सबसे प्रभावशाली शक्ति मानी गयी है । इसलिये इनका प्रभाव प्रत्येक साधना और अनुष्ठान के दौरान प्रत्येक क्षण और विभिन्न रूपों में देखने को मिलता है । बगला महाविद्या के अनुष्ठान शत्रुओं को निर्बल करने के लिये, बलवान शत्रुओं का मान-मर्दन करने के लिये, भूत-प्रेत आदि की बाधाओं को शांत करने के लिये, हारते हुये
मुकदमों में अपने अनुकूल परिणाम पाने के लिये, गृह क्लेश से शांति के लिये, अपने ऊपर किये गये गये अभिचार कृत्यों को नष्ट करने के लिये और व्यापारिक बाधाओं आदि को दूर करने के लिये किये जाते हैं।
बगला महाविद्या के तांत्रिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिये 'वीर रात्रि' को सबसे प्रभावी एवं सिद्धप्रद माना जाता है। मकर संक्रान्ति का सूर्य होने पर मंगलवार के दिन चतुर्दशी तिथि हो और उस दिन पुष्य नक्षत्र पड़ जाये तो उसे वीर रात्रि कहा जाता है।
ऐसी ही वीर रात्रि में माँ का अवतरण हुआ है। अगर ऐसे शुभ अवसर पर शुद्ध आचरण के साथ बगला महाविद्या के तांत्रिक अनुष्ठान सम्पन्न किये जायें, तो उनका फल तत्काल प्राप्त होता है। यद्यपि अनुष्ठनों को सम्पन्न करने के लिये ऐसे शुभ अवसर यदा-कदा ही सौभाग्यशाली साधकों को प्राप्त होते हैं ।
वीर रात्रि के अतिरिक्त बगला के ऐसे अनुष्ठान कई अन्य तिथियों एवं वारों से युक्त शुभ मुहूर्तों में भी सम्पन्न किये जाते हैं। माँ बगला अनुष्ठान के लिये किसी भी शुक्लपक्ष की अष्टमी अथवा कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि भी उपयुक्त रहती है । तांत्रिक और कृत्या प्रयोगों को समाप्त करने के लिये माँ के विशेष तांत्रिक अनुष्ठान अमावस्या की अन्धकार युक्त रात्रि को भी सम्पन्न किये जाते हैं। माँ के ऐसे तांत्रिक अनुष्ठान नाना प्रकार की समस्याओं का निदान तो करते ही हैं, साथ ही माँ की साधना मार्ग को भी प्रशस्त करते हैं । बगला महाविद्या के ऐसे तांत्रिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करने से पहले उनके संबंध में कुछ आवश्यक बातें समझ लेनी आवश्यक है, क्योंकि एक तो ऐसे सभी तांत्रिक अनुष्ठान विशेष पद्धति पर आधारित रहते हैं, दूसरे, इन अनुष्ठानों को पूर्णता के साथ सम्पन्न करने के लिये कई तरह की तांत्रिक वस्तुओं एवं गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है।
तीसरे, ऐसे अनुष्ठानों को बीच में ही अधूरा छोड़ देना स्वयं अनुष्ठानकर्ता के हित में नहीं रहता। इसलिये तंत्र के क्षेत्र में प्राचीन समय से ही आद्यशक्ति की कृपा पाने और साधकों के सुषुप्त चेतना केन्द्रों को जागृत करने के लिये बहुत तरह के अनूठे प्रयोग किये जाते रहे हैं।
सभी तरह के तांत्रिक अनुष्ठानों को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिये विशिष्ट साधनाकाल का ध्यान रखना पड़ता है। अनुष्ठान के लक्ष्य के अनुसार इसकी शुरूआत विशेष तिथि, विशेष नक्षत्र योग युक्त मुहूर्त में ही करनी पड़ती है। विशेष मुहूर्त के साथ ही अनुष्ठान के लिये दिन-रात में से उपयुक्त साधना काल का चुनाव करना पड़ता है। जैसे तांत्रिक प्रयोगों, कृत्या प्रयोगों को नष्ट करने एवं भूत-प्रेत आदि के प्रकोपों को शांत करने
क लिये जो बगला अनुष्ठान किये जाते हैं, उनके लिये ठीक दोपहर का समय या मध्यरात्रि का समय अधिक उपयुक्त रहता है । गृह क्लेश की शांति एवं शारीरिक पीड़ाओं से मुक्ति पाने के लिये माँ के अनुष्ठान रात्रि के दस बजे के बाद शुरू किये जाते हैं, आर्थिक स्थिति से उबरने के लिये माँ का अनुष्ठान प्रातः काल पांच बजे के आस-पास सम्पन्न करना पड़ता है।
शुभ मुहूर्त और उपयुक्त साधना काल की तरह ही ऐसे अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिये विशिष्ट अनुष्ठान स्थल और उसके सही रूप, रंग, आकार आदि का भी ध्यान रखना पड़ता है। अभीष्ट कार्यों के अनुसार ऐसे अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिये माँ के सिद्धि पीठ, माँ के मंदिर या शिव मंदिर, पीपल के वृक्ष के नीचे, नदी के किनारे अथवा खण्डहर मकान
या एकान्त कक्ष का चुनाव किया जाता है। प्रेतात्माओं की शांति एवं कृत्या जैसे कार्यों से मुक्ति पाने के लिये माँ के अनुष्ठान घर पर सम्पन्न नहीं करने चाहिये। ऐसे सभी अनुष्ठान घर से बाहर किसी खण्डहर में अथवा पीपल आदि वृक्ष के पास ही करने चाहिये। अनुष्ठान स्थल की तरह उसके रूप, रंग, आकार का महत्त्व भी अनुष्ठान में रहता है। बगलामुखी अनुष्ठान के लिये त्रिकोणाकृति वाले कक्ष अधिक उपयुक्त रहते हैं। आकार की अपेक्षा रंग का इन अनुष्ठानों में विशेष महत्त्व देखा जाता है। इस महाविद्या की साधना, अनुष्ठान में पीले रंग का अधिक महत्त्व रहता है। अनुष्ठान में प्रयुक्त की जाने वाली समस्त वस्तुएं, पूजा-सामग्री, माँ और साधक के वस्त्र, आसन, माला, पुष्प और दीपक तक पीले रंग के होने चाहिये। अनुष्ठान स्थल को भी अगर पीले रंग से पोत लिया जाये तो और भी अच्छा रहता है, अन्यथा कक्ष के दरवाजे, खिड़कियों पर पीले रंग के पर्दे डाले जा सकते हैं और कक्ष में पीले रंग के छोटे बल्ब की व्यवस्था की जा सकती है ।
पीले रंग का प्रभाव इन्द्रियों की उत्तेजना को नियंत्रित करता है। व्यक्ति के सोच-
विचार को प्रभावित करके उसकी निर्णय लेने की क्षमता को तीक्ष्ण बनाता है । यह बुद्धि का रंग माना गया है। माँ बगलामुखी को भी तर्क-वितर्क एवं वाक् शक्ति का प्रतीक माना गया है। माँ को पीला रंग बहुत पसंद है। अतः उनकी साधना के लिये यह रंग सर्वाधिक अनुकूल रहता है। माँ बगला के अनुष्ठानों में प्रयुक्त होने वाला पीला रंग हमारी आकांक्षाओं की पूर्ति करने वाला माना गया है। लक्ष्य सिद्धि की तीव्र इच्छा तथा तीव्र विश्लेषणात्मक क्षमता इस रंग से प्राप्ति होती है । इस रंग को पसंद करने वाले व्यक्तियों में सुख-शांति एवं समृद्धि पाने की तीव्र जिज्ञासा रहती है। ऐसे लोग दूरदृष्टा तथा जागरूक होते हैं। वह स्वभाव से मिलनसार तथा सबको अपने अनुकूल बना लेने की क्षमता रखते हैं। माँ बगला का एक नाम पीताम्बरा देवी भी है। वह इसी पीत (पीला) रंग के कारण आया है । ऐसे अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिये साधना तिथि, साधना स्थल और पूजा सामग्री के अलावा माँ के प्राण प्रतिष्ठित यंत्र, विभिन्न प्रकार की तांत्रिक वस्तुओं एवं विशेष बीज मंत्रों की आवश्यकता रहती है। बीज मंत्रों को किसी योग्य व्यक्ति (गुरु) के मुंह से ग्रहण करने का विधान रहा है। प्राण प्रतिष्ठित किये यंत्रों में स्वयं इष्टदेव निवास करते हैं, इसलिये यंत्रों को एक विशिष्ट प्रक्रिया से तैयार करके उन्हें चेतना सम्पन्न करने की परम्परा रही है। ऐसे चेतना शक्ति सम्पन्न यंत्रों को पूजास्थल पर स्थापित करके इष्ट का आह्वान करने पर वह स्वयं
उस यंत्र में स्थापित हो जाते हैं और सफलतापूर्वक उस अनुष्ठान को सम्पन्न करा देते हैं। ऐसे प्राण प्रतिष्ठित एवं पूजित यंत्रों को अनुष्ठान उपरांत जिन स्थानों पर स्थापित किया जाता है, वह स्थान भी विशेष भावपूर्ण बन जाते हैं। ऐसे स्थानों (घर, दुकान, भवन) पर बुरी आत्माएं अपना प्रभाव नहीं डाल पाती और न ही उनके ऊपर किसी प्रकार का तंत्र
प्रयोग सफल होता है। अतः सभी तरह के अनुष्ठानों को पूर्णता के साथ सम्पन्न करने के लिये चेतना सम्पन्न अभीष्ट देव ( बगला महाविद्या) के यंत्र की आवश्यकता पड़ती है। ऐसा यंत्र स्वयं अनुष्ठान से पहले निर्मित करके प्राण प्रतिष्ठित किया जा सकता है अथवा अपनी आवश्यकता अनुसार किसी शुभ मुहूर्त में पहले ही तैयार करवाया जा सकता है। यंत्रों के निर्माण की कई प्रक्रियायें हैं और उन्हें तैयार करने में कई चीजें काम में
लायी जाती है। जैसे कि भोजपत्र, अष्टगंध, अनार की कलम, स्वर्ण, रजत या ताम्रपत्र अथवा स्फटिक। जो यंत्र भोजपत्र पर निर्मित किए जाते हैं, उनका प्रभाव बहुत थोड़ा होता है, जो 9 से 12 महीने में समाप्त हो जाता है। बिल्लौरी स्फटिक पर निर्मित किये गये यंत्रों का प्रभाव तीन वर्ष तक बना रहता है । ताम्रपत्र पर बने यंत्र तो कई वर्ष तक चेतना सम्पन्न बने रहते हैं, लेकिन उन्हें बीच-बीच में पूर्ण चेतना सम्पन्न बनाये रखने के लिये मंत्रपूरित करने की आवश्यकता पड़ती है। स्वर्ण और रजत पत्र पर निर्मित यंत्र दीर्घकाल तक चेतना सम्पन्न बने रहते हैं। यह बात ठीक से अपने मन में बैठा लेनी चाहिये कि स्वर्ण और रजत ऐसी धातुयें हैं जो हमारी बुरी या अच्छी भावनाओं से शीघ्र प्रभावित होती हैं। तंत्र साधनाओं एवं तांत्रिक अनुष्ठानों में गुरु दीक्षा और गुरु की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है। यद्यपि सामान्य अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिये पुस्तकों की मदद ली जा सकती है, लेकिन पुस्तकें कई बातों की पूर्ण रूप से समाधान नहीं कर पाती है। अतः ऐसी स्थिति में योग्य व्यक्ति अथवा विद्वान आचार्य से परामर्श कर लेना तथा अनुष्ठान संबंधी क्रियाओं को ठीक से समझ लेना आवश्यक होता है। इससे अनुष्ठान संबंधी समस्त आवश्यक बातें समझ में आ जाती हैं ।
माँ बगला के विशिष्ट तांत्रिक अनुष्ठान :
तारा महाविद्या की तरह बगला महाविद्या को पूर्णता के साथ आत्मसात करना अर्थात् माँ बगला की परम सिद्धि को उपलब्ध हो जाना ही तंत्र साधना का मुख्य लक्ष्य रहता है, लेकिन सामान्यजनों के लिये यह मुख्य लक्ष्य नहीं होता । वह तो जीवन में आने वाली नाना प्रकार की विघ्न-बाधाओं से मुक्ति पाने की कामना ही अधिक रखते हैं। इसी कामना की पूर्ति के लिये माँ की कृपा प्राप्त करने के लिये विभिन्न प्रयोग करते हैं । परम सिद्धि को उपलब्ध होना तंत्र साधना के उच्च साधकों का ही लक्ष्य रहता है । अतः साधारणजनों को लक्ष्य करके लिखी जाने वाली इस पुस्तक में तंत्र साधना की उच्च क्रियाओं पर कोई प्रकाश नहीं डाला जा रहा है । इस पुस्तक की विषय वस्तु को कुछ निजी अनुष्ठानों तक ही सीमित रखा जा रहा है । माँ के अनुष्ठान की प्रक्रिया माँ बगला के इस तांत्रिक अनुष्ठान को या तो शिव मंदिर ( देवी मंदिर हो तो सर्वोत्तम) में बैठकर सम्पन्न किया जाता है अथवा इसे सम्पन्न करने के लिये किसी एकान्त कक्ष की आवश्यकता पड़ती है। सबसे पहले अनुष्ठान की जगह का चुनाव करें । उसे धो-पौंछ कर स्वच्छ करके पूजास्थल का रूप दें। अलग-अलग कामनाओं एवं आकांक्षाओं की पूर्ति के
अनुसार अनुष्ठान के लिये अलग-अलग साधनाकाल का चुनाव किया जाता है जैसे शत्रु भय, मुकदमेबाजी, लड़ाई-झगड़े आदि में विजय पाने के उद्देश्य से किये जाने वाले अनुष्ठान प्रातःकाल सूर्योदय के बाद अथवा रात्रि 10 बजे के आसपास किये जाते हैं। प्रेत आदि से मुक्ति पाने के लिये मध्य रात्रि के समय अनुष्ठान करना अनुकूल होता है। मान- सम्मान बचाने के उद्देश्य से किये जाने वाले अनुष्ठान प्रातः काल का समय अधिक उपयुक्त रहता है। अतः यह अनुष्ठान भी प्रातःकाल के समय ही सम्पन्न किया जाना चाहिये । महामाई का यह तांत्रिक अनुष्ठान स्वयं के द्वारा भी सम्पन्न किया जा सकता है अथवा इसे सम्पन्न कराने के लिये किसी विद्वान कर्मकाण्डी ब्राह्मण की मदद भी ली जा सकती है। यद्यपि अनुष्ठान को स्वयं सम्पन्न करना अधिक श्रेष्ठ रहता है । स्वयं के द्वारा किये गये अनुष्ठान से अच्छे परिणाम मिलते हैं। यह अनुष्ठान कुल 31 दिन का है और इसे किसी भी शुक्लपक्ष की अष्टमी से शुरू किया जा सकता है। अगर अनुष्ठान को ठीक से सम्पन्न किया जाए तो प्रथम नौ से ग्यारह दिन के भीतर ही उसका प्रभाव दिखाई पड़ने लगता है। अगर इस अनुष्ठान को नवरात्रों के दौरान सम्पन्न किया जाये तो यह अनुष्ठान नौ दिनों में ही पूर्णता के साथ सम्पन्न हो जाता है, यद्यपि इसे पूरे 31 दिन तक जारी रखना ही ठीक रहता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में इस अनुष्ठान को निरन्तर तीन महीने तक जारी रखने पर और भी श्रेष्ठ फल की प्राप्ति होती है। अनुष्ठान के लिये उपयुक्त दिन और साधनास्थल का चुनाव हो जाने के पश्चात् स्नान करके पूजास्थल पर जाकर दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके पीले कम्बल का आसन बिछाकर बैठ जायें । फिर अपने सामने की थोड़ी सी जगह को गाय के गोबर से लीपकर उस पर एक आम की लकड़ी से बनी चौकी रख दें। अनुष्ठान का क्रम इसके बाद प्रारम्भ होता है।
सबसे पहले चौकी पर पीले रंग का रेशमी वस्त्र बिछा लें । उस पर चांदी या स्टील की छोटी सी प्लेट रखकर उसमें गौरोचन अथवा केशरयुक्त श्वेत चन्दन मिलाकर स्याही जैसा घोल बना लें। इस स्याही से कनिष्ठा अंगुली की मदद से उसी प्लेट एक गोल घेरा बनाकर उसके अन्दर दो विपरीतमुखी त्रिकोण निर्मित करें । त्रिकोण के मध्य माँ बगला का रजत अथवा ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण यंत्र स्थापित करना है । ( यंत्र अगले पृष्ठ पर देखे ) स्थापित करने से पहले यंत्र को गंगाजल से स्नान करवा कर उसके चारों तरफ मौली
लपेट दें। यंत्र के आगे गाय के घी का दीपक प्रज्ज्वलित करके रख दें । घोल में बने दो त्रिकोण माँ की शक्ति के प्रतीक हैं, इसी पर माँ का आह्वान किया जाता है। दीपक के दोनों ओर गुड़ की दो ढेलियां थाली में मौली में लपेटकर रख दें। दीपक के सामने ही चौकी के ऊपर पीले रंग से रंगे हुये चावलों की छः छोटी- छोटी ढेरियां बनायें और उनके मध्य एक बड़ी ढेरी पीली सरसों की बना लें। इसके उपरान्त प्रत्येक ढेरी पर एक-एक पीपल का पत्ता रखकर उसके ऊपर 1-1 हल्दी की गांठ, सुपारी, लौंग रख लें। सरसों की ढेरी के ऊपर एक हत्थाजोड़ी, गंगाजल से स्नान करवाकर एवं पीली मौली में लपेटकर रख दें।

चौकी पर पीली सरसों एवं हत्थाजोड़ी के सामने सरसों के तेल का एक दीया भी जलाकर रख दें। इस दीये को अखण्ड रूप में जलते रहना चाहिये।
इसके उपरान्त अग्रांकित मंत्र का ग्यारह बार लयबद्ध रूप में उच्चारण करते हुये
भावपूर्ण स्थिति से माँ का आह्वान करना चाहिये-
अनुसार अनुष्ठान के लिये अलग-अलग साधनाकाल का चुनाव किया जाता है जैसे शत्रु भय, मुकदमेबाजी, लड़ाई-झगड़े आदि में विजय पाने के उद्देश्य से किये जाने वाले अनुष्ठान प्रातःकाल सूर्योदय के बाद अथवा रात्रि 10 बजे के आसपास किये जाते हैं। प्रेत आदि से मुक्ति पाने के लिये मध्य रात्रि के समय अनुष्ठान करना अनुकूल होता है। मान- सम्मान बचाने के उद्देश्य से किये जाने वाले अनुष्ठान प्रातः काल का समय अधिक उपयुक्त रहता है। अतः यह अनुष्ठान भी प्रातःकाल के समय ही सम्पन्न किया जाना चाहिये । महामाई का यह तांत्रिक अनुष्ठान स्वयं के द्वारा भी सम्पन्न किया जा सकता है अथवा इसे सम्पन्न कराने के लिये किसी विद्वान कर्मकाण्डी ब्राह्मण की मदद भी ली जा सकती है। यद्यपि अनुष्ठान को स्वयं सम्पन्न करना अधिक श्रेष्ठ रहता है । स्वयं के द्वारा किये गये अनुष्ठान से अच्छे परिणाम मिलते हैं। यह अनुष्ठान कुल 31 दिन का है और इसे किसी भी शुक्लपक्ष की अष्टमी से शुरू किया जा सकता है। अगर अनुष्ठान को ठीक से सम्पन्न किया जाए तो प्रथम नौ से ग्यारह दिन के भीतर ही उसका प्रभाव दिखाई पड़ने लगता है। अगर इस अनुष्ठान को नवरात्रों के दौरान सम्पन्न किया जाये तो यह अनुष्ठान नौ दिनों में ही पूर्णता के साथ सम्पन्न हो जाता है, यद्यपि इसे पूरे 31 दिन तक जारी रखना ही ठीक रहता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में इस अनुष्ठान को निरन्तर तीन महीने तक जारी रखने पर और भी श्रेष्ठ फल की प्राप्ति होती है। अनुष्ठान के लिये उपयुक्त दिन और साधनास्थल का चुनाव हो जाने के पश्चात् स्नान करके पूजास्थल पर जाकर दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके पीले कम्बल का आसन बिछाकर बैठ जायें । फिर अपने सामने की थोड़ी सी जगह को गाय के गोबर से लीपकर उस पर एक आम की लकड़ी से बनी चौकी रख दें। अनुष्ठान का क्रम इसके बाद प्रारम्भ होता है।
सबसे पहले चौकी पर पीले रंग का रेशमी वस्त्र बिछा लें । उस पर चांदी या स्टील की छोटी सी प्लेट रखकर उसमें गौरोचन अथवा केशरयुक्त श्वेत चन्दन मिलाकर स्याही जैसा घोल बना लें। इस स्याही से कनिष्ठा अंगुली की मदद से उसी प्लेट एक गोल घेरा बनाकर उसके अन्दर दो विपरीतमुखी त्रिकोण निर्मित करें । त्रिकोण के मध्य माँ बगला का रजत अथवा ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण यंत्र स्थापित करना है । ( यंत्र अगले पृष्ठ पर देखे ) स्थापित करने से पहले यंत्र को गंगाजल से स्नान करवा कर उसके चारों तरफ मौली
लपेट दें। यंत्र के आगे गाय के घी का दीपक प्रज्ज्वलित करके रख दें । घोल में बने दो त्रिकोण माँ की शक्ति के प्रतीक हैं, इसी पर माँ का आह्वान किया जाता है। दीपक के दोनों ओर गुड़ की दो ढेलियां थाली में मौली में लपेटकर रख दें। दीपक के सामने ही चौकी के ऊपर पीले रंग से रंगे हुये चावलों की छः छोटी- छोटी ढेरियां बनायें और उनके मध्य एक बड़ी ढेरी पीली सरसों की बना लें। इसके उपरान्त प्रत्येक ढेरी पर एक-एक पीपल का पत्ता रखकर उसके ऊपर 1-1 हल्दी की गांठ, सुपारी, लौंग रख लें। सरसों की ढेरी के ऊपर एक हत्थाजोड़ी, गंगाजल से स्नान करवाकर एवं पीली मौली में लपेटकर रख दें।

चौकी पर पीली सरसों एवं हत्थाजोड़ी के सामने सरसों के तेल का एक दीया भी जलाकर रख दें। इस दीये को अखण्ड रूप में जलते रहना चाहिये।
इसके उपरान्त अग्रांकित मंत्र का ग्यारह बार लयबद्ध रूप में उच्चारण करते हुये
भावपूर्ण स्थिति से माँ का आह्वान करना चाहिये-
ॐ चतुर्भजां त्रिनयनां कमलासन संस्थिताम्,
त्रिशूल पान पात्रं च गदा जिह्वां च विभ्रताम् ।
बिंबोष्ठी कंबुकंठी च समपीन पयोधराम्,
पीतांबरा मदा धूर्णां ब्रह्मास्त्र देवतीम् ॥
माँ का भावपूर्ण स्थिति में ध्यान करें कि माँ के चार भुजाएं हैं, जिनमें वह क्रमशःत्रिशूल, मद्य का पात्र, गदा और शत्रु की जीभ को पकड़ कर खींच रही हैं। उनके तीन नेत्र हैं और कमलासन पर विराजमान हैं। उनके होठ सुर्ख लाल हैं, शंख जैसी उनकी गर्दन है तथा वह पुष्ट उरोजों वाली समस्त संसार का पोषण करने वाली हैं। वह नशे में चूर शत्रु को घूर रही हैं। वह पीले वस्त्र एवं ब्रह्मास्त्र धारण किये हुये हैं। यह पीतांबरा बगलामुखी का ध्यान है।
माँ से ज्योति रूप में प्रतिष्ठित होने का आह्वान करते रहें । आह्वान के पश्चात् माँ को पीले रंग का कोई नेवैद्य अर्पित करके उन्हें पुष्पांजलि समर्पित करें। आह्वान के बाद माँ के सामने अपनी प्रार्थना करें कि वह अपनी अनुकंपा से आपको कष्ट से उबार लें। अन्य द्वारा यह अनुष्ठान करने पर आह्वान के बाद यजमान का नाम, पिता का नाम, गोत्र, स्थान का नाम लेकर उसके दुःख एवं कष्ट मिटाने की प्रार्थना ब्राह्मण द्वारा की जाती है। आह्वान और प्रार्थना (संकल्प) करने के बाद माँ की आज्ञा पाकर अभीष्ट संख्या में अग्रांकित मंत्रजाप करने की माँ से अनुमति प्राप्त की जाती है। अग्रांकित मंत्र की लघु पंचमुखी रुद्राक्ष माला अथवा हरिद्रा माला से जाप किया जाता है । 31 दिन में 51 हजार मंत्रजाप करने होते हैं । अतः प्रथम और 31वें दिन 21-21 मालाओं का और रोजाना 16 मालाओं का मंत्रजाप करना होता है। मंत्रजाप के समय अनुष्ठानकर्ता का ध्यान भटकना नहीं चाहिये। मंत्रजाप पूर्ण तन्मयता के साथ करना चाहिये ।
माँ के इस अनुष्ठान में इस मंत्र का जाप करना होता है-
मंत्र- ॐ ह्रीं बगलामुखि सर्व दुष्टानां वाचंमुखं पदं स्तम्भय जिह्यां कीलय-
कीलय बुद्धि विनाशय ह्रीं ॐ ।
माँ बगला का यह मंत्र विशिष्ट बीज मंत्रों के समुच्चय पर आधारित है । यद्यपि अधिकतर बीजमंत्रों के शाब्दिक अर्थ नहीं निकलते, लेकिन यह बीजमंत्र अद्भुत शक्ति सम्पन्न होते हैं। इसलिये उनके मंत्रोच्चार से साधक का संबंध ब्रह्माण्ड व्यापनी शक्ति के साथ स्थापित हो जाता है। इन बीजमंत्रों का सृजन साधारण बुद्धि और सामान्य मनुष्य के द्वारा संभव नहीं हुआ है। इन बीजमंत्रों को प्राचीन ऋषियों ने अपनी गहन समाधि जैसी
अवस्था में अपने आत्मिक स्तर पर ग्रहण किया था। यह मंत्र हमारे प्राचीन एवं श्रेष्ठ तांत्रिकों एवं सिद्धों की अद्भुत खोज है।
मंत्रों में चैतन्यता का भाव उनके पूर्ण एकाग्रता एवं तन्मयता के साथ लयबद्ध उच्चारण से ही आता है। अगर ऐसे मंत्रों को 2-4 दिन भी तन्यमयता के साथ उच्चारित कर लिया जाये तो साधक के शरीर में एक विशेष प्रकार की झुरझुरी या झनझनाहट सी होने लग जाती है। इसी के बाद साधक को कई तरह की विशेष अनुभूतियां भी होने लग जाती हैं। जब प्रथम दिन का आपका मंत्रजाप पूर्ण हो जाये तो तुरन्त अपने आसन से न उठें ।
सबसे पहले अग्रांकित मंत्र का तीन बार उच्चारण करते हुये सम्पूर्ण जाप माँ को ही समर्पित कर दें और माँ से आसन छोड़ने की आज्ञा प्राप्त करें। मंत्रजाप के बाद माँ के सामने एक बार पुनः अपनी प्रार्थना या संकल्प को दोहरा लेना चाहिये तथा उनकी अनुमति लेकर ही उठना चाहिये।
माँ को मंत्रजाप समर्पित करने का मंत्र है - विद्या तत्त्व व्यापिनीं श्री बगलामुखी पादकां पूजयामि मंत्र समर्पितम् ।
माँ को अर्पित किये गये नैवेद्य को प्रसाद रूप में थोड़ा सा अंश स्वयं लेकर शेष छोटे बच्चों, विशेषकर छोटी कन्याओं में बांट देना चाहिये । अगर अनुष्ठान के प्रथम दिन साधक व्रत रख सके तो और भी उत्तम रहता है
अन्यथा उसे उस दिन कम से कम लोगों के सम्पर्क में आना चाहिये और मौन में रहना चाहिये। दूसरों के सम्पर्क में आते ही हमारी मानसिक एकाग्रता और चित्त की विशेष स्थिति का विखण्डन होना शुरू हो जाता है तथा मन मूल विषय से भटक जाता है। मन का यह बिखराव साधना की असफलता का प्रमुख कारण सिद्ध होता है। अतः मंत्रजाप की अवधि एवं पूरे 31 दिन के साधनाकाल में अपने चित्त को एक विशेष भावावस्था में
बनाये रखने का प्रयास करना उचित रहता है ।
दूसरे दिन भी अनुष्ठान का यही क्रम रहता है। प्रातः काल स्नान-ध्यान कर अनुष्ठान स्थल में अपने आसन पर बैठ जायें। पहले की तरह ही त्रिकोण के मध्य माँ बगला यंत्र को गंगाजल के छींटे देकर पूर्वानुसार स्थापित करना है और उसके सामने नई बाती लगाकर दीपक प्रज्ज्वलित कर दें। यह दीया अखण्ड रूप से संध्याकाल तक जलता रहना चाहिये। गुड़ की ढेलियों को पूर्ववत् ही रखे रहने दें। फिर सातों ढेलियां एवं हत्थाजोड़ी को गंगाजल एवं केशरयुक्त श्वेत चन्दन के छींटे देते हुये माँ के आह्वान मंत्र का ग्यारह बार जाप करना चाहिये । माँ के भावपूर्ण आह्वान के उपरान्त उन्हें पुष्पांजलि अर्पित करके नैवेद्य का प्रसाद चढ़ायें। प्रतिदिन आह्वान से पहले वाले पुष्पों को एकत्र करके किसी पात्र में एकत्र कर लें जिन्हें बाद में या तो जल में प्रवाहित कर दें अथवा पीपल वृक्ष के नीचे डाल दें ताकि यह पैरों के नीचे नहीं आने पायें। महामाई के आह्वान के साथ माँ के सामने अपनी प्रार्थना को बार-बार दोहरायें । माँ से प्रार्थना करें कि वह अपनी करुणा से आपको कष्टों से मुक्त कर दें। आपके समस्त दुःख-कष्टों का अन्त कर दें । आह्वान एवं प्रार्थना के उपरान्त माँ की आज्ञा प्राप्त करके प्रथम दिन की भांति पूर्ण एकाग्रचित्त होकर रुद्राक्ष अथवा हरिद्रा माला से मंत्रजाप शुरू कर दें। दूसरे से तीसवें दिन तक 16-16 मालाओं का मंत्रजाप पूरा करना होता है। इस प्रकार जब दूसरे दिन का जाप भी पूरा हो जाये तो अपना आसन छोड़ने से पहले पूर्ववत् तीन बार समर्पित मंत्र का उच्चारण करते हुये सम्पूर्ण जाप माँ को ही अर्पित कर दें। एक बार पुन: माँ के सामने अपनी प्रार्थना को दोहरा लेना चाहिये । माँ की आज्ञा लेकर ही अपने आसन से उठना चाहिये।
इस प्रकार इस अनुष्ठान की गति आगे बढ़ती रहनी चाहिये और यही भाव दशा एवं सम्पूर्ण प्रक्रिया पूरे 31 दिन तक बनाये रखें। इस तरह के साधना क्रम को जारी रखने पर प्रथम सप्ताह के अन्त तक कई तरह के अनुभव कुछ लोगों को शुरू हो जाते हैं। कुछ लोगों को रात्रि को स्वप्न में अनेक प्रकार के दृश्य दिखाई देने लगते हैं। कई बार अनुष्ठान स्थल पर किसी अन्य की पदचाप से किसी की उपस्थिति का बोध होने लग जाता है।
कई अन्य तरह की अनुभूतियां भी मिलने लगती हैं, लेकिन इस तरह के अनुभव उन्हीं साधकों को होते हैं जो स्वयं इस प्रकार के अनुष्ठानों को स्वयं अपने निमित्त सम्पन्न करते हैं। किसी अन्य के लिये किये जाने अथवा किसी अन्य द्वारा अनुष्ठान सम्पन्न कराने पर ऐसे अनुभव कम ही लोगों को दिखाई पड़ते हैं। जब 31वें दिन का कार्यक्रम और मंत्रजाप सम्पूर्ण हो जाये तो अनुष्ठान की समाप्ति समझी जाती है। 31वें दिन 21 मालाओं का मंत्रजाप पूरा करना पड़ता है, साथ ही एक- एक माला मंत्रजाप के साथ हवन भी सम्पन्न करना होता है।हवन के लिये सबसे पहले त्रिकोणाकृति वाला हवनकुण्ड निर्मित करायें, फिर उसमें विधिवत् आम की लकड़ियां रखकर अग्नि प्रज्ज्वलित करके विशेष सामग्री निर्मित समिधा की आहुतियां प्रदान की जाती हैं। हवन की समिधा तैयार करने के लिये पीले कन्नेर, नीलोफर के पुष्प, पीली सरसों, भूतकेशी की जड़, बालछड़, गुलदाउद, सुगन्धबाला, श्वेत चन्दन का बुरादा, हल्दी पाउडर, लौबान, गाय का घी आदि की आवश्यकता पड़ती है। इन समस्त सामग्रियों को परस्पर मिलाकर समिधा तैयार की जाती है। मंत्रजाप वाले आसन पर बैठकर ही 108 आहुतियां माँ को मंत्र के साथ अग्नि को समर्पित की जाती हैं। हवन के उपरांत माँ के मंत्र जाप के पूर्ववत् माँ को ही अर्पित कर दिया जाता है और अनुष्ठान समाप्ति के पश्चात् ग्यारह अथवा पांच कुंवारी कन्याओं को भोजन कराना होता है। कन्याओं को भोजन के साथ दान-दक्षिणा प्रदान करने से माँ बगलामुखी अति प्रसन्न होती हैं। कन्याओं को भोजन के रूप में पीले रंग के मिष्ठान, पीले फल और दक्षिणा के रूप में पीले रंग के वस्त्र मुख्यतः देने चाहिये । कन्याओं को भोजन कराने के पश्चात् स्वयं को भी परिवार सहित माँ का प्रसाद समझ कर भोजन ग्रहण करना चाहिये । इसके साथ भोजन का थोड़ा सा अंश किसी वृक्ष के नीचे रख दें। अगर वह वृक्ष पीपल का हो तो और भी अच्छा है। जब आपके अनुष्ठान का विधिवत् समापन हो जाये, तो अगले दिन प्रातःकाल अनुष्ठान के दौरान प्रयुक्त की गई सामग्रियों, जैसे हल्दी, लौंग, सुपारी, पीली सरसों, सूखे हुये पुष्पों एवं हवनकुण्ड में भरी हुई राख आदि समस्त व्यर्थ पदार्थों को एक जगह एकत्रित करके किसी मिट्टी के पात्र में भर लें और उसके मुंह पर एक नया वस्त्र बांध कर उसे नदी में प्रवाहित कर दें। मिट्टी के पात्र को नदी में प्रवाहित करने से पहले उसमें थोड़े से जौ और पीली सरसों के दाने भी भर दें। इसके अलावा पूजा सामग्री को नदी में
प्रवाहित करने के लिये नये मिट्टी का पात्र ही प्रयुक्त करना चाहिये । इस प्रकार यह बगला अनुष्ठान सम्पन्न हो जाता है।
अनुष्ठान सम्पन्न होने पर बगला यंत्र के अपने पूजा स्थल पर स्थान दे देना चाहिये
कीलय बुद्धि विनाशय ह्रीं ॐ ।
माँ बगला का यह मंत्र विशिष्ट बीज मंत्रों के समुच्चय पर आधारित है । यद्यपि अधिकतर बीजमंत्रों के शाब्दिक अर्थ नहीं निकलते, लेकिन यह बीजमंत्र अद्भुत शक्ति सम्पन्न होते हैं। इसलिये उनके मंत्रोच्चार से साधक का संबंध ब्रह्माण्ड व्यापनी शक्ति के साथ स्थापित हो जाता है। इन बीजमंत्रों का सृजन साधारण बुद्धि और सामान्य मनुष्य के द्वारा संभव नहीं हुआ है। इन बीजमंत्रों को प्राचीन ऋषियों ने अपनी गहन समाधि जैसी
अवस्था में अपने आत्मिक स्तर पर ग्रहण किया था। यह मंत्र हमारे प्राचीन एवं श्रेष्ठ तांत्रिकों एवं सिद्धों की अद्भुत खोज है।
मंत्रों में चैतन्यता का भाव उनके पूर्ण एकाग्रता एवं तन्मयता के साथ लयबद्ध उच्चारण से ही आता है। अगर ऐसे मंत्रों को 2-4 दिन भी तन्यमयता के साथ उच्चारित कर लिया जाये तो साधक के शरीर में एक विशेष प्रकार की झुरझुरी या झनझनाहट सी होने लग जाती है। इसी के बाद साधक को कई तरह की विशेष अनुभूतियां भी होने लग जाती हैं। जब प्रथम दिन का आपका मंत्रजाप पूर्ण हो जाये तो तुरन्त अपने आसन से न उठें ।
सबसे पहले अग्रांकित मंत्र का तीन बार उच्चारण करते हुये सम्पूर्ण जाप माँ को ही समर्पित कर दें और माँ से आसन छोड़ने की आज्ञा प्राप्त करें। मंत्रजाप के बाद माँ के सामने एक बार पुनः अपनी प्रार्थना या संकल्प को दोहरा लेना चाहिये तथा उनकी अनुमति लेकर ही उठना चाहिये।
माँ को मंत्रजाप समर्पित करने का मंत्र है - विद्या तत्त्व व्यापिनीं श्री बगलामुखी पादकां पूजयामि मंत्र समर्पितम् ।
माँ को अर्पित किये गये नैवेद्य को प्रसाद रूप में थोड़ा सा अंश स्वयं लेकर शेष छोटे बच्चों, विशेषकर छोटी कन्याओं में बांट देना चाहिये । अगर अनुष्ठान के प्रथम दिन साधक व्रत रख सके तो और भी उत्तम रहता है
अन्यथा उसे उस दिन कम से कम लोगों के सम्पर्क में आना चाहिये और मौन में रहना चाहिये। दूसरों के सम्पर्क में आते ही हमारी मानसिक एकाग्रता और चित्त की विशेष स्थिति का विखण्डन होना शुरू हो जाता है तथा मन मूल विषय से भटक जाता है। मन का यह बिखराव साधना की असफलता का प्रमुख कारण सिद्ध होता है। अतः मंत्रजाप की अवधि एवं पूरे 31 दिन के साधनाकाल में अपने चित्त को एक विशेष भावावस्था में
बनाये रखने का प्रयास करना उचित रहता है ।
दूसरे दिन भी अनुष्ठान का यही क्रम रहता है। प्रातः काल स्नान-ध्यान कर अनुष्ठान स्थल में अपने आसन पर बैठ जायें। पहले की तरह ही त्रिकोण के मध्य माँ बगला यंत्र को गंगाजल के छींटे देकर पूर्वानुसार स्थापित करना है और उसके सामने नई बाती लगाकर दीपक प्रज्ज्वलित कर दें। यह दीया अखण्ड रूप से संध्याकाल तक जलता रहना चाहिये। गुड़ की ढेलियों को पूर्ववत् ही रखे रहने दें। फिर सातों ढेलियां एवं हत्थाजोड़ी को गंगाजल एवं केशरयुक्त श्वेत चन्दन के छींटे देते हुये माँ के आह्वान मंत्र का ग्यारह बार जाप करना चाहिये । माँ के भावपूर्ण आह्वान के उपरान्त उन्हें पुष्पांजलि अर्पित करके नैवेद्य का प्रसाद चढ़ायें। प्रतिदिन आह्वान से पहले वाले पुष्पों को एकत्र करके किसी पात्र में एकत्र कर लें जिन्हें बाद में या तो जल में प्रवाहित कर दें अथवा पीपल वृक्ष के नीचे डाल दें ताकि यह पैरों के नीचे नहीं आने पायें। महामाई के आह्वान के साथ माँ के सामने अपनी प्रार्थना को बार-बार दोहरायें । माँ से प्रार्थना करें कि वह अपनी करुणा से आपको कष्टों से मुक्त कर दें। आपके समस्त दुःख-कष्टों का अन्त कर दें । आह्वान एवं प्रार्थना के उपरान्त माँ की आज्ञा प्राप्त करके प्रथम दिन की भांति पूर्ण एकाग्रचित्त होकर रुद्राक्ष अथवा हरिद्रा माला से मंत्रजाप शुरू कर दें। दूसरे से तीसवें दिन तक 16-16 मालाओं का मंत्रजाप पूरा करना होता है। इस प्रकार जब दूसरे दिन का जाप भी पूरा हो जाये तो अपना आसन छोड़ने से पहले पूर्ववत् तीन बार समर्पित मंत्र का उच्चारण करते हुये सम्पूर्ण जाप माँ को ही अर्पित कर दें। एक बार पुन: माँ के सामने अपनी प्रार्थना को दोहरा लेना चाहिये । माँ की आज्ञा लेकर ही अपने आसन से उठना चाहिये।
इस प्रकार इस अनुष्ठान की गति आगे बढ़ती रहनी चाहिये और यही भाव दशा एवं सम्पूर्ण प्रक्रिया पूरे 31 दिन तक बनाये रखें। इस तरह के साधना क्रम को जारी रखने पर प्रथम सप्ताह के अन्त तक कई तरह के अनुभव कुछ लोगों को शुरू हो जाते हैं। कुछ लोगों को रात्रि को स्वप्न में अनेक प्रकार के दृश्य दिखाई देने लगते हैं। कई बार अनुष्ठान स्थल पर किसी अन्य की पदचाप से किसी की उपस्थिति का बोध होने लग जाता है।
कई अन्य तरह की अनुभूतियां भी मिलने लगती हैं, लेकिन इस तरह के अनुभव उन्हीं साधकों को होते हैं जो स्वयं इस प्रकार के अनुष्ठानों को स्वयं अपने निमित्त सम्पन्न करते हैं। किसी अन्य के लिये किये जाने अथवा किसी अन्य द्वारा अनुष्ठान सम्पन्न कराने पर ऐसे अनुभव कम ही लोगों को दिखाई पड़ते हैं। जब 31वें दिन का कार्यक्रम और मंत्रजाप सम्पूर्ण हो जाये तो अनुष्ठान की समाप्ति समझी जाती है। 31वें दिन 21 मालाओं का मंत्रजाप पूरा करना पड़ता है, साथ ही एक- एक माला मंत्रजाप के साथ हवन भी सम्पन्न करना होता है।हवन के लिये सबसे पहले त्रिकोणाकृति वाला हवनकुण्ड निर्मित करायें, फिर उसमें विधिवत् आम की लकड़ियां रखकर अग्नि प्रज्ज्वलित करके विशेष सामग्री निर्मित समिधा की आहुतियां प्रदान की जाती हैं। हवन की समिधा तैयार करने के लिये पीले कन्नेर, नीलोफर के पुष्प, पीली सरसों, भूतकेशी की जड़, बालछड़, गुलदाउद, सुगन्धबाला, श्वेत चन्दन का बुरादा, हल्दी पाउडर, लौबान, गाय का घी आदि की आवश्यकता पड़ती है। इन समस्त सामग्रियों को परस्पर मिलाकर समिधा तैयार की जाती है। मंत्रजाप वाले आसन पर बैठकर ही 108 आहुतियां माँ को मंत्र के साथ अग्नि को समर्पित की जाती हैं। हवन के उपरांत माँ के मंत्र जाप के पूर्ववत् माँ को ही अर्पित कर दिया जाता है और अनुष्ठान समाप्ति के पश्चात् ग्यारह अथवा पांच कुंवारी कन्याओं को भोजन कराना होता है। कन्याओं को भोजन के साथ दान-दक्षिणा प्रदान करने से माँ बगलामुखी अति प्रसन्न होती हैं। कन्याओं को भोजन के रूप में पीले रंग के मिष्ठान, पीले फल और दक्षिणा के रूप में पीले रंग के वस्त्र मुख्यतः देने चाहिये । कन्याओं को भोजन कराने के पश्चात् स्वयं को भी परिवार सहित माँ का प्रसाद समझ कर भोजन ग्रहण करना चाहिये । इसके साथ भोजन का थोड़ा सा अंश किसी वृक्ष के नीचे रख दें। अगर वह वृक्ष पीपल का हो तो और भी अच्छा है। जब आपके अनुष्ठान का विधिवत् समापन हो जाये, तो अगले दिन प्रातःकाल अनुष्ठान के दौरान प्रयुक्त की गई सामग्रियों, जैसे हल्दी, लौंग, सुपारी, पीली सरसों, सूखे हुये पुष्पों एवं हवनकुण्ड में भरी हुई राख आदि समस्त व्यर्थ पदार्थों को एक जगह एकत्रित करके किसी मिट्टी के पात्र में भर लें और उसके मुंह पर एक नया वस्त्र बांध कर उसे नदी में प्रवाहित कर दें। मिट्टी के पात्र को नदी में प्रवाहित करने से पहले उसमें थोड़े से जौ और पीली सरसों के दाने भी भर दें। इसके अलावा पूजा सामग्री को नदी में
प्रवाहित करने के लिये नये मिट्टी का पात्र ही प्रयुक्त करना चाहिये । इस प्रकार यह बगला अनुष्ठान सम्पन्न हो जाता है।
अनुष्ठान सम्पन्न होने पर बगला यंत्र के अपने पूजा स्थल पर स्थान दे देना चाहिये
इस नियम को जरूर पाले
सायंकाल धूप-दीप अर्पित करना चाहिये। अगर प्रातःकाल यह संभव नहीं हो तो संध्या समय तो अवश्य ही धूप-दीप करें। अनुष्ठान के दौरान जिस हत्थाजोड़ी का पूजा के निमित्त प्रयोग किया जाता है, वह अनुष्ठान के प्रभाव से अद्भुत ऊर्जायुक्त बन जाती है। अतः इस हत्थाजोड़ी को अनुष्ठान पूर्ण हो जाने के पश्चात् चौकी से उठाकर सिन्दूर, लौंग, कपूर, श्वेत चन्दन बुरादे आदि के साथ किसी स्वच्छ पात्र में ढक्कन लगा कर अपने पास रख लिया जाता है । यद्यपि इस हत्थाजोड़ी को अपने पूजास्थल, घर की तिजौरी, ऑफिस अथवा व्यापार स्थल की टेबिल आदि पर भी प्रतिष्ठित किया जा सकता है। इसके प्रभावयुक्त ऊर्जामण्डल से वहां का वातावरण शीघ्र ही अनुकूल बन जाता है। तंत्रशास्त्र में तो वैसे ही शुभ मुहूर्त में प्राप्त की गई हत्थाजोड़ी को श्रेष्ठ तांत्रिक वस्तु माना गया है। इसमें स्वतः ही सम्मोहन, वशीकरण, आकर्षण का भाव पैदा करने वाले तथा धन वृद्धिकारक गुण रहते हैं। अगर ऐसी हत्थाजोड़ी के ऊपर किसी तरह का तांत्रिक अनुष्ठान सम्पन्न कर लिया जाये, तो उसके गुणों के बारे में तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता है। यही प्रभाव अनुष्ठान में प्रयुक्त की गई इस तांत्रोक्त हत्थाजोड़ी के साथ देखा जाता है।
अगर अनुष्ठान समाप्ति के पश्चात् इस हत्थाजोड़ी को घर के पूजास्थल पर ही स्थापित कर दिया जाये, तो भी यह अपना पूर्ण प्रभाव दिखाती है तथा अपने प्रभाव से घर के सदस्यों के मध्य प्रेम एवं अपनत्व की भावना को प्रबल बनाती है । इसके अलावा साधक को भी अन्य लोगों के मध्य आकर्षण का केन्द्र बिन्दू बनाये रखती है। अगर साधक किसी मुकदमे की कार्यवाही में शामिल होने के लिये जाते समय, किसी इंटरव्यू में बैठने अथवा किसी अधिकारी आदि से मिलने जाते समय इस प्रभावपूर्ण हत्थाजोड़ी को साथ ले
जाये (जेब आदि में रखकर ), तो सभी जगह उसे अपने अनुकूल परिणाम प्राप्त होते हैं। यह हत्थाजोड़ी अद्भुत तांत्रिक वस्तु है और जब तक इसे अशुद्धि के भाव से सुरक्षित बनाये रखा जाता है, तब तक यह प्रभावपूर्ण बनी रहती है । जो साधक बगला यंत्र को शरीर पर धारण करने के इच्छुक हैं, वे अनुष्ठान प्रारम्भ करने से पूर्व उसी साधना स्थल पर भोजपत्र पर अनार अथवा पीपल की कलम से तथा अष्टगंध की स्याही से यंत्र का निर्माण कर सकते हैं। इसे भी साधना- पूजा में स्थान दें ।
अनुष्ठान के पूर्ण हो जाने के बाद रजत अथवा त्रिधातु के ताबीज में लाल अथवा काले धागे में बाजू पर बांध लें अथवा गले में डाल लें। ऐसा करने से माँ की कृपा हमेशा बनी रहेगी।
अगर अनुष्ठान समाप्ति के पश्चात् इस हत्थाजोड़ी को घर के पूजास्थल पर ही स्थापित कर दिया जाये, तो भी यह अपना पूर्ण प्रभाव दिखाती है तथा अपने प्रभाव से घर के सदस्यों के मध्य प्रेम एवं अपनत्व की भावना को प्रबल बनाती है । इसके अलावा साधक को भी अन्य लोगों के मध्य आकर्षण का केन्द्र बिन्दू बनाये रखती है। अगर साधक किसी मुकदमे की कार्यवाही में शामिल होने के लिये जाते समय, किसी इंटरव्यू में बैठने अथवा किसी अधिकारी आदि से मिलने जाते समय इस प्रभावपूर्ण हत्थाजोड़ी को साथ ले
जाये (जेब आदि में रखकर ), तो सभी जगह उसे अपने अनुकूल परिणाम प्राप्त होते हैं। यह हत्थाजोड़ी अद्भुत तांत्रिक वस्तु है और जब तक इसे अशुद्धि के भाव से सुरक्षित बनाये रखा जाता है, तब तक यह प्रभावपूर्ण बनी रहती है । जो साधक बगला यंत्र को शरीर पर धारण करने के इच्छुक हैं, वे अनुष्ठान प्रारम्भ करने से पूर्व उसी साधना स्थल पर भोजपत्र पर अनार अथवा पीपल की कलम से तथा अष्टगंध की स्याही से यंत्र का निर्माण कर सकते हैं। इसे भी साधना- पूजा में स्थान दें ।
अनुष्ठान के पूर्ण हो जाने के बाद रजत अथवा त्रिधातु के ताबीज में लाल अथवा काले धागे में बाजू पर बांध लें अथवा गले में डाल लें। ऐसा करने से माँ की कृपा हमेशा बनी रहेगी।
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