अगद तंत्र (विष चिकित्सा)
अनुक्रम से वर्णन करने के प्रथम मुझे कुछ वार्ताविशेष निवेदन करनी हैं । सर्व विषों के उपायों के सम्बन्ध में सम्मिलित सूचना और इस विषय पर आवश्यक बातें और सर्वसाधारण के ज्ञान के अर्थ आवश्यक टिप्पणी, यह सब प्रथम लिख कर पश्चात् एक २ विष का वर्णन और उसका उपचार विधि पूर्वक करूंगा । क्योंकि मेरा स्वभाव ही है कि जिस विषय पर कोई पुस्तक लिखूं, एक या दूसरी पुस्तक को पकड़ कर लखानुलेख नहीं कर दिया करता ।प्रत्युत जब किसी विषय पर पुस्तक लिखनी हो तो वैद्यक, डाक्टरी, युनानी सर्व पुस्तकें जो यथासम्भव मिल सकें देखता हूं। बहुत समय पर्यन्त उन पर लगातार सोचता रहता हूं । और कुछ आनु- भविक बातें संग्रह करता रहता हूं । तब उस पुस्तक को पूरी लिखता हूं । अतः यद्यपि इस किताब का भी साइज़ बढ़ जावेगा। परन्तु इस विषय पर किसी अन्य पुस्तक को देखने की आवश्यकता नहीं रहेंगी । और समझ कर कहता हूं कि इस पुस्तक के मुद्रण से प्रथम ऐसी पुस्तक कहीं से नहीं मिल सकती है। यह पुस्तक हकीमों, वैद्यों, डाक्टरों सब को अपने समीप रखनी चाहिये, चिकित्सा के वास्ते काम दंगी, यदि कोई विषमारित लाश ( मृत शरीर ) भी उनके पास लाई जावे तो उनका कर्त्तव्य है कि देख कर बतावें कि मृत्यु का क्या कारण है । सर्वसाधारण को इस वास्ते सदा समीप रखनी चाहिये कि यद्यपि उनको मृत शरीर को चीर कर विषमारित का वृतान्त ज्ञात करने की आवश्यकता नहीं, परन्तु विषमारित रोगी की परीक्षा, उसका प्रयत्न प्रति समय आवश्यक है । कौन जानता है कि किस समय आवश्यकता पड़ जावे ॥पूर्व पुरुषों ने पूर्णतया अन्वेषण किया है जानना चाहिए कि पूर्वजों ने सर्व विषों के सम्बन्ध में बहुत सा अन्वेषण किया था। वैद्यक की पुस्तकें सुश्रुत आदि में शतशः ऐसे जीवों और कीड़ों इत्यादि के नाम मिलते हैं कि जिनके अर्थ भी समझ में नहीं आते; स्थात् उन दिनों विशेष वन, जंगल होने के कारण विशेष विषधारी कृमि हों, या यह कि उनके नाम ऐसे बदल गए हों कि अब हमें पता नहीं लगता है, जितना पता लगता है उनका वर्णन वहां बहुत
ही अच्छा लिखा गया है। इसी प्रकार यूनानी की प्राचीन पुस्तकों में कतिपय ऐसे नाम पाए जाते हैं कि जिनके अर्थ हम अपने शब्दों में नहीं समझ सकते हैं, परन्तु यह पता अवश्य लगता है कि उन पुरुषों ने पूर्णतया अन्वेषण किया था है । परन्तु ये विष कृत्रिम हैं,
डाक्टर नूतन विष बना रहे हैं -
डाक्टरी पुस्तकों में भी अग-णित ऐसे विष हैं कि जिनका वर्णन वैद्यक और यूनानी में नहीं है परन्तु ये बिष कृतिम हे स्वाभाविक नहीं । वैद्यक और यूनानी ने केवल स्वाभाविक विषों का वर्णन किया है, यथा कोकेन घोर बिष हे तम्बाकू का घोर बिष , कुचला का सत चावल भर मार सकता हैं कारबोलिक एसिड और इसी प्रकार के और तेजाब हलाहल विष से कम नहीं हैं । ये सर्व विष डाक्टरी प्रणाली और पदार्थों से बने हुए हैं, हम उनका वर्णन अवश्य करेंगे । डाक्टर लोग ऐसे विषों से बड़े बड़े काम लेते हैं |
विष रसायन होते हैं
स्मरण रहे कि विष अधिक मात्रा में मृत्यु का कारण होता है, परन्तु उचित मात्रा में सचमुच अमृत का काम देता है । संखिया अधिक मात्रा से मार देता है परन्तु उचित मात्रा से इस की भस्म, वृद्ध को युवा बना देती है । सर्प का विष मनुष्य को मार भी देता है, परन्तु उचित मात्रा में एक ही मात्रा से नपुंसक को पुरुषत्व प्राप्त होता है । और विषों की चिकित्सा भी है। प्रयोजन यह है कि कोई भी विष ऐसा नहीं है कि जिसमें शतश: बढ कर गुण न हों । इन बातों को तो सब जानते ही हैं परन्तु आप सुनकर चकित होंगे कि मधुमक्षिकायें यदि आमवात ( गठिया बाय ) वाले को काटें तो स्वस्थ हो जावे । एक व्यक्ति के घुटने पर अत्यन्त पीड़ा थी, वहां पर सहस्रपाद ( कनखजूरा ) चिमट गया और वह तत्काल राजी हो गया। हमारा विचार तो था कि प्रत्येक विष का जहां वर्णन करें वहां उसके गुण और उचित मात्रा आदि का भी वर्णन करते जावें, परन्तु इस लघु पुस्तक की मुटाई अधिक हो जाने का भय है । अतः हम इस भाग को किसी पृथक् पुस्तक के अर्थ रखते हैं। और यहां विष को केवल विष ही की अवस्था में वर्णन करेंगे । वत्सनाभ ( बछनाग ) भारी विष है, इसके गुण “देशोपकारक " में हमने वर्णन किए थे तो कई मास लगे थे ॥
जो पदार्थ खाने पीने या सूंघने, घाव में लगने या शरीर में छूने या काटने या डंक लगाने इत्यादि से हानि विशेष पहुंचावे या मारक चिन्ह प्रगट करे, उसे विष कहते हैं । इस परिभाषा की दृष्टि से एक साधारण पदार्थ भी और औषधि भी मात्रा से अधिक खाई जाये तो हानि पहुंचाने के कारण उसको विष कह सकते हैं, परन्तु विष का शब्द उन्हीं पदार्थों पर बर्ता जाता है जिनकी स्वल्प मात्रा ही बहुत हानि पहुंचाती है और आधिक्य मृत्यु का कारण होता है। जो पदार्थ पेट भर खाने से एक मनुष्य को मार देवे वह विष नहीं कहला सकता है। हां वह पदार्थ जो साधारण हैं, और साधारणतया विष उनको नहीं कहा जाता, परन्तु मात्रा में अधिक खाने से विषत्व उत्पन्न करते हैं, उनका वर्णन भी हम अन्त में करेंगे। विष को अंग्रेजी में पाइजन ( Poison) युनानी में सम्य और हिन्दी में ज़हर कहते हैं ||
फादजहर ॥
यह युनानी शब्द फादज़हर का अपभ्रंश है, विष को दूर करने वाला और प्राणरक्षक पदार्थ फादजहर कहलाता है इसी को अगदं कहना चाहिये ||
फादजहर का युनानी वर्णन ॥
जो पदार्थ जिस पदार्थ का विष दूर करे उसको उसका "अगद"या 'फादजहर' कहते हैं। उसे अंग्रेजी में Antidote' (अन्टीडोट)पुकारा जाता है। यथाहि, मारफिया का अगाद या एन्टीडोट, परमेंगेनेट आफ पोटाशियम है, या बच्छनाग का अगद निरविषी है । जिस विष का जो विषन्न है वही उसका फादजहर है, परन्तु युनानी में फाद- जहर खास औषधि का नाम भी है । यथाहि जहां लिखा हो फादजहर मादनी ( खानिज ) तो प्रयोजन 'जहरमोहरा' से होता है । फादजहर उस पदार्थ के साथ आता है जिसमें यह गुण हो कि विष को दूर करे, प्रकृति को सहायता दे, विष चाहे सरद हो या गरम स्वभावतः उसको लाभ पहुंचाने वाला हो । जहर मोहरा खताई, जहरमोहरा हैवानी, जुदवार खताई, नारयलदरयाई पपीता इत्यादि युनानी फादजहर हैं। फादजहर तीन प्रकार का होता है, फादजहर हैवानी ( पाशविक दर्पनाशक पदार्थ ) फादजहर मादनी ( खानिज दर्पनाशक पदार्थ ) फादजहर नबाती ( वानस्पत्य दर्प -नाशक पदार्थ ) ||
जहर मोहरा हैवानी -
कई प्रकार का होता है। एक बन्दर के पित्ता या आन्त से निकालते हैं। चीन और हिन्दुस्तान के महा- राजा उसको अपने खजाने में रखा करते थे, जो पत्थर की आकृति का होता है। दूसरा प्रकार वह है जो जंगली पशुओं चूहा, हिरण इत्यादि से निकालते हैं। एक को हजरुलतीस कहते हैं और यह शीराज़ से आता है। एक बारहसिंहा से निकलता है उसको 'हजरुल अमल' कहते हैं। और कहते हैं कि कोई व्यक्ति तीन रोज तक तीन रत्ती की मात्रा को घिस कर प्रति दिन पीवे तो आयु पर्यन्त कोई विष असर नहीं करेगा ||
अफसोस ! कि यह सब प्रकार के विष आधुनिक समय में नहीं प्राप्त होते हैं । राजाओं का ऐसे पदार्थ संग्रह करना काम था, सो उन बेचारों को यह बात कभी सूझती भी नहीं हैं। खैर ऐसे पुरुष भी हैं जो यत्न से कुछ न कुछ अन्वषेण करते रहते हैं। एक प्रकार यह है कि उसे हजरुलहप्या ' या मुहरामार कहते हैं । और पार्थविक जन्तुओं के काटने पर प्रयुक्त होता है और एक प्रकार वह है कि ‘ मारखोर ' बकरे के पेट से निकलता है, और सर्प के डंक पर लगाने से सब विष को चूस लेता है और प्रायः सपेरों( सर्प वालों ) से मिलता है, हमारे पास एक टुकड़ा है ।फादजहर हैवानी, को वर्षो पर्यन्त राजा लोग खाया करते थे ।उनकी प्रशंसा अपार है, इन से कई योग बनते हैं । यथा निम्न लिखित योगे प्राणरक्षक हैं शरीर को सर्व विषों से शुद्ध करता है।
शरीर की शक्ति और उत्तेजना को बढ़ाता है और आजायरईसा अर्थात् दिल दिमाग और जिगर का शक्ति वर्द्धक है ।युनानी योग- फादजहर हैवानी ६ रत्ती, अनविद्ध मोती ३ रत्ती, याकूत सुर्ख ३ रत्ती, लाल बदखशानी ३ रत्ती, संगयशब ३ रत्ती,मोमियाई ३ रत्ती, अम्बरअशहव ३ रत्ती, केशर ईरानी ३
रत्ती, स्वर्ण पत्र २ रत्ती, खालिस कस्तूरी १ रत्ती प्रथम कठोर पदार्थों को सीमाक पत्थर के खरल में खरल करें, पश्चात् शेष पदार्थ प्रविष्ट करके मिश्री की चाशनी बना कर सब पदार्थों को डाल कर तीन विभाग करें, और प्रति दिन एक भाग खावें और ऊपर से प्याला उष्ण दुग्ध का पीवे, और थोड़ा चलें, और थोड़ी देर के पश्चात् मिश्री के शर्बत में गुलाब का अर्क मिला कर पीने और आराम से रहें, जब तक पूर्ण क्षुधा न लगे भोजन न करे पूरी क्षुधा हो तो हल्का और अच्छा भोजन करे ॥
अफसोस ! कि यह सब प्रकार के विष आधुनिक समय में नहीं प्राप्त होते हैं । राजाओं का ऐसे पदार्थ संग्रह करना काम था, सो उन बेचारों को यह बात कभी सूझती भी नहीं हैं। खैर ऐसे पुरुष भी हैं जो यत्न से कुछ न कुछ अन्वषेण करते रहते हैं। एक प्रकार यह है कि उसे हजरुलहप्या ' या मुहरामार कहते हैं । और पार्थविक जन्तुओं के काटने पर प्रयुक्त होता है और एक प्रकार वह है कि ‘ मारखोर ' बकरे के पेट से निकलता है, और सर्प के डंक पर लगाने से सब विष को चूस लेता है और प्रायः सपेरों( सर्प वालों ) से मिलता है, हमारे पास एक टुकड़ा है ।फादजहर हैवानी, को वर्षो पर्यन्त राजा लोग खाया करते थे ।उनकी प्रशंसा अपार है, इन से कई योग बनते हैं । यथा निम्न लिखित योगे प्राणरक्षक हैं शरीर को सर्व विषों से शुद्ध करता है।
शरीर की शक्ति और उत्तेजना को बढ़ाता है और आजायरईसा अर्थात् दिल दिमाग और जिगर का शक्ति वर्द्धक है ।युनानी योग- फादजहर हैवानी ६ रत्ती, अनविद्ध मोती ३ रत्ती, याकूत सुर्ख ३ रत्ती, लाल बदखशानी ३ रत्ती, संगयशब ३ रत्ती,मोमियाई ३ रत्ती, अम्बरअशहव ३ रत्ती, केशर ईरानी ३
रत्ती, स्वर्ण पत्र २ रत्ती, खालिस कस्तूरी १ रत्ती प्रथम कठोर पदार्थों को सीमाक पत्थर के खरल में खरल करें, पश्चात् शेष पदार्थ प्रविष्ट करके मिश्री की चाशनी बना कर सब पदार्थों को डाल कर तीन विभाग करें, और प्रति दिन एक भाग खावें और ऊपर से प्याला उष्ण दुग्ध का पीवे, और थोड़ा चलें, और थोड़ी देर के पश्चात् मिश्री के शर्बत में गुलाब का अर्क मिला कर पीने और आराम से रहें, जब तक पूर्ण क्षुधा न लगे भोजन न करे पूरी क्षुधा हो तो हल्का और अच्छा भोजन करे ॥
फादजहर माइनी-
यह पत्थर खानों से निकलता है। दहली(इन्द्रप्रस्थ) दुर्ग में एक हौज ( जलाशम) था और उसमें पनी भरा रहता था, उसमें फादजहर मादनी लगा हुआ था, जिस किसी को शहर में कोई विषधारी जन्तु काटता, उसका पानी लेजाकर पिला देते, आराम आजाता था । सुना जाता है कि अब उसे उखाड़ २ कर अंग्रेज लेगए हैं | फादजहर मादनी मशहूर आजकल ज़हरमोहरा खताई ही है ।फादजहर मादनी श्वेत, पीत, हरित इत्यादि ५ प्रकार का होता है ।असली जहरमोहरा खताई वही है कि हल्दी को प्रथम पत्थर पर घर्षण करें, तत्पश्चात् उसे घिसें, यदि रंगत लाल हो जावे तो अच्छा है । यह भी लिखा है कि निम्ब के पत्ते मुंह में डालने से जो कड़वापन मुख में होजाता है, वह इसके डालने से जाता रहे और जिसका धूप में पसीना निकले वह सब से बढ़िया है। यह थोड़ा सा सर्प के मुख में डालें उसी समय मार देवे । असली की मात्रा एक रत्ती, परन्तु बाजारों में जो बहुतायत से मिलता है वह तो तोला २
भी खाया जाता है, विशेष अच्छा भी ३ माशा तक | यह सब विषों को दूर करता है । इसका खाना स्वास्थ्यरक्षक है, और महामारियों के दिनों में बीमारियों के बुरे असर से सुरक्षित रखता है, इत्यादि २ -- |फ़ादजहर नचाती-नारजेल दरयाई, निरवसी, पपीता इत्यादि है । स्खूबकला, गुले दाग़स्तानी इत्यादि भी फादजहर है, इनका वर्णन हमारी पुस्तक "प्लेग के प्रतिबंधक उपाय " में लिखा है । इच्छा हो तो वहां से देख लेवें ।।
भी खाया जाता है, विशेष अच्छा भी ३ माशा तक | यह सब विषों को दूर करता है । इसका खाना स्वास्थ्यरक्षक है, और महामारियों के दिनों में बीमारियों के बुरे असर से सुरक्षित रखता है, इत्यादि २ -- |फ़ादजहर नचाती-नारजेल दरयाई, निरवसी, पपीता इत्यादि है । स्खूबकला, गुले दाग़स्तानी इत्यादि भी फादजहर है, इनका वर्णन हमारी पुस्तक "प्लेग के प्रतिबंधक उपाय " में लिखा है । इच्छा हो तो वहां से देख लेवें ।।
जहर की किस्में -
यूनानी में विष तीन प्रकार के होते हैं ।जहर हैवानी जैसे सर्प, चूहा, बिच्छू जहर नबाती, जैसे अफयून,धतूरा, बच्छनाग। जहर जमादी जैसे संखिया, सिन्दूर | जो विष संयोग से स्वयं तैयार किया गया हो, उसको जहर मुरकब्बा कहते हैं । वैद्यक में विष को केवल दो भागों में विभक्त किया है, स्थावर,
( बेजान ) और जंगम (जानदार) । डाक्टरी में विष की यों तो बहुत किस्मे हो सकती हैं, परन्तु उन्होंने इस प्रकार से विभाग नहीं किया हैं, उनका विभाग उनके गुणों के सम्बन्ध से है, यथा साधारणतया निम्नलिखित विभाग किए जाते हैं। प्रथम Irritant ( इरिटैन्ट ) वह विष जिन से वमन और दस्त बहुत हो जावें, जैसे- नीला थोथा ॥ द्वितीय 'नारकोटैन्ट' (Narcotant ) जिससे दिमाग या दिल के कार्य में अन्तर आजावे और शरीर में शैथिल्यादि होकर
संज्ञानाशादि हो यथा कोकेन ||तृतीय 'नारकोटेको अरीकोटन्ट' ( Narcotico Irritant )
जिसमें उपरोक्त दोनों बातें हो ॥डाक्टरी के विष बहुत से सत इत्यादि उनके अपने बनाए हुएहैं, उनका वर्णन भी यथाशक्ति हम करेंगे ||सुश्रुत से साधारण वर्णन- अब हम वैद्यक के सुप्रसिद्ध परम माननीय सुश्रुत ग्रन्थ से विषों के वर्णन के सम्बन्ध में जो कुछ उस में पृथक् २ वर्णन करने से प्रथम संक्षेप से कतिपय आवश्यक बातें और साधारण नियम लिखे हैं, उन्हें लिखे देते हैं । हम सब बातों का उल्लेख नहीं करेंगे केवल कुछ आवश्यक बातों का ही अनुलेखन करते जायंगे । सुश्रुत में जहां से विषों का वर्णन आरम्भ किया है वहां सब से प्रथम इस बात का वर्णन है कि लोग प्रायः राजा को विष देदिया करते हैं, उसे बच कर रहना चाहिए, और किसी का विश्वास नहीं करना चाहिए । अत्यन्त ही योग्य वैद्य रखना चाहिए । जो भोज्य पदार्थों का निरीक्षण करे । पाकशाला अच्छे स्थान पर बनानी चाहिए । बर्तन शुद्ध और स्वच्छ रखने चाहिए, यहां तक कि पाकशाला के समीप कोई तिनका भी दृष्टि गोचर न हो, इत्यादि बहुत शिक्षायें पाकशाला, पाचक जन, सेवक इत्यादि के सम्बन्ध में लिखी हैं । पुनः लिखा है कि जो मनुष्य विष देता है उसकी क्या परीक्षा है ? (यह तो पुलीस का काम है) हम इ. को भी त्यागकर आगे चलते हैं। विष किस प्रकार मिलाया जाता है-भोजन में, पानी में, स्नान के पानी में, दातुन के द्वारा, कंधी से लगा कर. उबटन में मिला कर, छिड़कने के पदार्थों में, चन्दनादि लगाने के पदार्थों में, माला, कपड़े, मंचान, विस्तरे, आभूषण, खड़ाऊं, आसन, घोड़े ब हाथी की पीठ, अतर, नस्य, हुक्का, चिलम आदि और सुर्मा आदि के द्वारा अत्यन्त हानिकारक विष भीतर शरीर में पहुंचाए जाते हैं, जो कि राजा की मृत्यु के कारण होते हैं विषयुक्त भोजन की परीक्षा - जो भोजन राजा को परोसा जावे उस
को प्रथम श्वान, काक, मक्खी, चींटी के आगे
फेंकना चाहिए | यदि विषयुक्त होगा तो च्योंटी या ऐसे छोटे जन्तू तो तत्काल मर जावेंगे, और बड़े बेहोश हो जावेंगे, पुनः थोड़ा सा खाना उसमें से लेकर आग में डालना चाहिएँ, यदि विषयुक्त होगा तो अग्नि चिटचिट करने लगेगी, या उसमें नीली ज्वाला निकलेगी, या अग्नि के टुकड़े २ हो जाते हैं। धूम्र बहुत तेज होता है और जल्दी नहीं बुझता है | विषयुक्त भोजन परीक्षण के समय स्मरणीय वार्ता विषयुक्त भोजन की परीक्षा प्रायः जानवरों से ही होती है, अतः प्रथम उनको खिलाकर पश्चात् राजा को देना चाहिए । चकोर यदि विष युक्त खाने को स्वावे, या कदाचित देखने ही से उसके नेत्र विकृत
हो जाते हैं, कोयल का स्वरमाधुर्य्य तत्काल नष्ट हो जाता है, बक उन्मत्त हो जाता है, मोर अचेतना युक्त नृत्य करने लगता है, और भ्रमर गूंजने लगता है, चितकबरा हिरण रोने लगता है, तोता मैना पुकारने लगता है, हंस बहुत बोलने लगता है, बन्दर को दस्त लग जाते हैं। पस ऐसे जानवर राजा की पाकशाला के समीप रहने चाहिये। यही कारण है कि घरों में तोता, मैना, चकषा, बन्दर आदि रखने की प्रथा चली आती है, यद्यपि लोक इनके प्रयोजन से अनभिज्ञ हैं ॥ चिकित्सा–जब विषयुक्त भोजन सामने आजावे तो उसकी भाप से शिर का घूमना, या पीड़ा, दिल का घुटना इत्यादि हो जाता है, उस भोजन को दूर कर देना चाहिए; और कुष्ठ, हिंगु, उशीर ( खश ) और मधु ( शहद ) को पीसकर नस्य देना चाहिए ।इन्हीं को नेत्रों में अंजना चाहिए, और शिरीष, हल्दी और चन्दन इन का सिर पर लेप करना चाहिए और दिल पर चन्दन का लेप श्रेष्ठ है। इससे शान्ति आजायगी, या सिर पर अमृतधारा लगाना या अमृतधार की थोड़ी नस्य लेना और दो बिन्दु स्वानी चाहिए । यदि विषयुक्त भोजन का प्रास उठाया जावे, और उसमें विषविशेष हो तो उससे हाथ में जलन होने लगती है, और नख फटे से हो जाते हैं, उसी क्षण भोजन को त्याग कर अमृतधारा मर्दन कर दें। या निम्त्र गिलोय नेत्रवाला (नीलोफर) का लेप करदें || ग्रास के विष की परीक्षा - यदि भोजन में विष की परीक्षा न की जावे और मुख में ग्रास चला जावे, तो उससे जिह्वा खुरदरी हो जाती है, स्वाद चला जाता है, जिह्वा में पीड़ा या जलन भी हो जाती है, और मुख से लार बहने लगती है । तत्काल प्रास को बाहर निकाल कर अमृतधारा अन्दर और बाहर मर्दन कर देनी चाहिए, या कुष्ठ, मधु, हरिद्रा, उशीर (खस) को मुख में धारण करना चाहिए । यदि आमाशय में विष पहुंच जावे - यदि वह खाने का विष मुख में भी न पहिचाना जावे, और खाया जावे, तो सञ्ञ्ज्ञानाश, वमन, अतिसार, आध्मान, तपन, कम्प, इत्यादि होने आरम्भ होते हैं, ऐसी अवस्था में तत्काल मैनफल, कटु तुम्बिका, कटु तुरई, ३-३ माशा ऊष्णजल से खिलाकर, वमन करावें, दही के पानी या चावलों के धोवन से भी वमन होजाता है, प्रयोजन यह है कि जब विष आमाशय में हो तो वमन कराना तात्कालिक उपचार है, और तत्पश्चात् प्राकृत अवस्था के स्थापनार्थ अमृतधारा ३-३ बिन्दु जल में डालकर ४-५
बार देवें ॥ विष अन्त्रियों में प्रविष्ट होजावे-यदि विषमश्चित को बिलम्ब होगया हो, और भुक्त पदार्थ पक्का होकर आमाशय से गमन करता
हुवा अन्त्रियों में प्रवेश कर गया हो ( दो घंटे के पश्चात् ) तो उससे जलन, मूर्च्छा, अतिसार, अंगों में पीड़ा, निर्बलता, पीत अथवा श्यामवर्णता हो जाती है, इस अवस्था में विरेचन देना उचित है, कालादाना ३ माशा घृत में मिलाकर देवे, ताकि रेचन होजावे, अथवा दधि और मधु के सहित चौलाई इत्यादि पान करावें, अथवा अन्य कोई उचित रेचक औषति दें, तत्पश्चात् प्राकृतिक स्थिति और अवशिष्ट दोषनिवारणार्थ अमृतधारा देना उचित है ।
.पानीय पदार्थों में विषपरीक्षा - दुग्ध, मद्य, पानी इत्यादि में यदि विष संयुक्त किया गया हो तो उस में कई प्रकार की रेखायें होजाती हैं, अथवा फेन, बुलबुले उत्पन्न होजाते हैं, यदि उस में अपनी छाया देखी जावे तो प्रथम तो दृष्टि ही न पड़े, और पड़े भी तो छिद्रयुक्त और बिगड़ी हुई दिखाई देती हैं, अथवा दो दृष्टि पड़ेंगी । ( स्मरण रहे कि सम्प्रति नवीनविष जो सत्वइत्यादि निकालकर तैय्यार किये जाते हैं, उन में प्रायः यह लक्षण जो सुश्रुत में लिखे हैं नहीं भी होते, क्योंकि उस समय यह नहीं थे, उस समय जो विष दिये जाते थे हलाहल होते थे ) ॥
शाकादि में विषपरक्षिा-शाक, दाल, भात, तरकारी आदि में यदि विष प्रविष्ट किया गया हो तो उनका स्वाभाविक स्वाद नष्ट होजाता है, फट से जाते हैं, उसी समय बासी हुये २ ज्ञात होते हैं, सुगन्धित होकर दुर्गन्ध सी हो जाती है, पक्के फल फूट जाते हैं, और अपक्क पक्क से होजाते हैं ।
( बेजान ) और जंगम (जानदार) । डाक्टरी में विष की यों तो बहुत किस्मे हो सकती हैं, परन्तु उन्होंने इस प्रकार से विभाग नहीं किया हैं, उनका विभाग उनके गुणों के सम्बन्ध से है, यथा साधारणतया निम्नलिखित विभाग किए जाते हैं। प्रथम Irritant ( इरिटैन्ट ) वह विष जिन से वमन और दस्त बहुत हो जावें, जैसे- नीला थोथा ॥ द्वितीय 'नारकोटैन्ट' (Narcotant ) जिससे दिमाग या दिल के कार्य में अन्तर आजावे और शरीर में शैथिल्यादि होकर
संज्ञानाशादि हो यथा कोकेन ||तृतीय 'नारकोटेको अरीकोटन्ट' ( Narcotico Irritant )
जिसमें उपरोक्त दोनों बातें हो ॥डाक्टरी के विष बहुत से सत इत्यादि उनके अपने बनाए हुएहैं, उनका वर्णन भी यथाशक्ति हम करेंगे ||सुश्रुत से साधारण वर्णन- अब हम वैद्यक के सुप्रसिद्ध परम माननीय सुश्रुत ग्रन्थ से विषों के वर्णन के सम्बन्ध में जो कुछ उस में पृथक् २ वर्णन करने से प्रथम संक्षेप से कतिपय आवश्यक बातें और साधारण नियम लिखे हैं, उन्हें लिखे देते हैं । हम सब बातों का उल्लेख नहीं करेंगे केवल कुछ आवश्यक बातों का ही अनुलेखन करते जायंगे । सुश्रुत में जहां से विषों का वर्णन आरम्भ किया है वहां सब से प्रथम इस बात का वर्णन है कि लोग प्रायः राजा को विष देदिया करते हैं, उसे बच कर रहना चाहिए, और किसी का विश्वास नहीं करना चाहिए । अत्यन्त ही योग्य वैद्य रखना चाहिए । जो भोज्य पदार्थों का निरीक्षण करे । पाकशाला अच्छे स्थान पर बनानी चाहिए । बर्तन शुद्ध और स्वच्छ रखने चाहिए, यहां तक कि पाकशाला के समीप कोई तिनका भी दृष्टि गोचर न हो, इत्यादि बहुत शिक्षायें पाकशाला, पाचक जन, सेवक इत्यादि के सम्बन्ध में लिखी हैं । पुनः लिखा है कि जो मनुष्य विष देता है उसकी क्या परीक्षा है ? (यह तो पुलीस का काम है) हम इ. को भी त्यागकर आगे चलते हैं। विष किस प्रकार मिलाया जाता है-भोजन में, पानी में, स्नान के पानी में, दातुन के द्वारा, कंधी से लगा कर. उबटन में मिला कर, छिड़कने के पदार्थों में, चन्दनादि लगाने के पदार्थों में, माला, कपड़े, मंचान, विस्तरे, आभूषण, खड़ाऊं, आसन, घोड़े ब हाथी की पीठ, अतर, नस्य, हुक्का, चिलम आदि और सुर्मा आदि के द्वारा अत्यन्त हानिकारक विष भीतर शरीर में पहुंचाए जाते हैं, जो कि राजा की मृत्यु के कारण होते हैं विषयुक्त भोजन की परीक्षा - जो भोजन राजा को परोसा जावे उस
को प्रथम श्वान, काक, मक्खी, चींटी के आगे
फेंकना चाहिए | यदि विषयुक्त होगा तो च्योंटी या ऐसे छोटे जन्तू तो तत्काल मर जावेंगे, और बड़े बेहोश हो जावेंगे, पुनः थोड़ा सा खाना उसमें से लेकर आग में डालना चाहिएँ, यदि विषयुक्त होगा तो अग्नि चिटचिट करने लगेगी, या उसमें नीली ज्वाला निकलेगी, या अग्नि के टुकड़े २ हो जाते हैं। धूम्र बहुत तेज होता है और जल्दी नहीं बुझता है | विषयुक्त भोजन परीक्षण के समय स्मरणीय वार्ता विषयुक्त भोजन की परीक्षा प्रायः जानवरों से ही होती है, अतः प्रथम उनको खिलाकर पश्चात् राजा को देना चाहिए । चकोर यदि विष युक्त खाने को स्वावे, या कदाचित देखने ही से उसके नेत्र विकृत
हो जाते हैं, कोयल का स्वरमाधुर्य्य तत्काल नष्ट हो जाता है, बक उन्मत्त हो जाता है, मोर अचेतना युक्त नृत्य करने लगता है, और भ्रमर गूंजने लगता है, चितकबरा हिरण रोने लगता है, तोता मैना पुकारने लगता है, हंस बहुत बोलने लगता है, बन्दर को दस्त लग जाते हैं। पस ऐसे जानवर राजा की पाकशाला के समीप रहने चाहिये। यही कारण है कि घरों में तोता, मैना, चकषा, बन्दर आदि रखने की प्रथा चली आती है, यद्यपि लोक इनके प्रयोजन से अनभिज्ञ हैं ॥ चिकित्सा–जब विषयुक्त भोजन सामने आजावे तो उसकी भाप से शिर का घूमना, या पीड़ा, दिल का घुटना इत्यादि हो जाता है, उस भोजन को दूर कर देना चाहिए; और कुष्ठ, हिंगु, उशीर ( खश ) और मधु ( शहद ) को पीसकर नस्य देना चाहिए ।इन्हीं को नेत्रों में अंजना चाहिए, और शिरीष, हल्दी और चन्दन इन का सिर पर लेप करना चाहिए और दिल पर चन्दन का लेप श्रेष्ठ है। इससे शान्ति आजायगी, या सिर पर अमृतधारा लगाना या अमृतधार की थोड़ी नस्य लेना और दो बिन्दु स्वानी चाहिए । यदि विषयुक्त भोजन का प्रास उठाया जावे, और उसमें विषविशेष हो तो उससे हाथ में जलन होने लगती है, और नख फटे से हो जाते हैं, उसी क्षण भोजन को त्याग कर अमृतधारा मर्दन कर दें। या निम्त्र गिलोय नेत्रवाला (नीलोफर) का लेप करदें || ग्रास के विष की परीक्षा - यदि भोजन में विष की परीक्षा न की जावे और मुख में ग्रास चला जावे, तो उससे जिह्वा खुरदरी हो जाती है, स्वाद चला जाता है, जिह्वा में पीड़ा या जलन भी हो जाती है, और मुख से लार बहने लगती है । तत्काल प्रास को बाहर निकाल कर अमृतधारा अन्दर और बाहर मर्दन कर देनी चाहिए, या कुष्ठ, मधु, हरिद्रा, उशीर (खस) को मुख में धारण करना चाहिए । यदि आमाशय में विष पहुंच जावे - यदि वह खाने का विष मुख में भी न पहिचाना जावे, और खाया जावे, तो सञ्ञ्ज्ञानाश, वमन, अतिसार, आध्मान, तपन, कम्प, इत्यादि होने आरम्भ होते हैं, ऐसी अवस्था में तत्काल मैनफल, कटु तुम्बिका, कटु तुरई, ३-३ माशा ऊष्णजल से खिलाकर, वमन करावें, दही के पानी या चावलों के धोवन से भी वमन होजाता है, प्रयोजन यह है कि जब विष आमाशय में हो तो वमन कराना तात्कालिक उपचार है, और तत्पश्चात् प्राकृत अवस्था के स्थापनार्थ अमृतधारा ३-३ बिन्दु जल में डालकर ४-५
बार देवें ॥ विष अन्त्रियों में प्रविष्ट होजावे-यदि विषमश्चित को बिलम्ब होगया हो, और भुक्त पदार्थ पक्का होकर आमाशय से गमन करता
हुवा अन्त्रियों में प्रवेश कर गया हो ( दो घंटे के पश्चात् ) तो उससे जलन, मूर्च्छा, अतिसार, अंगों में पीड़ा, निर्बलता, पीत अथवा श्यामवर्णता हो जाती है, इस अवस्था में विरेचन देना उचित है, कालादाना ३ माशा घृत में मिलाकर देवे, ताकि रेचन होजावे, अथवा दधि और मधु के सहित चौलाई इत्यादि पान करावें, अथवा अन्य कोई उचित रेचक औषति दें, तत्पश्चात् प्राकृतिक स्थिति और अवशिष्ट दोषनिवारणार्थ अमृतधारा देना उचित है ।
.पानीय पदार्थों में विषपरीक्षा - दुग्ध, मद्य, पानी इत्यादि में यदि विष संयुक्त किया गया हो तो उस में कई प्रकार की रेखायें होजाती हैं, अथवा फेन, बुलबुले उत्पन्न होजाते हैं, यदि उस में अपनी छाया देखी जावे तो प्रथम तो दृष्टि ही न पड़े, और पड़े भी तो छिद्रयुक्त और बिगड़ी हुई दिखाई देती हैं, अथवा दो दृष्टि पड़ेंगी । ( स्मरण रहे कि सम्प्रति नवीनविष जो सत्वइत्यादि निकालकर तैय्यार किये जाते हैं, उन में प्रायः यह लक्षण जो सुश्रुत में लिखे हैं नहीं भी होते, क्योंकि उस समय यह नहीं थे, उस समय जो विष दिये जाते थे हलाहल होते थे ) ॥
शाकादि में विषपरक्षिा-शाक, दाल, भात, तरकारी आदि में यदि विष प्रविष्ट किया गया हो तो उनका स्वाभाविक स्वाद नष्ट होजाता है, फट से जाते हैं, उसी समय बासी हुये २ ज्ञात होते हैं, सुगन्धित होकर दुर्गन्ध सी हो जाती है, पक्के फल फूट जाते हैं, और अपक्क पक्क से होजाते हैं ।
दातुन में विषपरीक्षा -
यदि दन्तधावनी में किसी इलाहल विष को लगाया हो तो उसकी कूंची फटी छिदरी और बिखरी हुई होती है, और मुख में प्रविष्ट करने से जिव्हा मसूढ़े आदि में शोथ होजाता है। चिकित्सा यह है कि भल्लातक, हरीतकी, जामन की गुठली, पसिकर मधु में मिलाकर शोथस्थान पर पछने लगाकर मर्दन कर देवें, अथवा अमृतधारा मर्दन कर देखें, और खिला भी देवें । अथवा अकोल की जड़, सातला की छाल और सिरस के बीज मधु में मिलाकर शोथस्थान पर मर्दन कर देवें, जाभी को यदि विष लगाया गया हो तो उस की भी यही चिकित्सा और परीक्षा है ॥
मर्दन(मालिश के ) पदार्थों में विषपरीक्षण–
यदि मर्दन के पदार्थ तैल इत्यादि में विष प्रविष्ट किया गया हो तो वह गाढ़ा, गदला सा होजाता है, वर्ण विपर्यय होजाता है, मलने से जलन होती है, फफूले अथवा घाव होजाते हैं, पीड़ा होती है और पानी बहता है, त्वचा पक जाती है, स्वेद आता है और ज्वर होजाता है, चर्म फट जाता है । यदि ऐसा हो तो सरद पानी से स्नान करके चन्दन, बालछड़, कुष्ठ, उशीर ( खस ) बांस पत्री, गिलोय, सोमवल्ली, श्वेतचन्दन, नेत्रवाला, तज, श्वेता, इनमें से जितनी मिलें पीस कर शरीर पर लेप करें, और इन्हीं पदार्थों को थोड़े से कैथ के रस अथवा गोमूत्र के साथ पिलावें । अथवा श्वेतचन्दन घिस कर अमृतधारा प्रविष्ट करके सब शरीर पर लेपन करदें, और अमृतधारा तीन २ बिन्दु गिलोय के अर्क में मिलाकर एक २ घण्टे के पश्चात् देवें, तक कि अवस्था ठीक हो जावे। उबटन, छिड़कने के पदार्थ, विस्तरे बस्त्र इत्यादि में जो विष डाला गया हो तो उसके भी यही लक्षण और उपचार हैं |
लेप्य (लेप की वस्तु) में विषपरीक्षण -
यदि शरीर के किसी अंग पर लेप करने वाली चन्दनादि वस्तु को विष युक्त किया गया हो तो वहां के केश व रोम गिर जाते हैं अथवा निर्बल हो जाते है । शिर पर लगाने से पीड़ा आरम्भ होती है, विशेष समय तक रहने पर रोमों से रक्त बहना आरम्भ हो जाता है, और चहेरे पर मांठें पड़ जाती हैं। इसमें गोबर का रस या मालती अथवा मूषापर्णी जयमा गृहधूम्र (घर के धुंआं ) लेप करना उचित है । अथवा काली मृत्तिका को तैल, कन्याकुमारी ( घी कुमार) के गूदे, घी, प्रियंगू, काली निसोत और चौलाई इनकी भावना देकर अर्थात् इन में रगड़ २ कर उस मृत्तिका को इस प्रकार इनका रस पिलाकर इसका लेप करना चाहिए । अथवा अमृतधारा को खिन भी दें । शिर मर्दन के तैल, अतर इत्यादि तथा टोपी, पगड़ी, इत्यादि में जो विष सम्मिलित किया गया हो तो उसका उपरोक्त लक्षण और उपचार हैं । मुख के मलने की वस्तु में यदि विष हो तो उससे मुख काला हो जाता हैं, और उबटन में जो कुछ विष के लक्षण वर्णित हैं वही होते हैं, और मुहासा जैसे छोटे २ दाने उत्पन्न हो जाते हैं। इसमें घृत और मधु पान कराना लाभप्रद है। घृत और चन्दन लेप करना, अर्कपुष्पी मधुकाष्ट (मलेठी), भारंगी, दोपहरिया और साठी इनका लेप करना चाहिए । अथवा अमृतधारा को घृत के साथ मिलाकर मर्दन करना और घृत में मिलाकर खिलाना उचित है ।
सवारी की पीठ पर विष -
सवारी की पीठ पर विष -
यदि हाथी घोड़े इत्यादि सवारी की पीठ पर विष लगा दिया हो तो उनके मुख से लार बहने लगती है, उनके नेत्र लाल हो जाते हैं। यदि उन पर सवारी की जावे तो गुदा उपस्थेन्द्रिय और अण्डकोष के स्थानों पर फोड़े या फफोले हो जाते हैं, उचटन इत्यादि के वास्ते जो लिखा है वही करना चाहिए ।
नस्य और धूम्रइत्यादि में विष नस्य या दुक्का में जो विष
नस्य और धूम्रइत्यादि में विष नस्य या दुक्का में जो विष
हो तो उसके पान से मुख, नासिका या कण्ठ से रक्तस्राव होने लगता है, सिर पीड़ा हो जावे, कफ गिरने लगे, शरीर में शैथिल्य हो जावे, इस अवस्था में गोघृत में थोड़ी सी अतीस मिलाकर और घृत डाल में कर पान कराना उचित है, और बच की घृत के साथ नस्य देवें । अथवा घृत में अमृतधारा खिलावें या नस्य देवें । यदि पुष्पों में विष सम्पर्क किया गया हो तो उनकी वह सुगन्ध
भी जाती रहती है और रंग भी कुछ बिगड़ जाता है कुम्हलाये हुए से हो जाते हैं और उनके सूंघने से सिर पीड़ा, और नेत्रों से अश्रधारा बहनी आरम्भ हो जाती है, ऐसी दशा में उपरोक्त उपचार ही करना उत्तम है ॥
भी जाती रहती है और रंग भी कुछ बिगड़ जाता है कुम्हलाये हुए से हो जाते हैं और उनके सूंघने से सिर पीड़ा, और नेत्रों से अश्रधारा बहनी आरम्भ हो जाती है, ऐसी दशा में उपरोक्त उपचार ही करना उत्तम है ॥
कर्णतेल विष युक्त किया जावे-
यदि कर्णतेल में विष संयुक्त किया गया हो तो श्रवण शक्ति में अन्तर ज्ञात होना आरम्भ होजाता है। और पीडा आरम्भ हो जाती है, अथवा कान बहने लगता हूं। इस अवस्था में सतावरी का रस घृत और मधु के साथ मिला कर डालें, या अमृतधारा १ बूंद, शहद और घी के साथ मिला कर डालें । यदि अंजन में विष मिलाया गया हो - यदि अंजन में विष हो तो उससे नेत्रों से अश्रपात, जलन या भवों में पीड़ा होने लगती है, दृष्टि मन्द हो जाती है। इसमें तत्काल दो चार पीपल खाकर घी पीना चाहिए । तथा वरना का गूंद और मेढासींगी नेत्रों डालना चाहिए । समुन्दर फेन, गोलोचन इनको मिला कर सुरमा लगावें, या कैथ का फूल वा मेषश्रृंगी का फूल, या भल्लातक पुष्प का अंजन करे, अथवा अमृतधारा घृत मिलाकर नेत्रों में लगाएं और घृत
पीपल पिलावें ॥
पीपल पिलावें ॥
काष्ठोपानत् (खड़ाऊं ) पर विष -
यदि खड़ाऊं पर विष लगाया गया हो तो इन से पाओं में शोथ फफूले पड़ जाना, पीप हो जाना, यह लक्षण होते हैं । उपानत् ( जूता ) आसन, गद्दी, कुरसी, इत्यादि पर विष हो तो भी यही लक्षण होते हैं । यदि दीवारों में विष का संयोग हो तो उनकी चमक जाती रहती है। यदि लग जावे तो उससे जलन और फफूले, फटना होता है। ऐसी दशा में वही लेप करें और वही खिलावें जो ऊपर वर्णन कर आए हैं।।
मिश्रित उपचार
मिश्रित उपचार
महासुगंधि नाम की अगद ( फादजहर ) जो हम अभी लिखेंगे, उसको वैद्य लेप, नस्य, और अंजन आदि सब कामों में प्रयुक्त करें, आंतों में विष प्रवेश हो जावे तो तेज विरेचन देना। और रक्त चाहिए, यदि आमाशय ही में हो तो विशेष वमन कराना, प्रविष्ट हो जावे तो शिरा बेध कराकर अथवा श्रृंगी इत्यादि से जैसा उचित समझें, रक्त मोचन करवाना उचित है मूषिका और अजरोहा हाथ में बांध देने से भी प्रत्येक प्रकार का विष दूर हो जाता है, और विष का कुछ लेशमात्र भी असर नहीं रहता ( मूषिका एक छोटी रोंगटेवाली काले चूहे की तरह बूटी होती है, और अजरोहा एक सफेद कंद सा होता है, अफसोस कि इनका आजकल कुछ पता नहीं लगता है | यह है जो राजा के वास्ते सब से प्रथम सुश्रुत में वर्णन किया है | सोचने से ज्ञात होगा कि हम लोगों को भी इनकी आवश्यकता रहती है । किसी समय कोई वस्तु वैरभाव से आमाशय में प्रवेश कराई जाती हैं, कभी असावधानी से हो जाती है, मुझे स्मरण है एक विवाह में जो उड़द की दाल पकाई गई तो उसमें जमाल गोटा मखौल के वास्ते मिलाया गया था, तो जब ऐसे लक्षण दृष्टिगोचर हों तो हम तत्काल उपाय कर सकते हैं। मान लीजिए कि वत्सनाभि कूटते समय नासिका द्वार में प्रविष्ट हो गया, या संखिया कोई औषधि बनाते समय नेत्रों में लग गया, या इसी प्रकार की अन्य कोई घटनायें होती रहती हैं, हम उसी क्षण जैसा कि लिखा है उपचार कर सकते हैं ||इतने लिखने के पश्चात् सुश्रुत में विषवर्णन आरम्भ होता है
जिसकी मिश्रित बातें हम नीचे लिखते हैं, और प्रत्येक की पृथक २चिकित्सा है, वह तो पश्चात् आना है |
विष दो प्रकार का है । स्थावर - निर्जीव, न हिलने वाला, जैसे
वृक्ष, पाषाण इत्यादि, और जंगम जीवधारी - जैसे सर्प, बिच्छू इत्यादि ॥
स्थावर विष स्थान -
जिसकी मिश्रित बातें हम नीचे लिखते हैं, और प्रत्येक की पृथक २चिकित्सा है, वह तो पश्चात् आना है |
विष दो प्रकार का है । स्थावर - निर्जीव, न हिलने वाला, जैसे
वृक्ष, पाषाण इत्यादि, और जंगम जीवधारी - जैसे सर्प, बिच्छू इत्यादि ॥
स्थावर विष स्थान -
स्थावर विष दश स्थानों में रहता है ।जड़, पत्ते, फल, फूल, छाल, दूध, गोंद, सत्व ( जैसे कि विलायत वालों ने अब कई पदार्थों के सत निकाल लिए हैं, जो हैं )कन्द और धातु । प्रयोजन यह है कि किसी के मूल में विष होता है किसी के फूल में इत्यादि २ ॥में सब गणना ही की गई है कि अमुक इसके आगे सुश्रुतमें विष होता है और अमुक २ के पुष्प में इत्यादि । परन्तु नाम वह ऐसे लिखे हैं कि उनमें से बहुधा समझ में ही नहीं आते हैं । उन नामों का उद्धृत करना व्यर्थ है, अतः उल्लेख नहीं
करेंगे। सुश्रुत इतने समय की प्राचीन पुस्तक है कि उसके नाम और पीछे के नामों में जमीन और आसमान का अन्तर पड गया है, जो नाम समझ में आते हैं उनकी चिकित्सा इत्यादि जब सिद्ध के सम्बन्ध में लिखा जायेगा तब लिखी जावेगी । हां इतना यहां लिख दें कि ८ की मूल में विष होता है ५ पत्ते विष हैं,१२ के फल में विष है, ५ के पुष्प विषैले हैं, ७ की छाल और गून्द में विष है, तीन का दुग्ध विषैला है, धातु, विष हरतालादि बहुत से हैं - १३ कन्द विष है, इसी प्रकार स्थावर विष प्राय: ५५ हुए ||
करेंगे। सुश्रुत इतने समय की प्राचीन पुस्तक है कि उसके नाम और पीछे के नामों में जमीन और आसमान का अन्तर पड गया है, जो नाम समझ में आते हैं उनकी चिकित्सा इत्यादि जब सिद्ध के सम्बन्ध में लिखा जायेगा तब लिखी जावेगी । हां इतना यहां लिख दें कि ८ की मूल में विष होता है ५ पत्ते विष हैं,१२ के फल में विष है, ५ के पुष्प विषैले हैं, ७ की छाल और गून्द में विष है, तीन का दुग्ध विषैला है, धातु, विष हरतालादि बहुत से हैं - १३ कन्द विष है, इसी प्रकार स्थावर विष प्राय: ५५ हुए ||
स्थावरविषप्रकारानुसार संक्षिप्त लक्षण -
विषैला मूल यदि भक्षण किया जाये तो हडफूटन और अचेतना हो जाती है,विषैले पत्ते भक्षण करने से जृम्भा ( जम्हाई ) आती है और जोड़टूटते हैं | विषैले फल भक्षण करने से अण्डकोषों में शोथ चलता और खाने से घृणा हो जाती है | विषैले फल भक्षण से वमन, पेट
का अफरना और अचेतना होती है । छाल और गूंद जिनके विषैले हैं वह खाने से मुख में दुर्गन्ध, सिर पीड़ा, मुख में कफ व स्तंभ, यह लक्षण प्रकट होते हैं, विषैले दुग्धपान से फेन युक्त मुख होना,अतिसार, जिह्वा का ऐंठना यह लक्षण होते हैं और खानिज विष से दिल की पीड़ा, अचेतना और तालु में जलन होती है । यह सब
विष अधिक मात्रा में भक्षण करने के पश्चात् मृत्यु द्वार का दर्शन कराते हैं | विषैले कन्द ( कंद उसको कहते हैं कि फल पृथ्वी के अंदर हों और पते बाहर, जैसे मूली, शलगम | विषैले कन्दों में सब से की जड़ प्रसिद्ध वत्सनाभि या मीठा तेलिया है) १८ प्रकार को होता है, प्रत्येक के पृथक् २ लक्षण होते हैं, उनका हम यहां वर्णन नहीं करते । प्रत्युत हर एक का जब पृथक २ वर्णन होगा तत्र लिखेंगे |
का अफरना और अचेतना होती है । छाल और गूंद जिनके विषैले हैं वह खाने से मुख में दुर्गन्ध, सिर पीड़ा, मुख में कफ व स्तंभ, यह लक्षण प्रकट होते हैं, विषैले दुग्धपान से फेन युक्त मुख होना,अतिसार, जिह्वा का ऐंठना यह लक्षण होते हैं और खानिज विष से दिल की पीड़ा, अचेतना और तालु में जलन होती है । यह सब
विष अधिक मात्रा में भक्षण करने के पश्चात् मृत्यु द्वार का दर्शन कराते हैं | विषैले कन्द ( कंद उसको कहते हैं कि फल पृथ्वी के अंदर हों और पते बाहर, जैसे मूली, शलगम | विषैले कन्दों में सब से की जड़ प्रसिद्ध वत्सनाभि या मीठा तेलिया है) १८ प्रकार को होता है, प्रत्येक के पृथक् २ लक्षण होते हैं, उनका हम यहां वर्णन नहीं करते । प्रत्युत हर एक का जब पृथक २ वर्णन होगा तत्र लिखेंगे |
विषों के गुण -
सर्व विषों में निम्न लिखित गुणों में से कोई होते हैं शुष्क, उष्ण, तेज, सूक्ष्म ( शरीर के सूक्ष्म छिद्र में प्रविष्ट हो जाने वाला ) व्यवायी ( प्रथम शरीर में फैल कर पीछे पाचन होने वाली ) विकाशी ( साथ बंधनों को शिथिल करने वाला ) विशद( जो पिछिल न हो कठिन ) लघु और न पचने वाला, इन गुणों के कारण विष विष हुआ करता है, इस की रूक्षता से वायु का प्रकोप होता है, उष्णता से रक्त तथा पित्त, तीक्ष्णता से अचेतना होती है और संधिबंधन शिथिल हो जाते हैं । सूक्ष्मता के कारण शीघ्र शरीर के प्रत्येक अंग में प्रविष्ट हो कर उनके कार्य को नष्ट भ्रष्ट करता है और आशु अर्थात् शीघ्र रक्त में प्रविष्टता के कारण प्राण हर लेता है और व्यवायि होने के कारण सर्व शरीर को स्वगुणा-नुरूप कर देता है और विकाशी होने के कारण दोष, धातु और
मल को नाश करता है और विशद होने के कारण शक्ति हीन कर देता है और लघु होने के कारण चिकित्सा कुछ साध्य होती है और अपाकि होने के कारण बहुत समय पर्य्यन्त दुःख देता है ।प्रत्येक प्रकार के विषों में इन्हीं लक्षणों और प्रमादों में से कुछ होते हैं, और जिसमें यह दश ही हों वह तत्काल प्राणों का नाश करता है इन लक्षणों में से कोई भी जिसमें हों उसकी विषों में गणना
करनी चाहिए, और इन लक्षणों में से जब कोई भी दृष्टि पड़े तो विष का विचार करके चिकित्सा करे |
मल को नाश करता है और विशद होने के कारण शक्ति हीन कर देता है और लघु होने के कारण चिकित्सा कुछ साध्य होती है और अपाकि होने के कारण बहुत समय पर्य्यन्त दुःख देता है ।प्रत्येक प्रकार के विषों में इन्हीं लक्षणों और प्रमादों में से कुछ होते हैं, और जिसमें यह दश ही हों वह तत्काल प्राणों का नाश करता है इन लक्षणों में से कोई भी जिसमें हों उसकी विषों में गणना
करनी चाहिए, और इन लक्षणों में से जब कोई भी दृष्टि पड़े तो विष का विचार करके चिकित्सा करे |
स्थावर घोर विष भक्षित लक्षण -
निर्जीव विष भक्षण करने से सात वेग होते हैं। प्रथम वेग में जिह्वा काली और करड़ी हो जाती है और मूर्छा और श्वास होते हैं। दूसरे वेग में शरीर कापता और स्वेद युक्त होता है और दाह, कण्डू होती है । तीसरे बेग में तालु में शुष्कता और आमाशय में अत्यन्त पीड़ा होती है। दोनों नेत्र कुरंग हरित २ शोथ युक्त हो जाती है । यह तीन वेग उस समय पर्यन्त होते हैं कि जब तक विष आमाशय में होती है ( और समय होता है कि पम्प के द्वारा अथवा वमन के द्वारा इसको निकाला जावे ) । पश्चात् जब विष अन्त्रियों में प्रवेश कर जाती है तो वहां पीड़ा होती है । हिक्का और कास होता है आंतें कूंजती हैं । और अब चतुर्थ वेग आरम्भ होता है, जब कि शिर बहुत भारी हो जाता है और शिर झुक जाता है। पंचम वेग में में फेन या कफ बहने लगता है और वर्ण विपर्यय हो जाता है और सन्धियों में पीड़ा होती है सर्व दोष प्रकुपित हो जाते हैं और अन्त्र पीड़ा होती है । षष्ट वेग में ज्ञान नष्ट हो जाता है और अतिसार अधिक होती है । सप्तम वेग में स्कन्ध, कटि, पृष्ठ टूटती और श्वासारोध हो जाता है ॥
मुख प्रत्येक बेगोपचार -
प्रथम वेग में ठण्डे पानी से वमन करावें, मधु और घृत के साथ अगद ( वह औषधियां जो विष को दूर करती हैं, सुश्रुत में बहुत से अगद लिखित हैं जो हम अन्त में लिखेंगे ) देवे । द्वितीय वेग में प्रथमवेगानुसार वमन करावे और बमन के पश्चात विरेचन भी दे सकते हैं । तृतीय वेग में अगद पिलावे, नस्य देवे, सुर्मा डाले । चतुर्थ वर्ग में अगद घृत मिला कर पिलावे । पंचम बेग में मधु और मधु काष्ट मिला कर अगद औषधि देबे । षष्ठ वेग में अतिसार चिकित्सा करे और सख्त नस्य देवे और सप्तम वेग हो जावे तो असाध्य है, हां ! तालु में काकपाद सदृश निशतर का निशान करके उस पर रक्त सहित नवीन मांस रख देवे, उससे यदि श्वास खुल आवे और चिकित्सा आरम्भ करें । नो- चेत् वह तो मृत्यु के मुख में है ॥
अगद औषधी -
सुश्रत में अगद ( फाद जहर ) औषधी जो स्थावर विषों के वर्णन में लिखी हैं, निम्न लिखित हैं ।
यवागू अर्थात् आशजो-जंगली तोरी, अजमोद, पान, सूर्यावर्त गिलोय हरीतकी, सिरस, कटभी, लहसोड़ा, सफेद कन्द, दोनों हरिद्रा, साठी श्वेत और रक्त त्रिकुटा ( सूंठ, मिर्च, पीपल ) खरेटी, सारिवा, इन औषधियों को समतौल ( यदि कोई न मिले तब भी बना लें ) लेकर अष्ट गुणा पानी डाल कर आंच पर रक्खें चतुर्थांश रहें तो उतार कर मल छान लेवें और इस जल में त्वचा रहित यव पकावे या यों कहो कि पानी के स्थान में इस काथ में यवागू पकावे । और सरद करके धृत और मधु संयुक्त कर पिलावें । प्रत्येक विष और प्रत्येक वेग में दिया जा सकता है | अजय घृत मधुकाष्ट, अगर, कुष्ट देवदारू, हरण, पुन्नाग, एलवालुक, नाग केसर, नीलोफर, मिश्री, वायबिडंग, चन्दन श्वेत, चन्दन रक्त, पत्रज, फूल प्रियंगू, ध्यामक ( रोहिम घास ) दोनों हरिद्रा, दोनों कटेली, सारिवा, शाल पर्णी, पृष्ट पर्णी, इनको उपरोक्त विधि से कमित करके इसमें समतोल अच्छा घृत युक्त करके धीमी आंच पर पकायें, जब केवल घृत रह जावे तो उतार कर छान रक्खें मात्रा २-४ तोले, प्रत्येक प्रकार के स्थावर विप का हनन करता है ।
यवागू अर्थात् आशजो-जंगली तोरी, अजमोद, पान, सूर्यावर्त गिलोय हरीतकी, सिरस, कटभी, लहसोड़ा, सफेद कन्द, दोनों हरिद्रा, साठी श्वेत और रक्त त्रिकुटा ( सूंठ, मिर्च, पीपल ) खरेटी, सारिवा, इन औषधियों को समतौल ( यदि कोई न मिले तब भी बना लें ) लेकर अष्ट गुणा पानी डाल कर आंच पर रक्खें चतुर्थांश रहें तो उतार कर मल छान लेवें और इस जल में त्वचा रहित यव पकावे या यों कहो कि पानी के स्थान में इस काथ में यवागू पकावे । और सरद करके धृत और मधु संयुक्त कर पिलावें । प्रत्येक विष और प्रत्येक वेग में दिया जा सकता है | अजय घृत मधुकाष्ट, अगर, कुष्ट देवदारू, हरण, पुन्नाग, एलवालुक, नाग केसर, नीलोफर, मिश्री, वायबिडंग, चन्दन श्वेत, चन्दन रक्त, पत्रज, फूल प्रियंगू, ध्यामक ( रोहिम घास ) दोनों हरिद्रा, दोनों कटेली, सारिवा, शाल पर्णी, पृष्ट पर्णी, इनको उपरोक्त विधि से कमित करके इसमें समतोल अच्छा घृत युक्त करके धीमी आंच पर पकायें, जब केवल घृत रह जावे तो उतार कर छान रक्खें मात्रा २-४ तोले, प्रत्येक प्रकार के स्थावर विप का हनन करता है ।
दूषी विष
विषावशिष्ट दोष का नाम दूषी विष है अथवा वह विष अल्प हो, उपाय न किया गया और शरीर के भीतर पुराना हो गया हो या औषधियों से दबाया गया हो, परन्तु निकला न हो, अथवा वह विष ही इस प्रकार का हो कि मृत्यु या भयंकर कोई रोग तो नहीं कर सकता परन्तु कफ में लिपटा हुआ वर्षो शरीर में रहता है || जिस मनुष्य के शरीर में दूषी विष अवशिष्ट हो उसके शरीर और मल के वर्ण में अन्तर आ जाता है । मुख में दुर्गन्धि और रसना शक्ति बिगड़ जाती है, तृषा अधिक हो जाती है। कभी अचेतना और वमन भी हो जाती है । यदि यह आमाशय में रहता है तो उस पुरुष को बात, कफ के रोग होते रहते हैं, और यदि पक्काशय (आंतों) में हो तो बात पित्त के रोग सताते हैं, और सिर के बाल और रोम उखड़ जाते हैं और यदि किसी धातु रस वा रुधिर वा मांस, मेदा, हड्डी या मज्जा वीर्य में स्थित हो जावे, तो जिसमें स्थित हो उसकी खराबियां आरम्भ होती हैं, सरद वायु और मेघ और वर्षा
ऋतु में यह विष उपस्थित होता है । इसके दूषित होने से प्रथम यह लक्षण होते हैं, निद्रा का अधिक आना, शरीर भारी हो जाना जृम्भाधिक्य, रोम हर्षता, अंगड़ाई, पश्चात विष अपना वेग प्रकट करता है। पाचन शक्ति की विनष्टता, भोजन में अरुचि, शरीर पर चकत्ते धप्पड़ इत्यादि, कभी अचेतना, हस्त पाद में शोथ, धातु नाश, जलोदर, वमन, अतिसार, वर्ण परिवर्तन, कदाचित ज्वर, अत्यन्त तृष्णादि उपद्रव होते हैं कोई विष दूषित होकर उन्मादी बनाते हैं अथवा अपस्मारादि करते हैं, कोई पेट फैला देता है, कोई वीर्य विकार कर देता है। कोई स्वर विकृत कर देता है, किसी के कुष्ट के से लक्षण हो जाते हैं । इत्यादि इत्यादि |
ऋतु में यह विष उपस्थित होता है । इसके दूषित होने से प्रथम यह लक्षण होते हैं, निद्रा का अधिक आना, शरीर भारी हो जाना जृम्भाधिक्य, रोम हर्षता, अंगड़ाई, पश्चात विष अपना वेग प्रकट करता है। पाचन शक्ति की विनष्टता, भोजन में अरुचि, शरीर पर चकत्ते धप्पड़ इत्यादि, कभी अचेतना, हस्त पाद में शोथ, धातु नाश, जलोदर, वमन, अतिसार, वर्ण परिवर्तन, कदाचित ज्वर, अत्यन्त तृष्णादि उपद्रव होते हैं कोई विष दूषित होकर उन्मादी बनाते हैं अथवा अपस्मारादि करते हैं, कोई पेट फैला देता है, कोई वीर्य विकार कर देता है। कोई स्वर विकृत कर देता है, किसी के कुष्ट के से लक्षण हो जाते हैं । इत्यादि इत्यादि |
विषारी नाम अगद
यदि कोई दूषी विष का रोगी हो अर्थात् उसके भीतर विष स्थित हो तो उसको स्वेद कर्म करावें और तत्पश्चात् वमन विरेचन देवे और अनन्तर इसके निम्न लिखित अगद पिलाया करें | योग- पीपल, बालछड़, लोध, धनियां, जवाखार, छोटी इलायची, नेत्र वाला, सोना गेरु प्रत्येक करीव ३ माशे लेकर काथ करके मधु मिला कर पिलाया करें । बलवान मनुष्य का दूषी विष शीघ्र दूर हो जाता है। वर्ष व्यतीत होने पश्चात कृछ्र साध्य हो जाता है और यदि कोई कुपथ्य करता रहे तो उपाय हो ही नहीं सकता | इसके आगे जंगम विष अर्थात जीवधारियों के वियों का वर्णन सुश्रुत ने किया है और इसमें जो साधारण बातें हैं उनको हम नींचे उद्धृत करेंगे ||
स्थावर विष के षोडश स्थान
दृष्टि - दिव्य सर्प एक प्रकार के होते हैं जिनकी दृष्टि में विष होता है, जहां दृष्टि उन्होंने की मनुष्य वहां का वहां विष से भर कर रह जाता है इसी प्रकार उनके श्वास में भी विष होता है जिसको फूंक लगा दी उसी समय भस्म हुआ ईश्वर बचावे ||
दृष्टि - दिव्य सर्प एक प्रकार के होते हैं जिनकी दृष्टि में विष होता है, जहां दृष्टि उन्होंने की मनुष्य वहां का वहां विष से भर कर रह जाता है इसी प्रकार उनके श्वास में भी विष होता है जिसको फूंक लगा दी उसी समय भस्म हुआ ईश्वर बचावे ||
दांत - साधारण सर्पों की दांत में विष होता है ॥
डाढ़ों और नख - बिल्ली, कुत्ता, बन्दर, मगर, मेंडक, एक प्रकार की मछली, गोह, शम्बुक ( एक पानी का जानवर ) प्रचालक ( एक प्रकार का कृमि ) छपकली और चार पैर वाले जीव इन की डाढ़ों और नखों में विष होता है |
मल और मूत्र - चिपिट, पिच्चटक, कपायवासिक सर्पपवासिक, तोटकवर्च, कीट कौंडिल्य, इन के विष्टा और मूत्र में विष होता है, इन के सामान्य नामों का कुछ पता नहीं लगता है या तो वह जी ही नहीं रहे या भाषा में बहुत अंतर हो गया है । वीर्य-कई प्रकार के चूहों के वीर्य्य में विष होता है, मकड़ी के लार, मूत्र, विधा, दन्त, नख, वीर्य्य, और आर्तव में विष होता है । मकड़ी कई प्रकार की होती है उनका वर्णन पृथक् २ अवसर पर किया जावेगा ||
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पीठ का डंक-
डाढ़ों और नख - बिल्ली, कुत्ता, बन्दर, मगर, मेंडक, एक प्रकार की मछली, गोह, शम्बुक ( एक पानी का जानवर ) प्रचालक ( एक प्रकार का कृमि ) छपकली और चार पैर वाले जीव इन की डाढ़ों और नखों में विष होता है |
मल और मूत्र - चिपिट, पिच्चटक, कपायवासिक सर्पपवासिक, तोटकवर्च, कीट कौंडिल्य, इन के विष्टा और मूत्र में विष होता है, इन के सामान्य नामों का कुछ पता नहीं लगता है या तो वह जी ही नहीं रहे या भाषा में बहुत अंतर हो गया है । वीर्य-कई प्रकार के चूहों के वीर्य्य में विष होता है, मकड़ी के लार, मूत्र, विधा, दन्त, नख, वीर्य्य, और आर्तव में विष होता है । मकड़ी कई प्रकार की होती है उनका वर्णन पृथक् २ अवसर पर किया जावेगा ||
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पीठ का डंक-
चिच्छू, विश्वम्भर, राजीव मछली, उच्चिटिंग,समुद्र का बिच्छु और भिड़ के पृष्ठ भाग डंक में विष होता है ।चित्रशिर, सराब, कुर्दित शत दारुक, अरिमेदक, और सारिकामुख ( इनके भी भाषा के नाम नहीं मिलते ) इनमें मुख, संदश, विशर्द्धित मूत्र और पुरीप में विष होता है, मक्खी, कणभ और जोंक इन के मुख की पकड़ में विप होता है। विषमृतास्थि और सर्पास्थि यह अस्थि विष हैं । कई प्रकार की मछलियों के पित्तों में विष होता है। सूक्ष्म
तुण्ड, उचिटिंग घरटी (ब्यूठा ) शतपदी ( कनखजूरा ) शुकबल: ( कातरा ) भ्रमर इनके कांटों और तुण्ड में विष होता है। इनके अतिरिक्त जो विषैले जन्तु नहीं कह गए हैं उनका विष सब मुख में जानो, अर्थात् वह काट कर विष देते हैं । इसके आगे जल वायु में विष संचार के लक्षण और उपचार सुश्रुत ने वर्णन किया है, उसके वर्णन से प्रथम इतना लिखना आवश्यक है कि यह सब उपाय -प्लेग के दिनों के वास्ते भी ऐसे ही उपयोगी है -
प्लेग क्या है सुश्रुत ने बताया है कि सर्पों की विष्ठा, मूत्र, वीर्य, अस्थि मांसादि के सड़ने के कारण एक प्रकार के कृमि उत्पन्न होते हैं जो चूहों में प्राप्त होकर माहमारी या प्लेग उत्पन्न करते हैं और इन से वह माहमारी मनुष्यों में संचार करती है और सहस्रों को नष्ट करती है । पस प्लेग एक प्रकार का विष है जिसका असल सर्पों से है गोया कि जंगम विष है और यह जल वायु इत्यादि में प्रवेश कर उसको दूषित करके सहस्रों को नष्ट करता है, यह पुस्तक इस विषय पर नहीं है कि हम पूर्णतया लिख सकें इतने ही से आप समझ गए होंगे कि वह चिकित्सा जो सुश्रुत आगे वर्णन करता है इस वास्ते भी उपयोगी लिखा है कि प्राचीन समय में राजा के दुशमन उसके देश के जलादि में विष फैला देते थे, वा एक राजा जब दूसरे को नष्ट करना चाहता तो ऐसी युक्ति करता था कि उस समयवह विष प्राप्त करके भी प्रसरण कर देता था जिस का वर्णन आता है। हमने ज्ञान से ज्ञात किया है कि, क्योंकि प्लेग भी एक प्रकार का सर्पों का विष ही प्राकृतिक प्रसरण प्राप्त है, इस वास्ते निसंशय यह चिकित्सा और शुद्धता की रीती प्लेग के वास्ते उपयोगी हैं। गो गवर्नमेण्ट से हमारी प्रार्थना है कि डाक्टरों की थियोरियों के साथ एक हमारी इस छोटी सी बात का भी अनुभव करें, और देखें कि
तुण्ड, उचिटिंग घरटी (ब्यूठा ) शतपदी ( कनखजूरा ) शुकबल: ( कातरा ) भ्रमर इनके कांटों और तुण्ड में विष होता है। इनके अतिरिक्त जो विषैले जन्तु नहीं कह गए हैं उनका विष सब मुख में जानो, अर्थात् वह काट कर विष देते हैं । इसके आगे जल वायु में विष संचार के लक्षण और उपचार सुश्रुत ने वर्णन किया है, उसके वर्णन से प्रथम इतना लिखना आवश्यक है कि यह सब उपाय -प्लेग के दिनों के वास्ते भी ऐसे ही उपयोगी है -
प्लेग क्या है सुश्रुत ने बताया है कि सर्पों की विष्ठा, मूत्र, वीर्य, अस्थि मांसादि के सड़ने के कारण एक प्रकार के कृमि उत्पन्न होते हैं जो चूहों में प्राप्त होकर माहमारी या प्लेग उत्पन्न करते हैं और इन से वह माहमारी मनुष्यों में संचार करती है और सहस्रों को नष्ट करती है । पस प्लेग एक प्रकार का विष है जिसका असल सर्पों से है गोया कि जंगम विष है और यह जल वायु इत्यादि में प्रवेश कर उसको दूषित करके सहस्रों को नष्ट करता है, यह पुस्तक इस विषय पर नहीं है कि हम पूर्णतया लिख सकें इतने ही से आप समझ गए होंगे कि वह चिकित्सा जो सुश्रुत आगे वर्णन करता है इस वास्ते भी उपयोगी लिखा है कि प्राचीन समय में राजा के दुशमन उसके देश के जलादि में विष फैला देते थे, वा एक राजा जब दूसरे को नष्ट करना चाहता तो ऐसी युक्ति करता था कि उस समयवह विष प्राप्त करके भी प्रसरण कर देता था जिस का वर्णन आता है। हमने ज्ञान से ज्ञात किया है कि, क्योंकि प्लेग भी एक प्रकार का सर्पों का विष ही प्राकृतिक प्रसरण प्राप्त है, इस वास्ते निसंशय यह चिकित्सा और शुद्धता की रीती प्लेग के वास्ते उपयोगी हैं। गो गवर्नमेण्ट से हमारी प्रार्थना है कि डाक्टरों की थियोरियों के साथ एक हमारी इस छोटी सी बात का भी अनुभव करें, और देखें कि
विष नहीं है और यदि है तो उसको इन
क्या यह वस्तुतः सर्पों का (Occulation) आक्यूलेशन- लिखा है कि राजा के विरोधी मार्ग में या देश में घास जल वायु, चन्न, धूम्न को विषयुक्त कर देते हैं। उन को निम्न लिखित लक्षणों से जान कर चिकित्सा करे, स्मरण रहे कि निम्नलिखित लक्षण
अधिक विष के हैं, अल्प विष हो तो कोई २ लक्षण प्रकट होते हैं ।
जल में विष -- पानी में यदि विष युक्त किया गया हो तो वह कुछ गाढ़ा होजाता है, और उस में तीक्षण गन्ध और फेन होती हैं । और लकीरें सी ज्ञात होने लगती हैं, और मेंडक और मछलियां मरी हुई पाई जाती हैं, और वहां के जीव और तटस्थ जीव उन्मत्त से होकर फिरने लगते हैं, यह लक्षण विषयुक्त जल के जानने चाहियें इस पानी में जो मनुष्य, घोड़े, हाथी, इत्यादि स्नान करें या पीवें उन को विप से संज्ञा नाश ज्वर, ज्वलन, शोदि हो जाते हैं || इस की शुद्धी धाय के फूल घोड़े कन्नी ( पीपल के पत्तों का सा वृक्ष वा पीपल ) देवदारु, नीम, धूप, पाडर, लाललोध, सम्भा, चील वृक्ष, मोखा वृक्ष, किरमाला, प्रसारणी, कशादि वृक्षों के छाल आदि को जलाकर उनकी भस्म को कूओं, तड़ागों, नदियों इत्यादि में डाल देने और थोड़ा जल चाहिये तो घड़ा भर कर उस में एक मुष्टी भस्म को डाल कर हिलाकर रख देवे, जब राख नीचे बैठ जाबे और पानी स्वच्छ हो जावे तो उस का पान करे, मेरी राय में प्लेग के दिनों में यदि गवर्नम्यन्ट सत्र कूपों को इस प्रकार शुद्ध करने का भार लेवें तो सौभाग्य नो चेत् प्रत्येक मनुष्य को जितनी औषधियां मिलें लेकर राख कर के अपने घरों में इस प्रकार पानी पीना उचित हैं || डाक्टरों ने जल शोधन के अर्थ परमैंगेनेट आफ पोटाश निका- ला हैं, और निसंशय यह सर्प विष को उपयोगी है, परन्तु इस के कुओं में डालने से हमारा इस वास्ते संकोच होना चाहिये कि यह स्वयं विष है और विप युक्त जल के भीतर मेंडक मत्स्यादि का मरण जैसाकि उपरोक्त है इस में भी होता है कृमिघ्न अवश्य है | जब रोज कृमि पड़े ठीक है, इस औषधि मिले जल को तो फिर शोधन की आवश्यकता है ||
विषयुक्त पृथ्वी -
यदि विष पृथ्वी में फैलाई गई हो तो उसको पत्थर, स्थान, घाट, मार्ग, सड़क इत्यादि को मनुष्य हाथी, घोड़ा, इत्यायि इत्यादि का जो जो भाग जहां जहां स्पर्श करे वह भाग या तो सूज जावे या जलने लगे अथवा बाल गिरने लगें और नख फटने लगें ॥ इस की शुद्धी वांषी की मृत्ति जल में घोल कर छिडकनी चाहिये वा बायबिडंग, पान, माल कंगनी, इनको पानी में पीस कर
अच्छी प्रकार छिड़क देवें वा अनन्ता और सर्व गन्ध शराव में पीस कर छिड़के और यही देशी फिनाइल समझना चाहिये, यहां अनन्ता और सर्वगन्ध औषधियां छिड़कनी लिखी हैं । पीपल, दूष, हरड़, गिलोय, सफेद घास, अरणी, कल्हारी, धमासा, आंवला, चोक, इन सब का नाम संस्कृत में अनन्ता है । यह सब डालनी चाहिये या जितनी मिलें ॥
और सर्वगन्ध निम्नलिखित का नाम है, दालचीनी, तेजपात,इलायची, नाग केसर, सरद चीनी, लौंग, तगर, सुंदरस, इन सब औषधियों को शराब में पीस कर रक्खें गाढ़ा गाढ़ा बोतलों में भर रक्खें, जब आवश्यकता हो पानी में मिला कर छिड़कें, और तुलना करें इस सुगन्धित डिसइन् फिकैन्ट का फिनाइल दुर्गन्ध युक्त सिर पीड़ा उत्पन्न करने वाली से, लेकिन क्या किया जाये सस्ती हैं और सब डाक्टर लोग उसको उपयोग में लाते हैं ॥
अच्छी प्रकार छिड़क देवें वा अनन्ता और सर्व गन्ध शराव में पीस कर छिड़के और यही देशी फिनाइल समझना चाहिये, यहां अनन्ता और सर्वगन्ध औषधियां छिड़कनी लिखी हैं । पीपल, दूष, हरड़, गिलोय, सफेद घास, अरणी, कल्हारी, धमासा, आंवला, चोक, इन सब का नाम संस्कृत में अनन्ता है । यह सब डालनी चाहिये या जितनी मिलें ॥
और सर्वगन्ध निम्नलिखित का नाम है, दालचीनी, तेजपात,इलायची, नाग केसर, सरद चीनी, लौंग, तगर, सुंदरस, इन सब औषधियों को शराब में पीस कर रक्खें गाढ़ा गाढ़ा बोतलों में भर रक्खें, जब आवश्यकता हो पानी में मिला कर छिड़कें, और तुलना करें इस सुगन्धित डिसइन् फिकैन्ट का फिनाइल दुर्गन्ध युक्त सिर पीड़ा उत्पन्न करने वाली से, लेकिन क्या किया जाये सस्ती हैं और सब डाक्टर लोग उसको उपयोग में लाते हैं ॥
विषयुक्त घास तृण इत्यादि --
यदि घास विषैला किया गया हो तो उस के चरने से घोड़े हाथी थक जावें, वा अचेत हो जावें, वमन आने लगे और अति सार होने लगें, अथवा मरही जावें ऐसे घास को दूर कर देना चाहिये ||
वाद्योपचार -
चान्दी का बुरादा, पारद, इन्द्र गुप्ता ( बीर बहुटी )सम भाग इनके समान हिंगुल डालकर घी कंयार के गूदे में मिलाकरबाजों, ढोलादि पर लेप कर देवें, और बजवावें, इन के शब्द से भी विष निवृत्ति होती है । पशुओं में जब कभी रोग आता है, तो लोग केवल ढोल बज वाते हैं, इन औषधियों को लगाकर बजवाना चाहिये इस आवाज से न जाने उन मवेशियों में क्या शक्ति उत्पन्न हो जाती है, कि जिस से विष दूर हो जाता है || विष युक्त वायु और धूम्र यदि वायु वा धूम में विष संयुक्त किया जावे, तो पक्षी पृथ्वी पर गिरने लगते हैं, और मनुष्यों के कास, प्रतिश्याय शिर पीड़ा और ने भरोग हो जाते हैं।
वायु शोधन-
लाक्षा, हरिद्रा, अतिविपा, हरीत की, मुस्ता, रेणुका, इलायची, पचज, दारचीनी, लोध्र, तज, कूठ, प्रियंगू, इनको अग्नि में जला कर धूम्र कर के वायु को शुद्ध करले, इस के अतिरिक्त हमारी सम्मति में निम्न लिखित औषधियां भी डाली जाबें तो उत्तम है, निम्ब, बायबिडंड, गिलोय, अर्क पुष्प, शीशम, देवदारु, कपूर, जाय- फल, जातिपत्र, धूपलकड, जटामासी, मुश्कवाला, इत्यादि इसी प्रकार वायु शोधन के लाभ देखने हों तो हमारी पुस्तक "प्लेग के प्रतिबंधक उपाय" मंगवाकर पढ़ें यह वर्णन यहां शेष हुवा, और जे मिश्रित वार्त्तायें हैं, नीचे लिखते हैं । विष में सर्व दोषों को दूषित कर देने वाली शक्ति होती है, विष के कारण यह अपना कार्य त्याग देते हैं, अतः विष अपक्क रह जाता है, पश्चात कफ से कंठा वरोध के कारण श्वास रुक जाता है, इस कारण से यदि मनुष्य मरता नहीं है तथापि मृत सदृश पड़ा रहता है, ( सर्पदंशित कदाचित् इसी कारण से तीसरे दिवस जी उठता है ) जो विष अत्यन्त उष्ण है उसको शीतलोपचार उपयोगी होता है, सामान्य कृमि का विष तेज उष्ण नहीं होता है, अपितु वात, कफ जन्म होता है, बात कफ का जो विष हो उस में सोज होती है, इस में उष्णोपचार, स्वेदन कर्म अग्नि तापादि श्रेष्ठ है, विष का कार्य है कि सर्व शरीर में व्यास होकर ( इस का वर्णन हम सर्प के विष के वर्णन में पूर्ण तया करेंगे ) कन्धों में आकर स्थित हो जाता है, इस वास्ते विषयुक्त शस्त्रों से विधे हुये और सर्पदंशित के मांस को जो खाजाबे तो उसमें विष के उपइव आजाते हैं, और अधिक हो तो
मर जाता है, पस विष से मरे का तत्काल मांस भक्षण न करे तथा न किसी सर्पादि के डसे वा विष युक्त शस्त्र से काटे हुये का मांस भक्षण करे एक दिन तक यदि ज्ञात होकि तीक्षण विष नहीं है, नहीं वह पशु विसंज्ञ हुवा है और न मरा है, तो उस के स्कन्ध पारत्याग कर अबारीष्ट मांस भक्षण कर सकता है, मांस भक्षी सदैव स्मरण रक्खें कि स्कन्धों के समीप का मांस अभक्ष्य है जिसको विषैले जंतु ने काटा हो उस के लक्षण गृह धूम सदृश वायुशरित मल त्याग करे, पेट फूल जावे, रुधिर अत्यन्त उष्ण हो, अश्रपात हो, रंग बिगड़ जावे, शक्तिहीन हो जावे, मुख से फेन युक्त वमन हो तो जान ले कि इसने विष भक्षण किया है, अथवा किसी विषधारी जानवर ने डसा है |
हृदय चेतना का स्थान है, विप इस में व्याप्त जाता है, इसी कारण विषे से मरे हुये का हृदय जलता नहीं
असाध्य लक्षण - जिस दंशित मनुष्य को शस्त्र से काटने पर रुधिर न निकले, और कोड़ा चाबुकादि मारने से रेखा न पड़े और शीतल जल क्षेपण से रोम खड़े न तो यह असाध्य लक्षण जानें ॥ जिस की जिव्हा काली पड़ जावे वा श्वेत हो जावे और केशो याट न आरम्भ हों, नासिका टेढ़ी हो जावे, भाषण गूंगा पड़ जाबे और दंशित स्थान पर ऊदा शोथ हो जावे और हनुस्थिरता हो जावे तो यह भी असाध्य जानो जिस के मुख से कफ की वर्त्तिसी घनी गाढ़ी गिरें, और मुख गुदा और लिङ्ग से रुधिर गिरे, सर्व दन्त गिर पड़ें, तो वह भी असाध्य है । जो अति उन्मादी हो भाषण न कर सके वर्ण बिगड़ जाये, और बहुत हानियां हो कर मरने वाले की सी दशा होने लगे वह भी असाध्य है |
( सुश्रुतस्य साधारण वर्णनंपूर्तिमगमत् ) विषधारी और प्राण हारी पार्थिव सर्पादि को दूरी करण
वर्णन --
ग़ार के पत्ते जिस स्थान पर फैला दिये जावें, वहां कोई पार्थिव कृमि नहीं आते गार एक वृक्ष शाम देश में होता है | नील मणि का अंगूठी मे धारण रखना भी इनको समीप नहीं आने देता शिलरस जैतून के तेल में घोलकर या सुनोदर के पत्ते और ताजा मुरवोल कूट छान कर जैतून के तैल में पका कर रख छोड़ें, जब चाहें उसे शरीर पर मर्दन कर दें, कोई पार्थिव कृमि नहीं दुःख
देगा, यदि घर में लकलकया मोर या बारहसिंघा या जंगली चूहा या न्योला पालित हो तो उत्तम है, बहुत से कीड़े इनके भय से नहाँ निकलते, पृथक २ का वर्णन भी करते हैं ||
देगा, यदि घर में लकलकया मोर या बारहसिंघा या जंगली चूहा या न्योला पालित हो तो उत्तम है, बहुत से कीड़े इनके भय से नहाँ निकलते, पृथक २ का वर्णन भी करते हैं ||
न्योला -
तितली की गन्ध से भागता है | दीमक स्योक - चुनार या दूर्वा के पत्तों के धूम से मर जाती है, कनेर के कथित पानी के छिड़कने से भी मर जाती हैं, जिस घर में हुद हुद ( खाती चड़ा ) हो वहां दीमक नहीं रहती है, हरड़ को जलाकर उस की भस्म छिड़कने से भी जाती रहती है, यदि मिट्टी के तेल में नीला थोथा घोल कर छिडक दें तो पुस्तकों में कदापि दीमक नहीं लगती, हींग तैल में मिलाकर छिड़कने से भी दीमक भाग जाती है, दीवारों पर नीलाथोथा कलई ये मिलाकर सफैदी करे ।।
पतङ्गा--
चिराग में प्याज़ रखदें तो बहुत ही कम आता है ।सिंह -- कुकड़े की आबाज से भागता है, चूहे और भेड़िये से भय खाता है, जहां जंगली प्याज हो उस स्थान के समीप नहीं आता, अग्नि से भागता है, कहते हैं यदि न्योले की जिन्हा जूती के भीतर सींदी जावे तो सर्वफाड़ खाने वाले पशु इस के पहनने वाले के आधीन होते हैं, यदि वह चाहे तो सिंह पर आरोहता कर सकता है, सिंह उसे कुछ दुःख नहीं देगा बकायन के पत्ते सर्व फाड़खाने बाले पशुओं
की मौत का कारण है |
मच्छर -
की मौत का कारण है |
मच्छर -
भूसी, सरब की लकड़ी सरब के पत्ते राल, प्याज के बीज, मोरद के पत्ते, गन्धक, भेड़ की मींगणी, गूगल, कालादाना, गाय का गोबर, अनार की लकड़ी, माजूफल, बारह सिंगा का सींग, वा फिटकड़ी की धूनी से भागते हैं, गुलसनोवर १ भाग, अजवायन ३ भाग, कड़वे तेल में पकाकर धूनी करे, और जैतून का तैल मर्दन करें मच्छर न काटेंगे । यदि सख की टहनी और पत्ते कपड़ों में रख दें तो मच्छर समीप न आवेंगे, यदि हरताल, नोसादर को चरबी
संयुक्त करके किसी स्थान में कुछ दिवस धूनी दें तो मच्छर उत्पन्न न होंगे, अनुभूत है । यदि कलंजी वा हरमल वा अमरबेल वा तितली वा राकला का काथ घर में छिड़क दें तो कुल मच्लर निकल जाते हैं, जेतून का तैल नीबू के अर्क में मिलाकर शरीर पर मर्दन करें तो वह दुःख दाई न होंगे, दालचानी और लौंग के पानी को मिलाकर छिड़- कने से मच्छर समीप नहीं आते मिट्टी के तैल की गन्ध से भी मच्छर और खटमस दूर होते हैं । साबून और मिट्टी के तैल को मिलाकर गाढ़ा कर के रखना, और हाथों व पाओं पर मलना एक अंग्रेज का अनुभव है | सरू (सरव ) की काष्ट और पत्त, तुलसी के पत्ते, अरंड के पत्ते, बिस्तरे पर रखने से मच्छर नहीं आते, तुलसी विशेष रीति
से गृहों में लगानी चाहिये |
पिस्सू - इन्द्रायण ( तुम्मा) शुष्क तितली, काली अमलतास,गोखरू पानी में काथ कर के घर में छिड़क दें, सब पिस्सू मर जावेंगे, वा भाग जावेंगे, गन्धक, कनेर के पत्तों का धूम भी इनको मारदेता है, टेसू के पुष्प या यवानी अजरायल विस्तरे पर रखने से पिस्सू नहीं आते ॥
सर्प- प्रत्येक प्रकार का सर्प बारहसिंघा के सींग, बकरी के सुम और वालों, गन्धक, मनुष्य के केशों, राल, गूगल, भिरोजा, अनार की लकड़ी, सोसन की जड़, अकरकरहा, की धूनी से भागता है, यदि घर में सर्प निकलता है तो शुक (तोता ) का पंख रक्खें
पुनः दृष्टि गोचर न होगा, गन्धक और नोसादर सिरका में मिलाकर या राई में मिलाकर सर्प की बम्बी में डाल दें, सर्प या तो मर जावेगा या भाग जावेगा, राई और नोसादर के पानी को घोलकर के भी डा- लते हैं, जहर मोहरा असल सर्प मुख में प्रविष्ट किया जावे तो तत्काल मर जाता है, यदि नोशादर मुँह में घोलकर सर्प पर कुल्ली कर दें तत्र भी मृत प्रायः होजाता है, यदि धागे को बिरोज़ा में लिप्टाकर के अपने समीप बिछा दें तो कोई जानवर समीप नहीं आता, नीलमणि का हाथ में रखना अधिक उपयोगी है, सर्प समीप नहीं आता बल्कि कहते हैं जब इस पर दृष्टि पड़ती है तो उसी क्षण मर जाता है, क्योंकि उस के नेत्र पानी होकर बह जाते हैं, कुटकी कूटकर सर्प के बिल में डालने से वह मर जाता है, यदि मरे चमगाड़र को घर में गाढ़ दें तो सर्प भाग जाता है, प्याज और लशुन की धूनी से भी भाग जाता है, जमालगोटा महीन पीस कर जहां संशय हो वहां छिड़क दें, सर्प को धूआं बहुत बुरा लगता है, कपड़े का धूआं पहुं- चावे या गन्धक का तीक्ष्ण धूम तो वहां से कहीं चला जायेगा, सर्प भक्षी बकरे का चर्म घर में रखने से सब सर्प
भाग जाते हैं, और पहाड़ों के भीतर समीप नहीं आते, सर्प भक्षी बकरा ( मारखोर ) कहते हैं उस घर केवल सर्प भक्षण करता है, मरुवा जिस घर में हो
में भी सर्प नहीं आता है । खगेला एक काले रंग का पाऊं वाला जानवर है, जो दीवारों की जड़ों और कूड़ों में रहता हैं, पंख वाला और निर्पक्षी, दोनों प्रकार का होता है, चुनार के पत्तों की धूनी और काथ से भागता और मर जाता है ||
मक्खी - हरताल की धूनी, नकाछेकनी, और कुटकी का क्वाथ, प्याज जंगली की गन्ध से मरजाती है, कपूर जेतून का तेल हरताल से भाग जाती है, कहते हैं कि यदि नकछिकनी और हरताल की मक्खी बनाकर किसी स्थान पर रख दें, तो मक्खियां वहां से भाग जाती हैं, नीलाथोथा इसे मारदेता है, अकरकरहा, गन्धक, निरमिशी की जड़, कोपानी में पीसकर दीवारों पर छिड़कने से सब मक्षिकायें निकल जावेंगी या मर जावेगी, किसी भी जीव को मारना ठीक नहीं, भगाना ही ठीक है बिलायत से मक्खीमार कागज भी आते हैं, वह भी ठीक है |
भेड़िया -- एक घास खानिकुज्जयब यूनानी पुस्तकों में लिखी है उस से भेड़िया मर जाता है, वह उस स्थान से भागता है, कि जहां जंगली प्याज विद्यमान हो, यदि भाला को इस के अर्क में लिप्त कर के भेड़िये को घाव युक्त करें तो वह जीवितन रहेगा, कुटकी भी इस को मार देती है ||
संयुक्त करके किसी स्थान में कुछ दिवस धूनी दें तो मच्छर उत्पन्न न होंगे, अनुभूत है । यदि कलंजी वा हरमल वा अमरबेल वा तितली वा राकला का काथ घर में छिड़क दें तो कुल मच्लर निकल जाते हैं, जेतून का तैल नीबू के अर्क में मिलाकर शरीर पर मर्दन करें तो वह दुःख दाई न होंगे, दालचानी और लौंग के पानी को मिलाकर छिड़- कने से मच्छर समीप नहीं आते मिट्टी के तैल की गन्ध से भी मच्छर और खटमस दूर होते हैं । साबून और मिट्टी के तैल को मिलाकर गाढ़ा कर के रखना, और हाथों व पाओं पर मलना एक अंग्रेज का अनुभव है | सरू (सरव ) की काष्ट और पत्त, तुलसी के पत्ते, अरंड के पत्ते, बिस्तरे पर रखने से मच्छर नहीं आते, तुलसी विशेष रीति
से गृहों में लगानी चाहिये |
पिस्सू - इन्द्रायण ( तुम्मा) शुष्क तितली, काली अमलतास,गोखरू पानी में काथ कर के घर में छिड़क दें, सब पिस्सू मर जावेंगे, वा भाग जावेंगे, गन्धक, कनेर के पत्तों का धूम भी इनको मारदेता है, टेसू के पुष्प या यवानी अजरायल विस्तरे पर रखने से पिस्सू नहीं आते ॥
सर्प- प्रत्येक प्रकार का सर्प बारहसिंघा के सींग, बकरी के सुम और वालों, गन्धक, मनुष्य के केशों, राल, गूगल, भिरोजा, अनार की लकड़ी, सोसन की जड़, अकरकरहा, की धूनी से भागता है, यदि घर में सर्प निकलता है तो शुक (तोता ) का पंख रक्खें
पुनः दृष्टि गोचर न होगा, गन्धक और नोसादर सिरका में मिलाकर या राई में मिलाकर सर्प की बम्बी में डाल दें, सर्प या तो मर जावेगा या भाग जावेगा, राई और नोसादर के पानी को घोलकर के भी डा- लते हैं, जहर मोहरा असल सर्प मुख में प्रविष्ट किया जावे तो तत्काल मर जाता है, यदि नोशादर मुँह में घोलकर सर्प पर कुल्ली कर दें तत्र भी मृत प्रायः होजाता है, यदि धागे को बिरोज़ा में लिप्टाकर के अपने समीप बिछा दें तो कोई जानवर समीप नहीं आता, नीलमणि का हाथ में रखना अधिक उपयोगी है, सर्प समीप नहीं आता बल्कि कहते हैं जब इस पर दृष्टि पड़ती है तो उसी क्षण मर जाता है, क्योंकि उस के नेत्र पानी होकर बह जाते हैं, कुटकी कूटकर सर्प के बिल में डालने से वह मर जाता है, यदि मरे चमगाड़र को घर में गाढ़ दें तो सर्प भाग जाता है, प्याज और लशुन की धूनी से भी भाग जाता है, जमालगोटा महीन पीस कर जहां संशय हो वहां छिड़क दें, सर्प को धूआं बहुत बुरा लगता है, कपड़े का धूआं पहुं- चावे या गन्धक का तीक्ष्ण धूम तो वहां से कहीं चला जायेगा, सर्प भक्षी बकरे का चर्म घर में रखने से सब सर्प
भाग जाते हैं, और पहाड़ों के भीतर समीप नहीं आते, सर्प भक्षी बकरा ( मारखोर ) कहते हैं उस घर केवल सर्प भक्षण करता है, मरुवा जिस घर में हो
में भी सर्प नहीं आता है । खगेला एक काले रंग का पाऊं वाला जानवर है, जो दीवारों की जड़ों और कूड़ों में रहता हैं, पंख वाला और निर्पक्षी, दोनों प्रकार का होता है, चुनार के पत्तों की धूनी और काथ से भागता और मर जाता है ||
मक्खी - हरताल की धूनी, नकाछेकनी, और कुटकी का क्वाथ, प्याज जंगली की गन्ध से मरजाती है, कपूर जेतून का तेल हरताल से भाग जाती है, कहते हैं कि यदि नकछिकनी और हरताल की मक्खी बनाकर किसी स्थान पर रख दें, तो मक्खियां वहां से भाग जाती हैं, नीलाथोथा इसे मारदेता है, अकरकरहा, गन्धक, निरमिशी की जड़, कोपानी में पीसकर दीवारों पर छिड़कने से सब मक्षिकायें निकल जावेंगी या मर जावेगी, किसी भी जीव को मारना ठीक नहीं, भगाना ही ठीक है बिलायत से मक्खीमार कागज भी आते हैं, वह भी ठीक है |
भेड़िया -- एक घास खानिकुज्जयब यूनानी पुस्तकों में लिखी है उस से भेड़िया मर जाता है, वह उस स्थान से भागता है, कि जहां जंगली प्याज विद्यमान हो, यदि भाला को इस के अर्क में लिप्त कर के भेड़िये को घाव युक्त करें तो वह जीवितन रहेगा, कुटकी भी इस को मार देती है ||
छपकली - -
केशर से भागती है, बिल्ली तितली से भागती है, कड़वा बादाम, जंगली प्याज, उसे मार देते हैं । सूस अर्थात् वह कीड़ा जो कपड़ों या पुस्तकों में लग जाता है, यदि आजबाद, कलोंजी, पोदीना, लीमों का छिलया, निम्बू का पत्ता, संदूक आदि में डाल दें, तो कीड़ा उत्पन्न न होगा, खाली अलमारी में थोड़ासा मिट्टी का तैल छिड़क दें और सूखजाने पर पुस्तकें रख कर, ऊपर के खाने में कूठ पारद कर्पूर के रखने से पुस्तकें मिट्टी और दमिक से रक्षित रहती हैं, धनिया, चन्दनादि सुगन्धित पदार्थ की पौटली या अत्तर रखना भी कपड़ों को बचा रखता है, तमाकू में कीड़े आने नहीं देता, फिनाईल की गोलियां भी आज कल रखते हैं 11
बिच्छू- -
बिच्छू- -
पिस्सू जिस वस्तु से भागता है, बिच्छू भी उसी से भागता है, गन्धक का धूआं या जंगली तुलसी के पानी के छिड़कने से बिच्छू भाग जाते हैं, यदि कुछ मरे विच्छू जला दिये जावे तत्र भी दूसरे भाग जाते हैं। फिटकड़ी, कलोंजी, जीरा, कंदल, जुन्द, गूगल, बकरी का खुर जला हुवा समतोल लेकर गोलियां बनाकर कई बार जलावें, सब बिच्छू भागजायेंगे | गन्धक, हड़ताल, गधे का सुम, बकरी की चरबी, गोघृत की धूनी भी यही प्रभाव रखती है । जंगली तुलसी, मूली, मूली के पत्ते शिलारस, बकरी की मींगनी, हड़ताल समभाग लेकर चरबी में मिलाकर बिल के समीप दग्ध करें, या थोड़े से मूली
के बीज उस के भीतर डाल दें, तो वह बाहर न निकलेगा | बाबूना इन्द्रायण हरमल, लहशुन, सम्भालु के काथ के छिड़कने से भी यही परिणाम निकलता है, हींग का पानी जंगली प्याज का काथ अनुभूत है । पित्त प्रकृति वाले रोजादार का थूक या कोषित मनुष्य का फेन बिच्छू पर गिर कर मार देता है । यदि मृत चील को सुखा कर घर में रक्खें तो सर्प बिच्छ आदि भाग जाते हैं
चूहा -
के बीज उस के भीतर डाल दें, तो वह बाहर न निकलेगा | बाबूना इन्द्रायण हरमल, लहशुन, सम्भालु के काथ के छिड़कने से भी यही परिणाम निकलता है, हींग का पानी जंगली प्याज का काथ अनुभूत है । पित्त प्रकृति वाले रोजादार का थूक या कोषित मनुष्य का फेन बिच्छू पर गिर कर मार देता है । यदि मृत चील को सुखा कर घर में रक्खें तो सर्प बिच्छ आदि भाग जाते हैं
चूहा -
यदि किसी चूहे को बादी खस्सी ( अण्ड कोष रहित ) करके या पुच्छ काट कर छोड़ दें तो सब चूहे उसके भय से भाग जाते हैं । कहते हैं कि मरे चूहे को लेकर पेट चीर कर निकाल डाले कि सड़े नहीं फिर किसी डोरा में बांध कर लटकावे तो सब चूहे भयभीत होकर भाग जावेंगे। मुरदार संग, कुटकी, संखियां, मंडूर, केशर, अजवायन, करम शाक की जड़, जंगली प्याज से चूहे मर जाते हैं । और फिटकरी के धुयें से भी भाग जाते हैं | एक चूहा पकड कर उसे तारकूल या नीला थोथा के पानी वा नीले रंग में गोता दे कर छोड़ दें तो भी चूहे भाग जाते हैं, तारकोल और गंधक का तेजाब मिलाकर बिलों पर लगा देने से चूहे वहां से चले जाते हैं। कहते हैं कि घर में कोई बर्तन पानी से भर कर उनके वास्ते रख दें तो फिर तो पुनः वह अन्य किसी वस्तु को नहीं काटते क्यों कि जब चूहा पिपासातुर होता है, तब हा प्रत्येक वस्तु को काटता है। प्रायः लोग संखिया को आटे में मिलाकर गोलियां बना कर मिला मार देते हैं, यदि पानी न मिले तो मर जाते हैं । बहुधा चूने से मारते हैं, पोटास इनके समीप रखने से भी भाग जाते हैं ।
खटमल -
तुलसी से भागते हैं और मर जाते हैं। कहते हैं किखिसका जो कांटेदार फल होता है काट कर पलंगों के नीचे टुकड़े २ करके फैला दें तो सब खटगल उनके भीतर इकट्ठे हो जाते हैं, पारा को अण्डे की सफेदी में खरल करके मिला लें पश्चत् यहां तक फेंटें कि मरहम हो जाने पर इत्यादि के द्वारा मंचान के छिद्रों में लगावें दो चार बार ऐसा करने से दूर हो जायेंगे ||
हाथी -
अग्नि और भारी शोरगुल से भागता है, यदि छछूंदर को मारकर सुखाकर पीसकर समीप रक्खे तो उस की गन्ध के कारण कोई पशु समीप नहीं आता, प्रत्युत उस की शरीर पर गर्दन कर के मत्तेभ के सन्मुख जावे तो वह भी भागता है ।
बन्दर -
बन्दर -
कुत्ते से डरता और भागता है, यदि मनुष्य भी इस से न डरे तो वह पास नहीं आता बल्कि उस से भागता है । यूक (जू) - यदि जन्म दिवस में बालक को जीरा के जल में स्नान करावे तो पुनः आयु पर्यन्त बालक के जूं नहीं पड़ती, यदि वस्त्र या शरीर पर पारह मर्दन करदें, तो सब जूएं तत्काल मर जाती हैं ।
कुत्ता -
यदि कुत्ते की जिव्हा जूती में किसी पड़त के भीतर सिल- वायें तो उसके पहनने बाल को कोई कुत्ता नहीं भौंकता और न ही अन्य जंगली जानवर | कुचला उसे मार देता है, हरीतकी की मांगी वा कुटकी भी कुत्ते को मार देती है - यदि चरख की जिव्हा प्राप्त हो तो कुत्ता नहीं काट सकता ॥मधु मक्खी - दुम्बा मांस के अग्नि पर भूने जाने की गन्ध से, चुनार के पत्तों की धूनी से, गन्धक, लशुन के धुएं से भागती हैं, यदि खतमी का सुरस खब्बाजी का सुरस और जैतून शरीर पर मर्दन करे तो मक्खी या भिड़ समीप नहीं आती ।
चीता - एक घास खानिकुन्नम्र कहलाती है उस से चीता मर जाता है, यदि चरख का तैल शरीर पर मर्दन करके चीते के सन्मुख जावे तो काटने के स्थान में खिलाड़ियां करेगा । च्यून्टे च्यून्टियां- गन्धक, हींग, पानी में घोलकर उनके छिद्रों पर बाहिर गिरा दें तो बाहिर नहीं निकलेंगी । यदि चुम्बक पाषाण उनके विल पर रख दें तो सब भाग जायेंगे, यह भी अनुभूत लटका दें बताते हैं कि कोई वस्तु हो मीठी खड्डी कैसी ही हो श्वास बंध करके रख दें, जब तक कोई मनुष्य उसके हाथ न लगावेगा वह वस्तु च्यूंटियों से सुरक्षित रहेगी | महुवे के बीजों का तेल निकालने के पश्चात जो खली रहती है वह बहुत उपयोगी। प्रमाणित हुई है, वृक्षों के समीप दबा दें तो वृक्षों के पार्थिव कृमि मर जगते हैं। घर में जला या दबा दें तो मच्छर, खटमल, च्यूटी इत्यादि दूर हों, भिड़ गन्धक की धूनी या लशुन की धूनी देने से अथवा मिट्टी के तैल की धूनी से भागते हैं ||
चीता - एक घास खानिकुन्नम्र कहलाती है उस से चीता मर जाता है, यदि चरख का तैल शरीर पर मर्दन करके चीते के सन्मुख जावे तो काटने के स्थान में खिलाड़ियां करेगा । च्यून्टे च्यून्टियां- गन्धक, हींग, पानी में घोलकर उनके छिद्रों पर बाहिर गिरा दें तो बाहिर नहीं निकलेंगी । यदि चुम्बक पाषाण उनके विल पर रख दें तो सब भाग जायेंगे, यह भी अनुभूत लटका दें बताते हैं कि कोई वस्तु हो मीठी खड्डी कैसी ही हो श्वास बंध करके रख दें, जब तक कोई मनुष्य उसके हाथ न लगावेगा वह वस्तु च्यूंटियों से सुरक्षित रहेगी | महुवे के बीजों का तेल निकालने के पश्चात जो खली रहती है वह बहुत उपयोगी। प्रमाणित हुई है, वृक्षों के समीप दबा दें तो वृक्षों के पार्थिव कृमि मर जगते हैं। घर में जला या दबा दें तो मच्छर, खटमल, च्यूटी इत्यादि दूर हों, भिड़ गन्धक की धूनी या लशुन की धूनी देने से अथवा मिट्टी के तैल की धूनी से भागते हैं ||
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