Sarba Siddhi ke Liye Tara Sadhana || सर्व सिद्धि के लिए तारा साधना

Sarba Siddhi ke Liye Tara Sadhana || सर्व सिद्धि के लिए तारा साधना


तारा महाविद्या साधना



    महाविद्या और उनकी साधना का रहस्य तंत्र शास्त्र में माँ तारा का उल्लेख दूसरी महाविद्या के रूप में किया गया है। शाक्त तांत्रिकों में प्रथम महाविद्या के रूप में महाकाली का स्थान रखा गया है। तंत्र में महाकाली

    को इस चराचर जगत की मूल आधार शक्ति माना गया है। इन्हीं की प्रेरणा शक्ति से यह जगत और उसके समस्त प्राणी जीवन्त एवं गतिमान रहते हैं। समस्त जीवन के प्राण स्रोत माँ काली के साथ संलग्न रहते हैं। इसीलिये इस शक्ति से विहीन जगत तत्क्षण निर्जीव हो जाता है। तंत्र के अति प्राचीन प्रतीकों में महाकाली को शिव पर आरूढ़ दिखाया गया है। यह भी इसी तथ्य का प्रतीक है कि 'शक्ति' हीन 'शिव' भी निर्जीव 'शव' के रूप में रूपान्तरित हो जाते हैं। महाकाली के रूप में इस आद्यशक्ति का रहस्य बहुत अद्भुत है, क्योंकि चेतना के समस्त सूत्र इसी महाशक्ति में समाहित रहते हैं। इसीलिये महाकाली का 'श्याम' रूप माना गया है। जिस प्रकार सभी तरह के रंग काले रंग में विलीन हो जाते हैं, ठीक वैसे ही समस्त जगत काली में समाहित हो जाता है। जो साधक महाकाली को पूर्णतः समर्पित हो जाता है, उस साधक के समस्त कष्टों का माँ काली स्वतः ही हरण कर लेती है। इसीलिये महाकाली को समर्पित साधक समस्त प्रकार के दुःख, दर्द, पीड़ाओं, अभावों, कष्टों से मुक्त हो जाते हैं। बहुत से लोग अज्ञानवश महाकाली को भय, क्रोध और मृत्यु का प्रतीक भर मानते हैं। इस विश्वास से उनकी अज्ञानता ही उजागर होती है । वास्तव में महाकाली मृत्यु पर विजय और भयहीन होने की प्रतीक है । महाकाली की भयानक एवं क्रोधयुक्त मुद्रा एवं उनका अति उग्र प्रदर्शन उनकी अनंत शक्ति का द्योतक है।

    तंत्र शास्त्र में प्रथम महाविद्या के रूप में महाकाली का अधिपत्य रात्रि के बारह बजे से प्रातः सूर्योदय तक रहता है । घोर अंधकार महाकाली का साधना काल है, जबकि सूर्योदय की प्रथम किरण के साथ ही द्वितीय महाविद्या के रूप में तारा विद्या का साम्राज्य चारों ओर फैलने लग जाता है । महाकाली चेतना का प्रतीक है तो तारा महाविद्या बुद्धि, प्रसन्नता, सन्तुष्टि, सुख, सम्पन्नता और विकास का प्रतीक है। इसीलिये तारा का साम्राज्य फैलते ही अर्थात् सूर्य की प्रथम रश्मि के भूमण्डल पर अवतरित होते ही सृष्टि का प्रत्येक कण चेतना शक्ति युक्त होता चला जाता है। रात्रि के अंधकार में जो जीव-जन्तु निद्रा के आवेश में आकर सुस्त और निष्क्रिय पड़ जाते हैं, फूलों की प्रफुल्लित हुई कलियां मुझ जाती हैं, प्राणियों में जो पशु भाव उतर जाता है, वह सब प्रातःकाल होते ही अपने मूल स्वरूप में लौट आता है। तारा महाविद्या का रहस्य बोध कराने वाली हिरण्यगर्भ विद्या मानी गई है। इस विद्या के अनुसार वेदों ने सम्पूर्ण विश्व (सृष्टि) का मुख्य आधार सूर्य को स्वीकार किया है। सूर्य अग्नि का एक रूप है। अग्नि का एक नाम हिरण्यरेता भी है। सौरमण्डल हिरण्यरेत (अग्नि) से आविष्ट है । इसीलिये इसे हिरण्यमय कहा जाता है। आग्नेयमंडल के नाभि में सौर ब्रह्म तत्त्व प्रतिष्ठित है, इसलिये सौरब्रह्म को हिरण्यगर्भ कहा गया है। जिस प्रकार विश्वातीत कालपुरुष की महाशक्ति महाकाली है, उसी प्रकार सौरमण्डल में प्रतिष्ठित हिरण्यगर्भ पुरुष की महाशक्ति 'तारा' को माना गया है। जिस प्रकार गहन अन्धकार में छोटा दीपक भी अत्यन्त प्रकाशमान प्रतीत होता है, उसी तरह महानतम के अर्थात् अंतरिक्ष में तारा शक्ति युक्त सूर्य सदैव प्रकाशमान बना रहता है, इसलिये श्रुतियों में सूर्य 'नक्षत्र' नाम से भी जाने गये हैं।



    माँ तारा साधना का उद्देश्य :



    तारा महाविद्या एक नयी जीवन्तता, एक नये सृजन का प्रतीक रही है। यह जीवन में पूर्णता का बोध कराती है । तंत्र में तारा साधना का उद्देश्य सदैव सम्पूर्णत: पाना ही रहा है। इसीलिये इस महाविद्या की साधना जीवन में पूर्णतः की प्राप्ति के उद्देश्य के लिये ही की जाती रही है। चाहे ऐसी पूर्णता का संबंध भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिये हो, चाहे फिर उनका संबंध आध्यात्मिक उच्चता प्राप्त करना रहा हो । तारा साधना से भौतिक रूप में समस्त प्रकार की सुखं, समृद्धि और शक्ति सहज ही प्राप्ति हो जाती है । ठीक इसी प्रकार इस साधना के माध्यम से परमात्मा का दिव्य साक्षात्कार पाना भी सहज एवं संभव हो जाता है।

    तंत्र में माँ तारा को सदा तारने वाली (मोक्ष प्रदायक ) माना गया है। इसीलिये इनका ‘तारा’ रूप में नामकरण हुआ है । तारा अर्थात् जो जीवन के भव बंधनों से तार दे । माँ तारा अपनी शरण में आने वाले अपने भक्तों की सभी तरह की भयंकर विपत्तियों से रक्षा करती है। इसलिये इनका एक नाम 'उग्र तारा' भी है। यह अपने साधकों को वाक्शक्ति और अद्भुत बौद्धिक क्षमता प्रदान करती है । अतः इन्हें 'नील सरस्वती' भी कहा जाता है।

    इन्होंने अपने अभियोदय के साथ ही हयग्रीव नामक एक राक्षस का संहार किया था। यह शव पर प्रत्याली मुद्रा में आरूढ़ रहती है। तारा महाविद्या अपने साधकों को बृहस्पति के समान विद्वता और यश - भोग प्रदान

    करने वाली है। यह साधकों के शत्रुओं का भी सहज ही नाश कर डालती है। इतना ही नहीं, यह मोक्ष प्रदान करने वाली भी है। इसलिये माँ तारा का यशोगान तांत्रिकों, मांत्रिकों से लेकर जैन तंत्र साधकों, बौद्ध तंत्र उपासकों और भारत से लेकर नेपाल, तिब्बत, चीन,जापान तक सर्वत्र देखने को मिलता है ।



    तांत्रिकों की इष्ट देवी :



    तंत्र साधकों, विशेषकर शाक्त सम्प्रदाय से सबंध रखने वाले तांत्रिकों के लिये दस महाविद्याओं की साधनाएं सम्पन्न करना अति आवश्यक है। इन दस महाविद्याओं को पूर्ण रूप से सिद्ध करने के बाद ही वह आगे पथ पर अग्रसर हो पाते हैं और सम्पूर्णता के साथ दिव्य आनन्द की अनुभूति प्राप्त कर पाते हैं। तंत्र साधना की इन दस महाविद्याओं में 'तारा महाविद्या' का अपना विशिष्ट स्थान रहा है। इसलिये तांत्रिकों के लिये तारा महाविद्या की साधना सबसे श्रेष्ठ और अद्भुत एवं प्रभावपूर्ण मानी गयी है। इस महाविद्या को पूर्णत: से सिद्ध करते ही तांत्रिक महातांत्रिकों की कतार में सम्मिलित हो जाता है। फिर उस साधक के लिये कुछ भी अगम्य और अबोध नहीं रह जाता। प्रकृति उसकी कल्पना और इच्छा मात्र से संचालित होने लग

    जाती है। यद्यपि तारा महाविद्या को पूर्ण रूप से स्वयं में आत्मसात कर पाना अपवाद स्वरूप ही किसी तांत्रिक के वश की ही बात होती है। इसीलिये बहुत कम साधक ही तंत्र क्रिया

    के माध्यम से तारा महाविद्या को पूर्ण रूप से साथ साधने में सक्षम हो पाये हैं। भगवान राम के कुल पुरोहित वशिष्ठ जी को इस महाविद्या का प्रथम तंत्र साधक माना जाता है। लंकाधिपति रावण ने भी तारा महाविद्या की साधना की थी। वर्तमान युग में बंगाल के

    प्रख्यात तंत्र साधक वामाक्षेपा, कामाख्या के महातांत्रिक रमणीकान्त देवशर्मन, नेपाल के सुप्रसिद्ध तांत्रिक परमहंस देव आदि ही कुछ ऐसे तांत्रिक हुये हैं, जो तारा महाविद्या की दिव्य अनुभूतियां प्राप्त कर पाने में सफल हो पाये हैं। बंगाल के तांत्रिक वामाक्षेपा के संबंध

    में तो ऐसी किंवदंतियां प्रचलित रही हैं कि वह माँ की उपासना में इतने अधिक तल्लीन रहते थे कि उन्हें हफ्तों और कभी-कभी तो महीनों तक स्वयं की कोई सुध-बुध नहीं रहती थी। इस शमशानवासी तांत्रिक की दयनीय हालत जब माँ से सहन नहीं होती थी, तो वह स्वयं आकर अपने प्रिय भक्त को अपना स्तनपान कराया करती थी । तांत्रिक देवशर्मन

    के संबंध में भी अनेक अद्भुत बातें प्रचलित रही हैं। शाक्त तांत्रिकों की इन दस महाविद्याओं की साधनाओं में जो साधक गहरी रुचि रखते हैं और जो इन महाविद्याओं को स्वयं में आत्मसात करना चाहते हैं, इन महाविद्याओं

    को सिद्ध करना चाहते हैं, उन सभी को एक बात ठीक से समझ लेनी चाहिये कि आज के जो तथाकथित तंत्र गुरु इन महाविद्याओं की साधना के संबंध में जो दिवास्वप्न दिखाते हैं, वह सब वास्तविकता से बहुत दूर की चीजे हैं। वास्तव में तो वह स्वयं भी किसी वास्तविक अनुभूति की प्रक्रिया से नहीं गुजरे होते हैं। उनकी सम्पूर्ण बातें पुस्तकीय पाठन,

    मानसिक सृजन और काल्पनिक बीज से अंकुरित होती हैं।तंत्र साधकों द्वारा जो मुण्डमाला तंत्र, चामुण्डा तंत्र, शाक्त प्रमोद तारा तंत्र जैसे अनेक

    ग्रंथ लिखे गये हैं, उनमें दस महाविद्याओं के रूप में माँ तारा का द्वितीय स्थान रखा गया है। इन्हें विश्वव्यापिनी आद्यशक्ति का द्वितीय रूपान्तरण माना गया है, जो स्वयं को अनंत- अनंत रूपों में विभाजित करके सृष्टि की रचना और पोषण का कार्य देखती है। इसलिये

    यह महाविद्या सृजन शक्ति से सदैव सम्पन्न रहती है। तंत्र साहित्य में माँ तारा की साधना, पूजा-उपासना और तांत्रिक अनुष्ठानों पर बहुत विस्तार से प्रकाश डाला गया है। माँ तारा के ऐसे अनुष्ठानों को सम्पन्न करके अनेक प्रकार की पीड़ाओं तथा कष्टों से सहज ही मुक्ति

    मिल जाती है और माँ के साधक सहज ही विभिन्न प्रकार के भौतिक सुख, साधनों की प्राप्ति कर लेते हैं। इतना ही नहीं, इस महाविद्या की साधना के माध्यम से परमात्मा का सहज साक्षात्कार पाकर मुक्ति लाभ भी सहज एवं सम्भव हो जाता है। माँ तारा का स्वरूप आद्य जननी महाकाली से बहुत साम्य रखता है । यद्यपि यह कज्जल सी काली न होकर गहरे नीले वर्ण वाली है। इसलिये इन्हें 'नील सरस्वती' भी

    कहा जाता है। माँ का यह नीला रंग अनन्त, असीम सीमाओं और क्षमताओं का प्रतीक है। माँ की इन असीम, अनंत क्षमताओं की वास्तविक अनुभूति इनकी साधना के माध्यम से ही प्राप्त हो पाती है। अतः द्वितीय महाविद्या के रूप में माँ तारा अनंत, असीम संभावनाओं की प्रतीक है। माँ तारा की तंत्र साधना और उनके तांत्रिक अनुष्ठानों के विषय में गहराई से जानने से पहले अगर ‘तंत्र' और 'तंत्र की सीमाओं के विषय में थोड़ा जान लिया जाये तो

    अधिक उपयुक्त रहेगा, क्योंकि इससे तंत्र के वास्तविक रूप विशेषकर तांत्रिकों की महाविद्याओं और उनकी अनुकंपा के प्रसाद स्वरूप प्राप्त होने वाले फलों को समझने में सहजता रहेगी।



    तारा महाविद्या और उनके रूप :



    तंत्र शास्त्र में जिन महाविद्याओं का विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है, उनकी साधना, उपासनाएं, दिव्य साक्षात्कार और परम सिद्धि पाने के साथ-साथ अलग-अलग प्रकार की अभिलाषाओं एवं इच्छाओं की पूर्ति के उद्देश्य के लिये भी की जाती है । तांत्रिकों की यह समस्त महाविद्याएं अमोघ शक्ति की स्वामिनी मानी गयी हैं, जो प्रसन्न होने पर अपने साधकों के सभी दु:ख, दर्द आदि को मिटाकर उन्हें समस्त सुख, सम्पन्नता प्रदान कर देती है।

    तंत्र की दस महाविद्याओं में तारा नामक महाविद्या को आद्य जननी माँ काली के बाद द्वितीय स्थान प्रदान किया गया है । तारा महाविद्या का स्वरूप भी महाकाली से काफी समानता रखता है । यद्यपि यह भंवरे के समान काली न होकर नील वर्ण वाली है । अतः गहन विद्वता की सूचक भी है। इसीलिये इन्हें एक नाम नील सरस्वती भी प्रदान किया गया है।यद्यपि माँ तारा को तांत्रिकों और अघोरियों की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्राचीन

    समय से मान्यता दी गयी है, लेकिन यह साधारण भक्तों को भी प्रसन्न होकर ज्ञान, बुद्धि, वाक्शक्ति प्रदान करके महापुरुष बना देती है। यह अपने भक्तों की पुकार शीघ्र ही सुनकर भयंकर विपत्तियों से उन्हें रक्षा प्रदान करती है और अन्त में उन्हें मोक्ष तक प्रदान करा देती है। औघड़ों की कोई भी तंत्र साधना बिना तारा महाविद्या को प्रसन्न किये सम्पन्न हो ही नहीं सकती। तांत्रिकों ने अपनी साधनाओं के आधार पर माँ तारा के आठ विविध रूप माने हैं। माँ तारा के यह आठ रूप क्रमशः तारा, उग्रतारा, महीग्रा, वज्रा, काली, नील सरस्वती, कामेश्वरी और चामुण्डा हैं । यद्यपि इन आठ रूपों में से तीन स्वरूपों की साधना, उपासना का ही अधिक प्रचार-प्रसार रहा है। माँ तारा के यह तीन स्वरूप भी तारा, उग्रतारा और नील सरस्वती के रूप में तांत्रिकों द्वारा पूजे जाते रहे हैं। तारा के यह स्वरूप भारतीय तांत्रिकों के साथ-साथ जैनियों, बौद्धों द्वारा भी पूजे गये और इनसे संबंधित तंत्र साधनाएं भारत भूमि के साथ-साथ नेपाल, तिब्बत, चीन, जापान, मंगोलिया, श्रीलंका तक खूब प्रचलित रही हैं ।श्री तारा के रूप में तारा महाविद्या को 'एक जटा तारा' भी कहा जाता है । यह अपने इस स्वरूप में समस्त संसार का कल्याण करने वाली है । एक जटा के रूप में माँ तारा की साधना अघोरियों में होती है। उग्रतारा के रूप में यह महाविद्या भयानक विपत्तियों से उद्धार करती है और निःसंतानों को सन्तान सुख प्रदान करती है। तंत्रशास्त्र में इन्हें पुत्र प्रदायनी महाविद्या कहा जाता है। नील सरस्वती के रूप में तारा महाविद्या अपने भक्तों को वाक्सिद्धि प्रदान करती है ।

    हमारे देश में तारा महाविद्या की साधना के कई स्थान प्रसिद्ध हैं, जिनमें अग्रांकित पांच तारा पीठ अत्यन्त प्रभावशाली हैं। इन तारा पीठों पर आज भी अनेक तांत्रिक, मांत्रिक और औघड़ों को विभिन्न प्रकार के तांत्रिक अनुष्ठान सम्पन्न करते हुये और अपनी आराध्य देवी को प्रसन्न करते हुये देखा जा सकता है। कामाख्या स्थित महोग्रा सिद्ध पीठ में तो अनेक औघड़ों को शव साधना करते हुये भी देखा जा सकता है । यह औघड़ सिद्ध पीठ के आस-पास की गुफाओं में ही रहते हैं और वहां स्थित महा शमशान में अपनी

    साधना करते हैं। माँ तारा के इन पांच सिद्ध पीठों में से एक बिहार राज्य के सहसरा जिले के महिषा ग्राम में स्थित है। इस सिद्धपीठ में माँ तारा के तीनों रूपों, जैसे श्री तारा (एक जटा), उग्रतारा और नील सरस्वती को एक साथ प्रतिष्ठित किया गया है। यह एक सिद्ध स्थान है। यहां पहुंचते ही भक्तों के मन में विशेष भावों की जाग्रति होने लगती है। मेरा स्वयं का कई बार का अनुभव है कि माँ के इन तीनों स्वरूपों के दर्शन मात्र से समस्त प्रकार की तांत्रिक अभिचार क्रियायें स्वतः ही नष्ट हो जाती हैं और साधक पर सुख,

    सौभाग्य की वर्षा होने लग जाती है। ऐसे प्रमाण मिले हैं कि महिषा ग्राम के इस तारा पीठ की स्थापना महर्षि वशिष्ठ ने की थी । आचार्य महामुनि वशिष्ठ को ही तारा महाविद्या का प्रथम साधक माना जाता है।

    इसी पीठ पर रहकर महर्षि वशिष्ठ ने अपनी आराध्य जननी को प्रसन्न किया था और उनकी कृपा से कई तरह की सिद्धियां प्राप्त की थीं । इसलिये तांत्रिक ग्रंथों में इस पीठ का

    उल्लेख वशिष्ठोपासित पीठ या वशिष्ठापाधिरा तारा पीठ के रूप में किया गया है। तारा महाविद्या का दूसरा सिद्धपीठ पश्चिम बंगाल में रामपुर हाट रेलवे स्टेशन से पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस पीठ को तारा पीठ के नाम से जाना जाता है। इस तारा पीठ के साथ भी महर्षि वशिष्ठ का गहरा संबंध रहा है। इसी स्थान पर वशिष्ठ जी को अगमोक्त पद्धति ( तंत्र की एक विशिष्ट प्रक्रिया) से माँ की साधना करने का आदेश प्राप्त हुआ था और उसी के बाद वह अपनी तांत्रिक साधनाओं में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सके थे। । यह तारा पीठ प्राचीन उत्तरवाहिनी नदी द्वारिका के किनारे एक महाशमशान में स्थित है। इसी तारा पीठ पर रहकर वामाक्षेपा ने माँ का साक्षात्कार पाया था । वामाक्षेपा अपनी तंत्र साधना के उस स्तर तक पहुंच गये थे कि माँ को अपने भक्त की देखभाल के लिये आना पड़ता था। अपनी साधना से वामाक्षेपा उस बालोचित्त अवस्था में पहुंच गये थे कि माँ को स्वयं अपना स्तनपान कराकर उनकी क्षुधा शांत करनी पड़ती थी ।

    माँ तारा का यह पीठ इतना अद्भुत और चेतना सम्पन्न है कि यहां बैठकर माँ का स्मरण करने मात्र से ही शरीर में झुरझुरी सी होने लगती है और बाह्य चेतना का लोप होने लगता है। यह पीठ 1008 नरमुण्डों की पीठ पर स्थापित किया गया है। इस पीठ पर माँ की नियमित पूजा तब तक अधूरी मानी जाती है, जब तक कि उन्हें चिताभस्म का स्नान न करवा दिया जाये और चिता से उठती गंध से भासित न कर दिया जाये। इस सिद्ध पीठ पर बैठकर तंत्र साधना करने की लालसा प्रत्येक तंत्र साधकों के मन में रहती है। इसलिये यह तांत्रिक और अघोरियों का मुख्य आकर्षक केन्द्र बना रहता है ।

    माँ तारा का तीसरा सिद्धपीठ आसाम में कामाख्या के पास योनि मण्डल के अन्तर्गत स्थित है। यह सिद्धपीठ महोग्रा सिद्धपीठ के नाम से विख्यात है। इस सिद्धपीठ की भी बहुत महिमा है। यहां पर औघड़ों और कापालिकों का सदैव तांता लगा रहता है । वर्ष में कम से कम दो बार तो यहां सभी तारा साधक अवश्य ही एकत्रित होते हैं और आगे की साधना का उपक्रम लेकर जाते हैं। यह पीठ नीलकूट पर्वत पर स्थित है। चौथा सिद्धपीठ श्री जालन्धर सिद्धपीठ के नाम से जाना जाता है, जिसकी पहचान चामुण्डा पीठ के रूप में हुई है। यहां माँ तारा (श्री तारा) की वज्रेश्वरी के रूप में प्रतिष्ठा की गयी है। यह पीठ भी एक शमशान में स्थित है। तारा महाविद्या का पांचवा सिद्धपीठ उत्तरप्रदेश में मिर्जापुर जनपद में विंध्याचल क्षेत्र में शिवपुर के पास गंगा किनारे रामाया घाट स्थिम महाशमशान में स्थित है। यह पीठ भी तारा पीठ के नाम से ही जाना जाता है। माँ का यह सिद्ध पीठ अद्भुत चेतना

    सम्पन्न है। इसलिये तंत्र साधना में गहरी रुचि रखने वाले तांत्रिकों, भैरवियों, अघोरियों में इसके प्रति विशेष आकर्षण है। माँ तारा के इन सिद्धस्थलों पर स्वयं मेरी भेंट अनेक तांत्रिकों, अघोरियों, भैरवियों

    आदि के साथ होती रही है। इन सिद्धस्थलों के अलावा भी नेपाल, लेह, लद्दाख, हिमाचल के कुल्लू-मनाली क्षेत्र और बद्री केदार क्षेत्र में अनेक ऐसे पवित्र और प्रभावशाली स्थान हैं, जहां तारा साधक अपनी साधनाओं में सफलता प्राप्त करते हैं । इन स्थानों पर अब भी अनेक तंत्र साधकों को अपनी तंत्र साधनाओं में निमग्न देखा जा सकता है।




    जैन धर्म में तारा साधना :




    तारा महाविद्या की साधना तंत्र साधकों के अतिरिक्त बौद्ध भिक्षुओं और जैन साधकों में भी खूब प्रचलित रही है। अगर बात जैन धर्म की की जाये तो प्राचीन समय से ही जैन मतावलम्बियों में माँ तारा की उपासना होती आ रही है। दरअसल जैन धर्म में चौबीस तीर्थंकरों की मान्यता है और उन्हीं के अनुसार चौबीस तीर्थंकरों की चौबीस शासन देवियां मानी गयी हैं। इन देवियों को जिन शासन में शीर्ष स्थान प्रदान किया गया है। जैन धर्म में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को स्वीकार किया गया है और उसी प्रकार भगवान ऋषभदेव के शासन की प्रभाविका देवी चक्रेश्वरी मानी गयी है। जैन धर्म में आठवें तीर्थंकर के रूप में चन्द्रप्रभु की मान्यता है और उनकी शासन देवी ज्वाला मालिनी देवी मानी गयी है। इसी प्रकार बाइसवें तीर्थंकर की मान्यता भगवान नेमिनाथ को दी गई है और उनकी शासन देवी का स्थान अम्बिका को दिया गया है। तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ माने गये हैं और उनकी शासन प्रभाविका देवी के रूप में ही माँ तारा की प्रतिष्ठा माता पद्मावती के रूप में की गयी है। जैन धर्मावलम्बियों में देवी पद्मावती के रूप में माँ तारा की पूजा, अर्चना, आराधना से इहलोक के साथ-साथ परलोक संबंधी समस्त सुख, वैभवों की प्राप्ति की मान्यता रही है। माता पद्मावती के प्रति भक्ति और उनके आशीर्वाद की गौरव गाथा जैन ग्रंथों में यत्र- तत्र विपुल मात्रा में उपलब्ध है। यहां एक ओर लोकेषणा (सांसारिक इच्छाओं की प्राप्ति ) के लिये माँ की पूजा-अर्चना की जाती है, वहीं दूसरी ओर बड़े-बड़े जैन मुनियों ने अलौकिक एवं दिव्य आनन्द की प्राप्ति के लिये कल्याणमयी माँ पद्मावती को अपनी आराधना का अंग बनाया ।

    ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि प्रसिद्ध जैन मुनि हरिभद्र शूरि ने अम्बिका देवी को प्रसन्न करके उनका आशीर्वाद प्राप्त किया, तो वहीं दूसरी ओर आचार्य भट्ट अकलंक ने माता पद्मावती को प्रसन्न करके उनसे वरदान ग्रहण किया । आचार्य भद्रबाहू स्वामी ने एक व्यंतर (देव) के घोर उपसर्ग से आत्मरक्षा के निमित्त माँ पद्मावती की अभ्यर्थना की थी । एक अन्य जैन श्रुति के अनुसार श्रृणुमान, गुरुदत्त तथा महताब जैसे जैन श्रावकों पर भी माता

    पद्मावती की सदैव विशेष अनुकंपा बनी रही थी । माता पद्मावती को विभिन्न नामों से स्मरण किया जाता है, जिनमें सरस्वती, दुर्गा, तारा, शक्ति, अदिति, काली, त्रिपुर सुन्दरी आदि प्रमुख हैं। माता पद्मावती की स्तुति, भक्ति के लिये जैन ग्रंथों में विपुल स्तोत्र साहित्य उपलब्ध है। इनकी स्तुति एवं भक्ति समस्त दु:खों का शमन करने वाली, प्रभु का सान्निध्य, सामीप्य के साथ-साथ दिव्य आनन्द प्रदान करने वाली संजीवनी मानी गयी है। विभिन्न स्तोत्रों के रूप में माता पद्मावती की पूजा- अर्चना भक्त हृदयों का कंठहार बन गयी है । पार्श्वदेव गणि कृत भैरव पद्मावती कल्प स्तोत्र में कहा गया है कि माता पद्मावती की आराधना से राज दरबार में, शमशान में, भूत-प्रेत के उच्चाटन में, महादुःख में, शत्रु समागम के अवसर पर भी किसी तरह का भय व्याप्त नहीं रहता । सांसारिक इच्छाओं से अभिभूत होकर बहुत से लोग माँ की पूजा-अर्चना में निमग्न होते हैं, लेकिन जब वह लौकिक भक्ति के साथ विशेष अनुष्ठान (तांत्रिक पद्धति) से करते हैं, तो उनका अनुष्ठान अलौकिक रूप धारण कर लेता है ऐसी अवस्था में साधक की भक्ति मंगललोक में प्रवेश कर जाती है, जैसे सौभाग्य रूप दलित कलिमलं मंगल मंगला नाम अर्थात् माता सौभाग्य रूप है तथा कलियुग के दोष हरण कर उत्कृष्ट मंगल को प्रदान करने वाली है। तंत्र की भांति ही जैन धर्म में भी माता पद्मावती का चतुर्भुजधारी रूप स्वीकार किया गया है। माता पद्मावती की प्रत्येक भुजा में क्रमश: आशीर्वाद, अंकुश, दिव्य फल और चतुर्थ भुजा में पाश (फंदा) माना गया है। माँ की इन भुजाओं का विशेष प्रतीकात्मक अर्थ है। जैसे माँ का प्रथम वरदहस्त समस्त प्राणी जगत को आशीर्वाद का संकेत प्रदान करता है। दूसरी बाजू में अंकुश है जो इस बात का प्रतीक है कि साधक को प्रत्येक स्थिति में अपने ऊपर अंकुश (संयम) बनाये रखना चाहिये। तीसरी बाजू में दिव्य फल भक्ति के फल को प्रदान करने वाला है, जबकि चतुर्थ बाजू में पाश प्रत्येक प्राणी को कर्मजाल से स्वयं को सदैव के लिये बचाये रखने के लिये प्रेरित करता है । जैनधर्म में माता पद्मावती का वाहन कर्कुट नाग माना गया है । यह भी तांत्रिकों की भांति माँ के रौद्ररूप का परिचायक है। कर्कुट नाग का अर्थ विषैले नाग से है। यह पापाचारियों के लिये दण्ड का चिह्न है। माता पद्मावती पार्श्वनाथ की लघु प्रतिमा को अपने

    है शीश पर धारण किये रहती हैं। गुजरात में मेहसाणा के पास मेरी एक जैन मुनि से भेंट हुई थी, जो पिछले लगभग चालीस सालों से माँ पद्मावती की साधना करते आ रहे हैं। उन्होंने तांत्रिक पद्धति से माँ का साक्षात्कार प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की है। इन जैन मुनि के आशीर्वाद मात्र से चमत्कार

    घटित होते हुये देखे गये हैं।



    तारा पीठ के तंत्रोपासक :



    बंगाल के प्राचीन तारा पीठ पर मेरे ऊपर भी एक महातांत्रिक की कृपा दृष्टि हुई थी । वह महातांत्रिक कामाख्या के पास रहते थे और वर्ष में कम से कम दो बार अपने साधना स्थल से निकल कर माँ तारा का आशीर्वाद लेने के लिये तारापीठ आया करते थे । इन्हें महातांत्रिक भैरवानंद के नाम से जाना जाता है। बंगाल के दक्षिणेश्वर के पास बारह वर्ष तक उन्होंने अपने गुरु के सान्निध्य में रह कर कई तरह की तांत्रिक साधनाएं सम्पन्न की थी, लेकिन उनके गुरु अघोर पंथ से संबंध रखते थे। भैरवानंद का लक्ष्य तारा महाविद्या को सम्पूर्णता के साथ स्वयं में आत्मसात करना और तंत्र की उच्च सिद्धियां प्राप्त करना था। अपने मुख्य लक्ष्य के विषय में भैरवानंद जी ने कई बार अपने गुरु के सामने प्रकट भी किया, किन्तु उनके गुरु ने उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। फिर एक दिन अचानक उन्होंने गुरु आज्ञा लेकर दक्षिणेश्वर अपने आश्रम का परित्याग कर दिया । बंगाल छोड़कर वह बनारस में रहने लगे, लेकिन वहां भी उनका मन नहीं लगा, तो वह बनारस से नेपाल चले गये । नेपाल में वह कई वर्ष तक रहे और इस दौरान उन्होंने

    कई तरह की साधनाएं सिद्ध की । नेपाल से आकर वह हिमाचल प्रदेश में कई वर्ष तक भटकते रहे तथा कई तांत्रिकों के साथ रहकर अपना अनुभव एवं ज्ञान बांटते रहे । अन्ततः वह अपनी यात्रा के अन्त में कामाख्या के तंत्र क्षेत्र में पहुंच गये । कामाख्या में ही उनकी भेंट एक सिद्ध तारा साधक से हुई और उन्हीं के मार्गदर्शन में रहकर उन्होंने तारा महाविद्या को आत्मसात करने में सफलता प्राप्त की। तारा महाविद्या को पूर्णतः से सिद्ध करने में इस महातांत्रिक को सात वर्ष का समय लगा। असम के कामाख्या क्षेत्र में तांत्रिक भैरवानन्द की इतनी प्रसिद्धि है कि उनकी एक झलक पाने के लिये लोग घंटों नहीं कई-कई दिनों तक इंतजार में बैठे रहते हैं, परन्तु 'भैरवानन्द मनमौजी तांत्रिक हैं। अपनी मर्जी से ही लोगों से भेंट करते हैं। उनकी मर्जी न हो तो, डांट-डपट कर अपने पास पहुंचे लोगों को दूर हटवा देते हैं अथवा स्वयं ही लोगों की भीड़ से बचने के लिये कुछ दिनों के लिये अन्यत्र किसी गुप्त स्थान पर चले जाते हैं। सैंकड़ों लोगों के ऐसे अनुभव रहे हैं कि जिस किसी पर एक प्रसन्न होकर तांत्रिक भैरवानन्द ने आशीर्वाद प्रदान कर दिया तो उस व्यक्ति का भाग्य स्वतः ही चमक जाता है। रातोंरात उस व्यक्ति की स्थिति में बदलाव आ जाता है, लेकिन हर किसी के भाग्य में किसी सिद्ध साधक का आशीर्वाद प्राप्त करना नहीं होता । 



    माँ तारा के विशिष्ट तांत्रिक अनुष्ठान :



    यद्यपि तारा विद्या को सम्पूर्णता के साथ स्वयं में आत्मसात करना ही एक तंत्र साधक का मुख्य और परम लक्ष्य रहता है । इसे ही तंत्रशास्त्र में 'महाविद्या को सिद्ध ' करना कहा गया है, लेकिन सभी लोगों के लिये यह प्रमुख ध्येय नहीं होता। अत: सामान्य पाठकों के लिये लिखी जाने वाली इस पुस्तक का भी यह मुख्य विषय नहीं है। तंत्र के उच्च स्वरूप को समझने के लिये पुस्तक की जगह 'गुरु' के मार्गदशन की आवश्यकता रहती है। तंत्र साधना की ऐसी दिव्य उपलब्धियों के लिये पर्याप्त धैर्य, समर्पण, सम्पूर्ण

    विश्वास और गुरु पर पूर्ण आस्था रखने की आवश्यकता होती है। इस क्षेत्र में अधीरता अथवा अत्यधिक उतावलेपन की जगह गहन श्रद्धा एवं दीर्घ अभ्यास की आवश्यकता पड़ती है। वैसे भी तंत्र साधना के उच्च विषय गोपनीयता के आवरण में ढके रखे जाने का प्रावधान रहा है। इसके विषय में किसी योग्य मार्गदर्शक के द्वारा ही जाना जा सकता है। पुस्तक के इस अंश में सीमित आकांक्षाओं में प्रभावशाली रहने वाले तांत्रिक अनुष्ठानों के विषय में संक्षिप्त प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है। तारा महाविद्या के रूप में माँ तारा के अनेक तरह के तांत्रिक अनुष्ठान प्रचलित रहे हैं। इन विभिन्न तरह के अनुष्ठानों को सम्पन्न करके बहुत से लोगों ने अनेक प्रकार की परेशानियों, दु:ख, दर्द आदि से मुक्ति पाई है। यद्यपि माँ तारा के ऐसे अनुष्ठान आर्थिक समस्याओं में फंसे हुये और भारी कर्ज के बोझ से दबे हुये लोगों के लिये संजीवनी बूटी जैसी भूमिका निभाते देखे गये हैं। इन अनुष्ठानों से सहज ही व्यापारिक बाधाएं दूर होती

    हैं। शत्रु बाधाएं भी धीरे-धीरे समाप्त होती चली जाती है। साधकों को कई तरह के जटिल रोगों से भी मुक्ति मिल जाती है। माँ के इस अनुष्ठान का कोई लम्बा-चौड़ा विधान नहीं है और न ही इसे सम्पन्न करने के लिये किसी विशेष वस्तु की आवश्यकता पड़ती है। इस अनुष्ठान को सम्पन्न करने के लिये गुरु के सानिध्य और पूर्ण समर्पित भाव की आवश्यकता रहती है । इस अनुष्ठान को सम्पन्न करने के लिये एक शंकुकार बड़ी स्फटिक बॉल, हकीक की माला, हवन सामग्री के रूप में नीलोफर के पुष्प, अपराजिता के पुष्प, भूतकेशी की जड़, बालछड़, सुगन्धबाला, श्वेत चन्दन बुरादा, लौबान, चमेली पुष्प, पीली सरसों आदि के मिश्रण, आम्र की सूखी लकड़ी, गाय के घी का दीपक एवं कम्बल का आसन आदि की आवश्यकता पड़ती है।अनुष्ठान को सम्पन्न करने के लिये प्रातः काल चार बजे के आसपास का समय अथवा रात्रि के 10 बजे के बाद का समय अधिक श्रेष्ठ एवं उपयुक्त रहता है । इस अनुष्ठान को शुक्लपक्ष की नवमी तिथि से शुरू करना अति उत्तम रहता है । यह अनुष्ठान कुल 31दिन का है।

    जिस दिन इस अनुष्ठान को शुरू करना हो उस दिन सबसे पहले स्नानादि के उपरान्त केशरी रंग की धोती पहन कर कंबल के आसन पर उत्तराभिमुख होकर बैठ जायें । अनुष्ठान कक्ष को पहले ही इसके लिये तैयार कर लेना चाहिये । अनुष्ठान कक्ष में मध्यम प्रकाश की व्यवस्था रहनी चाहिये । यदि अनुष्ठान किसी ब्राह्मण द्वारा सम्पन्न कराना हो तो नियमित रूप से स्वयं थोड़े समय के लिये केशरी रंग की धोती पहनकर एक अलग कंबल के आसन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठा जायें ।

    आसन पर बैठने के पश्चात् सबसे पहले अपने सामने एक लकड़ी की चौकी रखकर उसके ऊपर केशरी रंग का वस्त्र बिछा लेना चाहिये, फिर उसके ऊपर एक चांदी की प्लेट में चांदी पर ही उत्कीर्ण एवं शुभ मुहूर्त व पूर्ण विधि-विधान से तैयार किया गया


    तारा श्रीयंत्र को पंचामृत व गंगाजल से स्नान कराकर प्रतिष्ठित कर देना चाहिये । तारा श्रीयंत्र के सामने ही स्फटिक बॉल रख देनी चाहिये तथा यंत्र के ऊपर तारा के अग्रांकित मंत्र का 21 बार उच्चारण करते हुये केशर टीका, अक्षत, चमेली पुष्प और पीला मिष्ठान अर्पित करते रहें । अन्त में उनके सामने दीपक जलाकर रख देना चाहिये। इसके उपरान्त अपने दाहिने हाथ की तरफ पहले से ही निर्मित त्रिभुजाकार हवनकुण्ड में विधिवत् आम्र लकड़ियों को प्रज्ज्वलित करके उसे विशिष्ट सामग्री युक्त समिधा और घी की आहुति प्रदान करनी चाहिये । हवनकुण्ड को प्रज्ज्वलित करने के पश्चात् पूर्ण भक्तिभाव युक्त होकर माँ का आवाह्न करना चाहिये तथा उनके सामने अपने संकल्प को बार-बार दोहराना चाहिये । अन्त में हकीक माला को अपने गले में धारण करके माँ तारा के अग्रांकित मंत्र द्वारा 1100 आहुतियां हवनकुण्ड में देनी चाहिये । मंत्रजाप के अतिरिक्त तीन पाठ तारा सहस्त्रनाम स्तोत्र के भी पूर्ण करने चाहिये । सहस्त्रनाम स्तोत्र के बाद भी

    21 मंत्रों के साथ हवनकुण्ड को समिधा अर्पित करनी चाहिये । इस अनुष्ठान के लिये माँ तारा का मंत्र यह है- ऐं ॐ ह्रीं तारा महाविद्या क्रीं हूँ फट्

    माँ का यह विशेष बीज मंत्र है जिसका मंत्रोच्चार पूर्णतः लयबद्ध एवं विचारशून्य होकर करना चाहिये। अगर इस मंत्र का सही रूप में लयबद्ध उच्चारण कर लिया जाये तो थोड़ी देर में ही साधक अपने शरीर एक विशेष प्रकार की कंपन का अनुभव करने लग जाता है। साधक की सुषुम्ना नाड़ी में शक्ति का जागरण होने लगता है। मंत्रजाप और स्तोत्र पाठ पूर्ण होने के पश्चात् भी माँ के सामने अपने संकल्प को दोहराना चाहिये । फिर माँ से आज्ञा लेकर आसन से उठना चाहिये । माँ के सामने दीपक जलाने का क्रम सुबह-शाम दोनों समय करना चाहिये । अनुष्ठान का यह क्रम निरन्तर 31 दिन तक इसी प्रकार से ही बना रहना चाहिये । प्रत्येक दिन अनुष्ठान की शुरूआत करने से पहले चौकी पर एकत्रित हुई पूजा सामग्री को एक जगह जमा कर लें। माँ तारा के श्रीयंत्र को नित्य प्रति पंचामृत स्नान कराने के बाद

    एवं विधिवत् पूजा करने के बाद माँ का आह्वान करें। जप और पाठ की शुरूआत एवं अन्त में अपने संकल्प को पूर्ववत दोहराते रहें। इनके अतिरिक्त 1100 मंत्रजाप से हवनकुण्ड में आहुतियों एवं तीन बार तारा सहस्त्रनाम स्तोत्र पाठ का क्रम भी पूर्ववत् रखें । 31वें दिन जब अनुष्ठान निर्विघ्न पूर्ण हो जाय तो 51 बार अतिरिक्त मंत्रों से आहुति और देनी चाहिये। एक ब्राह्मण के साथ तीन कन्याओं को भोजन करायें एवं दान-दक्षिणा देकर उनका आशीर्वाद लें। घर में भी उत्सव जैसा वातावरण बनाये रखें। अगले दिन तारा श्रीयंत्र को अपने पूजास्थल में स्थापित कर दें। स्फटिक बॉल को ऑफिस की टेबिल पर रखना चाहिये । हकीक माला को अपने गले में पहन लें। शेष समस्त सामग्रियों को किसी नदी या तालाब में प्रवाहित कर दें।



    कैंसर से मुक्ति के लिये माँ तारा की मंत्र साधना :



    स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्यायें प्राचीन काल से ही मानव के साथ जुड़ी हुई हैं। प्रत्येक काल में उपलब्ध साधनों के द्वारा ही इनका उपचार किया जाता रहा है। पहले वर्तमान समय के अनुसार रोगी को रोगमुक्त करने के लिये पर्याप्त सुविधायें नहीं थी । इसलिये तब रोगों को मंत्रजाप एवं विभिन्न अनुष्ठानों के माध्यम से दूर किया जाता था। आश्चर्य की बात तो यह है कि मंत्रजाप आदि से रोगी रोगों से मुक्त होकर स्वस्थ हो जाते थे, मंत्रजाप द्वारा रोगों से मुक्त होने की यह एक ऐसी विधा है जो हर काल और समय में प्रभावी रही है । आज भी मंत्रजाप द्वारा सामान्य एवं जटिल रोगों से मुक्त होना सम्भव है । कैंसर तक के रोगी मंत्रजाप से स्वस्थ होते देखे गये हैं। इसमें आवश्यकता केवल इस बात की है कि अनुष्ठान एवं मंत्रजाप विद्वान आचार्य के दिशा-निर्देश में हो। मैं यहां कैंसर से मुक्ति के बारे में एक प्रयोग लिख रहा हूं। इस अनुष्ठान के द्वारा कैंसर का रोगी ठीक हो जाता है। माँ तारा का यह अनुष्ठान भी 31 दिन का है। इस अनुष्ठान को सम्पन्न करने के लिये शुभ मुहूर्त में चांदी पर विधिवत् निर्मित तारा महाविद्या यंत्र, पंचमुखी लघु रुद्राक्ष माला, लौबान, केशर, पीली सरसों, सुपारी, लौंग, बेसन के लड्डू, ताम्र पात्र, पीले रंग के वस्त्र, पीले रंग का कम्बल आसन आदि वस्तुओं की आवश्यकता रहती है । (तारा महाविद्या

    यंत्र अगले पृष्ठ पर देखें । ) यह अनुष्ठान शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि से शुरू किया जाना उचित होता है लेकिन अगर रोगी की हालत अधिक खराब हो तो इसे किसी भी मंगलवार के दिन से भी प्रारम्भ किया जा सकता है। अनुष्ठान के लिये प्रातः काल का समय उपयुक्त रहता है। इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिये किसी योग्य विद्वान ब्राह्मण की मदद भी ली जा सकती है । ब्राह्मण को यह अनुष्ठान प्रात: 4 बजे के आसपास ही करना चाहिये । अनुष्ठान को प्रारम्भ करने के लिये सबसे पहले आसन बिछाकर पश्चिम की तरफ मुंह करके बैठ जायें। अगर रोगी अनुष्ठान के दौरान उसी साधना कक्ष में उपस्थित रहे तो अनुष्ठान का प्रभाव और भी बढ़ जाता है। अनुष्ठान कक्ष में रोगी की उपस्थिति अच्छी रहती है। अगर रोगी स्नान करने में सक्षम है तो स्नान करके अनुष्ठान कक्ष में बैठ सकता है। अक्षमता की स्थिति में हाथ, पांव तथा मुंहा का स्पंज स्नान किया जा सकता है । यह इसलिये आवश्यक समझा जाता है कि अनुष्ठान में उच्चारित मंत्रों को रोगी सुन सके । अगर रोगी की अनुपस्थिति में अनुष्ठान किया जा रहा हो तो अनुष्ठान में उच्चारित मंत्रों को टेप कर लें। बाद में रोगी टेप चलाकर मंत्रोच्चारण को सुन सकता है ।अनुष्ठान की शुरूआत लकड़ी की चौकी पर केसरी रंग का वस्त्र बिछाकर की जाती है। उस चौकी पर एक चांदी की प्लेट रखकर, उसमें केसर से त्रिकोण बनाकर उसमें तारा यंत्र को पंचामृत से स्नान करवाकर विधिवत् स्थापित किया जाता है। इसके उपरान्त पीली सरसों की एक ढेरी बनाकर उसके ऊपर एक तांबे का पात्र रखा जाता है।

    उसमें थोड़ी सी पीली सरसों, पांच सुपारी, पांच लौंग, पांच बेसन के लड्डू, सप्तरंगी के थोड़े से पुष्प और तीन सप्तमुखी रुद्राक्ष रखे जाते हैं। इन तीनों रुद्राक्षों को अनुष्ठान शुरू करने से पहले रोगी के शरीर पर धारण कराया जाता है और अनुष्ठान समाप्त होने पर रोगी के शरीर से उतारकर तामपात्र में रख दिया जाता है। पीली सरसों, सुपारी, लौंग, लड्डू, सप्तरंगी पुष्प आदि को भी रोगी के हाथों से स्पर्श करवाया जाता है। ताम्रपात्र की स्थापना के बाद उसके सामने गाय के घी का एक दीपक प्रज्ज्वलित कर रख दें। साथ ही शुद्ध लौबान का चूर्ण बनाकर उसी घी में मिला दें। शुद्ध लौबान के प्रयोग से शीघ्र ही साधना कक्ष सुगन्धित होने लग जाता है। यदि रोगी साधना कक्ष में

    उपस्थित नहीं रह सकता तो उसके कक्ष में भी मंत्र पाठ सुनाने के दौरान इसी तरह का


    दीपक जलाकर रखने की व्यवस्था करनी पड़ती है। दीप और पात्र स्थापना के बाद यंत्र को 21 बार माँ के तांत्रोक्त मंत्र के साथ केसर तिलक अर्पित करना चाहिये और साथ ही बार-बार माँ का आह्वान करते रहना चाहिये । माँ के आह्वान के बाद शुद्ध आचरण एवं पूर्ण भक्तिभाव युक्त होकर माँ के सामने अनुष्ठान के संकल्प को दोहराना चाहिये। फिर माँ की आज्ञा शिरोधार्य करके रुद्राक्ष माला से 21 मालाएं अग्रांकित मंत्र की जपनी चाहिये । मंत्र जाप पूर्ण हो जाने के उपरान्त 21 बार माँ के तांत्रोक्त स्तोत्र का पाठ भी करना चाहिये । स्तोत्र पाठ के बाद भी एक माला मंत्र जाप और करना चाहिये । मंत्रजाप और स्तोत्र पाठ पूर्णतः समर्पित भाव एवं श्रद्धा के साथ करना चाहिये। इस दौरान मंत्रजाप करने वाले ब्राह्मण की पूर्ण एकाग्रता अपने इष्ट पर बनी रहनी चाहिये । दीपक अखण्ड रूप से निरन्तर जलते रहना चाहिये । साधना कक्ष में किसी अन्य के आने पर पूर्णत: पाबन्दी रहनी चाहिये । यद्यपि इसमें रोगी को सुनाने के लिये मंत्रजाप और स्तोत्र

    पाठ को टेपरिकोर्डर में टेप करने के लिये एक व्यक्ति उपस्थित रह सकता है। इस प्रकार जब प्रथम दिन का मंत्रजाप और स्तोत्र पाठ पूर्ण हो जाये तो माँ के सामने एक बार पुनः अपने संकल्प को दोहराना चाहिये । माँ का आह्वान करते हुये उन्हें वापिस अपने लोक को लौट जाने की प्रार्थना करें। इसके उपरांत अपने आसन से उठना चाहिये । उठने के पश्चात् आसन को भी एक ओर उठा कर रख कर साधना कक्ष को बंद कर देना चाहिये। वैसे विधान तो यह है कि रात्री के समय भी माँ का आह्वान के साथ दीप प्रज्ज्वलित करके और आसन पर पुनः बैठकर एक माला मंत्रजाप एवं एक स्तोत्र पाठ पूरा करना चाहिये। पूरे अनुष्ठान के दौरान मंत्रजाप करने वाले ब्राह्मण को शुद्ध आचरण बनाये रखना चाहिये ।

    अनुष्ठान का यह क्रम पूरे 31 दिन तक इसी प्रकार से बनाये रखें। इस दौरान प्रत्येक दिन प्रात:काल यंत्र का पंचामृत से स्नान, केसर तिलक और दीप समर्पण, माँ का आह्वान एवं संकल्प क्रम को दोहरा कर मंत्रजाप व स्तोत्र पाठ करते रहना चाहिये । उसी प्रकार दिन के कार्यक्रम को विश्राम देना चाहिये। इस दौरान प्रत्येक सातवें दिन ताम्रपात्र में भरी सामग्री को किसी केसरी वस्त्र में बांधकर सात ताजे बेसन लड्डू के साथ किसी भिखारी

    को दे दें अथवा वस्त्र एवं बेसन के लड्डू भिखारी को देकर शेष सामग्री को किसी बहते हुये जल में प्रवाहित कर दें। ताम्रपात्र को पुनः पहले की तरह ही उन्हीं सामग्रियों से भरकर यंत्र की बगल में स्थापित कर दें।

    31वें दिन अनुष्ठान के पूर्ण होने की प्रक्रिया में मंत्रजाप और स्तोत्र पाठ पूर्ण करके और माँ के आह्वान के उपरान्त परिवार एवं आस पड़ोस में माँ के प्रसाद के रूप में बेसन के लड्डू वितरण करवा देने चाहिये। पूजा सामग्री को पूर्णवत् किसी भिखारी अथवा बहते जल में पात्र एवं दीपक सहित ही प्रवाहित करवा देना चाहिये। माँ के यंत्र को अपने पूजास्थान पर स्थापित कर दें तथा रुद्राक्ष की माला को रोगी के गले में धारण करवा दें। अनुष्ठान सम्पन्न होने पर ब्राह्मण देवता को भोजन करायें और दान-दक्षिणा देकर उन्हें प्रसन्नतापूर्वक विदाई दें । अनेक अवसरों पर इस अनुष्ठान के दौरान ही रोगी को लाभ मिलने लगता है। इस रोग के कारण रोगी के जो कष्ट निरन्तर बढ़ रहे होते हैं, उनका बढ़ता रुक जाता है और

    इसके बाद धीरे-धीरे रोगी स्वयं को पहले से अच्छा महसूस करने लगता है। कुछ रोगियों को अनुष्ठान के 21वें दिन से लाभ मिलता देखा गया है । इसके बाद लाभ मिलने की गति कुछ धीमी होती है किन्तु रोगी का रोग धीरे-धीरे ही दूर होने लगता है। इसमें सबसे बड़ी बात यह देखने में आती है कि जो दवायें अपना प्रभाव नहीं दे पा रही थी, अब उनका असर भी रोगी पर दिखाई देने लगता है। इसमें एक केस ऐसा देखने में आया जहां कैंसर के एक रोगी के बचने की आशा लगभग समाप्त हो गई थी। डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया

    था। फिर एक परिचित द्वारा इस अनुष्ठान के बारे में जानकारी मिली । एक विद्वान आचार्य की देख-रेख में इस अनुष्ठान को करवाने का मन बना लिया । परिवार वालों ने यह अनुष्ठान केवल इसलिये करवाया कि चलो, अन्तिम प्रयास है, करके देख लेते हैं। बाद में इसी अनुष्ठान के कारण से रोगी के प्राणों की रक्षा हुई थी । विद्वान आचार्यों का मत है कि एक बार के अनुष्ठान से अगर लाभ का अंशमात्र भी दिखाई दे, तो आशा छोड़नी नहीं

    चाहिये। एक अनुष्ठान के बाद दूसरा अनुष्ठान भी करवाने का प्रयास करना चाहिये। यदि कोई साधक किसी गंभीर रोग से ग्रस्त है तो उसे उपरोक्त अनुसार अनुष्ठान सम्पन्न करना चाहिये । मेरा विश्वास है कि उसे अवश्य ही स्वास्थ्य की प्राप्ति होगी।

    तारा का तांत्रोक्त मंत्र



    तारा माँ का तांत्रोक्त षडाक्षरी मंत्र निम्न प्रकार है-



    ऐं ॐ ह्रीं क्रीं हूँ फट्

    माँ का तांत्रोक्त स्तोत्र अन्यत्र देखा जा सकता है। पुस्तक की आकार वृद्धि के डर से उसे यहां नहीं लिखा जा रहा है। वैसे भी किसी भी प्रकार के तांत्रिक अनुष्ठानों की शुरूआत करने से पहले इस संबंध में विद्वान आचार्य से परामर्श अवश्य कर लेना चाहिये । किसी अनुष्ठान के लिये मंत्र का चुनाव अथवा स्तोत्र आदि का पाठन पुस्तकीय आधार पर स्वयं शुरू कर लेना खतरनाक सिद्ध हो सकता है। अतः इन्हें किसी आचार्य अथवा गुरु के माध्यम से ही ग्रहण करना चाहिये ।

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